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उबर-टाइम्स इंटरनेट के संबंध मीडिया जगत में किस बदलाव की ओर इशारा करते हैं

5 दिसंबर 2014 को दिल्ली में बलात्कार की एक घटना हुई. एक उबर ड्राइवर ने टैक्सी में सवार एक महिला यात्री के साथ बलात्कार किया था.

इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार, इस घटना के कुछ दिनों बाद 31 दिसंबर 2014 को इकोनॉमिक टाइम्स के संपादक ने उबर के सह-संस्थापक ट्रैविस कालानिक को एक ईमेल द्वारा 14-15 जनवरी 2015 को दिल्ली में होने वाली अखबार की ग्लोबल बिजनेस समिट में आमंत्रित किया. द इकोनॉमिक टाइम्स का प्रकाशन टाइम्स ग्रुप द्वारा किया जाता है.

इस ईमेल में संपादक ने कालानिक से कहा कि सम्मेलन में उनकी उपस्थिति "भारत और अन्य देशों में नीति निर्माण के लिए एजेंडा निर्धारित करने" में मदद करेगी. साथ ही इससे उन्हें “भारत में निर्णय लेने वालों” के साथ परिचय बढ़ाने में भी मदद मिलेगी.

कालानिक ने उसी दिन अपने सहयोगियों को पत्र लिखकर टाइम्स ऑफ इंडिया के साथ मजबूत संबंध बनाए रखने के लिए कहा.

इसके बाद 23 मार्च 2015 को द इकोनॉमिक टाइम्स ने रिपोर्ट किया कि टाइम्स ऑफ इंडिया समूह की डिजिटल शाखा, टाइम्स इंटरनेट, उबर में “लगभग 150 करोड़ रुपए का महत्वपूर्ण निवेश” कर रहा है.

रिपोर्ट के पहले अनुच्छेद में कहा गया कि टाइम्स इंटरनेट, “दुनिया के सबसे लोकप्रिय स्टार्टअप में से एक के साथ ऐसे समय में हाथ मिला रहा है, जब वह भारत के आकर्षक लेकिन जोखिम भरे बाजार में प्रवेश करने के लिए प्रयासरत है.”

इसे यदि मीडिया और नई पीढ़ी के स्टार्टअप्स को संचालित करने के नए आयामों के आइने में देखें, तो कई आयाम सामने आते हैं. आइए इन्हें एक-एक करके देखें:

1) एक अखबार के संपादक की नौकरी में हमेशा से एक प्रबंधक की भूमिका भी संलग्न रहती आई है. यह ज़िम्मेदारी सिर्फ एक अच्छा अखबार निकालने तक सीमित नहीं रही. पत्रकारों को अच्छी तरह प्रबंधित करने के साथ-साथ मालिकों के हितों को भी ध्यान में रखना पड़ता था. क्योंकि भारत में मीडिया मालिकों के व्यावसायिक हित शायद ही केवल मीडिया तक सीमित रहते हैं.

लेकिन अब उनके काम का दायरा और भी बढ़ गया है.

हर सुबह एक अच्छा अखबार निकालने के साथ-साथ संपादक को यह भी सुनिश्चित करना पड़ता है कि दिन भर वेबसाइट पर नियमित रूप से अच्छा डिजिटल कंटेंट डाला जाए. यह इसलिए ज़रूरी है क्योंकि समाचार पत्र, सदस्यता-आधारित मॉडल अपनाने की कोशिश कर रहे हैं. और भावी पाठक सदस्यता के लिए भुगतान तभी करेंगे, जब उन्हें दिन भर में पर्याप्त मूल्यवर्धन दिखेगा.

जब तक सदस्यता-आधारित मॉडल सफल नहीं हो जाता, तब तक अखबार और पत्रिकाएं कांफ्रेंस मॉडल के जरिए भी राजस्व बढ़ाने की कोशिश कर रहे हैं.

इससे संपादक का काम और भी चुनौतीपूर्ण हो जाता है क्योंकि केवल एक अच्छे नेटवर्क वाला संपादक ही ऐसा सम्मेलन आयोजित कर सकता है, जिससे कुछ कमाई की जा सके. इस काम के लिए उन्हें मीडिया हाउस के सेल्स और मार्केटिंग विभाग, कंपनियों के कॉर्पोरेट कम्युनिकेशन प्रोफेशनल्स, जनसंपर्क फर्मों और राजनेताओं के साथ संपर्क बढ़ाना होता है.

कारोबार के इस बदलते स्वरूप के कारण मीडिया संस्थानों के विभिन्न विभागों के बीच का छद्म फर्क भी पूरी तरह से समाप्त हो चुका है. आदर्श रूप से, एक मीडिया संस्थान के मार्केटिंग और बिक्री विभागों के काम का असर वहां काम करने वाले पत्रकारों की रिपोर्टिंग पर नहीं पड़ना चाहिए. मसलन, किसी कंपनी के अखबार में नियमित रूप से विज्ञापन देने से, किसी पत्रकार के ऊपर उस कंपनी के खिलाफ कोई रिपोर्ट न करने का दबाव नहीं पड़ना चाहिए. लेकिन जिस किसी ने भी मीडिया में पर्याप्त समय बिताया है, वो जनता है कि ये विभागीय अंतर हमेशा से नगण्य ही रहे हैं, और अब ये भी ख़त्म होते जा रहे हैं.

अंततः यह उस विज्ञापन-आधारित व्यवसाय मॉडल का ही एक रूप बनकर रह जाता है, जो कई वर्षों तक बहुत सफल रहा लेकिन अब धीरे-धीरे अवसान की और बढ़ रहा है. मीडिया संस्थानों को अब राजस्व के नए स्रोत ढूंढने पड़ रहे हैं और उसकी अपनी चुनौतियां हैं. इससे संपादक का काम पहले से कहीं अधिक प्रबंधकीय हो गया है.

इतना ही नहीं, जहां विज्ञापन-आधारित मॉडल ने पहले ही खोजी पत्रकारिता को कम कर दिया था, वहीं इस नए मॉडल ने उसे पूरी तरह खत्म कर दिया है.

जल्द ही एक समय आएगा जब संपादक, कॉरपोरेट्स के साथ काम कर चुके एमबीए होंगे न कि वह पत्रकार जिन्होंने इस पेशे में अपना जीवन बिताया है. यदि वर्तमान संपादक अखबारों और मीडिया संस्थानों का व्यवसाय चलाने की दिशा में बड़ी भूमिका अदा करने लगें, तो और बात है. लेकिन यह याद रखना ज़रूरी है कि ऐसा करने के साथ कई नीतिपरक चुनौतियां भी हैं.

सवाल यह है कि क्या सदस्यता-आधारित मॉडल के सफल होने से मीडिया के अलग-अलग विभागों की भूमिकाओं के बीच मिट रहा फर्क, फिर से पहले की तरह ही हो जाएगा? आज की परिस्थितियों को देखते हुए तो यह मुश्किल लगता है.

2) यह पहली बार नहीं है जब टाइम्स ग्रुप ने दूसरी कंपनियों में निवेश किया है. समूह की सामरिक निवेश शाखा को ब्रांड कैपिटल कहा जाता है. ब्रांड कैपिटल की वेबसाइट के अनुसार, “ब्रांड कैपिटल विशिष्ट और अग्रणी निवेश मॉडलों और कार्यक्रमों के माध्यम से ब्रांड के जरिए विकास और मूल्य(पूंजी) सृजन को बढ़ावा देती है.”

यह कंपनी इससे पहले कई अन्य कंपनियों में निवेश कर चुकी है. इस पर्याय है कि टाइम्स समूह केवल एक मीडिया हाउस नहीं है बल्कि एक प्रकार का पूंजी निवेशक प्रतिष्ठान भी है, जो आकर्षक लगने वाले व्यवसायों में निवेश करने की चेष्टा रखता है. यह बात काफी समय से विदित है.

बेशक ऐसे दूसरे मीडिया घराने भी हैं, जो अन्य व्यवसायों को पूर्ण स्वामित्व के साथ चलाते हैं. जबकि टाइम्स समूह कई कंपनियों में छोटे दांव लगाना पसंद करता है. भारत में मीडिया घराने शॉपिंग मॉल से लेकर रियल एस्टेट प्रोजेक्ट्स तक के मालिक हैं. जहां तक ​​टाइम्स समूह की नीति का सवाल है, यह निवेश की सबसे पुरानी कहावत पर आधारित है, “अपने सभी अंडों को एक ही टोकरी में नहीं रखना चाहिए.”

3) यह दिलचस्प बात है कि कालानिक ने उबर के अपने सहयोगियों को टाइम्स समूह के साथ मजबूत संबंध बनाए रखने के लिए लिखा. अधिकांश आधुनिक ब्रांड इसी तरह काम करती हैं. जैसा कि मार्केटिंग गुरु अल रीस और लौरा रीस अपनी किताब 'द फॉल ऑफ एडवरटाइजिंग एंड द राइज ऑफ पीआर' में लिखते हैं, “अधिकांश प्रमुख ब्रांड्स के इतिहास को नजदीक से देखने पर पता चलता है कि यह एक सच्चाई है. इतना ही नहीं, बड़ी संख्या में प्रसिद्ध ब्रांड्स लगभग बिना किसी विज्ञापन के सफल हुए हैं.”

इस रणनीति के तहत मीडिया से घनिष्ठ संबंध आवश्यक हैं, और जैसा कि इंडियन एक्सप्रेस की रिपोर्ट बताती है, उबर ने ऐसा न केवल भारत में बल्कि दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में किया है.

वास्तव में, कई आधुनिक यूनिकॉर्न नियामक प्रणालियों की खामियों या मौजूदा नियमों को ताक पर रखकर विकसित हुए हैं. यूनिकॉर्न उन स्टार्टअप्स को कहा जाता है, जिनका मूल्यांकन एक अरब डॉलर से अधिक हो. इस रणनीति की मांग है कि मीडिया के साथ घनिष्ठ संबंध बनाए जाएं.

उबर के बिजनेस मॉडल की टक्कर दुनिया भर के टैक्सी चालकों से थी और जमे हुए खिलाड़ियों को हटाने के लिए कंपनी को अच्छे जनसंपर्क प्रबंधन की आवश्यकता थी, और उसने बिलकुल ऐसा ही किया.

इसके अलावा कई अन्य यूनिकॉर्न्स की तरह ही उबर ने भी अपने प्लेटफॉर्म पर ड्राइवरों और ग्राहकों दोनों को आकर्षित करने के लिए ‘कैश-बर्न’ मॉडल का प्रयोग किया. इसका अर्थ है कि ड्राइवरों को मौजूदा बाजार दरों से अधिक पैसे देना और साथ ही ग्राहकों को भी भारी छूट देना, भले ही इससे घाटा हो. और अगर कोई कंपनी में हिस्सेदारी के लिए उस घाटे की भरपाई करने को तैयार था, तो उबर के लिए उसके साथ जुड़ना बड़ी स्वाभाविक बात थी.

अंत में यह कहना सही होगा कि उबर-टाइम्स समूह मामले में जो कुछ हुआ, वह दिखाता है कि पिछले दशक में बिजनेस मॉडल किस प्रकार बदल गए हैं. बेशक, जब-जब पूंजीवाद का विकास होता है, चाहे वह अच्छे के लिए हो या बुरे के लिए, उससे कई तरह के असहज प्रश्न उठते हैं. ऐसा ही कुछ यहां भी हो रहा है.

(विवेक कौल बैड मनी के लेखक हैं.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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