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फिल्म लांड्री: लाल सिंह चड्ढा एक रीमेक नहीं, परदे पर उतरा अभिमान है

बॉलीवुड के फिल्म निर्माता चाहते हैं कि उनकी कला के लिए उनकी वफादारी पर हम विश्वास करें, तो उन्हें अपनी निष्ठाहीनता को छोड़ना होगा. लेकिन हम इस फिल्म से मेरी नाराजगी पर बाद में आएंगे.

लाल सिंह चड्ढा 1994 की हॉलीवुड क्लासिक फॉरेस्ट गंप का भारतीय रूपांतरण है. इसमें कोई शक नहीं कि किसी भी फिल्म का रूपांतरण अपने आप में टेढ़ा काम है, क्योंकि आपकी फिल्म की तुलना उसकी मूल कृति से जरूर होगी क्योंकि ऐसी फिल्म के चाहने वाले बहुत होते हैं. इस काम में असफल होने की संभावना ज्यादा रहती है क्योंकि अधिकतर फिल्मों के रूपांतरण अच्छे नहीं बन पाते. आमतौर पर दर्शक खीज कर खुद से यही कहते हैं कि 'इन लोगों ने इस फिल्म को छेड़ा ही क्यों?'

किसी भी रूपांतरित फिल्म से यह उम्मीद की जाती है कि वो अपने समय में प्रासंगिक होगी, दर्शकों तक असली फिल्म का संदेश सही रूप में पहुंचाएगी और इसके साथ-साथ, असली फिल्म की पहले से मौजूद कहानी और ढांचे में एक गुणात्मक सुधार करेगी. आखिरकार, फिल्में हमारे समय की सबसे प्रभावशाली कला हैं और समाज से उनका सरोकार हमेशा ही रहा है. फिल्म का विषय कुछ भी हो, लेकिन सामाजिक ताने-बाने से उनकी अंतरंगता को कोई झुठला नहीं सकता. इसलिए यह खेद की बात है कि लाल सिंह चड्ढा इन सभी मानकों पर असफल रही.

और यहां मैं हिंदुत्ववादी सरफिरों का पक्ष नहीं ले रहा, जो किसी काल्पनिक अपमान की दुहाई देकर इस फिल्म का बहिष्कार चाहते हैं.

लाल सिंह चड्ढा कथित तौर पर 1994 की फॉरेस्ट गंप की कहानी को दोबारा कहती है. फॉरेस्ट गंप, विलियम ग्रूम के 1986 के इसी नाम के उपन्यास पर बनी थी. लाल सिंह चड्ढा एक मानसिक रूप से अपंग सिख आदमी की कहानी है, जो अपने जीवन को हर प्रकार की कड़वी सच्चाई से प्रभावित न होने देने की विलक्षण क्षमता रखता है. लाल सिंह अपनी कमियों से जूझता जरूर है लेकिन अपने मन में मैल नहीं रखता, वह कभी नहीं समझ पाता के लोग उसका माखौल क्यों उड़ाते हैं और वह अपनी बचपन की दोस्त रूपा से निस्वार्थ रूप से प्रेम करता है. ये सुनने में अच्छा लगता है, लेकिन है नहीं.

मैं इसे एक “तथाकथित रूपांतर” इसलिए कहता हूं क्योंकि भले ही तकनीकी रूप से यह एक रूपांतर हो, लेकिन यह आमिर खान की अपनी एक फॉरेस्ट गंप बनाने और उसमें अभिनय करने की आत्ममुग्ध अभिलाषा ज्यादा लगती है. और देखा जाए तो इसमें कोई बुराई भी नहीं है.

फॉरेस्ट गंप पर वापस आते हैं. ऐसा नहीं है कि इस फिल्म में कमियां नहीं थीं, और जैसे-जैसे समय बीतता जा रहा है इस फिल्म की नाकामियां नज़र में आती जा रही हैं. समय बीतने के साथ कई ऑस्कर जीतने वाली 1994 की इस फिल्म की कई कारणों से कड़ी आलोचना होती रही है. वो अमेरिका के वियतनाम युद्ध से जुड़े उनके निंदनीय काम हों या फिल्म में दिखाए समय के दौरान अमेरिका में महिलाओं से होने वाला बर्ताव, या फिर समाज में रचे बसे नस्लभेद को नजरअंदाज करना हो. फिल्म में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े मुद्दों और मानसिक विकलांगता को प्रदर्शित करने का तरीका भी आलोचना का विषय रहा है.

लेकिन इस सारी आलोचना के बाद भी फॉरेस्ट गंप को एक हद तक माफ भी किया जा सकता है क्योंकि जब यह फिल्म बनी थी, तब ऑटिज्म के बारे में हम ज्यादा नहीं जानते थे. फिल्म और जिस उपन्यास पर ये आधारित है, दोनों ही जगह पर फॉरेस्ट गंप किरदार के मानसिक रूप से अपंग होने के कारण को नाम नहीं दिया गया है. 1996 में, दो जापानी डॉक्टरों ने ठिठोली में डीएसएम-4 मैनुअल का इस्तेमाल कर, उसे एक ऑटिस्टिक व्यक्ति के रूप में पहचाना था. फॉरेस्ट गंप अपने बर्ताव में कई ऑटिस्टिक लक्षणों को दिखाता है, इसको लेकर सार्वजनिक मंच पर बातें लंबे समय से होती रही हैं लेकिन जैसे जैसे हम ऑटिज्म को और ज्यादा समझ रहे हैं, फॉरेस्ट की परिस्थितियों की वजह ऑटिज्म होने की संभावना कम ही लगती है.

आमिर खान की लाल सिंह चड्ढा उन मुद्दों को हाथ भी नहीं लगाती, जो उसके कथानक के नायक को परिभाषित करते हैं.

यहां इस बात के पीछे के संदर्भ को बताना जरूरी है…

ऑटिज्म, जिसे अब ऑटिज्म स्पेक्ट्रम डिसऑर्डर (ASD) की संज्ञा दी गई है - न कोई बीमारी है, न ही किसी प्रकार की रुग्णता है और न ही कोई अवस्था है जिसे इलाज की जरूरत हो. इसे सबसे सरल रूप से इस प्रकार परिभाषित किया जा सकता है कि यह एक विविध प्रकार के लक्षणों का एक इंद्रधनुष है, जो किसी व्यक्ति की अन्य लोगों से मानवीय साक्षात्कार और बातचीत पर, पारंपरिक तरीकों से किसी भी चीज को समझने और सीखने पर और इंसान की इंद्रियों की संवेदनाओं पर मूलभूत रूप से असर डालता है.

इसका मतलब है कि जो लोग ऑटिज्म के स्पेक्ट्रम पर होते हैं, यानी ऑटिस्टिक होते हैं, वे अपनी इंद्रियों के जरिए अपने आसपास की दुनिया, लोगों और जानकारी को बिल्कुल अलग तरीके से समझते और आत्मसात करते हैं. अगर और सरल शब्दों में कहूं तो उनका मस्तिष्क, मूल रूप से हर प्रकार की सूचना को आम लोगों के मस्तिष्क से अलग रूप में ग्रहण करता है.

विश्व स्वास्थ्य संस्था (WHO) के अनुसार 100 में से हर एक बच्चा ऑटिस्टिक होता है, लेकिन अमेरिका के जॉन्स हॉपकिंस ब्लूमबर्ग स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ की रिपोर्ट कहती है कि पिछले दो दशकों में बच्चों में ऑटिज्म पाए जाने की दर में 3 गुना वृद्धि हुई है. उनका अनुमान है कि 54 में से 1 बच्चे के ऑटिज्म के स्पेक्ट्रम पर होने की संभावना है.

ऑटिज्म के साथ प्राथमिक दिक्कत उसकी पहचान करना है, क्योंकि चिकित्सा विज्ञान के पास इसकी पहचान करने के मुकम्मल तरीकों का अभाव है और इसके लक्षणों की सामाजिक समझ बहुत कम है. आमतौर पर इसके लक्षणों को व्यक्ति के व्यवहार में खराबी, व्यक्तिगत अक्षमता और अन्य कई अपमानजनक विशेषणों की तरह देखा जाता है, जो व्यापक रूप से समाज में कलंक की तरह देखे जाते हैं.

ऑटिज्म स्पेक्ट्रम पर आने वाले अधिकतर लोग मानसिक रूप से अपंग नहीं होते. इसके विपरीत 2014 में सीडीसी के द्वारा किए गए एक अध्ययन में लगभग आधे ऑटिस्टिक बच्चे औसत से ऊपर आईक्यू वाले पाए गए थे, केवल एक तिहाई से भी कम बच्चों में ही बौद्धिक क्षमता की कमी देखी गई.

मैं स्वयं भी ऑटिस्टिक स्पेक्ट्रम पर हूं.

मैंने ऑटिज्म को संक्षेप में आम भाषा में बताने की कोशिश की. आप इस बारे में अगर ज्यादा जानना चाहें तो आप यहां और यहां और जानकारी प्राप्त कर सकते हैं.

फिल्म की बात पर वापस आते हैं. जहां एक तरफ टॉम हैंक्स के द्वारा फॉरेस्ट गंप के किरदार को एक कार्टून की तरह निभाया जाने में व्यावहारिक बारीकियां नहीं दिखतीं, वहीं दूसरी तरफ आमिर खान के द्वारा निभाया गया लाल सिंह चड्ढा का किरदार टॉम हैंक्स के कार्टून नुमा अभिनय का भी और ज्यादा कार्टूनीकरण करता है. इस पर गुस्सा आना लाजमी है क्योंकि अब ऑटिज्म को लेकर शोध और जानकारी सुलभ रूप से उपलब्ध है, जिसे हर स्मार्टफोन और जानने की इच्छा रखने वाला व्यक्ति हासिल कर सकता है.

फिल्म में आमिर खान का किरदार चड्ढा हर दूसरे वाक्य के बाद 'हम्म्म…' की आवाज निकालता है. वह जिस तरीके से बोलता है और अपने वाक्य गढ़ता है, उस मूर्खतापूर्ण चित्रण पर शायद हंसी आ जाती, अगर एक ऑटिस्टिक व्यक्ति होने के नाते, मुझे ऐसा नहीं लगता कि मेरा मजाक बनाया जा रहा है. एक फिल्म जिसका बजट 180 करोड़ रुपए था, उसकी स्क्रिप्ट के लिए बड़ी आसानी से एक रिसर्च करने वाले व्यक्ति को रखा जा सकता था. मैं आशा करता हूं कि यह कुछ हजार रुपए 57 साल के आमिर खान को पर्दे पर जवान दिखाने की तकनीक में इस्तेमाल किए गए होंगे, जिससे कि वह मुझसे भी उम्र में कहीं छोटे किरदार को निभा सकें.

एक बात और, ऑटिस्टिक लोग शुतुरमुर्ग की तरह आंखें फाड़-फाड़ कर दुनिया को नहीं देखते बल्कि काफी ऑटिस्टिक लोगों को आंखें मिलाने से दिक्कत होती है. जो लोग ऑटिज्म स्पेक्ट्रम पर होते हैं वो ऊर्जा हीन महसूस करने, किसी बढ़ी हुई संवेदनशीलता से सराबोर होकर बोझिल हो जाने, लोगों के द्वारा धौंस दिखाने, प्रताड़ना और झल्लाहट से जूझते हैं… ऑटिज्म हमें फिल्म के जैसे, ट्रेन के स्लीपर कोच में अपनी पूरी जिंदगी की कहानी बयान करते एक मसखरे की तरह पेश आने वाला नहीं, बल्कि व्यवहार के सहज संकेतों को न समझ पाने के कारण संकोची बनाता है. लोगों के सामने खुलकर अपने आप को प्रकट करने में झिझक पैदा करता है.

इस फिल्म में ऑटिज्म को वाहियात रुप से प्रदर्शित किए जाने के अलावा भी कई अन्य दिक्कतें हैं. पंजाब के एक गांव से आने वाला सिख अच्छी पंजाबी में एक वाक्य तक नहीं बोल सकता. बॉलीवुड को एहसास होना चाहिए कि मेथड एक्टिंग सिर्फ वजन घटाना-बढ़ाना और चेहरे या सिर के बालों तक सीमित नहीं होती. मुद्दों की महीन समझ की कमी चड्ढा के फौज में भर्ती किए जाने में भी दिखाई पड़ती है. यही कमी फौज में उसके दोस्त बाला के किरदार में भी दिखती है, जिसे एक जीवंत दक्षिण भारतीय किरदार के बजाय उपहास के अतिशयोक्तिपूर्ण पुतले के रूप में पेश किया गया है.

यह फिल्म ऐसे अनेकों दृश्यों से भरी पड़ी है, जिन्हें देखकर फिल्मों को चाहने वाला कोई भी व्यक्ति अपना सर पकड़ लेगा. फिल्म निर्माताओं की निष्ठाहीनता, और अपने दर्शकों को निपट मूर्ख समझने की प्रवृत्ति यहां भी दिखाई पड़ती है.

यह कुछ ज्यादा बुरा इसलिए भी लगा, क्योंकि आमतौर पर आमिर खान की फिल्मों से लोगों को सामाजिक मुद्दों और फिल्म बनाने की कला को लेकर थोड़ी ज्यादा उम्मीद होती है. आखिर आमिर ने ही तारे जमीन पर फिल्म का निर्देशन किया था.

सूचना क्रांति के इस युग में भारत के दर्शक बहुत से ऐसे विषयों को अब बड़ी संख्या में जानने और समझने लगे हैं, जिनसे कुछ दशक पहले फिल्मकार बच निकल जाया करते थे. इसमें फिल्म बनाने की कला की बारीकियां और दुनिया के अलग-अलग हिस्सों का सिनेमा भी शामिल है. बॉलीवुड की बदकिस्मती से इसका मतलब है कि कहानी में मुद्दों की सूक्ष्मता और महीन दृष्टांत को अब और नजरअंदाज नहीं किया जा सकता. अच्छे छायांकन, और फॉरेस्ट गंप में रॉबिन राइट के द्वारा पर्दे पर उतारी गई महिला किरदार जैनी से कहीं बेहतर महिला किरदार रूपा के होते हुए भी, लाल सिंह चड्ढा एक फिल्म के रूप में पूरी तरह से असफल रही है.

लाल सिंह चड्ढा के निर्माताओं का आत्ममुग्ध अभिमान, बॉलीवुड के लिए कुछ नया नहीं है. लेकिन अगर सिनेमा और फिल्में सामाजिक कलाकृतियां हैं, तो इनका अनुभव दर्शकों के लिए व्यक्तिगत होता है. और मेरे लिए लाल सिंह चड्ढा, पूरी तरह से निराशाजनक रही.

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