Report
"हम बाल ठाकरे के सैनिक हैं": एकनाथ शिंदे के गढ़ ठाणे में शिवसैनिकों की प्रतिक्रिया
ठाणे शहर बाल ठाकरे के दिल के बहुत करीब था. यहीं पर 1967 में शिवसेना को पहली बार म्युनिसिपैलिटी चुनावों में जीत मिली थी, जिसके बाद जल्द ही मुंबई और नासिक में भी जीत हासिल हुई. यह शिवसेना के मशहूर नेता आनंद दिघे का इलाका भी हुआ करता था, जो इसे बाल ठाकरे के दखल के बिना चलाने के लिए जाने जाते थे.
दिघे की मृत्यु 2001 में हुई. आज उनके साथी एकनाथ शिंदे महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री और बाल ठाकरे के बेटे उद्धव ठाकरे की आंख का कांटा बन गए हैं. शिंदे ही उद्धव के नेतृत्व के खिलाफ हुए विद्रोह के लीडर हैं, जिससे महाराष्ट्र में महा विकास आघाड़ी गठबंधन की सरकार खतरे में आ गई है.
यह विद्रोह 21 जून से शुरू हुआ जब शिंदे और कम से कम 17 विधायकों ने कथित तौर पर पार्टी से सारे संपर्क तोड़ लिए. यह महाराष्ट्र विधान परिषद में शिवसेना के कुछ विधायकों के ऊपर भाजपा के पक्ष में क्रॉस वोटिंग के आरोपों के बाद हुआ.
गत शुक्रवार तक शिंदे के विद्रोही गुट ने गुवाहाटी के एक होटल में अपना डेरा डाल दिया था और गुट में करीब 37 विधायक शामिल हो गए थे. बताया जा रहा है कि उन्होंने शिवसेना के राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस से गठबंधन से नाराजगी जताई थी और उद्धव के पार्टी के कार्यकर्ताओं के लिए उपलब्ध न रहने जैसे आरोप भी लगाए. यह चर्चा आम है कि यह लोग भाजपा के साथ मिलकर मौजूदा सरकार को गिराने की योजना बना रहे हैं.
इस बीच ठाणे की सड़कों पर बाल ठाकरे, आनंद दिघे और एकनाथ शिंदे के फोटो वाले पोस्टर टंग गए हैं. उद्धव और उनके बेटे आदित्य की फोटो इन पोस्टरों से नदारद होना किसी से छुपा नहीं है. शिवसेना के कार्यकर्ताओं के अनुसार, उन्हें चिंता है कि उद्धव शिवसेना की 'असली विरासत' भूल गए हैं.
ठाणे की सुर्वे वाडी शाखा के स्थानीय वार्ड प्रमुख या शाखा प्रमुख 62 वर्षीय मानिक सुर्वे कहते हैं, "शिवसैनिक शुरू से ही एनसीपी-कांग्रेस गठबंधन से खुश नहीं हैं. हमारी विचारधारा उनसे अलग है. हम बाला साहब ठाकरे के सैनिक हैं. हम हिंदुत्व में विश्वास रखते हैं… यह बेहतर होगा कि हम भाजपा के साथ आएं और सरकार बनाएं."
शिंदे के विद्रोह के बाद उद्धव को खुद भी मजबूर होकर हिंदुत्व पर पार्टी का स्टैंड स्पष्ट करना पड़ा. बुधवार को उन्होंने कहा, "शिवसेना और हिंदुत्व अलग नहीं हो सकते. हिंदुत्व हमारी सांसों और खून में है."
ठाणे के एक शिवसैनिक प्रशांत खोपकर ने न्यूजलॉन्ड्री को बताया कि भाजपा उनकी "नैसर्गिक साथी" है. वे कहते हैं, "बालासाहेब और सेना के लिए अपने प्रेम और समर्पण की वजह से हमने इस गठबंधन से तालमेल बिठाया. कई बार हमें असहाय सा महसूस हुआ जब कांग्रेस के लोगों ने वीर सावरकर और अन्य राष्ट्रीय नायकों के लिए खराब बातें कहीं. हम अपना विरोध ठीक से दर्ज नहीं करा सके. इसलिए यह बेहतर रहेगा कि हम भाजपा के साथ दोबारा संधि कर लें."
मूलतः सतारा जिले से आने वाला शिंदे परिवार एकनाथ के बचपन में ही ठाणे आ गया था. उन्होंने 11वीं कक्षा के बाद स्कूल जाना छोड़ दिया और दिहाड़ी मजदूर के रूप में काम करने लगे. बाद में उन्होंने ऑटो ड्राइवर की नौकरी भी की.
पार्टी के एक कार्यकर्ता के अनुसार, "ठाणे को सेना का गढ़" बनाने वाले दिघे से उनका संबंध, 1980 के शुरुआती दिनों से शुरू हुआ. और ठाणे में दिघे की विरासत आज भी जिंदा है, उनकी एक फोटो आपको शहर में हर एक-दो किलोमीटर पर लगी मिल जाएगी.”
शहर के शेर सेना के एक वरिष्ठ नेता जगदीश थोराट याद करते हैं, "वह लोगों के मुद्दों को सुलझाने में सुबह 4:00 बजे तक लगे रहते थे. उनके घर लोगों का आना दिन हो या रात लगा ही रहता था. वह हर किसी की मदद किया करते थे."
दिघे के सहयोगी के रुप में शिंदे उसी विरासत को संभाले हुए हैं. 1987 में वह किसान नगर शाखा के शाखा प्रमुख बने, और फिर 1997 में ठाणे म्युनिसिपल कॉरपोरेशन में कॉरपोरेटर बने. वह तेजी से कॉरपोरेशन के नेता से विधायक और फिर कैबिनेट मंत्री बन गए.
33 वर्षीय महेश तिवारी पार्टी के एक कार्यकर्ता हैं और उनके चाचा दिघे के ड्राइवर थे. वो बताते हैं, "शिंदे साहब एक कट्टर शिवसैनिक हैं. दिघे साहब के जाने के बाद, जब कई लोग सेना छोड़ रहे थे उन्होंने सब संभाल लिया. उन्होंने सबका ध्यान रखा. जब तक वह पार्टी में हैं हम उनका साथ देंगे. अगर वह नेतृत्व अपने हाथ में ले लेते हैं और भाजपा से संधि करते हैं, तब भी हम उनके साथ रहेंगे."
तिवारी ने भी सेना के कांग्रेस-एनसीपी के साथ गठबंधन पर खेद जताया. उन्होंने कहा, "हम मान गए क्योंकि हमारे नेताओं ने उनके साथ सरकार बनाने का निर्णय लिया. अगर बालासाहेब या दिघे साहब होते, तो उन्होंने इस गठबंधन के लिए कभी हामी नहीं भरी होती."
शिव सैनिकों के अलावा ठाणे के वरिष्ठ नेता भी शिंदे का पूरा समर्थन कर रहे हैं. इनमें ठाणे जिले में शिवसेना के अध्यक्ष और ठाणे शहर के मेयर नरेश म्हास्के भी हैं. एकनाथ शिंदे के भाई प्रकाश शिंदे, जो ठाणे में ही रहते हैं, ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि पार्टी में मतभेद इस बात से उपजा कि "उद्धव के आसपास के लोग किसी को उन तक नहीं पहुंचने देते."
उन्होंने कहा, "लेकिन परिस्थिति कुछ भी हो शिवसेना रहेगी. शायद नेतृत्व बदल जाए."
ठाणे में रहने वाले राजनीतिक विश्लेषक हरीश केरज़रकर मानते हैं कि मुख्यमंत्री ने "शिवसेना विधायकों पर नियंत्रण और पार्टी में अपना प्रभुत्व खो दिया है."
उन्होंने कहा, "कानूनी और तकनीकी रूप से, शिंदे पार्टी का नियंत्रण नहीं ले सकते. लेकिन इसमें कोई शक नहीं की सत्ता के समीकरण बदल गए हैं. एक व्यक्ति का विद्रोह नहीं है, बल्कि इन सब का एकजुट विद्रोह है क्योंकि उनकी बात सुनने वाला कोई नहीं था."
केरज़रकर के मुताबिक उद्धव और उनके विधायकों और काडर के बीच की दूरियां, मिलिंद नार्वेकर और संजय राउत जैसे नेताओं ने और बढ़ा दी हैं. वे दावा करते हैं, "यह नेता सेना के लोगों को अपने चीफ तक पहुंचने नहीं दे रहे. इससे बातचीत का क्रम टूट गया है… वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं की जगह आदित्य ठाकरे को अनुचित प्राथमिकता दिए जाने से भी असंतोष बढ़ा है."
लेकिन कई पार्टी कार्यकर्ताओं ने कहा कि आखिर में उनकी वफादारी शिवसेना से है किसी एक नेता से नहीं.
पार्टी कार्यकर्ता मान्या सुर्वे कहते हैं, "बुरे से बुरे समय में भी हमने सेना को नहीं छोड़ा. इसलिए अब छोड़ने का तो सवाल ही नहीं उठता. शिंदे साहब ने कभी नहीं कहा कि वह पार्टी छोड़ रहे हैं. पहले दिन सब लोग थोड़ा चौंक गए थे. लेकिन अब हम जानते हैं, वह पार्टी के साथ ही रहेंगे… हम उनका साथ देंगे."
Also Read
-
Two years on, ‘peace’ in Gaza is at the price of dignity and freedom
-
4 ml of poison, four times a day: Inside the Coldrif tragedy that claimed 17 children
-
Delhi shut its thermal plants, but chokes from neighbouring ones
-
Hafta x South Central feat. Josy Joseph: A crossover episode on the future of media
-
Encroachment menace in Bengaluru locality leaves pavements unusable for pedestrians