Opinion
बार-बार क्यों फेल हो जाता है सिंगल यूज प्लास्टिक पर प्रतिबंध?
कुछ उद्योगों द्वारा समय-सीमा टाले जाने के भारी दबाव के बीच भारत में सिंगल यूज प्लास्टिक के तौर पर परिभाषित कुछ चीजों पर एक जुलाई से प्रतिबंध लागू होने जा रहा है.
तथ्य यह है कि सिंगल यूज प्लास्टिक पर मौजूदा प्रतिबंध काफी सीमित है, फिर भी यह बड़े खतरे से निपटने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम तो है ही. हमें उस समस्या, यानी प्रदूषण को लेकर चेताने की जरूरत नहीं है, हम उसका हर रोज सामना कर रहे हैं.
हमारे शहर प्लास्टिक की ऐसी चीजों से भरे पड़े हैं, जो प्राकृतिक तरीकों से नहीं खत्म नहीं होती और ये चीजें बड़े पैमाने पर हमारे वातावरण में दबाव और क्षयकरण को बढ़ा रहा है.
आगे का रास्ता यह सुनिश्चित करने में है कि हमारे दैनिक जीवन में इस्तेमाल होने वाली प्लास्टिक की चीजों को कैसे रीसाइकिल किया जाए या उनका सुरक्षित निस्तारण किया जाए.
इसके लिए हमें तीन स्तरीय रणनीति की जरूरत है:
पहला- वो सारा प्लास्टिक जिसका उत्पादन और इस्तेमाल किया जाता है, उसे निस्तारण (डिस्पोजल) के लिए इकट्ठा किया जाए.
दूसरा- प्लास्टिक के कचरे को रीसाइकिल किया जाए या फिर उन्हें जला दिया जाए, इसे कचरा-भराव क्षेत्रों (लैंडफिल साइट) तक नहीं पहुंचने दिया जाए. या हमारे जलाशयों को अवरुद्ध करने से रोका जाए.
तीसरा - निस्तारित किए गए प्लास्टिक का दोबारा इस्तेमाल इस तरह से हो कि वह पर्यावरण के अनुकूल हो और ऐसा न हो कि वह और ज्यादा प्रदूषण फैलाए या फिर मजदूरों के स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो.
हालांकि सबसे महत्वूपर्ण यह है कि प्लास्टिक की ऐसी चीजें, जिन्हें इकट्ठा करना मुश्किल है, या जिन्हें रीसाइकिल नहीं किया जा सकता, उनका इस्तेमाल पूरी तरह बंद किया जाना चाहिए. सरकार द्वारा लगाया गया मौजूदा प्रतिबंध हालांकि सीमित है, लेकिन इसके बावजूद इस प्रतिबंध से यही हासिल किया जा सकता है.
इसका मकसद यह है कि दैनिक इस्तेमाल की ऐसी जरूरी चीजों की पहचान की जाए, जिन्हें एक बार इस्तेमाल करने के बाद कूड़े में फेंक दिया जाता है. यही वजह है कि प्रतिबंधित वस्तुओं की सूची में ईयरबड्स, कटलरी, स्ट्रॉ और कैरी बैग (120 माइक्रॉन से कम मोटाई के, दिसंबर 2022 तक) शामिल हैं.
कैरी बैग पर प्रतिबंध नया नहीं है. केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (सीपीसीबी) की ताजा रिपोर्ट के मुताबिक, कम से कम 25 राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों ने उस पर पहले से प्रतिबंध लगा रखा है.
राज्यों का कहना है कि प्लास्टिक की मोटाई के आधार पर इस प्रतिबंध को नियंत्रित करना मुश्किल है. हालांकि हम जानते हैं कि इसे लागू कराने के राज्यों के प्रयास ही नाकाफी है. यही वजह है कि नए प्रतिबंध को लागू करना ही यह सुनिश्चित करेगा कि प्लास्टिक कचरे के खिलाफ भारत की यह लड़ाई सफल होगी या विफल रहेगी.
हालांकि सरकार द्वारा प्रतिबंधित चीजों की मौजूदा सूची समावेशी नहीं है. कोई यह दलील दे सकता है कि अगर इसका मकसद, ऐसी चीजों से छुटकारा पाना है, जिन्हें इकट्ठा करना मुश्किल है या जिनका इस्तेमाल एक बार ही हो सकता है तो फिर इस सूची में बहुस्तरीय पैकेज वाली चीजों (मल्टी लेयर पैकेजिंग) को भी इसमें शामिल किया जाए.
चिप्स से लेकर शैंपू और गुटखा पाउच तक लगभग सभी बहुत ज्यादा बिकने वाले उपभोक्ता वस्तुओं में इनका उपयोग किया जाता है.
दरअसल प्लास्टिक को हटाने में वास्तविक दिक्कत यही है, क्योंकि ऐसी चीजों को इकट्ठा करना लगभग नामुमकिन है और उसके बाद उन्हें रीसाइकिल की प्रक्रिया में ला पाना तो पूरी तरह नामुमकिन है.
पैकैजिंग के इस मैटेरियल के साथ केवल यही किया जा सकता है कि इसे सीमेंट के संयंत्रों में नष्ट करने के लिए भेजा जाए. कचरा-भराव क्षेत्रों में पाई जाने वाली प्लास्टिक के गुणों के आधार पर हुए कई शोधों में, जिनमें से ज्यादातर सीपीसीबी ने किए, सिंगल यूज प्लास्टिक का पर्दाफाश किया गया.
सरकार ने कहा है कि सभी पैकेजिंग सामग्री को विस्तारित उत्पादक दायित्व (ईपीआर) अधिसूचना के हिस्से के रूप में शामिल किया गया है. इसके तहत जो कंपनियां इस सामग्री का निर्माण या उपभोग करती हैं, उन्हें इसे वापस लेकर रीप्रोसेसिंग के लिए भेजना होता है. यहां तक कि कंपनी के हिसाब से सालाना लक्ष्य भी तय किया गया है कि कितनी सामग्री इकट्ठा करनी है.
कागज पर यह अच्छा लगता है लेकिन ईपीआर को जिस तरीके से तैयार किया गया है, या जैसे उसे लागू करना है, उसमें बड़ी खामियां हैं. उदाहरण के लिए, इसमें कंपनियों द्वारा तैयार की जाने वाली प्लास्टिक की चीजों और उसके अपशिष्ट की मात्रा की कोई जानकारी नहीं दी गई है. यह न केवल कंपनी की अपनी घोषणा पर निर्भर है बल्कि लोगों के लिए इसकी सत्यता जांचने के लिए भी कोई तरीका उपलब्ध नहीं है.
इसका मतलब यह है कि किसी कंपनी के लिए तय किए गए लक्ष्य का कोई मतलब नहीं है. इसका कोई पैमाना नहीं है, जिसके आधार पर इसे सटीक कहा जा सके. उससे भी खराब यह है कि ईपीआर के तहत कंपनियों को केवल उसी प्लास्टिक पदार्थ को रीसाइकिल या रीप्रोसेस करना है, जो वे 2024 तक इकट्ठा करती हैं.
सवाल यह है कि उस प्लास्टिक कचरे का क्या किया जा रहा है, जिसे अभी तक इकट्ठा किया जा रहा है - क्या उसे स्टोर किया जा रहा है या फिर कचरे के मैदान में फेंका जा रहा है.
मैंने यह प्रक्रिया तब देखी, जब मैंने एक अधिकृत निर्माता उत्तरदायित्व संगठन (पीआरओ) का दौरा किया. पीआरओ, एक ऐसी एजेंसी होती है, जिसे कंपनियों द्वारा ईपीआर लक्ष्यों को पूरा करने के लिए उनकी ओर से कचरा इकट्ठा करने के लिए अनुबंधित किया जाता है. यह एजेंसी नगर-निगम निकायों से कचरा ले रही थी.
यहां कचरे को बड़े कन्वेयर बेल्ट पर रखा जाता था, जहां एजेंसी के कर्मचारी, एल्यूमीनियम टिन से लेकर पाउच जैसी चीजों को अलग-अलग बंडलों में छांटकर रखने के लिए उठाते हैं.
समस्या यह थी कि छांटकर रखी गई चीजों का क्या किया जाए. पीआरओ इनमें से उन चीजों को बेच देगा, जिनकी कोई कीमत है लेकिन ऐसी चीजें जो रीसाइकिल नहीं होंगी, वे तो उसी गोदाम में पड़ी रहेंगी.
मैंने सफाई से छांटे गए और बहुस्तरीय पैकेजों व पाउच के बंडलों के ढेर देखे. पीआरओ का कहना था कि उसके पास जगह की कमी होने के चलते केवल यही रास्ता है कि वह इस सामग्री को नष्ट करने के लिए सीमेंट कंपनियों को भेज दें, लेकिन गाड़ी से उसे ले जाने के ज्यादा खर्चे के चलते वह ऐसा नहीं कर पा रहा था.
अब पहले बिंदु पर लौटें, यहां पर कचरे को कूड़ें में फेंका नहीं जा रहा था बल्कि उसे पैक किया जा रहा था, लेकिन यह नहीं पता था कि उसे कहां ले जाना है, शायद किसी कचरे के मैदान में.
यही वजह है कि सबसे विवादास्पद यह मुद्दा है कि हम रीसाइकिलिंग से क्या समझते हैं. हम अपने दोष को यह मानकर हल्का करने की कोशिश करेंगे कि जो कचरा हम फेंकते हैं, वह रीप्रोसेस हो जाता है.
हालांकि हमें यह समझना चाहिए कि या तो ऐसा हो ही नहीं रहा है और अगर हो भी रहा है तो उन लाखों असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले मजदूरों की वजह से हो रहा है, जो हमारे कूड़ा- करकट से काम की चीज निकाल लेते हैं. हमारे कचरे का प्रबंधन करने वाले असली योद्धा वहीं हैं.
यह समय यह समझने का है ताकि हम अपने कचरे के लिए खुद जिम्मेदार बनें और उन चीजों का इस्तेमाल न करें जो आज प्रतिबंधित हैं, साथ ही कल के लिए और चीजों पर प्रतिबंध लगाने को कहें क्योंकि हमें उनके बिना जीना चाहिए और हम उनके बिना जी सकते हैं.
(डाउन टू अर्थ से साभार)
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