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भड़ास4मीडिया भारत की हिंदी पत्रकारिता का प्रहरी कैसे बना

यशवंत सिंह को लिखने के लिए पहली बार 1990 के दशक में रुपए मिले थे. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी-लेनिनवादी) के छात्र संगठन ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन, या आइसा, के साथ जुड़े एक जोशीले क्रांतिकारी के रूप में सिंह को पार्टी के प्रचार के लिए काशी हिंदू विश्वविद्यालय भेजा गया था. वे बताते हैं, "गांवों में विवाद कैसे सुलझाए जाते हैं, इस बारे में मैंने एक लेख लिखा था. जिसमें मैंने हमारे गांव के मध्यस्थ मेरे चाचा का उदाहरण दिया था. वह उस पक्ष की तरफदारी करते थे जो उन्हें अधिक मांस और शराब देता था."

यह लेख हिंदी पत्रिका सरस सलिल में प्रकाशित हुआ था, जिसमें कामुक लेखों के अलावा सामाजिक टिप्पणी भी पर्याप्त रूप से होती थी. इस लेख से सिंह ने 250 रुपये कमाए. सिंह याद करते हैं, "कुछ दिनों बाद मेरे चाचा का फोन आया और उन्होंने मुझसे कहा कि अगर मैं घर आ गया, तो वह मेरी हड्डियां तोड़ देंगे.".

जिस प्रकार सिंह ने कभी अपने परिवार की खामियों को सार्वजनिक रूप से उजागर किया था, आज उसी प्रकार वह खुले तौर पर अपनी पत्रकार बिरादरी को लताड़ते हैं.

49 वर्षीय सिंह 13 सालों से भड़ास4मीडिया के संपादक हैं. यह एक समाचार वेबसाइट है जो भारत के हिंदी समाचार कक्षों की सच्चाई बयान करती है -- सनकी संपादकों, दखलंदाज मालिकों और खस्ताहाल पत्रकारों की कहानियां कहती है.

ग्रेटर नोएडा की एक सोसाइटी में अपने साधारण अपार्टमेंट में सिंह वेबसाइट के बैकएंड से आंकड़े दिखाते हैं: मई 2022 में इसके 29 लाख इम्प्रेशंस थे, यानी इतने पेजों को लोगों ने देखा था. और वेबसाइट के 86,000 से अधिक यूनीक विज़िटर्स थे, मतलब इतने नए लोगों ने कम से कम एक बार वेबसाइट को ज़रूर देखा था.

हिंदी भाषा की ख़बरें भारत के न्यूज़ मार्केट में सबसे अधिक बिकती हैं. अख़बारों की बात करें तो भारत के समाचारपत्रों के पंजीयक के कार्यालय के आंकड़ों से पता चलता है कि 2020-2021 में हिंदी प्रकाशनों की प्रतिदिन औसतन 19 करोड़ प्रतियां बिकीं, जो कुल बाजार का 49% हिस्सा था. हिंदी अख़बारों के निकटतम प्रतिद्वंद्वी अंग्रेजी के प्रकाशन इस दौरान बाजार का सिर्फ 9% प्रतिशत हिस्सा रहे. इसी प्रकार टीवी पर भी हिंदी समाचार चैनलों का कब्ज़ा है. ब्रॉडकास्ट ऑडियंस रिसर्च काउंसिल या बीएआरसी के 2018 के अनुमान के अनुसार, हिंदी समाचार टीवी न्यूज़ मार्केट का 43% है.

इस फलते-फूलते उद्योग के बीच भड़ास का अस्तित्व एक उत्तेजक आंदोलनकारी की तरह है. पिछले कुछ महीनों में भड़ास ने विज्ञापनों के लिए क्लाइंट को प्रताड़ित करते दैनिक भास्कर के एक विज्ञापन अधिकारी का कथित ऑडियो लीक किया है, भारतीय जनता पार्टी के एक नेता की कथित "सेक्स सीडी" के बारे में लिखने के लिए अमर उजाला और दैनिक जागरण पर हुई एफआईआर के बारे में रिपोर्ट किया है, भारत समाचार के एक पत्रकार द्वारा कथित रूप से उत्पीड़ित महिला के आत्महत्या के प्रयास की घटना का खुलासा किया है और उजाला के यूपी संस्करणों में हाई-प्रोफाइल संपादकीय फेरबदल के बारे में लिखा है.

ऐसे खुलासों के परिणाम भी भुगतने पड़ते हैं. सिंह बताते हैं कि उनकी वेबसाइट के खिलाफ 56 केस दर्ज हैं. 2012 में उन पर एक साथी पत्रकार ने उत्पीड़न और धमकी देने के आरोप लगाए थे जिसके बाद उन्हें 68 दिनों तक उत्तर प्रदेश की एक जेल में रहना पड़ा. उनके अनुसार इसके पीछे उन 'प्रभावशाली पत्रकारों का हाथ था जिन्हें उन्होंने नाराज किया था.' उसी वर्ष दिल्ली उच्च न्यायालय ने भी भड़ास को धर्मगुरु निर्मल बाबा पर व्यंग्यात्मक टिप्पणी करने से रोका था, जब उन्होंने अपने शिष्यों को दुखों से निजात पाने के लिए मसाला डोसा खाने को कहा था.

भड़ास कहता है कि उनकी वेबसाइट "मीडिया में अच्छे और बुरे पर प्रकाश डालती है, सामान्य पत्रकारों की दुर्दशा पर प्रकाश डालती है और मुख्यधारा के कॉर्पोरेट मीडिया द्वारा सेंसर की गई खबरों का पर्दाफाश करती है". लेकिन इसकी शुरुआत ऐसी किसी महत्वाकांक्षा से नहीं हुई थी.

साल 2008 में हिंदी अख़बार दैनिक जागरण के नोएडा दफ्तर में काम करते हुए सिंह ने भड़ास की परिकल्पना की. वह बताते हैं, "भड़ास ऐसे समय में हिंदी समुदाय के ब्लॉग के रूप में उभरा जब संपादक खुद को राजा समझने लगे थे. हिंदी पत्रकार के साथ दोयम दर्जे के नागरिक की तरह व्यवहार किया जाता था. इस ब्लॉग के सदस्य, जो आमतौर पर पत्रकार होते थे, यहां अपनी बात किसी भी तरह से रख सकते थे. पोस्ट्स अक्सर अपमानजनक हो जाते थे लेकिन धीरे-धीरे यह उनके लिए अपने पेशे से जुड़ी निराशाओं को व्यक्त करने का जरिया बन गया.”

सिंह कहते हैं कि आज उत्तर भारत के हर हिंदी समाचार कक्ष से उनका संपर्क है. अगर कोई संपादक रांची के न्यूज़रूम में एक रिपोर्टर को गाली देता है या भोपाल में एक पत्रकार को उसके ब्यूरो द्वारा गलत तरीके से निकला जाता है, तो सिंह और उनकी वेबसाइट तक खबर पहुंच जाती है.

अनुभवी संपादक ओम थानवी न्यूज़लॉन्ड्री को बताते हैं, "लंबे समय तक भड़ास ही एकमात्र ऐसी वेबसाइट थी जहां हिंदी पत्रकार अपनी इंडस्ट्री के क्रियाकलापों के बारे में जान सकते थे. यह हिंदी मीडिया की निगरानी करता था और इसके चरित्र को जानता था, और इसके ज़रिए यह जानकारी पाठकों तक भी पहुंचती थी."

लखनऊ-स्थित स्वतंत्र पत्रकार सौरभ शर्मा कहते हैं, "मैं ऐसे स्ट्रिंगर्स और रिपोर्टर्स को जानता हूं जो काम पर समस्याओं का सामना करते हैं, वह भड़ास तक पहुंचना चाहते हैं. यह वेबसाइट पत्रकारों के उस वर्ग की आवाज़ बन गई है जिसके पास पहले कोई आवाज़ नहीं थी."

गाजीपुर से ग्रेटर नोएडा तक

पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाजीपुर में जन्मे सिंह एक सैनिक परिवार से आते हैं. अपने क्षेत्र के अधिकांश युवाओं की तरह छात्र जीवन में वह भारतीय प्रशासनिक सेवा में शामिल होना चाहते थे और इस तरफ उन्होंने आशा के अनुरूप प्रगति भी की. लेकिन 20 की उम्र के बाद 'एक और भगत सिंह' बनने की इच्छा ने उन्हें जकड़ लिया और वह आइसा जैसे वामपंथी छात्र संगठनों के साथ जुड़ गए.

आइसा में रहते हुए सिंह की मुलाकात गोपाल राय से हुई, जो तब लखनऊ विश्वविद्यालय में एक कार्यकर्ता थे और अब दिल्ली में आम आदमी पार्टी सरकार में मंत्री हैं. सिंह ने कहा, "राय अन्ना आंदोलन का हिस्सा थे और मेरी उन तक पहुंच थी. भड़ास में हम नियमित रूप से आंदोलन को कवर करते थे, लगभग अन्ना की ब्रांडिंग करते थे. वेबसाइट के कई आरंभिक पाठक इसी वजह से इससे जुड़े."

सिंह का वामपंथी प्रशिक्षण उन्हें और भड़ास को मीडियाकर्मियों के अधिकारों की रक्षा के लिए किए जा रहे आंदोलनों की ओर ले गया. जैसे कि 2012 में सीएनएन-आईबीएन में बड़े पैमाने पर छंटनी के बाद हुआ विरोध हो, या पत्रकारों का वेतन बढ़ाने की मांग. उन्होंने कहा, "मैं एक्टिविस्म को जीवित रखना चाहता था और इसीलिए भड़ास हिंदी पत्रकारों का साथ मिलकर चलने वाला एक उपक्रम बन गया."

लेकिन सिंह के लेखन के प्रति प्रेम की तरह ही उनका मदिरा के प्रति प्रेम भी जगजाहिर है. भड़ास के संपादक अपनी मदिरापान की आदत को छिपाने का कोई प्रयास नहीं करते हैं. वास्तव में, जब भी वह पी रहे होते हैं तो वेबसाइट के सोशल मीडिया पर भी व्हिस्की और सोडा का कैमियो देखने को मिलता है. सिंह व्यंग्यात्मक लहजे में कहते हैं, "कुछ दिन ऐसे होते हैं जब वेबसाइट पर कोई पोस्ट नहीं होती है. वह ऐसे दिन होते हैं जब मैं कुछ ज्यादा पी लेता हूं."

लेकिन सिंह ने अपनी पहली नौकरी भड़ास की वजह से गंवाई, बैगपाइपर की वजह से नहीं. जब उन्होंने ब्लॉगिंग शुरू की तो भारत के सबसे अधिक बिकने वाले अख़बार दैनिक जागरण को यह अच्छा नहीं लगा. कारण, ब्लॉग में जागरण विरोधी मतों को पर्याप्त स्थान दिया जाता था. सिंह बताते हैं, "यह बड़ी दिक्कत थी. 2009 में उन्होंने मुझे निकाल दिया, और हद तो तब हुई जब ब्लॉग के कारण कोई भी मुझे काम पर रखने को तैयार नहीं था."

जागरण अध्याय समाप्त होते ही सिंह ने 12 साल बाद पत्रकारिता को अलविदा कह दिया. उन्होंने साधु -संतों को स्क्रैच कार्ड बेचने वाली एक कंपनी में काम किया. कमाई अच्छी थी. लेकिन उनके अंदर का पत्रकार उन्हें अब भी ललकारता था. तो पत्रकार से सेल्समैन बने सिंह ने 3,500 रुपए में वर्डप्रेस पर www.bhadas4media.com डोमेन नाम पंजीकृत करवाया और फिर से लिखना शुरू कर दिया. यह नाम समाचार वेबसाइट एक्सचेंज4मीडिया से प्रेरित था, जो भारत में अंग्रेजी भाषा के मीडिया पर रिपोर्ट करती है. अंतत: उसी वर्ष सिंह ने मार्केटिंग की नौकरी छोड़ दी और पत्रकारिता में लौट आए.

विज्ञापन, डोनेशन और सहायता

भड़ास पर एक दिन में पांच से दस लेख प्रकाशित होते हैं. इनका लेखन अनिवार्य रूप से बेअदब और अक्सर उपहासपूर्ण होता है. उनमें पत्रकारों की सधी हुई भाषा नहीं होती. अक्सर पर्यावरण आदि पर कविताएं भी छपती हैं. किसी नेता के निजी जीवन पर अनैतिक टिप्पणियों से लेकर नौकरी के विज्ञापन तक होते हैं. भड़ास4मीडिया के यूट्यूब चैनल के लगभग 2 लाख सब्सक्राइबर्स हैं और चैनल वेबसाइट से भी अधिक विविधता लिए हुए है, जिसमें सिंह के गंगा में तैरने से लेकर अपने पसंदीदा पकौड़े पकाने तक के वीडियो हैं.

सिंह के मुताबिक यह सारा कामकाज कम खर्चे में चलता है. “किसी भी समय भड़ास के बैंक खाते में 30,000 रुपए से अधिक नहीं होते हैं. वेबसाइट के तकनीकी रखरखाव और बाकी पत्रकारिता के लिए 10,000 रुपए प्रति माह लगते हैं," उन्होंने बताया.

सिंह का दावा है कि वेबसाइट बड़े पैमाने पर क्राउडफंडिंग पर टिकी हुई है, लेकिन इसका ज्यादातर हिस्सा दो वरिष्ठ पत्रकारों से आता है. "मैं उनके नाम नहीं बता सकता. वह भड़ास के काम में विश्वास करते हैं. यहां तक ​​​​कि मेरा आईफोन और टच लैपटॉप भी उनकी ओर से उपहार में मिला है," सिंह बताते हैं.

एक दशक पहले वेबसाइट चलाने के लिए विज्ञापन से हुई आय पर्याप्त होती थी. दरअसल, भड़ास को इसके पहले साल में ही एक बंगाली एफएम स्टेशन रेडियो मिष्टी से 2,000 रुपए का विज्ञापन मिला था.

लेकिन सिंह वेबसाइट को मिले ऐसे समर्थन के बारे में भी स्पष्ट रूप से बताते हैं जो विवादास्पद हो सकता है. उदाहरण के लिए 2009 में अमर उजाला के एक संपादक ने सिंह को दिवंगत नेता और पूर्व केंद्रीय मंत्री रामविलास पासवान से मिलवाया. पासवान तब यूपीए सरकार में इस्पात मंत्री थे. सिंह याद करते हैं, "उन संपादक ने पासवानजी से कहा कि मैं एक प्रसिद्ध पत्रकार हूं जो एक वेबसाइट चलाता हूं और मुझे पैसे की आवश्यकता है. बैठक के अंत तक पासवान जी स्टील अथॉरिटी ऑफ इंडिया लिमिटेड के विज्ञापनों के माध्यम से भड़ास को छह महीने में तीन लाख रुपए देने के लिए तैयार हो गए.”

थोड़ी पत्रकारिता, थोड़ी गपशप

यदि कोई पाठक भड़ास पर इस अपेक्षा से जाता है कि उसे पूरी तरह तथ्यात्मक और सत्यापित ख़बरें मिलेंगी तो वह निराश हो सकता है. कई मायनों में यह वेबसाइट अभी भी एक ब्लॉग के रूप में कार्य करती है. मीडिया संगठनों या पत्रकारों के बारे में छपी ख़बरों में अक्सर संतुलित होने का दिखावा भी नहीं किया जाता और वह एक ही स्रोत पर निर्भर लगती हैं.

लखनऊ-स्थित स्वतंत्र पत्रकार सौरभ शर्मा न्यूज़लॉन्ड्री को बताते हैं कि भड़ास में केवल 'आधा सच' ही कहा जाता है. शर्मा कहते हैं, "भड़ास में छपी बहुत सारी ख़बरें बस मीडिया जगत की गपशप होती हैं. किस पत्रकार ने किससे शादी की या कौनसा चैनल किस एंकर पर जाल फेंक रहा है, आदि. ऐसा लगता है कि इसपर बहुत सारी ख़बरें बस यूं ही छाप दी जाती हैं. लेकिन इसकी बहुत सी ख़बरें प्रामाणिक भी होती हैं."

जुलाई 2020 में भड़ास ने एक रिपोर्ट में आरोप लगाया था कि ईटीवी भारत का न्यूज़रूम लगभग 20 कोविड मामलों के कारण 'कोरोना हॉटस्पॉट' में बदल चुका है. कुछ दिनों बाद, ईटीवी भारत ने वेबसाइट को एक कानूनी नोटिस भेजा जिसमें उन्होंने इस रिपोर्ट को 'झूठा', 'आधारहीन' और 'असत्यापित और अप्रमाणित' कहा. हफ्ते भर बाद भड़ास ने ईटीवी को जवाब भेजा और कहा कि वह अपनी खबर पर कायम है और उसने 'प्रतिष्ठान में काम करने वाले लोगों के साथ' इस जानकारी को 'विधिवत' सत्यापित किया है.

ऐसी ख़बरों की गुणवत्ता के बारे में पूछने पर सिंह कहते हैं कि उन्होंने ख़बरों को क्रॉस-चेक करने की आदत पिछले कुछ वर्षों में ही विकसित की है. वह मजाकिया लहजे में कहते हैं, "मैं अब और अदालत नहीं जाना चाहता, इसलिए अब मैं लोगों की टिप्पणियां मांग लेता हूं. लेकिन मुझे पता है कि अगर मैं 100 कहानियां प्रकाशित करूं तो उनमें से 99 तथ्यात्मक होती हैं."

थानवी सुझाते हैं कि भड़ास में एक न्यूज़रूम सी गुणवत्ता क्यों नहीं आ सकती, वह कहते हैं, "ऐसा लगता है कि संसाधनों की कमी के कारण भड़ास का अपने कंटेंट पर नियंत्रण कम है. इसमें प्रतिष्ठित पत्रकारों और संपादकों की कोई संपादकीय टीम नहीं है. यह केवल यशवंत के प्रयासों से चलता है. इतने संकट के बावजूद यह बचा रहा यही इसकी सफलता है."

शर्मा का मानना ​​है कि हिन्दीभाषी क्षेत्र में भड़ास को गंभीरता से लिया जाता है. उन्होंने कहा, "यह वेबसाइट उन पत्रकारों की आवाज बन गई है जिनके पास पहले अपनी बात रखने का कोई जरिया नहीं था. उदाहरण के लिए जब पत्रकारों को उनके प्रकाशन या चैनल समय पर भुगतान नहीं करते, तो भड़ास ही इसे रिपोर्ट करने का बीड़ा उठाता है, और परिणामस्वरूप पत्रकारों को उनका वेतन मिल जाता है."

थानवी के अनुसार इस वेबसाइट की सराहना होनी चाहिए कि इसने अधिकांश मुद्दों पर "सांप्रदायिक" नहीं बल्कि "प्रगतिशील" रुख अपनाया. लेकिन बड़ी बात यह है कि भड़ास ने हिंदी मीडिया उद्योग के चरित्र को बदले बिना उसमें मौजूद एक बड़ी कमी को दूर किया है. थानवी कहते हैं, "हिंदी मीडिया की ये समस्या है कि उस पर उसके मालिकों का बहुत मजबूत नियंत्रण है. उस स्तर पर भड़ास कुछ बदल पाने में असफल है. लेकिन इसने निचले स्तर के कर्मचारियों के मुद्दों को सार्वजनिक रूप से उठा कर उन पर गहरा प्रभाव डाला है. यह पत्रकारों का पक्ष लेता है, मालिकों का नहीं."

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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