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उत्तराखंड: हाथियों के गोबर में मिला प्लास्टिक, कांच व इंसान के इस्तेमाल की अन्य चीजें
द जर्नल फॉर नेचर कंजर्वेशन में पिछले महीने छपे एक अध्ययन में उत्तराखंड के जंगलों में हाथी के लीद में प्लास्टिक और अन्य मानव निर्मित सामग्री के मौजूद होने का पता चला है. इस अध्ययन के लेखकों ने चार जगहों से एकत्र किए गए गोबर के नमूनों की जांच की. तीन हरिद्वार वन प्रभाग (लालढांग, गैंडीखाता, और श्यामपुर) के पास, और एक लैंसडाउन वन प्रभाग (कोटद्वार) के नजदीक. शीशे, धातु के टुकड़े, रबर बैंड, मिट्टी के बर्तन, और टाइल के टुकड़े अन्य चीजें थीं जो मोटी चमड़ी वाली आंतों में पहुंच गई थी. यह पहला व्यवस्थित दस्तावेज है जो बताता है कि हाथी गैर-बायोडिग्रेडेबल (मिट्टी में नहीं मिलने वाले), जहरीले मानवजनित कचरे को निगलते हैं और यह उनके पाचन तंत्र से आगे जा रहा है.
अध्ययन की मुख्य लेखिका गीतांजलि कतलाम कहती हैं, “हाथी के गोबर में प्लास्टिक और अन्य गैर-बायोडिग्रेडेबल कचरे को देखना भयावह था.” उन्होंने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में पीएचडी के दौरान यह डेटा एकत्र किया.
जेएनयू में कतलाम की पीएचडी गाइड और अब नेचर साइंस इनीशिएटिव की शोधकर्ता सौम्या प्रसाद कहती हैं, “यह देखते हुए कि जंगल क्षेत्रों के पास कचरे के ढेर से हाथियों के खाने की खबरें आती रहती हैं, यह हैरानी की बात नहीं थी.” “मुझे लगता है कि यह आंकड़ा पूरी समस्या का एक छोटा हिस्सा भर दर्शाता है. स्थलीय जानवरों द्वारा कितना प्लास्टिक निगला जा रहा है, इस पर पर्याप्त रिसर्च नहीं हुआ है. हालांकि बीते 20 सालों में, कई प्रजातियों के मल नमूनों में प्लास्टिक होने पर कई रिपोर्टें प्रकाशित हो चुकी हैं.”
कतलाम के काम से पता चलता है कि एकत्र किए गए हाथी के गोबर के नमूनों में से लगभग एक-तिहाई में मानवजनित कचरा मौजूद था. इसमें करीब 85% प्लास्टिक था (आकार में एक मिलीमीटर से 35 सेंटीमीटर तक). हर एक नमूने में औसतन 35-60 प्लास्टिक के टुकड़े थे. अध्ययन में यह भी पाया गया कि मैक्रोप्लास्टिक्स (पांच मिलीमीटर से बड़े) माइक्रोप्लास्टिक्स (एक से पांच मिलीमीटर) की तुलना में ज्यादा थे.
कतलाम के अनुसार, इससे भी ज्यादा चिंता वाली बात यह थी कि संरक्षित क्षेत्रों के भीतर से एकत्र किए गए गोबर के नमूनों (जंगल के किनारे 100 मीटर से तीन किलोमीटर के भीतर तक) में, जंगल के किनारे से एकत्र किए गए (25-45 टुकड़े प्रति 100 ग्राम गोबर) नमूनों की तुलना में प्लास्टिक के टुकड़े (50-120 टुकड़े प्रति 100 ग्राम गोबर) लगभग दोगुने थे.
वह कहती हैं, “यह कड़वी सच्चाई है कि हाथी फेकें गए भोजन के साथ प्लास्टिक भी निगल लेते हैं (प्लास्टिक में लपेटकर फेंका गया खाना) और इसे जंगल में ले जाते हैं. एक बार जब प्लास्टिक हाथी के शरीर से बाहर निकल जाता है, तो यह जंगल के अन्य जानवरों के लिए खतरा बन जाता है क्योंकि यह खाद्य श्रृंखला का ही हिस्सा है.”
इंसानों के कचरे से बचने का क्या कोई रास्ता नहीं?
जब कतलाम साल 2015 में इस बात की जांच कर रही थीं कि जानवर कचरे के ढेर को चारागह समझकर कितनी बार आते हैं, तो उन्होंने 19 पक्षियों और 13 स्तनपायी प्रजातियों को दर्ज किया. हालांकि उसने यहां हाथियों को नहीं देखा. उन्होंने घरेलू गायों, कुत्तों और बिल्लियों, सांभर हिरण, लंगूर, रीसस मैकाक और पीले गले वाले नेवलों को देखा.
सांभर को कुतरते, फाड़ते और अक्सर प्लास्टिक कचरे को निगलते हुए देखने के बावजूद, वो अभी तक उनकी बीट में प्लास्टिक नहीं खोज पाई हैं. यह देखते हुए कि वे जुगाली करने वाले जानवर हैं. जिसका अर्थ है कि उनके पास गायों की तरह चार डिब्बे हैं, कतलाम इस बारे में अनिश्चित हैं कि उनके शरीर में प्लास्टिक को कैसे प्रोसेस किया जाता है. “मुझे चिंता है कि प्लास्टिक से उनके पेट और आंत (अस्तर से चिपकना) प्रभावित हो रहे हैं. मुझे पता है कि जब गायों में ऐसा होता है, तो यह जानवर के लिए बेहद खतरनाक होता है; वे अक्सर भूख से मर जाते हैं.”
कतलाम के काम और शिवालिक हाथी अभयारण्य में खुले कचरे के ढेर में हाथियों को खाने के अध्ययन के अलावा, भारत से कुछ प्रकाशन हैं जिन्होंने कचरे के ढेर से वन्यजीवों के खाने के बारे में रिपोर्ट की हैं. ऐसी ही एक अन्य रिपोर्ट हिमाचल प्रदेश में स्पीति घाटी के ट्रांस-हिमालयी परिदृश्य में लाल लोमड़ियों पर है, जिसमें पाया गया कि लाल लोमड़ियों के मल के 84% नमूनों में किसी न किसी रूप में मानव कचरा मौजूद है.
वन अनुसंधान संस्थान और नेचर कंजर्वेशन फाउंडेशन से मास्टर थीसिस के लिए इस परियोजना पर काम करने वाले अभिषेक घोषाल कहते हैं, “हमें सर्दियों के दौरान लाल लोमड़ी के आहार में इंसानी वस्तुएं मिलने की उम्मीद थी, क्योंकि बर्फ से ढके परिदृश्य में खाने-पीने की चींजे मिलना दुर्लभ हैं. लेकिन हमने यह उम्मीद तो एकदम नहीं की थी.”
वर्तमान में बॉम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसाइटी के साथ एक कंजर्वेशन वैज्ञानिक के रूप में काम कर रहे घोषाल आगे कहते हैं कि सबसे हैरान करने वाली बात “बोतल के ढक्कन, पॉलिथीन के टुकड़े, कपड़े, रबर बैंड, धागे के अवशेष और यहां तक कि तार भी थे. लाल लोमड़ियों ने कूड़े के ढेरों में और उसके आस-पास चरते समय अनजाने में इन वस्तुओं को खा लिया होगा.”
पिछले कुछ वर्षों में, हिम तेंदुओं, बाघों, तेंदुओं और हिरणों सहित वन्यजीवों की खतरनाक तस्वीरें और रिपोर्टें आई हैं, जो कचरे के ढेर में अपना भोजन तलाश रहे थे या प्लास्टिक कचरा ले जा रहे थे. चेन्नई के गिंडी नेशनल पार्क में कई हिरणों की मौत के लिए जिम्मेदार शायद प्लास्टिक ही रहा. ऐसा संदेह जताया जाता है.
दक्षिण भारत से केस स्टडी
बेंगलुरु में जवाहरलाल नेहरू सेंटर फॉर एडवांस साइंटिफिक रिसर्च (जेएनसीएएसआर) के प्रोफेसर टीएनसी विद्या कहते हैं, “हाल ही में मेरे एक छात्र ने काबिनी में हाथी के गोबर में डायपर की मौजूदगी की सूचना दी.” ये जानकारी इस साल जनवरी में कोयंबटूर के मरुथमलाई मंदिर हिल रोड पर जंगली हाथियों के गोबर में सैनिटरी पैड, मास्क, दूध के पाउच और बिस्कुट के पैकेट की मौजूदगी के बारे में छपी खबरों के तुरंत बाद आई.
विद्या, जिन्होंने केरल, तमिलनाडु और कर्नाटक में 15 से ज्यादा सालों तक हाथियों का अध्ययन किया है, आगे कहती हैं, “लेकिन ऐसे उदाहरण वास्तव में दुर्लभ हैं. हम हाथी के गोबर के कई हजार नमूनों में शायद एक नमूने में प्लास्टिक देखते हैं.” वह इसके लिए कई कारण बताती हैं. “एक, हम आमतौर पर गोबर के ढेर की सतह से बहुत छोटे नमूने लेते हैं और वास्तव में गोबर की गहराई में पाए जाने वाली चीजों की जांच नहीं करते हैं. दो, हमारा बहुत सारा काम काफी दूर-दराज की जगहों में होता है जहां मानव उपस्थिति आमतौर पर न्यूनतम होती है; और तीसरा, हमने वास्तव में यह जांचने का प्रयास नहीं किया है कि इन गोबर के नमूनों में माइक्रोप्लास्टिक है या नहीं.”
वह कहती हैं, “वन विभाग हर साल स्वच्छता अभियान चलाता है, लेकिन वे इतना ही कर सकते हैं. इसलिए, यह बहुत हैरानी की बात नहीं है कि कुछ प्लास्टिक हाथियों के पेट में चला जाता है.”
मुधुमलाई वन्यजीव अभयारण्य में 2004 से 2010 तक हाथियों पर काम करने वाली रत्ना घोषाल का कहना है कि उन्हें अपने खेत के नमूने के दिनों में हाथी के गोबर में प्लास्टिक कभी नहीं मिला था. “सबसे पहले, मैंने माइक्रोप्लास्टिक की जांच नहीं की, और दूसरी बात, मुझे यकीन नहीं है कि मुधुमलाई में हाथियों ने कभी वहां काम करने के दौरान कचरे के ढेर से भोजन किया था. हालांकि जंगल के किनारे के पास कचरे के ढेर थे. यह एक बहुत व्यस्त सड़क के बगल में स्थित है जहां ट्रैफिक बहुत होता है. मैंने हाथियों को सिर्फ उस इलाके का इस्तेमाल सड़क को पार कर जंगल की दूसरी तरफ जाते देखा है; मैंने उन्हें कभी भी भोजन के लिए रुकते नहीं देखा.”
कचरा प्रबंधन में ढिलाई मुख्य वजह
फिलहाल अहमदाबाद विश्वविद्यालय में प्रोफेसर के रूप में मछली और मगरमच्छों के प्रजनन शरीर विज्ञान में संचार का अध्ययन करने वाले घोषाल इस बात से सहमत हैं कि स्थलीय प्रणालियों और ताजे पानी के स्रोत में प्लास्टिक एक प्रमुख मुद्दा है. “वडोदरा में हम मगरमच्छों का अध्ययन करते हैं. यहां हम अक्सर प्लास्टिक के कचरे से भरे क्षेत्रों में मगरमच्छों को देखते हैं. हालांकि हम इसका अध्ययन नहीं करते हैं, मुझे यकीन है कि विश्वामित्री नदी में भारी प्रदूषण और तैरते प्लास्टिक के विशाल विस्तार वहां के मगरमच्छों के स्वास्थ्य पर भारी पड़ रहे हैं.”
बहुत सारे फोटोग्राफिक सबूत होने के बावजूद कि प्लास्टिक मीठे पानी की व्यवस्था और मनुष्यों सहित स्थलीय जानवरों पर प्रतिकूल असर डाल रहा है (माइक्रोप्लास्टिक अब इंसानों के खून, प्लेसेंटा और नवजात शिशुओं के मल में पाए गए हैं), इस पर रिसर्च करने की जरूरत है. प्लास्टिक प्रदूषण से वन्यजीवों और पर्यावरण को होने वाले खतरों की अधिकांश जांच समुद्री वातावरण पर केंद्रित है. हालांकि, वैज्ञानिक स्थलीय और मीठे पानी के पारिस्थितिक तंत्र में प्लास्टिक प्रदूषण के महत्व को महसूस कर रहे हैं.
इसके अलावा, बहुत सारे शोधों ने इस बात पर रोशनी डाली है कि किस तरह गलत तरीके से कचरा निपटान न केवल मानव-वन्यजीव संघर्ष को बढ़ाता है, बल्कि आबादी की सेहत को भी प्रभावित करता है, जानवरों के व्यवहार और जनसांख्यिकी को बदलता है. कचरे के ढेर जंगली कुत्तों के बड़े झुंडों को भी आकर्षित करते हैं, जिन्हें वन्यजीवों, विशेष रूप से हिम तेंदुओं और भालुओं पर हमला करते या उनका पीछा करते हुए देखा गया है, जिससे शिकार करने की उनकी क्षमता प्रभावित होती है.
कतलाम और अन्य ने अपने पेपर में लिखा है, अब “कचरा डंपों की मैपिंग के माध्यम से एक व्यापक ठोस कचरा प्रबंधन रणनीति विकसित करना, वन्यजीवों के लिए जोखिम का मूल्यांकन करना और प्लास्टिक प्रदूषण के खतरे को कम करने के लिए जन जागरूकता अभियान” विकसित करना बेहद जरूरी है.
(साभार- MONGABAY हिंदी)
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