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झारखंड: वन अधिकार कानून के तहत आदिवासियों को दावों के मुताबिक नहीं मिल रही जमीन
झारखंड में वन अधिकार कानून के तहत अधिकांश आदिवासियों को उनके दावों से बहुत कम जमीन मिल रही है. यही नहीं दावा करने के बाद भी आदिवासियों के नाम पर जमीन हस्तांतरित करने में सालों लग रहे हैं.
सर्वे रिपोर्ट के मुताबिक झारखंड के करीब 15 हजार जंगल वाले गांवों में लगभग ढाई करोड़ से अधिक की आबादी रहती है. यहां सामुदायिक और निजी करीब 19 लाख हेक्टेयर वन भूमि पर दावों की संभाव्यता है.
सरकारी आंकड़ों के मुताबिक झारखंड में 60 हजार व्यक्तिगत व दो हजार सामुदायिक पट्टों को वितरण हुआ है, जबकि 49 हजार दावा पत्र विभाग के पास लंबित हैं.
जतन सिंह खरवार की उम्र 60 छूने वाली है और इन पर परिवार के आठ लोगों की जिम्मेदारी है. जीविका का साधन सिर्फ खेती है. जिस जमीन को जोतकर जतन साल भर की फसल उपजा लेते थे, 2016 के बाद से उस पर पाबंदी है.
जतन बताते हैं, “हम 1995 से तीन-चार एकड़ पर खेती करते आ रहे थे. जब 2006 में वन अधिकार कानून आया तो गांव वालों के साथ मैंने भी निजी पट्टे के लिए 3 एकड़ 14 डिसमिल (1.27 हेक्टेयर) पर दावा पत्र दिया. ग्राम सभा से जांच-पड़ताल के बाद मेरा दावा पत्र आगे गया, लेकिन हमको महुआडांड़ अनुमंडल से सिर्फ एक डिसमिल (.004 हेक्टेयर) जमीन का ही पट्टा मिला. अब बोलिए हम परिवार कैसे चलाएंगे?”
महुआडांड़ लातेहार जिले का अनुमंडल है. इसके गारु प्रखंड के कोटाम पंचायत के हुरदाग गांव में ही जतन सिंह रहते हैं. गांव में 45 और घर हैं और ये सभी आदिवासी हैं. इन लोगों ने वन अधिकार कानून के तहत वन भूमि पर दावा पत्र दाखिल किया था. इन्हें भी 2016 में वन पट्टा तो मिला लेकिन नामभर का.
गांव के सबसे बुजुर्ग 76 साल के गुलाब सिंह खरवार कहते हैं, “किसी ने दो एकड़ तो किसी ने तीन या पांच एकड़ पर दावा किया था, लेकिन पट्टा पांच, 10 या 20 डिसमिल का ही मिला.”
वहीं हुरदाग गांव के ग्राम प्रधान फुलेश्वर सिंह खरवार कहते हैं, “45 घरों में एक-दो को छोड़ दीजिए तो सभी के साथ ऐसा ही हुआ है. लेकिन जतन के साथ तो मानो मजाक हुआ हो. गांव में सबका दावा पत्र ग्रामसभा की सहमति के बाद अनुमंडल गया था, लेकिन फिर भी दावे के विपरीत जमीन में इतनी कटौती क्यों की गई? पता नहीं. शिकायत भी किए, अफसर बोला था ठीक हो जाएगा.” झारखंड में वन-अधिकार कानून 2006 (एफआरए) पर काम करने वाले संगठनों का दावा है कि ये वनअधिकार के तहत पट्टों के लिए जो दावे किए जा रहे हैं उसमें ऐसी कटौती 90 फीसदी तक हो रही है. यह राज्यव्यापी है.
वन-अधिकार कानून कहता है कि वन-भूमि पर दावा करने के लिए अन्य परंपरागत वन निवासी को 75 साल या तीन पीढ़ी का प्रमाण देना होगा. जबकि आदिवासियों को 13 दिसंबर 2005 के पहले का ब्यौरा देना पड़ता है. जतन सिंह आदिवासी हैं और वो इस जरूरत को पूरा करते हैं.
कानून को ताक पर रख कर की गई कटौती?
झारखंड वन-अधिकार मंच से जुड़कर पलामू प्रमंडल में वन अधिकारों पर 10 साल से काम कर रहे व राष्ट्रीय दलित मानवाधिकार अभियान के झारखंड स्टेट को-ऑर्डिनेटर मिथिलेश कुमार कहते हैं, “देखिए, कानूनी तौर पर एफआरए को लागू करने के लिए तीन प्रमुख कमेटियां होती हैं. पहली ग्राम सभा की ओर से बनाई गई वन अधिकार समिति (एफआरसी). इसी कमेटी के पास वन पट्टा के आवेदक दावा पत्र देते हैं. इसके बाद कमेटी आवेदक के कागजात की जांच-पड़ताल करती है. फिर एफआरसी ग्रामसभा से अनुमोदन लेती है कि दावा पत्र सही है या नहीं. फिर इस दावे को एफआरसी, सब-डिवीजनल लेवल कमेटी (एसडीएलसी) के पास भेजती है.”
मिथिलेश कहते हैं, “एसडीएलसी का काम ये देखना है कि दावा पत्र में त्रुटि तो नहीं है. त्रुटि होने की स्थिति में एसएलडीसी सुधार के लिए ग्राम सभा को पास पुनः भेजेगा ताकि ग्राम सभा इसे ठीक कर वापस भेजे. एसएलडीसी के पास दावा पत्र के रकबे को घटाने-बढ़ाने का अधिकार नहीं है. घटाने-बढ़ाने का अधिकार ग्रामसभा को है. लेकिन एसएलडीसी दावा पत्र के रकबे को घटाकर जिला स्तर की कमेटी (डीएलसी) को भेजती है. रकबे को अपने मुताबिक तय कर उतना ही वन पट्टा देने की सिफारिश करती है. इसी के आधार पर डीएलसी पट्टा देता है, जो वन-अधिकार कानून का सरासर उल्लंघन है.”
जैसे लंका गांव के ग्राम प्रधान महावीर परहईया को ही लीजिए. इन्होंने पांच एकड़ 60 डिसमिल (2.27 हेक्टेयर) पर दावा पत्र दाखिल किया था, लेकिन मात्र एक एकड़ (0.404 हेक्टयर) पर ही वन पट्टा मिला. महावीर कहते हैं, “बाकी 15 लोगों को मुझसे भी कम वन पट्टा मिला है. एक तो लंबे संर्घष के बाद वन पट्टा मिला, वो भी भारी कटौती करके. इससे संतुष्ट नहीं हैं हम लोग. जितना हमारा दावा है उतना मिलना चाहिए था.”महावीर ने कहा कि पट्टे के लिए कई साल लड़ाई लड़ी है और आगे भी लड़ेंगे. कटौती के विषय को ग्रामसभा में उठाएंगे और आगे शिकायत भी करेंगे. एफआरए के मुताबिक निजी पट्टे के लिए दस एकड़ भूमि पर दावा किया जा सकता है, जबकि सामुदायिक पट्टे के लिए कोई सीमा नहीं है.
कार्यालयों से दावा पत्रों की फाइल गायब होने की शिकायत
वन और आदिवासी अधिकारों को लेकर कई किताब लिख चुके ऐक्टिविस्ट ग्लैडसन डुंगडुंग ने अपनी नई किताब ‘आदिवासीज एंड देयर फॉरेस्ट’ में सरकारी कार्यालयों से दावा पत्र की फाइल गुम होने का दावा किया है. आदिवासी पब्लिकेशन से नवंबर 2019 में छपी किताब के पेज संख्या 165-66 पर उन्होंने लिखा, “2012 में पश्चिमी सिंहभूम के मनोहरपुर प्रखंड के कई गांवों से दावा दाखिल हुआ था लेकिन दावा पत्र अंचल कार्यालय से गुम हो गया. 2016 के आखिरी में इसे लेकर रांची के राज्यपाल भवन के सामने सामाजिक संगठनों ने विरोध-प्रदर्शन किया, जिसके मद्देनजर तत्कालीन राज्यपाल ने सरकार को मामले की पड़ताल का आदेश दिया. नतीजा, आवेदकों को फिर से दावा पत्र दाखिल करने को कहा गया. 2017 में इन लोगों ने फिर दावा पत्र दाखिल किया."
आदिवासी समन्वय समिति के संयोजक सुशील बारला कहते हैं कि इन लोगों ने न केवल फिर से आवेदन डाला बल्कि इस बाबत उपायुक्त, मंत्री, विभागीय सचिव सबको पत्र, मांग-पत्र सौंपा, पर इन्हें आज तक वन पट्टा नहीं मिला. इनका दावा है कि पूरे जिले से लगभग ऐसे 17 हजार निजी दावे पत्र थे.
किताब के ही पेज नंबर 154-56 के मुताबिक, “रांची के नामकुम प्रखंड के कुदागड़ा गांव से भी इस तरह के मामले मिले. इस आदिवासी बहुल गांव के 347 घरों के 700 एकड़ ( 283.28 हेक्टेयर) पर सामुदायिक दावा किया, जिसे सर्किल अफसर ने घटाकर 100 एकड़ (40.47 हेक्टेयर) करने को कहा. गांव वालों के इनकार करने पर दावा पत्र की फाइल गायब हो गई. इसी गांव के 36 लोगों के निजी दावा पत्र में से 30 लोगों का दावा खारिज करके महज छह लोगों को वन पट्टा दिया गया, जिसमें सभी के पट्टे की कटौती की गई. उदाहरण के तौर बांदो मुंडा के 8 एकड़ (3.24 हेक्टेयर) को घटाकर सात डिसमिल (0.028 हेक्टेयर) कर दिया गया.”
ग्लैडसन डुंगडुंग का कहना है कि दावा पत्र गायब होने और जमीन की कटौती का मामला इक्का-दुक्का नहीं है. खूंटी, सिमडेगा, गुमला, गढ़वा समेत समूचे राज्य में बहुत सारे मामले मिल जाएंगे. ग्लैडसन कहते हैं, “साफ है सरकार आदिवासियों को जमीन पर उनका न्यायिक अधिकार नहीं देना चाहती है. इसलिए कहीं कानून का उल्लंघन कर कटौती की जाती है तो कहीं से दावा पत्र की फाइल गायब कर दी जाती है.”
कटौती के पीछे की मंशा क्या है?
जमीन की कटौती दूसरे राज्यों में भी हो रही है. वन-अधिकार कानून से जुड़े स्वतंत्र शोधकर्ता तुषार दास कहते हैं, “कटौती की शिकायत कॉमन है. राजस्थान, ओडिशा, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ में भी यही हो रहा है. पट्टेदार को दावे से बहुत कम जमीन दी जाती है और ये काम गैर-कानूनी ढंग किया जा रहा है. इस तरह की कटौती को सुप्रीम कोर्ट ने भी गलत बताया. यही नहीं, 2019 में कोर्ट में आदिवासी मामलों के मंत्रालय ने भी माना 19 लाख रिजेक्शन गलत थे. कटौती करने और रिजेक्शन को रिव्यू करने का अधिकार ग्रामसभा को है. ग्रामसभा के बिना सुनवाई के जिला या अनुमंडल स्तर पर अधिकारी अपनी मर्जी से रिजेक्शन नहीं कर सकते हैं.”
कटौती क्यों की जा रही हैं इस बारे तुषार दास दो प्रमुख वजह बताते हैं, “कटौती और रिजेक्शन दरअसल वन विभाग की आपत्ति के बाद हो रहा है. इनकी मानसिकता है कि जो सामुदायिक वन भूमि है, वो ग्रामसभा के पास नहीं जाना चाहिए. कैम्पा प्लांटेशन का जो बड़ा प्रोजेक्ट चला रहा है, उसके लिए फॉरेस्ट विभाग इसी जमीन को टारगेट करना चाहता है, जिसपर लोगों का अधिकार बनता है. दूसरा कारण कॉरपोरेट घरानों को जमीन देने के लिए सभी राज्यों में लैंड बैंक बनाए जा रहे हैं. झारखंड में तो बहुत सारी सामुदायिक वन भूमि कम्युनिटी फॉरेस्ट लैंड को पहले ही गलत ढंग से लैंड बैंक में शामिल किया जा चुका है.”
झारखंड में कितनी बड़ी आबादी है वनों पर आश्रित?
झारखंड जंगल बचाओ आंदोलन के संस्थापक (जेजेबीए) प्रो संजय बसु मल्लिक का मानना है कि अधिकांश पट्टाधारकों की जमीन में कटौती की गई है. इनके अनुसार जिन लोगों को वन पट्टा मिला है उसमें बहुत ज्यादा गलतियां की गई हैं. बसु के मुताबिक पिछली सरकार की जो नीयत थी उसी ढर्रे पर मौजूदा सरकार भी चल रही है. राज्य की एक करोड़ से अधिक आबादी प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप से वनों पर आश्रित हैं. लेकिन पट्टाधारक की संख्या महज नाम के लिए हैं.
2011 की जनगणना पर आधारित झारखंड वन अधिकार मंच और इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस (आईएसबी) की संयुक्त सर्वे रिपोर्ट 2019 के मुताबिक राज्य में 32,112 गांव हैं. इनमें से 14,850 जंगल वाले गांव हैं और इसका क्षेत्रफल 73,96,873.1 हेक्टेयर है. परिवारों की संख्या 46,86,235 और और आबादी 2,53,64,129 है. इसमें एसटी और एससी क्रमशः 75,66,842 व 30,98,330 हैं. इन क्षेत्रों में सामुदायिक एवं निजी 18,82,429.02 हेक्टेयर वन भूमि पर दावों की संभाव्यता है.
भारत सरकार के जनजातीय कार्य मंत्रालय की वेबसाइट पर 24.02.2022 तक अपडेट आंकड़ों के मुताबिक झारखंड सरकार को एक लाख सात हजार व्यक्तिगत पट्टा दावा प्राप्त हुआ है. पर सरकार ने 60 हजार पट्टों का ही वितरण किया है. यानी 47 हजार मामले लंबित हैं. वहीं सामुदायिक पट्टे का दावा मात्र चार हजार ही प्राप्त हुआ है, जिनमें दो हजार ही सामुदायिक पट्टे का वितरण हुआ है. वहीं 1.53 लाख एकड़ निजी और 1.04 लाख एकड़ सामुदायिक वन भूमि पर पट्टा मिला है. हालांकि सरकार के पास ये आंकड़ा नहीं है कि कितनी जमीन पर दावा किया गया है.
बसु कहते हैं, “सामाजिक संगठनों के विरोध-प्रदर्शन को देखते हुए सरकार ने पिछले साल दिसंबर में एक बैठक बुलाई. इसमें राजस्व, निबंधन एवं भूमि सुधार के अपर मुख्य सचिव एल ख्यांग्ते ने वन व कल्याण विभाग के अधिकारियों को एफआरए को जस-का-तस लागू करने और लंबित वन पट्टे का निष्पादन कर अगले साल के मार्च तक पट्टा देने का निर्देश दिया. अब आप देखिए मार्च बीत गया और अप्रैल भी खत्म होने वाला है. लेकिन लंबित मामले जस के तस हैं.”
इस पूरे मसले पर झारखंड में संबंधित विभाग के मंत्री और सचिव से भी बात करने की कोशिश की गई. उनका जवाब आने पर खबर को अपडेट किया जाएगा.
(साभार- MONGABAY हिंदी)
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