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कोरेगांव-भीमा: "अगर मैं मर भी गई तो अपने भगवान बाबासाहेब के घर मरूंगी"

झुकी हुयी कमर, धीमी चाल और आंखों पर चश्मा लगाए 73 साल की वीनू मेंडे अपने हाथों में दो झोले उठाये लाखों की भीड़ में अकेली घूम रही थीं. भीड़ इतनी थी कि अच्छे-खासे सेहतमंद, घूमने फिरने वाले लोग भी देख कर तौबा कर लें. कोरेगांव-भीमा युद्ध की 205वीं सालगिरह के दिन वीनू उस लाखों की भीड़ में पेरणे गांव स्थित जयस्तंभ के दर्शन करने के लिए 600 किलोमीटर दूर वर्धा से अकेली आयी थीं.

कहीं लाउडस्पीकर पर किसी बच्चे या बड़े के गुम हो जाने की घोषणा हो रही थी, तो कहीं किसी नेता के आगमन को लेकर भीड़ बेकाबू हो रही थी. कहीं किसी मंच पर डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर की शान में गायक रैप कर रहे थे, तो कहीं भाषण हो रहे थे. वहां उमड़े उस जनसैलाब में वीनू भीड़भाड़ से जुड़ी कठनाइयों को सहते हुए धीमे-धीमे जयस्तंभ की ओर बढ़ रही थीं और वो आखिरकार स्तंभ के पास पहुंच ही गईं. वहां एक पुलिस वाले की मदद से उन्होंने दर्शन किए, अपनी चप्पलें उतार कर जयस्तंभ के सामने हाथ जोड़े और उस प्रांगण से बाहर आ गईं.

जयस्तंभ

जब उनसे जयस्तंभ को सम्मान देने के लिए इतनी जद्दोजहद उठाने की वजह के बारे में पूछा, तो वह कहती हैं, "जिस जातिवाद के दंश ने हमारी पीढ़ियां तबाह कर दीं. जिसकी वजह से लोगों की बात सुनने पर हमारे लोगों के कानों में सीसा पिघला दिया जाता था, परछांई पड़ने पर मारा जाता था, कुएं से पानी भरने पर पाबंदी थी, महिलाओं को जब-तब बेआबरू किया जाता था - उस जातिवाद से निजात दिलाने में, उसके खिलाफ लड़ने के लिए बाबासाहेब ने क्या कुछ नहीं किया. जब उन्होंने हमारे लिए इतना कुछ किया तो मैं क्या उनके सम्मान में इतना भी नहीं कर सकती? वो थे, तो आज हम हैं, वरना हम लोग आज भी झूठन खा रहे होते.”

वीनू मेंडे

वीनू बताती हैं, "मैं पिछले 8-10 सालों से इधर आ रही हूं. मेरे गांव की और भी महिलाएं आयी हैं यहां, लेकिन अभी मेरी उनसे मुलाकात नहीं हुई. मैं इस बार अकेली ट्रेन पकड़कर आयी हूं. मैंने जातिवाद को जीवन भर झेला है. शहरों में भले ही इतना आम न हो लेकिन गांव में अभी भी जातिवाद होता है. यहां आना इसलिए जरूरी है कि यह जगह हमारे लिए एक प्रेरणा स्त्रोत है. जब हमारी जाति के 500 महार पेशवाओं की इतनी बड़ी फौज को धूल चटा सकते हैं, तो हम भी जातिवाद को पछाड़ सकते हैं. यह जगह हमें इस बात का एहसास दिलाती है कि हम भी किसी से कम नहीं."

गौरतलब है कि हर साल एक जनवरी को पेरणे गांव स्थित जयस्तंभ पर कोरेगांव-भीमा युद्ध की याद में लोग श्रद्धांजलि देने आते हैं. यूं तो कोरेगांव-भीमा में मौजूद जयस्तंभ के बारे में 2018 के पहले आमतौर पर लोगों को पता नहीं था, लेकिन 2018 में यहां युद्ध की 200वीं सालगिरह के दौरान हुई हिंसा के बाद कोरेगांव-भीमा का नाम पूरे देश भर में मशहूर हो गया. उसके बाद से यहां आने वालों की तादाद में भी खासा इजाफा हुआ है.

दलितों के अनुसार कोरेगांव-भीमा युद्ध में 500 महार सैनिकों ने, पेशवाओं की 28,000 की फौज के एक जनवरी 1818 को दांत खट्टे कर दिए थे. जिसके बाद भीमा नदी के पास हुए इस युद्ध की जीत की याद में अंग्रेजों ने यहां मौजूद विजय स्तंभ बनवाया था.

गौरतलब है कि एक जनवरी 1927 के दिन डॉ आंबेडकर ने विजय स्तंभ आकर श्रद्धांजलि दी थी. वह इस युद्ध के उदाहरण के जरिये महार समाज के लोगों को जातिवाद के खिलाफ लड़ने के लिए भी प्रोत्साहित करते थे. डॉ आंबेडकर के यहां आने के बाद दलितों के बीच इस स्थान का महत्व और ज़्यादा बढ़ गया था. वह उससे अपने समाज और पहचान से जोड़ कर देखने लगे थे. हालांकि इस युद्ध के इतिहास को लेकर इतिहासकारों, शिक्षाविद और विद्वानों की अलग-अलग राय है.

वीनू मेंडे की ही तरह 62 साल की मीराबाई कदम भी कई सालों से जनवरी की पहली तारीख को कोरेगांव-भीमा आती हैं. ज़्यादातर वो एक दिन पहले ही यहां पहुंच जाती हैं. इस बार भी वो 31 दिसंबर 2022 को अपनी बहन चंद्रभागा और तीन साल के पोते राजवीर के साथ वहां पहुंच गई थीं. उन्होंने खुले में ही चादर और कंबल के सहारे जयस्तंभ के प्रांगण में रात गुजारी, और तड़के ही वह उठकर जयस्तंभ को मानवंदना देने जाने के लिए तैयार थीं.

मीराबाई कदम बायीं ओर

पनवेल से आईं मीराबाई कहती हैं, "मैं यहां पिछले 15 सालों से आ रही हूं. बस दो साल कोविड के चलते नहीं आ पाई थी. 15 साल पहले यहां के बारे में लोगों को ज्यादा पता नहीं था. यहां का पता 10 लोगों से पूछना पड़ता था, तब जाकर यहां पहुंच पाते थे. लेकिन साल 2018 के बाद यह जगह देश भर में मशहूर हो गई और लाखों की तादाद में लोग इधर आने लगे हैं. मैं साल 2018 में भी यहां अपनी बहन के साथ आयी थी. पत्थरबाजी हो रही थी, हम लोगों ने अपने सर पर अपने झोले रखे और जैसे तैसे बच-बचा कर यहां से निकल लिए. जो भी हुआ बहुत गलत हुआ, लेकिन तब से दलितों के बीच इस जगह का महत्व और बढ़ गया था. मैं 2019 में भी यहां आयी थी. बहुत लोग जाने के लिए मना कर रहे थे कि दंगा हो जाएगा, इस साल भी यही बोल रहे थे. मैंने उन लोगों से कहा कि दंगा होगा तो होगा, अगर मैं मर भी गई तो अपने भगवान बाबासाहेब के घर मरूंगी. अगर बाबासाहेब नहीं होते तो आज तक हमारे गलों में मटके और पीठ पर झाड़ू बंधी होती.”

आमतौर पर भी कई लोग जो महाराष्ट्र के अन्य जिलों और ग्रामीण भाग से आते हैं, वे एक दिन पहले ही कोरेगांव-भीमा पहुंच जाते हैं. पेरणे स्थित जयस्तंभ के आसपास प्रशासन द्वारा किए गए इंतजामों के तहत बनाए गए पंडालों में, या खुले में रात गुजारते हैं. खाना साथ में लेकर आते हैं या वहीं बना कर खाते हैं.

रमेश वानखेड़े दायीं ओर

बुलढाणा से आये रमेश वानखेड़े कहते हैं, "मैं पहली बार यहां 2017 में आया था. यह हमारा तीर्थ है. बाबासाहेब के अलावा कोई भगवान नहीं है. वही हमारे भगवान हैं.”

सोलापुर जिले से आए हुए भास्कर गायकवाड़ कहते हैं, "यहां आने के बाद मुझे एक प्रेरणा मिलती है. 500 महारों ने पेशवाओं की 28,000 की फौज को हराया था. इससे यह साबित होता है कि हमारे पूर्वज कितने बहादुर थे. उनकी यह बहादुरी ही हमें प्रेरणा देती है और यह एहसास करवाती है कि हम दलित किसी से भी कम नहीं हैं. मैंने यहां 2017 से ही आना शुरू किया है. 2018 में जब यहां हिंसा हुई थी तब मैं यहां नहीं था. ब्राह्मणवादी सोच रखने वाले जात-पात के नाम पर दंगा कर माहौल खराब कर देते हैं. लेकिन पुलिस ने उस हिंसा के लिए, कुछ समाजसेवियों को उसका जिम्मेदार ठहरा कर जेल में बंद कर दिया है. यह सरासर गलत है. बिना वाजिब सबूतों के किसी को कैद करना गलत है, यह संविधान के खिलाफ है.”

गौरतलब है कि कोरेगांव-भीमा में हुई हिंसा के मामले में पुणे पुलिस ने 2020 तक 16 लोगों को गिरफ्तार कर लिया था, जिसमें समाजसेवी, मानवाधिकार कार्यकर्ता-वकील, यूनिवर्सिटी प्रोफेसर आदि शामिल हैं. गिरफ्तार किए गए लोगों में से एक 84 साल के फादर स्टैन स्वामी की 2021 में मृत्यु हो गई थी. गौरतलब है कि पुणे पुलिस की जांच शुरुआत से ही संदेहास्पद थी. कंप्यूटर फॉरेंसिक और इनफार्मेशन सिक्योरिटी के क्षेत्र में काम करने वाली एक अमेरिकन कंपनी आर्सेनल कंसलटिंग ने अपनी जांच में पाया था कि कोरेगांव-भीमा केस में गिरफ्तार किए गए रोना विल्सन, स्टैन स्वामी आदि के कम्प्यूटरों को हैक कर, उसमें ईमेल और दस्तावेजों (जो इस केस में जांच एजेंसियां सबूत के तौर पर इस्तेमाल कर रही हैं) को डाला गया था.

बसवराज बंसोड़े

मुंबई के वर्ली इलाके में नारियल पानी की दुकान लगाने वाले बसवराज बंसोड़े कहते हैं, "मैंने बाबासाहेब आंबेडकर के बारे में कई किताबें पढ़ी हैं और उनमें से कुछ किताबों में कोरेगांव-भीमा का जिक्र था, तब से मैंने यहां आना शुरू कर दिया था. लगभग 17 साल हो गए यहां आते-आते. 2018 में जो दंगे हुए थे वह बहुत गलत हुआ था. उन दंगों की वजह से एल्गार परिषद में आए हुए लोगों को उसका जिम्मेदार ठहराकर उसका आरोपी बना दिया. एल्गार परिषद में ऐसी कोई बात नहीं हुई थी जिससे कि दंगे भड़कें. पुलिस ने तो उन लोगों को भी गिरफ्तार कर लिया जो वहां आए ही नहीं थे."

गौरतलब है कि हाल में कोरेगांव-भीमा जुडिशल कमीशन के तत्कालीन एसडीओपी (सब डिवीजनल पुलिस ऑफिसर) गणेश मोरे ने भी कहा था कि एक जनवरी 2018 के दिन कोरेगांव-भीमा में हुई हिंसा का 31 दिसंबर 2017 को पुणे के शनिवारवाड़ा में हुई एल्गार परिषद से कोई संबंध नहीं था. उन्हें अपनी जांच में ऐसी कोई भी जानकारी और सबूत नहीं मिला है जिससे कहा जा सके कि एल्गार परिषद की वजह से कोरेगांव-भीमा में दंगे हुए थे.

स्वर्णा कांबले

रिपब्लिकन युवा मोर्चा की प्रदेश अध्यक्ष 35 वर्षीय स्वर्णा कांबले चार साल की उम्र से अपने परिवार वालों के साथ पेरणे स्थित स्तंभ पर जा रही हैं. वह कहती हैं, "2018 के पहले तक यहां ज्यादा लोग नहीं आते थे. ज्यादा से ज्यादा दिन भर में तकरीबन 10,000 लोग आते थे. लेकिन 2018 में काफी तादाद में लोग आये थे और जब यहां हिंसा हो गई, उसके बाद यहां आने वालों की तादाद बढ़ती चली गई. 2018 की हिंसा के बाद देश भर में कोरेगांव-भीमा को लोग जानने लगे.”

वे आगे कहती हैं, “दरअसल वो हिंसा इसलिए की गई थी जिससे यहां पर लोग न आएं, लेकिन उसका असर बिलकुल उलटा हुआ. उस हिंसा के बाद पूरे महाराष्ट्र से और अन्य प्रांतों से दलित यहां आने लगे. अब लाखों की तादाद में लोग यहां आने लगे हैं. यहां आने के बाद लोगों में एक भावना आई है कि दलित कमजोर नहीं हैं. अगर कोई उन्हें परेशान करेगा तो उसे माकूल जवाब देने की उनमें ताकत है. कोरेगांव-भीमा का युद्ध, महार सैनिकों द्वारा जातिप्रथा को तोड़ने की एक पहल थी."

जहां कई लोग सालों से एक जनवरी के दिन कोरेगांव-भीमा आ रहे हैं, वहीं न्यूज़लॉन्ड्री की मुलाकात कुछ ऐसे ही लोगों से भी हुई जिन्होंने हाल ही में आना शुरू किया है. 22 साल की दिव्या शिंदे उन्हीं में से एक हैं.

वह कहती हैं, "मैं यहां पहली बार आई हूं. यह जगह सिर्फ इसलिए खास नहीं है कि यहां हमारे महार पूर्वजों ने पेशवा की सेना को हराया था, और मैं यह सिर्फ इसी वजह से नहीं आयी हूं. मैं यहां इसलिए आयी हूं क्योंकि अभी भी हमें जातिवाद का सामना करना पड़ता है. जब में स्कूल में थी तब मेरे कुछ सहपाठी मुझे अक्सर बोलते और जताते थे कि मैं अलग जाति की हूं. बचपन से मैं जातिसूचक शब्द सुनती आ रही हूं.”

दिव्या आगे कहती हैं, “अब मैं एयरपोर्ट पर काम करती हूं और वहां पर भी कोई न कोई यह भेदभाव कभी कभार कर ही देता है. रेस में लाइन, सबके के लिए एक समान होनी चाहिए, न कि अलग-अलग. यहां पर आने वाले अधिकतर लोग मेहनत-मजूरी करने वाले लोग हैं, जो अपना पैसा खर्च कर अपने बाल-बच्चों के साथ यहां आते हैं. सिर्फ इसलिए कि उन्हें यहां हौसला मिलता है, उन्हें महसूस होता है कि उनकी भी कोई पहचान है, उनका भी कोई इतिहास है."

टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल साइंसेस में पढ़ने वाले स्वप्निल जोगदंडे कहते हैं, "मैं महार हूं. मेरे पिता भारतीय सेना की महार रेजिमेंट में थे. यह मेरे लोग हैं. अगर मैं ही इधर नहीं आऊंगा तो फिर कौन आएगा? मुझे मेरे लोगों में जागरूकता लानी है. शहरों में तो यह काम हो रहा है, लेकिन गांव अभी भी इस मामले में पिछड़े हुए हैं. मैंने तय किया है कि मैं जहां पर भी रहूं, हर साल एक जनवरी को इधर हर हाल में आऊंगा. यह जगह एक हिम्मत देती है कि हां हम भी कुछ हैं. यह जगह हमें हमारी पहचान पर गर्व करना सिखाती है.”

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