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छत्तीसगढ़: 121 आदिवासियों ने उस अपराध के लिए 5 साल की जेल काटी जो उन्होंने किया ही नहीं
साल 2017, छत्तीसगढ़ के बुर्कापल में एक हमले में सीआरपीएफ के 25 जवान मारे गए थे. इस मामले में पुलिस ने माओवादियों की मदद करने के संदेह में 121 आदिवासियों को गिरफ्तार कर लिया था. अब इसी मामले में राष्ट्रीय जांच एजेंसी की कोर्ट ने पांच साल बाद अपना फैसला सुनाया है. दंतेवाड़ा की कोर्ट ने सभी को निर्दोष मानते हुए बरी कर दिया है.
पांच साल की सजा किस बात के लिए? उस गुनाह की... जो उन्होंने किया ही नहीं. इन्हीं निर्दोषों में से एक, लक्ष्मण अपनी बात कहते हुए भावुक हो जाते हैं. वे कहते हैं, पुलिस ने मुझसे गलत स्टेटमेंट पर जबरदस्ती दस्तखत कराए. हम बेकसूर थे, फिर भी हमें जेल हुई. वो वक्त याद करके हम आज भी कांप उठते हैं.
ये सभी आदिवादी छत्तीसगढ़ के बुर्कापल, ताड़मेटला, कर्री गुंडम, मेटगुड़ा, पेर्मिली, तुमलपडा, गोंडपल्ली और तोंगगुडा गांव से आते हैं. इन पर यूएपीए, आर्म्स एक्ट और विस्फोटक पदार्थ अधिनियम के तहत कार्रवाई हुई थी.
इन गिरफ्तार लोगों में, पांच नाबालिग थे, जिन्हें दो साल पहले छोड़ा गया था. अभी 105 आदिवासियों को रिहा किया गया है. वहीं तीन को 16 जुलाई को दंतेवाड़ा कोर्ट से छोड़ा गया. जबकि एक अन्य, गोंडपल्ली के दोदि मंगलू की साल 2021 में जेल में ही मौत हो गई थी.
कोर्ट ने अपने फैसले में कहा कि ऐसा कोई भी सबूत या गवाह नहीं मिला है, जिससे ये साबित हो कि सभी आरोपी किसी नक्सल संगठन से संबंधित हैं या किसी तरह के अपराध में शामिल हैं. कोर्ट ने ये भी कहा कि जो हथियार पुलिस ने बरामद किए, वो इन आरोपियों के नहीं थे.
लक्ष्मण ने न्यूजलांड्री को बताया, आज रिहा होना, मेरी ज़िंदगी का सबसे खूबसूरत दिन है. ऐसा लगता है जैसे मुझे जन्नत मिल गई हो.
लक्ष्मण ने आगे बताया कि उन्हें केवल दो बार न्यायाधीश के सामने पेश किया गया था. पहली बार 2019 में और फिर 1 जुलाई, 2022 को. उनकी रिहाई से एक पखवाड़े पहले लक्ष्मण को गिरफ्तार कर लिया गया था और उन पर हमले की "योजना बनाने और उसे अंजाम देने" का आरोप लगाया गया था. पुलिस को दिए उनके कथित बयान में उन्होंने माओवादियों के लिए "संतरी ड्यूटी" लेने से पहले "2007 में नक्सल संगठन में शामिल होने" और "नौ महीने के लिए प्रशिक्षण" लेने की बात कबूल की है.
पुलिस को दिए कथित बयान के बारे में लक्ष्मण बताते हैं कि पुलिस ने खुद वह बयान लिखा और उस पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया.
4 अप्रैल, 2017 की घटनाओं को याद करते हुए लक्ष्मण ने कहा, "हमला हमारे सबसे बड़े त्योहारों में से एक बीज पांडम के दिन हुआ था. हम सभी गांव के बाहर एक मैदान में जश्न मना रहे थे और शराब पी रहे थे. जब हमला हुआ तब हममें से ज्यादातर लोग गांव में भी नहीं थे. अगले दिन, पुलिस एक ग्रामीण को ले गई और उसे मार डाला. उसके बाद हममें से कई लोग डर के मारे भाग गए. मैं अपने जीजा के घर पड़वारा गया लेकिन कुछ दिनों बाद उन्होंने मुझे वहां से गिरफ्तार कर लिया.”
जिस ग्रामीण की हत्या हुई, उसका नाम मदकम भमान था. उसकी मौत के करीब तीन साल बाद, उसकी मां ने न्यूज़लॉड्री को बताया, "मेरा बेटा लंबा और ताकतवर था, लेकिन उसका शरीर मांस का ढ़ेर बन चुका था. लग रहा था जैसे उसकी सारी हड्डियां टूटी हुई हैं. मेरे बेटे का पूरा शरीर मांस के लोथड़े में तब्दील हो चुका था. वो एक प्लास्टिक में बांधा गया था."
लक्ष्मण को उसके जीजा के घर से सुकमा कोतवाली थाने ले जाया गया जहां उससे पूछताछ की गई. हमारी पड़ताल में पुलिस रिकॉर्ड में गलत तरीके से 4 जुलाई की तारीख बताई गई है जबकी यह गिरफ्तारी 28 अप्रैल, 2017 को हुई थी.
लक्ष्मण ने कहा कि पुलिस द्वारा "मुझे जान से मारने की धमकी" के बाद झूठे बयान पर हस्ताक्षर करवाया. लक्ष्मण को डेढ़ महीने के लिए पुलिस स्टेशन में कैद किया गया था - जिसके दौरान उनसे "रोजाना सुबह 8 बजे से शाम 4 बजे तक पूछताछ की गई" - और फिर रिहा कर दिया गया. केवल तीन दिन बाद लक्ष्मण को फिर से गिरफ्तार कर लिया गया.
जगदलपुर सेंट्रल जेल में स्थानांतरित होने से पहले लक्ष्मण ने सुकमा जेल में 14 दिन बिताए.
जेल में रहते हुए लक्ष्मण की सबसे बड़ी चिंता उनका परिवार था. उनकी मां, पत्नी, भाभी और बच्चे घर पर अकेले थे. उसके छोटे भाई को भी इसी तरह के आरोपों में गिरफ्तार किया गया था, वहीं 2016 में संदिग्ध माओवादियों ने पुलिस मुखबिर होने के संदेह में उनके पिता की हत्या कर दी थी.
उन्होंने कहा, “मेरे जीवन के पांच साल जेल में बर्बाद हो गए हैं. घर, परिवार सब कुछ तबाह हो गया था. मैं इसकी शिकायत किसी से नहीं कर सकता. मैं अब अपने परिवार के जीवन को वापस पटरी पर लाने की उम्मीद करता हूं. अगर हमें मुआवजा नहीं मिलता है तो ठीक है लेकिन हमें अपने जीवन को पुनर्जीवित करने के लिए वास्तव में नौकरी की जरूरत है. सरकार को हमें जीने का जरिया देने पर विचार करना चाहिए”
मामले में गिरफ्तार आदिवासियों का प्रतिनिधित्व करने वाले जगदलपुर के वकील अरविंद चौधरी ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि पुलिस ने अक्टूबर 2017 में चार्जशीट दायर की थी. मामले की सुनवाई चार साल बाद अगस्त 2021 में शुरू हुई.
उन्होंने कहा, "सबसे निराशाजनक बात यह थी कि चार्जशीट दाखिल करने के बावजूद पुलिस ने लगभग तीन साल तक 95 प्रतिशत ग्रामीणों को अदालत में पेश नहीं किया. पुलिस अधिकारी खुद सुनवाई के लिए अनुपस्थित रहे. जिससे मुकदमे में देरी हुई और जेल में इन निर्दोष लोगों को ज्यादा समय बिताना पड़ा."
चौधरी ने बताया आखिरकार 2020 में एक आदालत ने वारंट जारी किया, जिसके बाद पुलिस ने आरोपियों को समूहों में अदालत में पेश करना शुरू किया.
2020 में, न्यूज़लॉन्ड्री ने छत्तीसगढ़ में माओवादी विद्रोह के ग्राउंड जीरो का दौरा किया. इस दौरान रिपोर्टर ने कम से कम 40 महिलाओं से बात की जिनके परिवार के सदस्य बुर्कापाल हमले के लिए जेल में बंद थे. उस समय, तीन साल की कैद के दौरान मुश्किल से आधा दर्जन अभियुक्तों को एक न्यायाधीश के सामने लाया गया था.
16 जुलाई 2022 वाली शाम इन बेगुनाह आदिवासियों के लिए कभी न भूलने वाली शाम रही. दो प्राइवेट बस छत्तीसगढ़ सेंट्रल जेल के सामने खड़ी थीं. 105 कैदियों का जत्था उन बसों की तरफ बढ़ रहा था. सभी के हाथ में वो चुनिंदा सामान था, जिसके साथ वो इस जेल में आए थे. पांच साल बाद उनका ये सफर जिंदगी का सबसे लंबा सफर होने वाला था. वो सभी आदिवासी आखिरकार अपने घर जा रहे थे जिन्हें ऐसे अपराध के लिए गिरफ्तार किया गया जो उन्होंने किया ही नहीं.
फर्जी केस ने बर्बाद किया मेरा परिवार
छत्तीसगढ़ के इन हिस्सों में ऐसे दर्जनों झूठे मामले सामने आए हैं. न्यूज़लॉन्ड्री ने रिपोर्ट की है कि कैसे दंतेवाड़ा के ग्रामीण इलाकों में रहने वाले आदिवासी पुलिस द्वारा उन्हें माओवादी करार दिए जाने के डर के साए में रहते हैं. वहीं बस्तर में, आदिवासी, संदिग्ध माओवादियों जैसा पहला नाम होने पर भी जेल में डाल दिए जाते हैं.
बुर्कापाल का मामला भी अलग नहीं था.
न्यूज़लॉन्ड्री ने आरोपियों द्वारा पुलिस को दिए गए कुछ कथित बयानों को खंगाला. वे सभी बयान आश्चर्यजनक रूप से समान हैं. यहां तक की इन बयानों का फॉर्मेट भी समान हैं.
इन सभी बयानों का फार्मेट कुछ इस प्रकार है "मैंने पिछले 10 वर्षों से नक्सलियों के लिए काम किया है ... मैंने जंगल में एक पेड़ या पहाड़ी के पास विस्फोटक या धनुष और तीर या बंदूक छिपा रखी है. मेरे साथ चलो और मैं तुम्हें दिखाऊंगा”
लक्ष्मण के साथ रिहा हुए 40 वर्षीय मडकाम हंगा ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि उन्हें पहली बार 24 अप्रैल, 2017 को पुलिस ने उठाया था. हंगा की कहानी ज्यादा दुखद है. उनका भाई मकदम भामन था, वह ग्रामीण था जिसकी पुलिस ने हत्या कर दी थी.
हंगा बताते हैं, "पुलिस तड़के मेरे घर आई. वे मुझे और कई अन्य ग्रामीणों को बुर्कापाल कैंप में ले गए और हमले के बारे में हमसे पूछताछ की. जब मैंने उन्हें बताया कि मुझे इसके बारे में कोई जानकारी नहीं है, तो उन्होंने मुझे प्रताड़ित किया. मुझे उल्टा लटका दिया गया और पीटा गया. मेरे शरीर पर अभी भी चोट के निशान हैं."
हंगा आगे बताते हैं, "जिस शाम मुझे रिहा किया गया. उसी दिन पुलिस ने मेरे भाई को उठा लिया और उसे मार डाला."
पुलिस से बचने की उम्मीद में हंगा और गांव के कुछ अन्य लोग भाग गए. उन्होंने कहा, "जब सुरक्षा बल हमें नहीं ढूंढ पाए, तो उन्होंने हमारे घर की महिलाओं से कहा कि वे अपने पति और पिता से संपर्क करें और उन्हें आश्वासन दें कि पुलिस कोई नुकसान नहीं करेगी. लेकिन यह एक साजिश थी."
हंगा और अन्य लोग गांव लौट आए और 2 मई, 2017 को उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया. उन्हें पहले बुर्कापाल में सीआरपीएफ कैंप ले जाया गया. उसी दिन उन्हें दोरनापाल थाने और फिर सुकमा थाने ले जाया गया. उस शाम, उन्हें दंतेवाड़ा अदालत में पेश किया गया और दंतेवाड़ा जेल में कैद कर दिया गया. पांच दिन बाद, उन्हें सुकमा जेल ले जाया गया इसके 20 दिन बाद उन्हे जगदलपुर सेंट्रल जेल भेज दिया गया.
हंगा ने कहा, "जेल में रखने के दौरान, मुझे केवल दो बार अदालत में पेश किया गया. अगर मुकदमे की सुनवाई तेज होती तो हम पहले रिहा हो जाते"
हालांकि, हंगा की रिहाई दर्द भरी है. उन्होंने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, "मेरी पत्नी ने पिछले साल किसी और से शादी कर ली और मेरी दो बेटियों को मेरी मां के पास छोड़ दिया, वह स्थिति का सामना नहीं कर सकी. मुझे ऐसा होने की उम्मीद नहीं थी."
हंगा अपनी मां और बच्चों से मिलकर खुश हैं, लेकिन उन्होंने कहा, "फर्जी मामले ने मेरे परिवार को नष्ट कर दिया है. मेरा घर जर्जर है. मेरे पास इसकी मरम्मत के लिए पैसे भी नहीं हैं. मैं जंगल में जाने से बचता हूं. मुझे डर है कि सुरक्षा बल हम पर किसी अन्य फर्जी मामले में मामला दर्ज कर सकते हैं."
न्यूज़लॉन्ड्री ने 2020 में हंगा की मां आयते का साक्षात्कार किया था. उस समय, उन्होंने कहा, "मेरे पास अब बहुत दिन नहीं बचे हैं और मुझे नहीं पता कि मैं अपनी हंगा को आखिरी बार देख पाऊंगी या नहीं."
हंगा की रिहाई के बाद, आयते ने फोन पर न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, "मैं बीमार थी और सोच रही थी कि क्या मैं अपने बेटे को आखिरी बार देखूंगी. भगवान की कृपा से वह वापस आ गया. हम एक दूसरे को गले लगाकर रोए. मुझे खुशी है कि मेरा बेटा वापस आ गया है. अब, यदि मैं मर भी जाऊं, तो मुझे इसका पछतावा नहीं होगा. ”
जेल ने तोड़ा पारिवारिक संबंध
रिहा किए गए आदिवासियों में से कई ने अपने परिवार के सदस्यों को उनकी कैद के बाद से नहीं देखा, क्योंकि उनके परिवार के लोग जेल में उनसे मिलने नहीं जा सकते थे.
26 वर्षीय सन्ना मडकम ने कहा कि वह उन भाग्यशाली लोगों में से एक हैं जो जेल में रहने के दौरान लोगों से मिल पाए. सन्ना मडकम बताते हैं, "मेरे परिवार के पास जमीन थी. उन्होंने जेल के दौरे और वकीलों की फीस का खर्च वहन करने के लिए इसका एक हिस्सा बेच दिया. लेकिन कई परिवारों के पास कुछ भी नहीं था. उनके लिए अपने प्रियजनों को जेल में देखना संभव नहीं था."
25 वर्षीय नुप्पू मंगू ने अपनी मां को आखिरी बार मई 2017 में गिरफ्तार किए जाने और जेल भेजे जाने से ठीक पहले देखा. सात महीने बाद उनकी मां की मृत्यु हो गई.
नुप्पू मंगू ने बताया, "मुझे मां के निधन के बारे में दो महीने बाद पता चला." उन्होंने रुककर कहा, "जब पुलिस बल मुझे ले गए तो मेरी मां ने बहुत विरोध किया. वह लगभग उनसे लड़ीं."
नुप्पू घर पर खुश हैं, हालांकि उन्हे अफसोस है कि बिना किसी गुनाह के उनके जीवन के पांच साल बर्बाद हो गए. उन्होंने कहा, "अगर हमारे मामले में पूरे पांच साल की अवधि में सिर्फ दो के बजाय अधिक बार सुनवाई होती तो हम पहले ही रिहा हो जाते."
बुर्कापाल हमले के मामले में गिरफ्तार किए गए सभी आदिवासियों को रिहा नहीं किया गया है. 35 वर्षीय सोदी लिंगा को अदालत ने बरी कर दिया था, लेकिन तीन अन्य मामलों में आरोपित होने के कारण वह अभी भी जेल में हैं. इस बीच उनकी पत्नी गांव छोड़कर चली गईं. उन्होंने दूसरी शादी कर ली है और वह अपने दो बच्चों को छोड़ गई हैं.
लक्ष्मण इस बारे में कहते हैं "उन दो बच्चों की हालत बहुत खराब थी. लेकिन हम पत्नी को दोष नहीं दे सकते क्योंकि उसने बहुत संघर्ष किया. उसने आखिरकार हार मान ली. वे गांव में सबसे गरीब थे."
जेल भेजे गए आदिवासियों में से एक डोडी मंगलू की पिछले साल जेल में मौत हो गई.
अदालत में आदिवासियों का प्रतिनिधित्व करने वाले वकील बिकेम पोंडी ने कहा, "मंगलू गोंडपल्ली के 11 ग्रामीणों में से थे, जिन्हें इस मामले में 2017 में गिरफ्तार किया गया था."
पोंडी के मुताबिक, "मंगलू मवेशी लाने के लिए ओडिशा गए थे. वापस आते समय सुकमा के नयापारा में मवेशियों को चरा रहे थे. पुलिस ने उन्हें वहीं से गिरफ्तार कर सीधे जेल भेज दिया. अगर पुलिस ने ठीक से जांच की होती या इन लोगों को अदालत में ठीक से पेश किया होता, तो मंगलू जीवित होता"
अनुवाद- अनमोल प्रितम
(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)
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