Opinion
बादशाहों के ज़ुल्म और इंसाफ़ में बहुत कम का अंतर होता है
आप जब नुपुर शर्मा की गिरफ्तारी की मांग को लेकर सड़कों पर हंगामा करते हैं तो बहुत सारे लोगों की बांछें खिल जाती हैं. उन्हें अपने लिए कई प्रमाण मिल जाते हैं. उन्हें यह कहने का मौका मिल जाता है कि सबको सहिष्णुता का उपदेश देने वाली जमात खुद किस कदर असहिष्णु है. वे यह साबित कर देते हैं कि इस देश में धर्मनिरपेक्षता की बात करने वाले दरअसल एक पक्ष की हिंसा से आंख मूंदे बैठे लोग हैं.
धीरे-धीरे वे यह भी साबित करने की कोशिश करते हैं कि दरअसल इस देश में दंगों की शुरुआत मुसलमान ही करता है. फिर वे चुपके से यह इशारा कर जाते हैं कि इस देश के मुसलमान की आस्था देश के प्रति नहीं, बाहर के विश्वासों के प्रति है. अंत में यह सारा हंगामा उस अलगाव को कुछ और बड़ा कर जाता है जिसको पाटने की कोशिश में बहुत सारे लोग जुटे हुए हैं और अपने ही लोगों की उपेक्षा, अवमानना, आलोचना- सबकुछ झेल रहे हैं.
लेकिन नुपुर शर्मा के विरोध में सड़क पर उतर कर हंगामा न करना बस एक रणनीति नहीं, सहज विवेक का हिस्सा होना चाहिए. दरअसल नुपुर शर्मा या उन जैसे लोग अपने वक्तव्य के जो प्रतिफल हासिल करना चाहते थे, वह अब जाकर उन्हें हासिल हो गया है. इस पूरे हंगामे से यह चिंताजनक सवाल भी उठा है कि जिस लोकतंत्र की हम बात करते हैं, असहमति के सम्मान का जो दावा करते हैं, उसके प्रति हमारी आस्था वाकई कितनी गहरी है. क्या हम अब भी वैसे ही जाहिल समाज बने रहना चाहते हैं जो हर विवाद, हर अशालीन टिप्पणी को गले से लटका कर सड़क पर हंगामा करता रहे और बंदर को यह मौका सौंपे कि वह बिल्लियों के बीच न्याय करे?
नूपुर शर्मा के मामले में कल तक बीजेपी और सरकार शर्मिंदा थीं. देर से ही सही, यह समझ में आ रहा था कि इस भूमंडलीय दुनिया में सबको सबका सम्मान करने की जरूरत है. आप यहां जिस तर्क से अपने अल्पसंख्यकों के साथ सौतेला बर्ताव करेंगे, उसी तर्क से दूसरी जगह आपसे भी वैसा ही बर्ताव हो सकता है. यह एहसास पहली बार हो रहा था कि जो भारत अपनी कई नई-पुरानी विडंबनाओं के बावजूद दुनिया भर में विविधता और सहिष्णुता के घर के रूप में जाना जाता रहा है, उसे एक लापरवाह और असहिष्णु बयान ने कितना कमजोर कर दिया है कि उसे वे देश उपदेश दे रहे हैं जिनका अपना रिकॉर्ड बहुत खराब है.
लेकिन शुक्रवार के देशव्यापी हंगामे ने अचानक यह कहानी बदल दी. अब सबका ध्यान घर के भीतर के हंगामे पर है. इस हंगामे की व्याख्या भी बड़ी बारीकी से बदली जा रही है. यह सच है कि इन प्रदर्शनों के दौरान कई जगह हिंसा भी हुई, लेकिन ज्यादातर शहरों में यह मामला शांतिपूर्ण प्रदर्शनों के साथ खत्म हुआ. मीडिया ने अचानक प्रदर्शनकारियों को उपद्रवी लिखना शुरू किया, जहां भी सड़क पर झंडे उठाए लोग दिखने लगे, वहां उसे लगा कि हिंसा हो रही है. एक टीवी चैनल पर देवबंद में जुमे के बाद हंगामे की खबर चली जिस पर देवबंद के कप्तान आकाश तोमर को ट्वीट कर कहना पड़ा, “अफवाहें न फैलाएं, हालात बिल्कुल सामान्य हैं, देवबंद में कोई भी घटना नहीं हुई है.”
तो जब मुख्यधारा का मीडिया ऐसे पूर्वग्रहों से भरा हो तो लोकतंत्र और बहुलतावाद के हिमायती लोगों की जिम्मेदारी कुछ और बड़ी हो जाती है. ऐसी जिम्मेदारी पहले निभाई भी गई है. नागरिकता संशोधन कानून के खिलाफ देश के कई शहरों में बन गए शाहीन बाग दरअसल इसी लोकतांत्रिक जज्बे की मीनारों के तौर पर उभरे जिन्हें देखकर अलोकतांत्रिक सरकारें आंख और मुंह चुराती रहीं. वहां भी उकसावे की बहुत सारी हरकतें हुईं, तरह-तरह के आरोप लगे, लेकिन अपनी गरिमा और मर्यादा में वह आंदोलन एक मिसाल बना रहा.
नुपुर शर्मा प्रकरण पर लौटें. उन्होंने एक टीवी चैनल में एक वाहियात सी बात कही. इस सरकार ने जो पैमाना दूसरों के लिए बना रखा है, उस पर अमल करती तो वह उन्हें फौरन गिरफ्तार करती. लेकिन हम जानते हैं कि नुपुर शर्मा हों या धर्म सांसद के नाम पर बिल्कुल हिंसक बयान देने वाले तथाकथित साधु-संत- उन सबको सरकार का संरक्षण हासिल है. उन्हें सुरक्षा ही मिलेगी, जेल नहीं.
मगर हमारी कसौटियां तो भिन्न होनी चाहिए. धर्म संसद में हिंसक कार्रवाई की मांग करने वालों के प्रति तो नहीं, मगर नुपुर शर्मा के प्रति भी हमें बोलने की आजादी का वही पैमाना लागू करना चाहिए जो हम दूसरों के लिए चाहते हैं. यानी हमारी तरह के लोग नुपुर शर्मा की गिरफ्तारी की मांग नहीं कर सकते. बेशक, टीवी चैनलों से यह पूछ सकते हैं कि वह ऐसे प्रवक्ताओं, बहसबाजों को मंच क्यों देते हैं कि वे अनियंत्रित बयानबाजी करते रहें.
सच तो यह है कि असली कार्रवाई उनके विरुद्ध होनी चाहिए जो हर शाम प्राइम टाइम में नफरती एजेंडे का संदूक खोल कर बैठ जाते हैं और बिल्कुल अभद्र भाषा में देश की एक बहुत बड़ी जमात की नागरिकता छीनने पर आमादा दिखाई पड़ते हैं. ज्यादा दिन नहीं हुए जब कश्मीर से आईएएस बने शाह फैजल ने कहा था कि हर शाम जब भारत में टीवी पर प्राइमटाइम की बहसें शुरू होती हैं तो कश्मीर खिसक कर कई किलोमीटर पीछे चला जाता है.
दूसरी बात यह कि नुपुर शर्मा अकेली नहीं हैं- वे एक व्यवस्था और विचारधारा की पैदाइश हैं. उन्होंने जो कुछ कहा वह इसलिए नहीं कहा कि वह आवेश में उनके मुंह से निकल गया, उनको उम्मीद थी कि उनके कहे पर उनकी पीठ थपथपाई जाएगी, अपनी पार्टी के भीतर उनको बेहतर जगह मिलेगी. यानी नुपुर शर्मा तो एक कठपुतली भर हैं जिनके धागे असहिष्णुता और गाली-गलौज को प्रोत्साहन देने वाले एक वैचारिक परिवार के हाथ में हैं और जिसके साथ इन दिनों सत्ता और पूंजी का बल भी है.
हमारी असली चुनौती दरअसल इस ताकत से मुकाबला करने की है. यह मुकाबला सड़क पर उतर कर नहीं होगा. क्योंकि इससे सत्ता को भी सड़क पर उतरने का मौका मिलता है. फिर उसके पास लाठी-डंडा और गोली चलाने के तर्क चले आते हैं. कई प्रगतिशील बुद्धिजीवी भी बीती रात से मुंडी हिलाते कह रहे हैं कि पुलिस को उन लोगों को ‘तोड़ना’ चाहिए जो सड़क पर तोड़फोड़ कर रहे हैं. हमारी न्यायप्रिय पुलिस कैसे यह काम करेगी, यह हम अपने अनुभव से जानते हैं. यूपी के प्रशासन में बुलडोजर विमर्श फिर लौट आया है. आप चाहें तो फिल्म ‘मुगले आजम’ में संगतराश द्वारा कही गई यह बात याद कर सकते हैं कि बादशाहों के ज़ुल्म और इंसाफ में ज्यादा फर्क नहीं होता.
दरअसल यह समझने की जरूरत है कि हमारे सामने एक बड़ी लड़ाई है. जिसे चालू भाषा में ‘नफरती बयान की राजनीति’ कहा जाता है, उसके हमारे संदर्भ में बहुत मार्मिक अर्थ हैं. यह हजार साल से चली आ रही एक परंपरा पर चोट है, उस हिंदुस्तान को बदलने की कोशिश है जो इन बरसों में बना और जिसे 1947 के बाद हमने बनाए रखने का अपने-आप से वादा किया. आज की तारीख में हिंदुस्तान जैसे किसी उन्माद में डूबा हुआ है. सियासत से अदालत तक जैसे इतिहास के उत्खनन में लगी हुई है, गालियों का हिसाब लगाने में उलझी हुई है, पूजास्थलों की प्रामाणिकता जांच रही है. मीडिया 24 घंटे बजबजाती घृणा के तालाब में डूबा हुआ है तो सोशल मीडिया एक खौलता समंदर बना हुआ है. एक तरह की बर्बरता जैसे हमारे सार्वजनिक व्यवहार का हिस्सा हुई जा रही है. हम सब एक-दूसरे पर टूट पड़ने पर आमादा हैं.
शुक्रवार को देश की सड़कों पर जो कुछ हुआ, उससे इस प्रक्रिया को और शह और शक्ति मिलती है, तर्क और समर्थन मिलता है. हम रणनीतिक तौर पर भी परास्त दिखते हैं, इसमें हमारे वैचारिक कवच के कमजोर हिस्से भी दिखते हैं. इन घटनाओं से लगभग उसी तरह निबटा जाना चाहिए जिस तरह दूसरी ऐसी अराजकताओं से निबटा जाता है. लेकिन क्या सरकारें वाकई इस बराबरी के साथ इंसाफ करने को तैयार हैं? बेशक नहीं, लेकिन इसी वजह से एक नागरिक समाज के रूप में, इंसाफ और बराबरी पसंद करने वाली जमात के तौर पर हमारी जिम्मेदारी कुछ और बड़ी हो जाती है.
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