Opinion
मुफ्त सुविधाओं का कच्चा-चिट्ठा: वो सब जो आप जानना चाहते थे, लेकिन पूछ नहीं पाए
अपना औचित्य बनाए रखने और बहस को जारी रखने के लिए सोशल मीडिया को जटिल सामाजिक विषयों की लगातार जरूरत रहती है. पिछले कुछ हफ्तों में "रेवड़ी बांटने" या "सरकार द्वारा दी जाने वाली मुफ्त सुविधाएं" ऐसा ही एक विषय बन गई हैं.
जुलाई के मध्य में, उत्तर प्रदेश में बुंदेलखंड एक्सप्रेस-वे के उद्घाटन के अवसर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वोट पाने के लिए रेवड़ी संस्कृति को बढ़ावा देने, या मुफ्त उपहारों के वितरण के बारे में बात की थी. वहीं उच्चतम न्यायालय मुफ्त उपहारों को विनियमित करने के निर्देश की मांग करने वाली, अश्विनी कुमार उपाध्याय द्वारा दायर एक जनहित याचिका (पीआईएल) पर विचार कर रहा है. उपाध्याय भारतीय जनता पार्टी के सदस्य हैं.
केंद्र सरकार इस जनहित याचिका के समर्थन में सामने आई है. अगस्त की शुरुआत में सॉलिसिटर-जनरल तुषार मेहता ने कहा, "चीज़ों का मुफ्त वितरण, अनिवार्य रूप से भविष्य में आर्थिक आपदा की ओर ले जाता है और वोटर भी अपने चुनने के अपने अधिकार का प्रयोग एक सूचित व बुद्धिमान निर्णय के रूप में नहीं ले पाते हैं."
इस दौरान कई अर्थशास्त्रियों, राजनेताओं और विशेषज्ञों ने इस मुद्दे पर ध्यान दिया है. यह लेख भी इस पूरे मामले को विस्तार से देखने का प्रयास है. एक फ्रीबी क्या है? क्या इस शब्द को वास्तव में परिभाषित किया जा सकता है? जैसा कई लोग कह रहे हैं, क्या केवल राज्य सरकारें ही मुफ्त उपहार देती हैं? अलग-अलग प्रकार के मुफ्त उपहार क्या हैं? क्या सारे मुफ्त के उपहार दिखाई देते हैं?
इस लेख में हम ऐसे ही कई अन्य सवालों के जवाब देने की कोशिश करेंगे.
फ्रीबी क्या हैं?
बिल्कुल सामान्य भाषा में, फ्रीबी या मुफ्त उपहार सरकार द्वारा जनता को मुफ्त में या उसकी लागत से कम दाम में दी जाने वाली कोई सेवा या कोई वस्तु है.
केंद्र सरकार द्वारा संचालित सार्वजनिक वितरण प्रणाली (पीडीएस) को ही लें. खाद्य सुरक्षा की जरूरतों को पूरा करने के लिए यह प्रणाली बेहद कम दामों पर गेहूं और चावल बेचती है. या महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना या मनरेगा को देखें, जो हर ग्रामीण परिवार को 100 दिनों के काम की गारंटी देती है.
शायद एक पूरी तरह से मुक्त बाजार को समर्पित अर्थशास्त्री ही इन योजनाओं को वोट खरीदने के लिए सरकार द्वारा दी जा रही मुफ्त सुविधाओं के रूप में देख सकता है. लेकिन तब भी, कोविड के दौरान पीडीएस और मनरेगा, दोनों ही देश के एक बड़े तबके के लिए बेहद फायदेमंद साबित हुए हैं. कोविड मरीज़ों की संख्या में कमी आने के बाद भी वे लगातार फायदेमंद ही साबित हुए हैं.
मिड-डे मील को ही देखें, जिसमें सरकारी प्राथमिक विद्यालय बच्चों को, दोपहर में पका हुआ भोजन उपलब्ध कराते हैं. इसे राष्ट्रीय स्तर पर 1995 में लॉन्च किया गया था, लेकिन इसे भारत में पहली बार, 1956 में तमिलनाडु के स्कूलों में मुख्यमंत्री के कामराज द्वारा लॉन्च किया गया था. 1956-57 के राज्य के बजट में, प्राथमिक स्कूलों में पढ़ने वाले और गरीब परिवार के बच्चों के लिए साल में 200 दिन मुफ्त दोपहर के भोजन का प्रावधान था.
1982 में, तमिलनाडु के तत्कालीन मुख्यमंत्री एमजी रामचंद्रन ने इस योजना को आगे बढ़ाया. उन्होंने योजना के कवरेज को आंगनवाड़ियों में पढ़ने वाले दो से पांच वर्ष की आयु के सभी बच्चों और तमिलनाडु के ग्रामीण क्षेत्रों में प्राथमिक विद्यालयों में पढ़ने वाले पांच से नौ वर्ष की आयु के सभी बच्चों को योजना के अंदर लेकर इसे आगे बढ़ाया. ऐसा करने पर उन्हें बहुत से लोगों की आलोचना का सामना भी करना पड़ा.
बहरहाल, इस योजना ने स्कूलों में बच्चों की हाजिरी में सुधार किया और अनुपस्थिति को भी कम किया. अंत में योजना की सफलता के कारण इसे राष्ट्रीय स्तर पर लॉन्च किया गया.
या फिर 2006 में शुरू की गई बिहार में मुख्यमंत्री साइकिल योजना को ही लें. इस योजना के तहत राज्य सरकार ने युवा लड़कियों को साइकिल खरीदने में मदद की. स्वभाव से शक्की व्यक्ति ये तर्क देगा कि ये लड़कियां बड़ी होकर उस राजनीतिक दल को वोट देंगी, जिसने इस योजना को शुरू किया था. लेकिन तब भी, इस योजना से माध्यमिक विद्यालयों में लड़कियों की भर्ती में 32 प्रतिशत की वृद्धि हुई.
यह साफ़ है कि अधिकांश अर्थशास्त्री और राजनेता इन योजनाओं को पूरी तरह से वोट खरीदने के लिए दिए जाने वाली “फ्रीबी” नहीं मानेंगे.
योग्यता पर आधारित फ्रीबी या गैर-योग्यता वाली फ्रीबी
उपरोक्त को देखते हुए अर्थशास्त्री योग्यता पर आधारित या मेरिट फ्रीबी और नॉन-मेरिट फ्रीबी यानी जिसके लिए कोई योग्यता न ज़रूरी हो, की बात करते हैं. मेरिट फ्रीबी का एक अच्छा उदाहरण सब्सिडी या मुफ्त शिक्षा है. जहां एक तरफ सरकार को हर साल इसकी कीमत चुकानी पड़ती है, वहीं दूसरी तरफ इससे आने वाले वर्षों में देश में कहीं ज्यादा शिक्षित कर्मचारियों की संख्या भी बढ़ती है. साथ ही देश के काम करने के लायक लोगों के अधिक कुशल होने की संभावना बढ़ जाती है.
इससे लोगों को अन्य तरीकों से भी फायदा होता है. जैसा हांस रॉसलिंग, ओला रॉसलिंग और एना रॉसलिंग अपनी किताब Factfulness: Ten Reasons We’re Wrong About The World – And Why Things Are Better Than You Think में लिखते हैं, “डेटा से पता चलता है कि दुनिया में बच्चे के ज़िंदा रहने में आधी वृद्धि सिर्फ इसलिए होती है क्योंकि उनकी माताएं पढ़ और लिख सकती हैं.”
यही वजह है कि साक्षरता का प्रसार परिवारों को कम बच्चों की ओर ले जाता है. जिसके बदले में लोग अधिक बचत करते हैं और एक देश में आर्थिक बचत बढ़ जाती है. चार्ली रॉबर्टसन, अपनी किताब The Time-Travelling Economist: Why Education, Electricity and Fertility Rate are Key to Escaping Poverty में लिखते हैं, “जब परिवारों में बहुत सारे बच्चे होते हैं, तो बच्चे ही माता-पिता की 'बचत' बन जाते हैं. जब तक वे किशोरावस्था में पहुंचते हैं, उम्मीद होती है कि वो कमाना शुरू कर दें….आखिर में वे आपकी (माता-पिता) पेंशन बन जाते हैं और वृद्धावस्था में रहने की जगह देते हैं.”
यहां तर्क ये है कि जब परिवारों में कई बच्चे होते हैं, तो उन्हें बचत की आवश्यकता नहीं होती. इसके अलावा, अगर एक परिवार में पांच या छह बच्चे हैं तो इस बात की संभावना बहुत अधिक है कि ऐसे परिवार के पास चाहते हुए भी "बचत के लिए कोई पैसा ही नहीं होगा."
लेकिन जैसे-जैसे शिक्षा का स्तर बढ़ता है, लोगों के बच्चे कम होते हैं और उनकी बचत बढ़ती है. ये बचत तब समग्र रूप से अर्थव्यवस्था की मदद करती है. रॉबर्टसन लिखते हैं, "इन बचतों का लाभ पूरे देश में अलग-अलग जमा पूंजी के माध्यम से प्राप्त होता है, जिसे एक फैलती बैंकिंग प्रणाली में रखा जाता है जो पैसे की लागत को कम करता है. बचत की मात्रा बढ़ती है. जिससे और ज्यादा कारखानों का निर्माण रोजगार पैदा करने के लिए किया जा सकता है और इस बचत की उधारी की लागत भी कम हो जाती है, जिससे ज्यादा से ज्यादा कारखाने लाभदायक हों और तेजी से विस्तार कर सकें.”
इसलिए, एक मेरिट फ्रीबी समय के साथ एक सकारात्मक चक्र बना सकती है. इतना ही नहीं, यह कमोबेश स्पष्ट है कि देश में अधिक साक्षर राज्य आर्थिक मोर्चे पर भी बेहतर स्थिति में हैं.
दूसरी तरफ, एक नॉन-मेरिट फ्रीबी आमतौर पर कोई ऐसी चीज होती है, जो कोई सरकार या राजनीतिक दल देता है, और इससे सामान्यत: बड़े पैमाने पर समाज को लाभ भी नहीं होता है. इसे समझने के लिए उदाहरण के तौर पर राजनीतिक दलों के चुनाव जीतने पर नागरिकों को, किसी उपभोक्ता वस्तु की पेशकश करने को लें. इस प्रकार के मामले में लाभ अल्पकालिक है. लेकिन ऐसा होते हुए भी, ऐसी फ्रीबी के लिए भी एक सकारात्मक तर्क दिया जा सकता है.
उदाहरण के लिए महिलाओं को मिक्सर ग्राइंडर देने का वादा करने वाले किसी राजनीतिक दल को देखें. ये तर्क दिया जा सकता है कि मिक्सर-ग्राइंडर के उपयोग से एक महिला के जीवन में समय की बचत होगी और वो उस समय का उपयोग, शायद अपनी बाकी जिम्मेदारियों को पूरा करने के लिए कर पाएंगी.
या कोई राजनीतिक दल युवा छात्रों को लैपटॉप या मोबाइल फोन दे सकता है. यहां भी एक तर्क दिया जा सकता है कि इंटरनेट पर अच्छा और मुफ्त कंटेंट उपलब्ध होने से लैपटॉप या मोबाइल फोन की उपलब्धता, सीखने की प्रक्रिया को कहीं सुलभ और तेज कर सकती है.
बात का सार यह है कि एक मेरिट फ्रीबी कहां समाप्त होती है और कहां एक गैर-मेरिट फ्रीबी शुरू होती है, इनके बीच यह लकीर खींचना हमेशा आसान नहीं होता.
एक अन्य उदाहरण पंजाब जैसे राज्य का है जो किसानों को मुफ्त बिजली प्रदान करता है. यह एक साफ नॉन-मेरिट सब्सिडी का उदाहरण है, जो ऐसे व्यवहार को प्रोत्साहन देती है जो समाज के लिए बड़े पैमाने पर अच्छा नहीं है. ऐसे अनेक मामले हैं, जब किसान जरूरत न होने पर भी अपने पंप सेट चालू छोड़ देते हैं. इसके अलावा, पंजाब के किसानों द्वारा एक अर्ध-शुष्क क्षेत्र में भी चावल जैसी ज्यादा पानी की फसल उगाने के पीछे भी मुफ्त बिजली एक बड़ा कारण है. इससे राज्य में जलस्तर भी गिर गया है.
बेशक, यह एक ऐसी राजनीतिक पसंद है जिसे तीन दशकों से राज्य के लोग और उनके राजनेता लेते आ रहे हैं. ऐतिहासिक कारणों की वजह से केंद्र सरकार, भारतीय खाद्य निगम के माध्यम से, पंजाब में किसानों से सीधे बड़ी मात्रा में चावल खरीदती है और यह भी उन्हें इस फसल को उगाने के लिए प्रोत्साहित करता है. हालांकि पंजाब को कम चावल और कम पानी मांगने वाली फसलें उगाने की जरूरत है, लेकिन यह मुद्दा अभी भी अटका हुआ है. (यह एक लंबा और जटिल मुद्दा है जिसके बारे में मैं लिख चुका हूं.)
मेरिट रहित फ्रीबी का एक और बड़ा उदाहरण विधानसभा चुनाव से पहले राज्य सरकारों द्वारा अनधिकृत कॉलोनियों का नियमितीकरण है. यह इन कॉलोनियों में रहने वाले लोगों को तत्काल लाभ प्रदान करता है, लेकिन तब भी, यह मध्यम से लंबी अवधि में सिस्टम को नुकसान पहुंचाता है और बेईमान लोगों को ऐसी जमीन बेचने के लिए प्रोत्साहित करता है, जो उनकी नहीं है. कई निर्दोष लोग इस तरह की ठगी में फंस जाते हैं.
देखा और अनदेखा
अब तक हमने जिन मुफ्त सुविधाओं के बारे में बात की है, ये वो कथित फ्रीबी हैं जिनके बारे में हर कोई बात कर रहा है. हम उन्हें देखी जाने वाली फ्रीबी कह सकते हैं.
लेकिन ऐसी कई अनदेखी मुफ्त सुविधाएं हैं, जिनके बारे में अर्थशास्त्री बात नहीं कर रहे. और ये मुफ्त सुविधाएं केंद्र सरकार (मौजूदा और उससे पहले वाली) की ओर से दी गई हैं.
कृषि ऋण माफी के मामले को ही लें. ये छूट केंद्र सरकार के स्तर पर, और किसी राज्य में विधानसभा चुनाव लड़ने वाले हर राजनीतिक दल द्वारा पेश की गई है. अर्थशास्त्री और बैंकर इन छूटों के हमेशा से आलोचक रहे हैं.
इतना ही नहीं, मार्च 2017 में भारतीय स्टेट बैंक की तत्कालीन अध्यक्ष अरुंधति भट्टाचार्य ने कहा था, “आज लोन वापस आ जाएंगे क्योंकि सरकार इनके भुगतान करेगी, लेकिन जब हम फिर से लोन देंगे तो किसान अगले चुनाव का इंतजार करेंगे और एक और छूट की उम्मीद रखेंगे."
इस दृष्टिकोण से यह क्रेडिट संस्कृति को खराब करता है. यह नियमित रूप से कर्ज चुकाने वाले लोगों को एक बेवकूफ की तरह चित्रित करता है. साथ ही लंबी अवधि में यह बैंकिंग के व्यवसाय को भी नुकसान पहुंचाता है, जो लोगों द्वारा लिए गए ऋणों को चुकाए जाने पर निर्भर है.
यह एक और परिस्थिति को भी बढ़ाता है, जिसमें बैंक, छूट दिए जाने के बाद किसानों को ऋण देने से हिचकते हैं. जैसा कि सितंबर 2019 में भारतीय रिज़र्व बैंक (आरबीआई) द्वारा प्रकाशित कृषि ऋण की समीक्षा के लिए गठित आंतरिक कार्य समूह की रिपोर्ट में बताया गया, “ऋण माफी के पक्ष में आर्थिक तर्क, लाभार्थियों के ऊपर ऋण के बोझ को कम करने में निहित है, जो उन्हें काम, उत्पादक निवेश के लिए सक्षम बनाता है और आर्थिक गतिविधियों को बढ़ावा देता है (निवेश, उत्पादन और खपत.)”
ऐसा इसलिए, क्योंकि कृषि पर निर्भर अत्यधिक ऋणी परिवारों की ऋण माफी, उनके लिए ऋण की संभावनाओं को खोल सकती है, जिससे वे नए निवेश कर सकते हैं. लेकिन तभी, जब बशर्ते उनके लिए बैंक ऋण की उपलब्धता, बैंकिंग सिस्टम में परिवार की बदली हुई कर्ज के जोखिम की प्रोफाइल से प्रभावित न हो.
परेशानी यह है कि कृषि ऋण माफी, बैंकों द्वारा किसानों को ऋण के हस्तांतरण को प्रभावित करती है. "ऋण माफी कार्यक्रमों के वर्षों में, कृषि ऋण संवितरण में गिरावट" है. यह उधार आने वाले वर्षों में वापस उछल जाता है. इसके अलावा, कृषि ऋण लेने वाले कर्जदार "भविष्य में मिलने वाली माफ़ी की अपेक्षा में, लोन को न चुकाने का निर्णय रणनीति बना कर लेते हैं."
तो कृषि ऋण माफी एक ऐसी नॉन-मेरिट फ्रीबी है जिसे देखा जा सकता है, और अर्थशास्त्री व बैंकर इसे अच्छी नजर से नहीं देखते हैं. लेकिन ये लोग शायद ही कभी कॉर्पोरेट ऋणों को खारिज किए जाने की बात करते हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि राइट-ऑफ़ यानी खारिज करने और छूट के बीच अंतर है. छूट एक सरकारी निर्णय है, जबकि खाते में से खारिज करना एक अकाउंटिंग परिणीति है.
जब कोई सरकार, चाहे राज्य हो या केंद्र - कृषि ऋण माफी की घोषणा करती है, तो उसे बैंकों को माफी की राशि लौटानी होती है. बस उधार लेने वाले ऋण को अपनी जेब से नहीं चुकाते हैं.
एक राइट-ऑफ या बट्टे खाते में डालना या खाते से खारिज कर देना, थोड़ा अलग तरीके से काम करता है. सामान्य भाषा में, चार साल से खराब चल रहे ऋणों को राइट-ऑफ के माध्यम से बैंकों की बैलेंस शीट से हटाया जा सकता है. एक बैड लोन या ख़राब ऋण, एक ऐसा लोन है जिसका 90 दिनों या उससे अधिक की अवधि में कोई भुगतान नहीं हुआ है. इस अर्थ से, राइट-ऑफ़ एक अकाउंटिंग परिणीति है.
इन चार वर्षों के दौरान, एक बैंक किसी खराब ऋण के लिए पर्याप्त रूप से प्रावधान या पर्याप्त धन को अलग कर देता है, ताकि इस ऋण को खारिज किया जा सके. इसका ये मतलब नहीं कि किसी बैंक को किसी ऋण को खारिज करने से पहले चार साल तक इंतजार करना पड़ता है. अगर ऐसा लगता है कि कोई ऋण वसूल नहीं हो पायेगा तो बैंक इसे चार साल से पहले भी खारिज कर सकता है, बशर्ते उसके लिए पर्याप्त रूप से प्रावधान किये गए हों.
नीचे चार्ट पर एक नज़र डालें. यह 2004-05 से 2021-22 तक भारत में वाणिज्यिक बैंकों (सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों, निजी बैंकों, विदेशी बैंकों और लघु-वित्त बैंकों) द्वारा बट्टे खाते में डाले गए ऋणों की कुल राशि दिखता है.
वास्तव में पिछले आठ सालों में 12.61 लाख करोड़ रुपये के ऋणों को बट्टे खाते में डाला गया है. ये ऐसे कर्ज हैं जिन पर डिफॉल्ट किया गया. इनमें से अधिकांश सरकारी बैंकों और सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों (पीएसबी) द्वारा दिए गए कॉर्पोरेट ऋण हैं.
राइट-ऑफ शब्द बताता है कि एक बार ऋण को खारिज कर दिया गया, तो वो हमेशा के लिए चला गया और अब वसूली योग्य नहीं है. भारत में चीजें थोड़ी अलग तरह से काम करती हैं. सच्चाई तो यह है कि बट्टे खाते में डाले गए लगभग सभी खराब ऋणों को तकनीकी राइट-ऑफ कहा जाता है.
आरबीआई तकनीकी राइट-ऑफ को बैंक के प्रधान कार्यालय के स्तर पर ख़ारिज किये गए खराब ऋणों के रूप में परिभाषित करता है. लेकिन ये ऋण शाखाओं के बही खातों पर खराब ऋणों के रूप में बने रहते हैं. इसलिए, यह अपेक्षित होता है कि शाखा स्तर पर वसूली के प्रयास जारी रहें.
सवाल यह है कि पिछले कुछ वर्षों में बट्टे खाते में डाले गए ऋणों में से कितने वास्तव में वसूल किए गए? नवंबर 2013 में आरबीआई के तत्कालीन डिप्टी गवर्नर डॉ केसी चक्रवर्ती के भाषण से प्राप्त डेटा से पता चलता है कि 2000-01 और 2012-13 के बीच बैंकों द्वारा खारिज किये गए ऋणों के पांचवें हिस्से से भी कम की वसूली हो पाई.
इसके अलावा, अगस्त 2018 में प्रकाशित 16वीं लोकसभा की आर्थिक स्थायी समिति की 68वीं रिपोर्ट में कहा गया, "आरबीआई ने अपने उत्तर-साक्ष्य जवाब में, अप्रैल 2014 से अप्रैल 2018 की अवधि में ख़ारिज किये गए ऋणों की वसूली की दर के संबंध में निम्नलिखित प्रस्तुत किया, “4 साल की अवधि, वित्त वर्ष 2014-15 से वित्त वर्ष 2017-18 तक, के लिए राइट-ऑफ़ और राइट-ऑफ़ से नकद वसूली के आंकड़ों के आधार पर यह देखा गया कि पीएसबी संस्थानों में वसूली दर 14.2 प्रतिशत थी, और निजी बैंकों में इससे कम 5.0 प्रतिशत थी.'”
हम ऊपर दी गई अवधि के बाद के खराब ऋणों की वसूली की दरों का पता नहीं लगा पाए, लेकिन हमारे पास मौजूद आंकड़ों से पता चलता है कि बैंकों के डूबे कर्ज को बट्टे खाते में डालना, काफी हद तक कृषि कर्ज माफी के समान ही है जब दोनों ही मामलों में कर्ज नहीं चुकाए गए. एक राजनेताओं द्वारा लिए गए निर्णय के कारण होता है और दूसरा एक तंत्र के संचालित होने की प्रक्रिया के कारण होता है.
इतना ही नहीं, कुछ साल पहले तक एक कॉरपोरेट बैंक ऋण चुकाने में चूक कर सकता था और हमेशा चैन से रह सकता था. लेकिन अब दिवाला और दिवालियापन संहिता के कारण, चीजें उतनी सरल नहीं हैं जितनी पहले हुआ करती थीं.
बहरहाल, कॉरपोरेट को एक ऐसे तंत्र के माध्यम से यह राइट-ऑफ फ्रीबी मिली है, क्योंकि ये तंत्र वर्षों से मौजूद है. बस फ्रीबी दिखाई नहीं दे रही है. यह अनदेखी है, और हममें से ज्यादातर लोग इसके बारे में नहीं जानते हैं.
अनदेखी फ्रीबी का एक और उदाहरण देखते हैं. राजनेता जनता के पैसे का इस्तेमाल मीडिया में विज्ञापन देने और अपना खुद का ब्रांड बनाने के लिए करते हैं. वे अपनी जेब से या अपनी पार्टी के पैसे से खर्चा नहीं कर रहे हैं, बल्कि नागरिकों द्वारा भरे गए टैक्स का उपयोग कर रहे हैं. यह राज्य और केंद्र दोनों स्तरों पर होता है.
राज्य बनाम केंद्र
इस मुद्दे के इर्द-गिर्द जो कथानक बना है, उससे लगता है कि राज्य सरकार के स्तर पर राजनेता मुफ्त में चीज़ें बांट रहे हैं.
लेकिन क्या यह सच है? मिड-डे मील की शुरुआत सबसे पहले तमिलनाडु में हुई थी और बाद में यह राष्ट्रीय स्तर की योजना बन गई. या फिर तेलंगाना सरकार द्वारा शुरू किए गए रायथु बंधु कार्यक्रम को ही लें. यह योजना और ओडिशा सरकार की कालिया योजना, प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि के पीछे की प्रेरणा थीं जिसमें केंद्र सरकार किसान परिवारों को न्यूनतम आय सहायता के रूप में प्रति वर्ष 6,000 रुपये का भुगतान करती है.
इसलिए जो काम राज्य सरकारें आज करती हैं, उन्हें केंद्र सरकार कल को करने के लिए तैयार दिखती हैं- कम से कम जहां तक मेरिट फ्रीबी की बात आती है.
इसके अलावा, आइए एक और उदाहरण पर विचार करें जो एक और अनदेखी फ्रीबी बन गया है. सितंबर 2019 में केंद्र सरकार ने बेस कॉरपोरेट टैक्स की दर 30 फीसदी से घटाकर 22 फीसदी कर दी थी. इस पर शर्त थी कि कंपनियां और कोई छूट या प्रोत्साहन नहीं लेंगी. घोषणा के साथ प्रेस विज्ञप्ति में कहा गया था कि उद्देश्य, "विकास और निवेश को बढ़ावा देना" था.
लेकिन हुआ क्या? स्टॉक एक्सचेंजों में सूचीबद्ध 5,000 से अधिक कंपनियों को देखते हैं. वित्त वर्ष में कॉरपोरेट टैक्स की दर को घटाने से एक साल पहले 2018-19 से लेकर 2021-22 तक, इन कंपनियों का टैक्स से पहले का मुनाफा 114 प्रतिशत बढ़ गया. इसकी तुलना में, इन कंपनियों द्वारा भरे गए कॉरपोरेट आयकर में केवल 21 प्रतिशत की वृद्धि हुई. इससे इन कंपनियों के नेट मुनाफे में 171 प्रतिशत की वृद्धि हुई.
करों को कम करने के पीछे कंपनियों को अधिक निवेश करने के लिए प्रोत्साहित करने की चेष्टा थी. बहरहाल, 2018-19 में निवेश और जीडीपी अनुपात 29.5 फीसदी था. 2021-22 में यह 28.6 प्रतिशत रहा. हालांकि इस पर कोविड महामारी का प्रभाव भी पड़ा है.
ऐसे माहौल में जहां सूचीबद्ध कॉरपोरेट पर्याप्त करों का भुगतान नहीं कर रहे हैं, कॉरपोरेट आयकर की कम दर के कारण केंद्र सरकार को भी कर इकट्ठा करने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है. हालांकि उनके मुनाफे में बड़ी बढ़ोतरी हुई है. यह एक अनदेखी फ्रीबी का बेहतरीन उदाहरण है.
केंद्र सरकार कॉरपोरेट आयकर की पिछली दर को सरलता से बहाल कर सकती थी, लेकिन उसने ऐसा नहीं किया. इसके बजाय उसने अपने कर राजस्व को बढ़ाने के लिए, पेट्रोल और डीजल पर लगने वाली एक्साइज ड्यूटी को बढ़ाने का फैसला किया.
इसलिए मुफ्त चीज़ें देने के लिए राज्य सरकारों को दोष देना उचित नहीं है. केंद्र सरकार भी इसमें शामिल रही है, हालांकि इस मामले में मुफ्त सुविधा दिखाई नहीं देती.
योग्यता आधारित मुफ्त सुविधाओं के कारण
1991 के बाद भारतीय अर्थव्यवस्था जिस प्रकार विकसित हुई, उसने बड़े पैमाने पर आबादी के शीर्ष के 10 प्रतिशत लोगों को लाभान्वित किया - जो कुशल थे. अर्थशास्त्री रथिन रॉय ने हाल ही में एक कॉलम में कहा, "भारत के शीर्ष 10 प्रतिशत ने 1991 के बाद से परिवर्तनकारी आर्थिक समृद्धि का आनंद लिया है."
बड़े पैमाने पर आबादी के लिए काम की कमी है. इसे उच्च-योग्य व्यक्तियों के द्वारा अत्यंत निम्न-स्तरीय सरकारी नौकरियों के लिए आवेदन की संख्या से देखा जा सकता है. इसे मनरेगा के तहत काम की मांग से भी देखा जा सकता है. अप्रैल से जुलाई 2022 के बीच, इस योजना के तहत मांगे गए काम में, कोविड महामारी से पहले 2019 में इसी अवधि के मुकाबले लगभग 19 प्रतिशत की वृद्धि हुई.
लेकिन पिछले साल की तुलना में हालात थोड़ा सुधरे हैं. इस साल अप्रैल से जुलाई के बीच काम की मांग 2021 की इसी अवधि की तुलना में करीब 13 फीसदी कम रही.
नौकरियों की कमी को वर्षों से गिरती श्रम भागीदारी दर से भी देखा जा सकता है. नीचे दिया चार्ट गिरती श्रम भागीदारी दर को दर्शाता है.
श्रम भागीदारी दर, 15 वर्ष से अधिक आयु की जनसंख्या में उपलब्ध श्रम शक्ति का अनुपात है. श्रम शक्ति क्या है? सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी के अनुसार, श्रम बल में 15 वर्ष या उससे अधिक आयु के वो सभी व्यक्ति शामिल हैं, जो कार्यरत हैं, या बेरोजगार हैं और सक्रिय रूप से नौकरी की तलाश में हैं.
गिरती श्रम भागीदारी दर का मतलब है कि बहुत से ऐसे व्यक्ति जिन्हें नौकरी नहीं मिल रही है, वो नौकरी तलाशना बंद कर देते हैं और उन्हें श्रम बल के हिस्से के रूप में नहीं गिना जाता है. इसलिए, उपलब्ध नौकरियों में उस गति से वृद्धि नहीं हुई जो इस श्रम बल में प्रवेश करने वाले नए पुरुषों और महिलाओं को जगह दे सके. महिलाओं के मामले में श्रम भागीदारी दर में भारी गिरावट आई है.
ऐसे में राजनेताओं पर कुछ करने का दबाव होता है. प्रधानमंत्री किसान सम्मान निधि इसी का एक परिणाम है और इसी तरह आय में सहायता की अन्य योजनाएं और खाद्य सब्सिडी कार्यक्रम भी इसी से जुड़े हैं. दूसरी तरफ, देखी जाने वाली मुफ्त सुविधाएं एक राजनेता के लिए अपने प्रचार का हिस्सा भी बन जाता है, जो उसे उसके प्रतिद्वंदियों से अलग करता है.
मुफ्त चीज़ों की कीमत
अर्थशास्त्र में कुछ भी मुफ्त नहीं होता. हर फ्रीबी - योग्यता या गैर-योग्यता आधारित, देखी या अनदेखी - सबके लिए भुगतान करना पड़ता है. इसके लिए धन सरकारों द्वारा एकत्र किए गए करों के साथ-साथ उनके उधार से आता है. हमने पहले देखा कि कॉरपोरेट टैक्स की कम दर ने केंद्र सरकार को पेट्रोल और डीजल पर उत्पाद शुल्क बढ़ाने के लिए मजबूर किया, जिसका भुगतान अंत में हम सब करते हैं.
इसके अलावा, कॉरपोरेट ऋणों के डिफॉल्ट होने और फिर खारिज किये जाने को लेते हैं. सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के एक प्रमुख मालिक के रूप में, केंद्र सरकार को इन बैंकों को चालू रखने के लिए बार-बार पूंजीकरण करना पड़ा, और इसमें पैसा खर्च होता है.
अक्टूबर 2017 से पहले सरकार इन बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए वार्षिक बजट में पैसा अलग रख देती थी. इसमें कोई शक नहीं कि इन बैंकों को जाने वाला पैसा, आसानी से किसी और चीज में लगाया जा सकता था. यह फ्रीबी की लागत थी, या डिफॉल्ट हुए कॉरपोरेट ऋणों को वसूल करने में सिस्टम की अक्षमता थी.
लेकिन अक्टूबर 2017 के बाद से परिस्थितियां बदल गई हैं. सरकार ने सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए पुनर्पूंजीकरण बांड जारी किए. मतलब सरकार ने बांड जारी किए, जो सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों द्वारा खरीदे गए. सरकार ने इस पैसे का इस्तेमाल इन बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए किया. यानी, सरकार ने इस तरीके से बैंकों में जमा राशि को उधार लिया, और उसी को वापस बैंकों में निवेश कर दिया. इससे सरकार को अपने राजकोषीय घाटे को नियंत्रित करने में मदद मिली.
सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के इस तरीके को अर्थशास्त्री बजट न्यूट्रल कहते हैं. इस सीमा तक सरकार इन बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए, करों से अर्जित धन या उधार का उपयोग नहीं कर रही थी. यह केवल समस्या को टालने का तरीका था.
केंद्रीय बजट के अनुसार मार्च 2022 तक सरकार ने कुल 2.79 लाख करोड़ रुपये के पुनर्पूंजीकरण बांड जारी किए हैं. इन बॉन्ड्स पर सालाना 6-8 फीसदी का ब्याज मिलता है. सरकार जो ब्याज देती है उसका भुगतान वार्षिक बजट से किया जाता है. बहरहाल, इनमें से पहले बांड 2028 में परिपक्व होंगे यानी अपनी अवधि पूरी करेंगे, और ये बांड 2036 तक परिपक्व होते रहेंगे.
जब बांड परिपक्व हो जाएंगे तो उन्हें चुकाना होगा, और इसके लिए केंद्र सरकार को उन वर्षों के बजट में वार्षिक आवंटन करना होगा. इसलिए पुनर्पूंजीकरण बांड का उपाय एक तरह से खराब ऋणों की समस्या को आगे के लिए टाल देना है. हर साल बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए धन आवंटित करने और इस प्रक्रिया में अपने राजकोषीय घाटे को बढ़ाने के बजाय सरकार ने बांड बेचने का फैसला किया, जिसे सरकार को आने वाले सालों में चुकाना होगा.
हर फ्रीबी और उसके साथ जुड़ी लागत के लिए एक स्पष्ट उदाहरण है, भले ही उस लागत का भुगतान अभी किया जाये या भविष्य में, जैसा इस उदाहरण में है.
मुफ्त योजनाओं की फंडिंग
पिछले उदाहरण में बताई गई ऋणों को राइट-ऑफ की फ्रीबी के लिए फंडिंग बहुत पारदर्शी नहीं है, क्योंकि इसकी लागत को पीछे धकेल दिया गया है. यह समझना चाहिये कि जब तक किसी मुफ्त योजना की फंडिंग पारदर्शी है, तब तक कोई समस्या नहीं होनी चाहिए.
15वें वित्त आयोग की सिफारिश है कि एक राज्य सरकार के राजकोषीय घाटे की सीमा 2021-22 में सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का चार प्रतिशत, 2022-23 में 3.5 प्रतिशत और 2023-26 के दौरान तीन प्रतिशत होनी चाहिए. इसे केंद्र सरकार ने स्वीकार कर लिया. राजकोषीय घाटा एक सरकार की आय और खर्च के बीच का अंतर है. इसे मुख्य रूप से उधार के माध्यम से संभाला जाता है.
आरबीआई ने अपनी नई वार्षिक रिपोर्ट में बताया कि 2021-22 में राज्य सरकार के आर्थिक हालात बजट के हिसाब से बेहतरी की ओर थे, जिसमें राजकोषीय घाटा 2020-21 में जीडीपी के 4.7 प्रतिशत से घटकर 3.5 प्रतिशत हो गया था. रिपोर्ट में कहा गया, "अप्रैल-फरवरी 2021-22 के लिए उपलब्ध 26 राज्यों के प्रोविजनल खातों (पीए) के आंकड़ों से संकेत मिलता है कि उनका समेकित सकल राजकोषीय घाटा, एक साल पहले की तुलना में 31.5 प्रतिशत कम था."
राज्य सरकारों से राजकोषीय घाटे के लक्ष्य को पूरा कराया जा सकता है, क्योंकि उनके द्वारा किसी भी उधार को लेने के लिए केंद्र सरकार से पूर्व अनुमति की आवश्यकता होती है.
यानी आरबीआई के अनुसार, राज्य की वित्तीय स्थिति वैसी ही प्रतीत होती है जैसी होनी चाहिए. फिर समस्या क्या है? ऐसा लगता है कि कुछ राज्य बजट से बाहर उधार लेकर अपने खर्च का वित्तपोषण कर रहे हैं , और इसका हिसाब नहीं दे रहे हैं. प्रिंट की रिपोर्ट के अनुसार जुलाई के मध्य में, वित्त सचिव टीवी सोमनाथन ने राज्य सरकारों के मुख्य सचिवों के सामने एक प्रेजेंटेशन दिया, जिसमें उन्होंने कहा कि राज्य ऋण लेने के लिए नगरपालिका पार्कों, अस्पतालों और अन्य सार्वजनिक कार्यालयों को गिरवी रख रहे हैं.
ये ऑफ-बजट उधार - जहां मूलधन के साथ-साथ ब्याज भी राज्य सरकारों के बजट से चुकाना होगा - केंद्र सरकार द्वारा निर्धारित राज्य की कुल उधार सीमा में घोषित नहीं किया जाता. इस परिस्थिति में एक राज्य सरकार की कुल बकाया उधारी सही ढंग से नहीं दर्शायी गई है. यह ध्यान रखते हुए कि ऑफ-बजट उधार के माध्यम से हुआ खर्च सामान्य तौर पर बजट में दिखाई देता, इस तरह का उधार राजकोषीय घाटे को कम घोषित होने का कारण भी है.
सच्चाई ये है कि केंद्र सरकार ने कई वर्षों तक भारतीय खाद्य निगम को खाद्य सब्सिडी के लिए उधार दिलवाने के जरिये ऑफ-बजट उधार की इस प्रक्रिया का पालन किया. इससे केंद्र सरकार के घोषित समग्र उधार के साथ-साथ घोषित राजकोषीय घाटे में कम दिखाई दी. लेकिन केंद्र सरकार ने इस मोर्चे पर अपनी व्यवस्था में सुधार कर लिया है.
द प्रिंट की एक अन्य समाचार-रिपोर्ट बताती है कि इस माध्यम से, "पांच राज्यों - आंध्र प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पंजाब, मध्य प्रदेश और हिमाचल प्रदेश - ने मार्च 2022 को समाप्त होने वाले दो वर्षों में 47,316 करोड़ रुपये तक की राशि जुटाई."
जाहिर है, फ्रीबी या मुफ्त सुविधाओं के पूरे मुद्दे की जड़ में यही मुख्य समस्या है. कुछ राज्य, विशेष रूप से आंध्र प्रदेश और पंजाब इस समस्या के केंद्र में हैं. जैसा कि फ्रीबी पर आरबीआई की हालिया रिपोर्ट में बताया गया, "आंध्र प्रदेश और पंजाब जैसे कुछ अत्यधिक ऋणग्रस्त राज्यों में ‘फ्रीबी या मुफ्त सुविधाएं’, सकल राज्य घरेलू उत्पाद (जीएसडीपी) के दो प्रतिशत से अधिक हो गई हैं."
और इसे व्यवस्थित करने की जरूरत है. इन राज्यों से कहा जाना चाहिए कि वे अपने खर्च के साथ-साथ अपनी समग्र उधारी को सही-सही घोषित करें.
जब मुफ्त चीजों की बात आती है, तो कई अर्थशास्त्री और पत्रकार आरबीआई की रिपोर्ट के हवाले से सभी राज्य सरकारों को एक ही तरह से पेश करते हैं. लेकिन उनमें से लगभग किसी ने भी इस बात का उल्लेख नहीं किया कि रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि "मुफ्त सुविधाओं से वित्तीय जोखिम (पांच सबसे अधिक ऋणग्रस्त राज्यों के सामने) इन राज्यों के लिए थोड़ा ही प्रतीत होता है, लेकिन पंजाब को छोड़कर जो मुफ्त उपयोगी चीजों के प्रावधान पर एक बड़ी राशि खर्च करता है."
निष्कर्ष
एक फ्रीबी क्या है, इसे परिभाषित करने की मांग की जा रही है. जैसा कि हमने देखा, असल परेशानी ये है कि क्या फ्रीबी है और क्या नहीं, यह परिभाषित करना मुश्किल है. जैसा कि हमने देखा, एक समय पर राज्य सरकार के स्तर पर शुरू हुई एक योजना जिसे एक फ्रीबी या “रेवड़ी” माना जाता था, वो समय के साथ केंद्र सरकार की नीति में बदल गयी है.
साथ ही, एक मुफ्त सुविधा, किसी राज्य की सरकार और इसे चुनने वाली जनता के बीच एक राजनीतिक चयन है. सुप्रीम कोर्ट ने सुझाव दिया है कि "अभियानों के दौरान राजनीतिक दलों द्वारा मुफ्त उपहारों को कैसे नियंत्रित किया जाए, इस पर सुझावों के लिए" एक विशेषज्ञ निकाय की स्थापना की जाए. एक ‘मुफ्त सुविधा या फ्रीबी’ को परिभाषित करने की इस कोशिश के तर्क में ये परेशानी है कि इसमें मतदाताओं को जाहिल माना जा रहा है. और यह गलत है.
इस मुद्दे की जड़ में मूल बात ये है कि कुछ राज्य सरकारें अपने आंकड़ों को ठीक तरीके से घोषित नहीं कर रही हैं और इसे सुधारने की आवश्यकता है.
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(विवेक कॉल बैड मनी के लेखक हैं.)
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