Opinion
बिहार में बदलाव: तीन सबसे प्रिय सहयोगियों का जाना मोदी के लिए चुनौती बन सकता है
कई दिनों के जोड़तोड़ व गुणा-भाग के बाद बिहार में पार्टियों का परिवर्तन हो गया है. वैसे इस बार भी मुख्यमंत्री तो नीतीश कुमार ही होंगे, लेकिन सत्ता की साझीदार भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) न होकर राष्ट्रीय जनता दल (राजद) गठबंधन होगा. बिहार की राजनीति पर नजर रखने वाले कई टिप्पणीकार भी नीतीश कुमार के साझीदार बदलने को सत्ता परिवर्तन कह रहे हैं. हां, राजद और कांग्रेस के लिए यह एक बेहतर अवसर जरूर लेकर आया है जो लंबे समय से सत्ता से दूर रही हैं. इस तरह की राजनीतिक पार्टियां सत्ता के बगैर बैचेन हो जाती हैं. अगर नेतृत्व सतर्क व सजग न हो, तो ऐसी पार्टियों में कई बार टूट-फूट भी हो जाती है.
बिहार में इस पार्टी परिवर्तन से एक बात बहुत साफ होकर सामने आई है कि मंडल की राजनीति के बाद पहली बार सामाजिक न्याय या परिवर्तन की सभी पार्टियां एक साथ एकजुट हुई हैं और सवर्ण ताकत दूसरी तरफ हो गई हैं. पिछले 32 वर्षों से राजनीतिक समीकरणों को देखने से पता चलता है कि कमोबेश सभी दलों ने अलग-अलग सामाजिक-राजनीतिक समीकरण बनाए थे और उनके हित अलग-अलग भी थे.
मंडल के शुरुआती दौर में जब लालू यादव अपने उत्कर्ष पर थे तब नीतीश कुमार भी उनके साथ ही थे. लेकिन सत्ता में बने रहने का लालू-नीतीश का साथ सिर्फ चार साल का रहा और निजी व राजनीतिक महात्वाकांक्षाओं ने दोनों को जुदा कर दिया. असली सवाल यह है कि नीतीश कुमार के नेतृत्व में बनी बिहार की इस सरकार का एजेंडा क्या होगा और भारतीय राजनीति पर इस दल-परिवर्तन का क्या असर होगा? क्या अब पूरी तरह पिछड़ों की यह सरकार वही काम करेगी जो पहले करती आ रही है या फिर अपनी गलतियों से सीखकर पिछड़ों की राजनीति को आगे ले जाएगी?
सबसे पहले यह बात याद रखनी चाहिए कि नीतीश कुमार ने समता पार्टी के गठन (1994) के बाद अपना पहला चुनाव सीपीआई एम एल (माले) के साथ मिलकर लड़ा था. राजनीतिक रूप से पहली बड़ी हार और राजनीतिक महत्वाकांक्षा के कारण नीतीश ने अपनी पार्टी लाइन बदली और 1998 में बीजेपी के साथ गठबंधन करके केन्द्रीय सत्ता में फिर से अटल बिहारी वाजपेयी के कैबिनेट में मंत्री बने.
नीतीश कुमार और बीजेपी का वह समझौता वैचारिक रूप से भले ही समान न हो लेकिन इससे दोनों दलों के हित सध रहे थे. उस समय बिहार में लालू यादव बहुत ही मजबूत थे, तो दूसरी तरफ नीतीश कुमार के लिए बीजेपी के साथ समझौता किए बगैर कोई राजनीतिक संभावना नहीं दिख रही थी. यही समझौता नीतीश कुमार के अस्तित्व को बचाने में मदद कर रहा था जो पिछडों की उभार की राजनीति के बाद बीजेपी को गठबंधन बनाने के लिए बाध्य कर दिया था.
नीतीश कुमार 2004 तक वाजपेयी की कैबिनेट में मंत्री रहकर अपनी जमीन पुख्ता कर चुके थे और 2005 में जब बिहार में सत्ता परिवर्तन हुआ तो बीजेपी ने नीतीश कुमार के वर्चस्व को स्वीकार करके अपने लिए जूनियर पार्टनर की भूमिका स्वीकार की. छह साल तक केंद्रीय मंत्री रहते हुए शायद नीतीश कुमार को पता चल गया था कि फिलहाल सत्ता में बने रहने के लिए बीजेपी के साथ होना ही सार्थक कदम है और दूसरी बात, नीतीश कुमार के पहले कार्यकाल में बीजेपी किसी भी रूप में दखलअंदाजी नहीं कर रही थी. यदा-कदा नीतीश को अपनी नीति याद आती थी, लेकिन बीजेपी के साथ गठबंधन का दबाव व जातीय समीकरण उन्हें अपनी बाबत कोई कठोर राजनीतिक फैसले लेने से रोकता भी था.
बावजूद इसके, वह अपने राजनीतिक हित को आगे बढ़ाने की कोशिश भी कर रहे थे. नीतीश भूमि सुधार के एजेंडा पर आगे बढ़ना चाहते थे इसीलिए उन्होंने ‘ऑपरेशन बरगा’ के कर्ताधर्ता डी बंदोपाध्याय की अध्यक्षता में भूमि सुधार आयोग का गठन भी किया था. लेकिन बीजेपी इसे किसी भी सूरत में लागू होने देने के लिए तैयार नहीं थी. दूसरी बात, लालू से नाराज सर्वणों का बहुत बड़ा तबका बीजेपी के साथ-साथ नीतीश का भी न केवल समर्थन करता था बल्कि राज्य की प्रशासनिक मशीनरी में निर्णायक भूमिका में था. इस बात को नीतीश मुख्यमंत्री रहते अनुभव कर चुके थे.
नीतीश कुमार पर उस तबके का कितना दबाव रहा होगा कि न चाहते हुए भी उन्हें सवर्ण आयोग गठित करना पड़ा और बंदोपाध्याय आयोग की रिपोर्ट को लागू करने की हिम्मत नहीं जुटा पाए. इस दबाव को अगर ठीक से समझना हो तो कल बिहार बीजेपी के सवर्ण नेताओं द्वारा पत्रकारों को दिए गए विभिन्न बयानों की इस ध्वनि से समझा जा सकता है कि “नीतीश कुमार ने ‘गद्दारी’ की है”.
इतने दिनों के बाद एक बार फिर से नीतीश कुमार के साथ गठबंधन की राजनीति में वह माले खड़ा है जिसके एजेंडे में भूमि सुधार है. इसके साथ-साथ धीरे-धीरे अपनी जमीन वापस पा रहे अन्य वामपंथी दल भी भूमि सुधार को लागू करना चाहते हैं.
अगला सवाल यह हो सकता है कि अगर सचमुच सामाजिक न्याय की पार्टियां एक साथ आईं हैं तो बीजेपी का भविष्य क्या होगा? बिहार में अगर बीजेपी का भविष्य समझना हो तो हमें 2014 के लोकसभा के चुनाव परिणाम को नहीं बल्कि 2015 के बिहार विधानसभा के परिणाम को देखकर आकलन करना होगा. उस चुनाव में बीजेपी 243 में से 157 सीटों पर चुनाव लड़कर 53 सीटें जीत पाई थी और उसका वोट शेयर 24.4 फीसदी था जबकि राजद और जेडीयू क्रमशः 101-101 सीट लड़कर 80 और 71 सीटों पर विजयी हुई थी और दोनों दलों का वोट शेयर क्रमशः 18.6 व 16.8 फीसदी था.
उस चुनाव में रामविलास पासवान के नेतृत्व वाली लोजपा, उपेन्द्र कुशवाहा के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (आरएलएसपी) और पूर्व मुख्यमंत्री जीतनराम मांझी के नेतृत्व वाली हिन्दुस्तान अवाम मोर्चा (हम) बीजेपी गठबंधन के साथ थी. वर्तमान में उपेन्द्र कुशवाहा तो जदयू के संसदीय दल के अध्यक्ष ही हैं और जीतनराम मांझी भी नीतीश कुमार के नेतृत्व वाले गठबंधन का हिस्सा हैं.
इस राजनीतिक गुणा भाग का एक मात्र मकसद यह है कि बिहार के जातीय समीकरण का ठीक से आकलन किया जाए और भविष्य में पड़ने वाले वोट के विभाजन को ठीक से समझा जाए. बिहार में सवर्ण मोटे तौर पर 1990 में मंडल लागू होने और उसके बाद की लालू यादव की आक्रमता की वजह से पूरी तरह जनता दल और बाद में लालू यादव के नेतृत्व में बनी राजद के खिलाफ हो गए थे.
सुविधानुसार वे नीतीश कुमार को वोट इसलिए करते थे क्योंकि लालू यादव का विकल्प बनने की क्षमता उन्हीं में थी और दूसरी बात बीजेपी नीतीश का समर्थन कर रही थी. लेकिन बीजेपी द्वारा 2013 में मोदी के प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित किए जाने के बाद नीतीश कुमार जब एनडीए से बाहर निकल गए तो बिहार के सवर्ण पूरी तरह बीजेपी के साथ चले गए.
यही वह वर्ष था जब नीतीश और लालू एक साथ आकर 2015 का चुनाव बीजेपी गठबंधन के खिलाफ लड़े. 2014 में मोदी प्रधानमंत्री बन चुके थे, वह अपनी लोकप्रियता के चरम पर थे. उन्होंने बिहार विधानसभा चुनावों में दर्जनों सभा को संबोधित किया, लेकिन उनकी पार्टी सत्ता से बहुत दूर रह गई. इतना ही नहीं, अगर उस समय उनके साथ जीतनराम मांझी का सहयोग नहीं होता, जिनकी पकड़ मगध क्षेत्र में है और जिन्हें 2.3 फीसदी वोट मिला था, तो मतगणना विशेषज्ञों की मानें तो बीजेपी की हैसियत 30 सीट से अधिक की नहीं होती. कुल मिलाकर, बीजेपी की हैसियत आज के दिन 30 विधानसभा सीटों पर सिमट जा सकती है.
अगर इसी समीकरण को ध्यान में रखकर आकलन किया जाए तो 2024 का लोकसभा चुनाव काफी दिलचस्प होने की उम्मीद है. 2019 में बिहार की 40 सीटों में से 39 सीटें एनडीए गठबंधन को मिली थीं, इसकी पूरी संभावना है कि अगले चुनाव में यह समीकरण बिल्कुल उलट जाए. इस नए गठबंधन का असर बिहार के पड़ोसी राज्य झारखंड पर भी पड़ेगा जहां की 14 सीटों में से 11 सीटों पर बीजेपी काबिज है. अर्थात लोकसभा की 54 सीटों पर बीजेपी को कड़ी मेहनत करनी पड़ेगी.
लब्बोलुआब यह कि अगला लोकसभा चुनाव लगभग पौने दो साल बाद है और जिस रूप में बीजेपी की तीन सबसे प्रिय सहयोगी पार्टियां सबसे पहले शिवसेना, उसके बाद अकाली दल और बाद में दूसरी बार जनता दल यू उसे छोड़कर निकली है, उससे फिलहाल अपराजेय से दिख रहे मोदी के लिए एक बड़ी चुनौती खड़ी हो सकती है.
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