Opinion

भारत और अमेरिका की दोस्ती पर देश के नेताओं को गंभीरता से चिंतन करने की जरूरत

मैंने इस लेख के शीर्षक में जो अमेरिका-पाकिस्तान के बीच दोस्ती शब्द का प्रयोग किया है वह सही नहीं है. जिनके हित एक समान होते हैं दोस्ती उनके बीच होती है. जो एक-दूसरे का सम्मान करते हैं, प्रेम करते हैं, जरूरत पड़ने पर एक-दूसरे की मदद के लिए तैयार रहते हैं दोस्ती हमेशा उन लोगों के बीच होती है. समान आर्थिक हैसियत वालों के बीच दोस्ती हमेशा टिकाऊ रहती है, हालांकि अपवादस्वरूप असमान लोगों में भी दोस्ती हो सकती है लेकिन उनके हित एक-दूसरे से नहीं टकराने चाहिए. पाकिस्तान-अमेरिका का मामला दूसरा है. इनकी दोस्ती विपरीत हितों के बीच की दोस्ती है.

यह वैसी ही दोस्ती है जैसे मछली और बगुले में हो जाए. दोनों के हित बिल्कुल एक-दूसरे के विपरीत. यह स्वाभाविक दोस्ती नहीं है बल्कि बगुले द्वारा मछली पर जबरदस्ती थोपी गई दोस्ती है जिसे मानना मछली की मजबूरी बन गई है. वास्तव में 1947 में भारत तो राजनीतिक तौर पर आजाद हो गया था लेकिन पाकिस्तान में अंग्रेजों की सत्ता बनी रही. बस इतना परिवर्तन आया कि पाकिस्तान की राजनीति और आर्थिक नीति पर पहले ब्रिटेन के अंग्रेजों का नियंत्रण था, 1947 में वह नियंत्रण अमेरिका के अंग्रेजों के हाथ में चला गया. वह ब्रिटेन की गुलामी के दलदल से निकलकर अमेरिका की गुलामी की दलदल में फंस गया. यही कारण है कि भारत तो 1947 से 1991 तक सम्प्रभु बना रहा लेकिन पाकिस्तान न आजादी से पहले सम्प्रभु था और न आज सम्प्रभु है.

किसी देश के सम्प्रभु होने का मतलब है अपने देश के बारे में हर तरह के निर्णय लेने की आजादी. अगर आपके परिवार का हर फैसला आपका पड़ोसी करने लगे तो आप अपने परिवार के मुखिया होते हुए भी सम्प्रभु नहीं हुए. इसी तरह अगर बिना आपकी मर्जी के कोई बाहरी देश आपकी आर्थिक नीति, विदेश नीति और राजनीति तय करने लगे तो इसका साफ मतलब है कि आप एक सम्प्रभु देश नहीं रहे. विश्व व्यापार संगठन ने अपने गठन के बाद इस बारे में नारा दिया था, ‘‘सीमित सम्प्रभुता’’. अर्थात अगर विश्व व्यापार संगठन के सदस्य बन गए हैं तो आपके बारे में उसको फैसला करने का अधिकार मिल गया है और आपकी सम्प्रभुता सीमित हो गई है.

सम्प्रभुता की इस परिभाषा की रोशनी में हम अगर पाकिस्तान को देखें तो पाएंगे कि अमेरिका लगातार उसकी सीमा में उसी के नागरिकों पर ड्रोन हमले करता रहा है. वह पाकिस्तान में घुसकर बिना उसे बताए ओसामा बिन लादेन को मार देता है. यह सारी घटनाएं बताती हैं कि पाकिस्तान एक सम्प्रभु देश नहीं है और वह अब भी अमेरिकी अंग्रेजों का गुलाम बना हुआ है.

इसी तरह 1991 के बाद से हमारा देश भी अपनी सम्प्रभुता खो चुका है. हमारे निर्णय अमेरिका से तैयार होकर आ रहे हैं. हम उसकी मर्जी से अपने आर्थिक हितों की अवहेलना करके ईरान के खिलाफ संयुक्त राष्ट्र संघ में वोट देते रहे हैं. हमने योजना आयोग को समाप्त करके उसकी मर्जी को लागू किया है क्योंकि दुनिया भर में एक अमेरिका ही है जो सेन्ट्रल प्लानिंग का विरोधी है.

हमने उसके निर्देशानुसार ही सरकारी उद्योगों का विनिवेश और निजीकरण करना शुरू किया है. हमने उसके निर्देश पर ही अपनी विदेश नीति को पलट दिया है और अब हम उसके पिछलग्गू देश में बदलते जा रहे हैं. 1971 की भारत-पाक जंग में अमेरिका का जो सातवां नौसैनिक बेड़ा हम पर हमला करने, हमें धमकाने और अपमानित करने बंगाल की खाड़ी के निकट आ खड़ा हुआ था हम उस अपमान को भूलकर उससे यह समझौता कर बैठे हैं कि अब वह नौसेनिक बेड़ा जब भी हमारे बंदरगाह में आएगा हम उसकी सेवा में न केवल तत्पर रहेंगे बल्कि उसके लिए बिरयानी की प्लेटें तैयार रखेंगे.

अमेरिका से दोस्ती बढ़ाकर हम पाकिस्तान के अंजाम को भूल गए हैं. उसने पाकिस्तान का जो हाल किया है वह किसी से छुपा नहीं है. आज पाकिस्तान एक विफल राष्ट्र है. वहां चारों ओर आतंकवाद की वह फसल लहलहा रही है जिसके बीज 70 व 80 के दशक में अमेरिका ने ही बोए थे. अपने पिट्ठू जनरल जियाउल हक नामक फौजी तानाशाह की मदद से उसने धार्मिक मदरसे खुलवाए थे और अफगानिस्तान में गरीब मजदूरों-किसानों की नई बनी सरकार को हटाने के लिए उसने उन मदरसों में गरीब अफगानी और पाकिस्तानी बच्चों का ब्रेनवॉश करके आतंकवादी तैयार किए थे. उस समय पाकिस्तान और अफगानिस्तान के समाज में जो नफरत की आग अमेरिका ने लगाई थी उसकी आंच न केवल भारत बल्कि आसपास के दूसरे देशों तक महसूस की जा सकती है.

अमेरिका जब किसी देश से दोस्ती करता है तब वहां कुछ ही दिनों में गृहयुद्ध की स्थिति बन जाती है. वहां के लोग आपस में लड़ने लगते हैं. इसका प्रमाण हम भारत में देख सकते हैं. 1991 में जब हमने अमेरिकापरस्त नई आर्थिक नीति के तहत उसके लिए अपने दरवाजे पूरी तरह खोल दिए थे तब मीडिया मुगल रुपर्ट मारडोक ने स्टार चैनल के साथ भारत में प्रवेश किया था और तभी से भारत में मन्दिर-मस्जिद के नाम पर आपसी द्वेष फलने-फूलने लगा. ऐसा ही उसने पाकिस्तान में किया.

वहां भारत से गए शरणार्थी जिन्हें मुहाजिर कहा जाता है वहां के मूलनिवासी सिन्धियों से लड़ रहे हैं. सिन्धी, पंजाबियों से और पंजाबी, पख़्तूनों से लड़ रहे हैं. सभी लोग आपस में किसी न किसी बात पर लड़ रहे हैं. अफगानिस्तान में आई किसानों-मजदूरों की सरकार के खिलाफ अमेरिका ने पाकिस्तान और उसके सरहदी इलाकों को अपने हथियारों से पाट दिया और फिर वह हथियार पूरे पाकिस्तान में चक्कर लगाने लगे. इन हथियारों ने राजनीतिक पार्टियों में अपना स्थान बना लिया और तब से वहां सभी राजनीतिक सवालों का समाधान बजाय संसद में हल होने के संसद के बाहर आपस में हथियारों के बल पर होने लगा.

अमेरिका से दोस्ती का यह ईनाम पाकिस्तान को मिला. अमेरिका जिससे दोस्ती करता है उसकी सहायता हथियार देकर करता है. उसने एशिया के इस पूरे क्षेत्र में आतंकवाद को पैदा कर दिया. अब आप उस आतंकवाद से लड़ने के लिए ‘‘वार ऑन टेरर’’ के नाम पर उसके साथ आइए और जो बीमारी उसने पैदा की है अब उस बीमारी से लड़ने के लिए अपने सैनिकों की जान जोखिम में डालिए.

जब आप किसी बाहुबली से यह सोचकर दोस्ती करते हैं कि इससे आपका रुतबा दूसरों पर कायम हो जाएगा तब आप इस बात को भूल जाते हैं कि उस बाहुबली के जितने दुश्मन हैं वह सभी आपके भी दुश्मन बन जाएंगे. यही पाकिस्तान के साथ हुआ है. पाकिस्तान आज अमेरिका द्वारा निर्मित की गई दलदल में बुरी तरह फंस गया है और उससे निकलने के लिए इधर उधर हाथ-पैर मार रहा है. उसका चीन के निकट जाना, खुद को बचाने और दलदल से निकलने की कोशिश के रूप में देखा जाना चाहिए.

जो लोग यह सोचकर अमेरिका से दोस्ती कर रहे हैं कि संकट के समय वह उन्हें बचा लेगा या उनकी मदद करेगा यह उनकी बहुत बड़ी भूल ही नहीं खुद को भी धोखा देना है. ऐसे एक नहीं अनेक उदाहरण मौजूद हैं जब उसने अपने वफादारों को ही धोखा दिया है. मैं केवल दो उदाहरण आपके सामने पेश कर रहा हूं.

एक लैटिन अमेरिकी देश पनामा के राष्ट्रपति मेनुएल नोरेगा का और दूसरी ओसामा बिन लादेन का. अमेरिका से लगा हुआ एक देश पनामा है जिसके राष्ट्रपति मेनुएल नोरेगा ने अमेरिका के बदनाम सैनिक स्कूल, ‘‘स्कूल ऑफ अमेरिका’’ से पढ़ाई की और जो अमेरिका की जासूसी एजेंसी सीआईए के लिए काम करता रहा. उससे जब अमेरिका नाराज हुआ तो उसे राष्ट्रपति से अपदस्थ करके अपने देश ले गया. वहां उस पर मुकदमा चलाया गया और उसको 40 साल की सजा दी गई.

17 साल बाद 2007 में अच्छे चाल-चलन के आधार पर उसकी सजा समाप्त कर दी गई और उसे अमेरिका ने अपनी जेल से निकालकर फ्रांस सरकार के हवाले कर दिया जहां फिर उस पर मुकदमा चला और उसको सात साल की सजा हुई. सजा पूरी होने के बाद फ्रांस सरकार ने उसको पनामा सरकार के हवाले कर दिया और तब उसे उम्रकैद की सजा दी गई. 2017 में उसकी ब्रेन टयूमर से मृत्यु हो गई.

दूसरी मिसाल ओसामा बिन लादेन की है. ओसामा बिन लादेन और बुश परिवार में कभी घनिष्ठ व्यापारिक संबंध थे. बुश सीनियर जब सीआईए के डायरेक्टर थे तो उनका और लादेन परिवार का व्यापारिक सम्बंध था. लादेन अमेरिका के कहने पर ही अफगानिस्तान गया था और वह सीआईए के लिए काम करता रहा लेकिन जैसे ही ओसामा बिन लादेन अमेरिका के लिए अनुपयोगी हुआ और अमेरिकी हितों के लिए रुकावट बनने लगा उसे मार दिया गया.

पाकिस्तान, पनामा और ओसामा बिन लादेन वह मिसालें हैं जिससे भारत के राजनेताओं को सबक हासिल करना चाहिए और उसके नतीजों की रोशनी में जनता को भारत-अमेरिकी दोस्ती के भावी परिणाम पर गंभीरता से चिंतन करना चाहिए.

(साभार- जनपथ)

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