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भारत का मीडिया खतरों से घिरा हुआ है, लेकिन जनता को इसकी परवाह कब होगी?

क्या आम लोग प्रेस की आजादी की परवाह करते हैं? या फिर यह केवल संभ्रांत लोगों की परेशानी है, हालांकि इस देश के संभ्रांत इस आजादी की रक्षा के लिए प्रयत्न नहीं करेंगे.

जब भी भारत में मीडिया की दशा पर चर्चा होती है यह सवाल बार-बार उठता है.

रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स या आरएसएफ के द्वारा जारी की गई ताजा वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में जनवरी 2022 से अब तक, एक पत्रकार की मौत हुई है और 13 पत्रकार हिरासत में हैं. एक बड़ी संख्या में पत्रकार मारे जाने की धमकियों, निगरानी और उनके खिलाफ अदालतों में दाखिल किए गए अनेक मामलों से लड़ते हुए अपना काम करते हैं. एक जनतंत्र होने का दावा करने वाले किसी भी देश में, यह सभी चीजें प्रेस की पूरी तरह से आजादी को नहीं, बल्कि इसके विपरीत को जाहिर करती हैं.

आरएसएफ द्वारा जारी की गई रिपोर्ट भी यही दिखाती है, कि सर्वे किए गए 180 देशों में भारत का स्थान लगातार गिर रहा है. 2016 में 133वें स्थान से 2021 में 142वें और इस साल 150वें स्थान पर आकर भारत तेजी से इस सूची में नीचे आया है.

जाहिर है, सरकार इसे स्वीकार नहीं करती. उम्मीद के मुताबिक, वह इन सभी रिपोर्टों को भारत के खिलाफ षड्यंत्र और जनतांत्रिक और प्रेस की आजादी के जगमगाते उदाहरण के रूप में उसकी पहचान को धूमिल करने की साजिश की तरह देखती है.

लेकिन इस "जगमगाहट" के भ्रम को तोड़ने के लिए उसे केवल अपने गिरेबान में झांकने की जरूरत है. हालात दिन-ब-दिन बिगड़ रहे हैं. जहां एक तरफ, सच्चाई से रिपोर्ट करने वाले, उसे उजागर करने वाले और सवाल पूछने वाले पत्रकारों को परेशान किया जा रहा है, उन पर मामले लादे जा रहे हैं और कई बार उनकी हत्या भी हो रही है. वहीं दूसरी ओर भारत के मीडिया का अधिकतम हिस्सा सरकार का भोंपू बनकर काम कर रहा है, जो हर कहे और अनकहे निर्देश को चिल्ला-चिल्ला कर दोहराता रहता है.

जनतंत्र के तौर पर 75 वर्ष बीत जाने के बावजूद भी यह हैरान करने वाली बात है, कि प्रेस की आजादी का विचार, या उसका न होना, जनता में ज्यादा लोगों को परेशान नहीं करता. लगता है कि आम लोगों के जीवन में मीडिया कोई बड़ी भूमिका नहीं रखता. या फिर यह आज के समय की सच्चाई का परिचायक है, कि सोशल मीडिया पर चलने वाली बातें मीडिया पर चल रही खबरों से ज्यादा विश्वसनीयता रखती हैं.

लेकिन वोट करने वाली जनता कि इस नजरअंदाजी के बावजूद भी यह कहना जरूरी नहीं, कि एक आजाद प्रेस के बिना इस देश में जो कुछ हो रहा है, वह पता ही न चल पाता.

अगर हम कोविड-19 महामारी के पिछले दो सालों की रिपोर्टिंग को देखें, खासतौर पर दूसरी लहर के समय जब कुछ मीडिया संस्थानों ने, खासतौर पर स्वतंत्र डिजिटल मीडिया संस्थानों के द्वारा ऑक्सीजन की कमी, इलाज के न मिल पाने या इलाज ढूंढते हुए ही मरने, और फिर ऐसे ही किसी कब्र में या गंगा में फेंक दिए जाने वाले लाखों लोगों की त्रासदी पर रिपोर्ट की. इसके बावजूद भी जो कुछ हुआ उस अव्यवस्था को केंद्र या राज्य सरकारों से जोड़ कर नहीं देखा. ऐसा क्यों?

स्क्रोल के पत्रकार शोएब डेनियल के अनुसार, मतदाताओं ने दूसरी लहर के दौरान रोज होने वाली इन त्रासदियों को, सरकार की आपदा प्रबंधन में असफलता के तौर पर इसलिए नहीं देखा, क्योंकि "मीडिया की आलोचना" मौजूद नहीं है.

वे कहते हैं, "महामारी के दौरान, बड़े मीडिया संस्थानों खासतौर पर राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र में स्थित हिंदी और अंग्रेजी भाषा के संस्थानों ने- आर्थिक नुकसान और स्वास्थ्य व्यवस्था के ढह जाने के लिए सरकार को जिम्मेदार नहीं ठहराया. इसके बजाय कोविड-19 महामारी को एक वैश्विक दैवीय आपदा की तरह पेश किया गया, जिससे हर देश समान रूप से ग्रसित हुआ. मुख्यधारा के हिंदी या अंग्रेजी मीडिया में ऐसी गिनी चुनी रिपोर्ट ही आईं, जिनमें सरकार की प्रशासकीय गलतियों या भारत के सबसे बुरी तरह से ग्रसित होने की बात हुई थी."

अगर मुख्यधारा के मीडिया ने महामारी के दौरान आम लोगों के जीवन पर आई त्रासदी को सच्चाई से दिखाया होता, तो क्या उसके बाद होने वाले चुनावों में मतदाताओं ने अलग तरह से वोट किया होता?

इतिहास को देखें, तो ऐसा पहले हुआ है. 1975 में जब इंदिरा गांधी ने इमरजेंसी लागू कर दी थी, तब प्रेस की आजादी सुषुप्तावस्था में चली गई थी. प्रेस अपनी इस अवस्था से, जनवरी 1977 में इमरजेंसी हटने के बाद मार्च के आम चुनावों से पहले ही बाहर आई.

इमरजेंसी खत्म होने और चुनाव के बीच के इस थोड़े से समय का उपयोग, मीडिया ने सरकार के द्वारा गरीबों के अधिकारों के हनन को उजागर करने के लिए किया, खास तौर पर शहरी गरीबों की बस्तियां उजाड़ने और जबरदस्ती सामूहिक नसबंदी की बात जनता तक पहुंचा कर. इंदिरा गांधी की गरीबों की परवाह करने वाली छवि को इससे बहुत बड़ा धक्का पहुंचा था. "गरीबी हटाओ" का नारा "गरीब हटाओ" में बदल गया था. और वे गरीब ही थे जिन्होंने शिद्दत से उनके और उनकी कांग्रेस पार्टी के खिलाफ वोट डालकर, राजनीतिक परिवर्तन को साकार किया.

आज के भारतीय मीडिया की हालत देखते हुए यह मुश्किल ही है, कि "बुलडोजर से हो रहे अन्याय" जैसी खबरों पर उसकी रिपोर्टिंग से कोई राजनीतिक परिवर्तन आए. यह खबर भी इसलिए कवर हो रही है, क्योंकि यह सब राष्ट्रीय राजधानी में हो रहा है जहां पर सारे मीडिया हाउस स्थित हैं. अगर ऐसा ही किसी छोटी जगह पर हो रहा होता तो इसी घटना कि शायद ही कोई खबर चली होती. हर दिन, देशभर में ऐसे ही और इससे कहीं ज्यादा बड़े अन्याय होते रहते हैं जिन पर कोई खबर नहीं चलती.

एक रोचक बात यह भी है कि आरएसएफ की रिपोर्ट 3 मई को जारी हुई थी, जिसे विश्व प्रेस आजादी दिवस के रूप में रखा गया है - तब भी शायद ही किसी बड़े मीडिया संस्थान या अखबार ने, रिपोर्ट में दिए डाटा को दिखाने के अलावा इस पर कोई बात नहीं की. ऐसा लगता है कि मीडिया में मौजूद हम लोग भी अपनी आजादी को लेकर बेपरवाह हैं.

आउटलुक के पूर्व संपादक कृष्णा प्रसाद ने अपने मीडिया आलोचना के ट्विटर खाते @churmuri के जरिए लिखा की सर्वे किए गए 16 अंग्रेजी अखबारों और 22 राज्यों में देखे गए 15 भाषाई अखबारों में से एक ने भी, वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स में भारत की रैंकिंग पर कोई टिप्पणी नहीं की. केवल स्क्रोल या वायर जैसे स्वतंत्र डिजिटल न्यूज़ संस्थानों ने ही इस रिपोर्ट की महत्ता को गंभीरता से लिया, जैसा कि द वायर के इस संपादकीय में स्पष्ट रूप से जाहिर होता है.

यह संपादकीय इन शब्दों में खत्म होता है, "शब्दों मैं मिठास घोलने का समय बीत चुका है: भारत का जनतंत्र दिनदहाड़े मर रहा है. तब भी, यह मृत्यु अवश्यंभावी नहीं. प्रेस खतरों से घिरी हुई है, लेकिन उसे अपने पांव जमाए रखने के तरीके ढूंढने होंगे, जो हो रहा है उसे दर्ज करते रहना होगा और निशाना बन रहे हर पत्रकार और मीडिया संस्थान के सहयोग में दृढ़ता से आवाज उठानी होगी."

यह सत्य है कि आज भारत में मीडिया खतरों से घिरा हुआ है और कई पत्रिका तो अक्षरशः निशाने पर हैं. लेकिन उन्हें केवल मारपीट या गोलियों से नहीं, बल्कि अलग-अलग तरीकों से मारा या बेबस किया जा रहा है.

मैं इस लेख का अंत, उत्तर प्रदेश के एक ग्रामीण पत्रकार पवन जायसवाल के उल्लेख से करना चाहती हूं.

2019 में, उत्तर प्रदेश सरकार ने पवन पर सरकार को बदनाम करने की साजिश का इल्जाम लगाया था, क्योंकि उन्होंने मिर्जापुर गांव में मिड डे मील के दौरान बच्चों को रोटी के साथ नमक खाते हुए दिखाया था. मिड डे मील योजना की शुरुआत इस परिकल्पना से हुई थी, कि गरीब से गरीब तबके से आने वाले बच्चे भी इस बहाने स्कूल आकर दिन में कम से कम एक समय पौष्टिक भोजन ग्रहण कर सकें.

पवन वही कर रहे थे जो एक पत्रकार को करना चाहिए, आमतौर पर कुरूप और विचलित करने वाली सच्चाई को दर्ज करके रिपोर्ट करना. जैसा रोज ही देश के अनेक भागों में होता रहता है. उत्तर प्रदेश सरकार की नजर में, यह ऐसा अपराध था जिसके लिए उन्हें सजा दी जानी चाहिए थी.

दुर्भाग्य से, पिछले हफ्ते पवन जायसवाल की कैंसर से मृत्यु हो गई. एक ऐसी बीमारी जिसके इलाज के लायक पैसे वह एक ग्रामीण पत्रकार के तौर पर नहीं कमा पाए.

पवन को किसी ने नहीं मारा. परंतु एक ऐसा तंत्र, जो पत्रकारों को अपना काम करने के लिए अपराधी बना देता है, और उन्हें इतनी ही आय देता है कि वे बस जिंदा रहने भर लायक ही कमा पाते हैं - उनकी मृत्यु का उत्तरदाई है.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)

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