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प्रकाशन की आध्यात्मिक दुनिया में रॉयल्टी की माया वाया विनोद कुमार शुक्ल
अभिनेता मानव कौल के इंस्टाग्राम पोस्ट के बाद शुरू हुआ किताबों की रॉयल्टी का विवाद तू-तू, मैं-मैं के साथ अब दम तोड़ता दिख रहा है. अपने पोस्ट में कौल ने बकौल विनोद कुमार शुक्ल हिंदी के कुछ प्रतिष्ठित प्रकाशकों पर रॉयल्टी में हेरफेर का आरोप लगाया था.
कौल ने लिखा था- ‘‘पिछले एक साल में, वाणी प्रकाशन से छपी तीन किताबों के इन्हें मात्र छह हजार रुपए मिले हैं. और राजकमल प्रकाशन से पूरे साल के मात्र आठ हजार रुपए. मतलब देश का सबसे बड़ा लेखक साल के 14 हजार रुपए मात्र ही कमा रहा है. पत्र व्यवहार में इन्हें महीनों तक जवाब नहीं मिलता है. वाणी को लिखित में दिया है कि किताब न छापे पर इस पर भी कोई कार्रवाई नहीं.’’
मानव के पोस्ट के बाद रॉयल्टी को लेकर बहस शुरू हो गई. इसे कई पत्रकारों और मीडियाकर्मियों ने भी सोशल मीडिया पर उठाया. विनोद कुमार शुक्ल की प्रतिष्ठा सामयिक हिंदी जगत की कुछेक शीर्ष साहित्यकारों में है. इसलिए देखते ही देखते यह मामला तूल पकड़ गया. कौल की पोस्ट के बाद शुक्ल का एक वीडियो सामने आया. करीब चार मिनट के वीडियो में शुक्ल अपनी परेशानियों का जिक्र करते हैं, ‘‘मुझे अब तक मालूम नहीं था कि मैं ठगा जा रहा हूं. मेरी सबसे ज्यादा किताबें, जो लोकप्रिय हैं, वे राजकमल और वाणी से प्रकाशित हुई हैं. अनुबंध पत्र कानून की भाषा में होता है. इकतरफा शर्ते होती हैं, जो किताबों को बंधक बना लेती हैं. इस बात का अहसास मुझे बहुत बाद में हुआ. हम विश्वास में काम करते हैं.’’
‘नौकर की कमीज’ और ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ जैसी किताबों को बिना जानकारी दिए ई-बुक और किंडल पर होने की बात कहते हुए शुक्ल आगे कहते हैं, “कभी के बाद अभी’ किताब, मेरा कविता संग्रह है. रॉयल्टी का जो स्टेटमेंट भेजते हैं. उस स्टेटमेंट में इसका कुछ वर्षों से उल्लेख ही नहीं करते हैं. चूंकि मैं एक ऐसी उम्र में पहुंच गया हूं. जहां मैं असक्त हूं और बहुत चीजों पर मैं ध्यान नहीं दे पाता. कुछ कर भी नहीं पाता और मैं ठगता रहता हूं.’’
इसके बाद शुक्ल मानव कौल से अपनी मुलाकात और वाणी-राजकमल प्रकाशन से मिलने वाली रॉयल्टी का जिक्र करते हैं. वे कहते हैं, ‘‘मुझे भी अहसास होने लगा कि बड़े प्रकाशकों, जिन्होंने मेरी किताबें- नौकर की कमीज, दीवार में एक खिड़की रहती थी, अतरिक्त नहीं, सबकुछ होना बचा रहेगा, जो बिकती हैं, वो बहुत-बहुत बिकती है. लोग बताते हैं. मुझे लगता है ये किताबें जैसे बंधक हो गई हैं. मैं इन किताबों को मुक्त करना चाहता हूं. ये बड़े लोग हैं और मैं इनसे ज्यादा किसी परेशानी में न पड़कर स्वतंत्र होना चाहता हूं. दूसरों ने, जैसे की अभी मानव कौल आए थे. उन्होंने चर्चा के दौरान मुझसे पूछा कि आपको कितनी रॉयल्टी मिलती है, तो मैंने उन्हने बताया. अगर वाणी प्रकाशन में बीते 20-25 सालों का औसत निकाले तो चार-पांच हजार होता है.’’
अब तक क्या बदला
न्यूज़लॉन्ड्री ने विनोद कुमार शुक्ल से संपर्क करने की कोशिश की. इसको लेकर हमने उन्हें मेल लिखा. उनकी व्यस्तता की बात कर उनके पुत्र शाश्वत गोपाल शुक्ल ने हमें सवालों के जवाब दिया हैं. हमने पूछा कौल का पोस्ट और वीडियो आने के बाद क्या प्रकाशकों की तरफ कोई जवाब आया. इसके जवाब में शुक्ल ने बताया, ‘‘बहुत कुछ बदला. इससे हम जागे. यह महसूस हुआ कि हमें अब तक जो मिला वह ठीक नहीं है, हम एक तरह से शोषण के शिकार हैं. यह पता चला कि अच्छी पुस्तकें पढ़ने वाले हमारी कल्पना से बहुत अधिक हैं. गैर हिंदी भाषी क्षेत्रों से भी फोन आए कि उन्होंने हिंदी में यह-यह किताबें पढ़ी हैं, उनके पास हैं. यह बात और पुख्ता हुई कि अब भी अच्छे लोगों की कमी नहीं है. अनेक लोगों का साथ मिला. इस साथ से अब हमारा परिवार बहुत बड़ा हो गया है. हां, दोनों प्रकाशकों की ओर से भी संपर्क किया गया है.’’
आप लोग चाहते हैं कि किताबें ‘मुक्त’ हों. इस सिलसिले में प्रकाशकों से क्या बात हुई. इसके जवाब में शुक्ल ने बताया, “स्वतंत्र रहना कौन नहीं चाहता. हमने पत्र भेज दिया. प्रतीक्षा कर रहे हैं.”
किताबों को ‘मुक्त’ कराने की मुख्य वजह कम रॉयल्टी ही है? इसके जवाब में शुक्ल बताते हैं, “रॉयल्टी एक वजह है. विश्वास रूपी दीवार में दरार का महसूस होना बड़ी वजह है. जवाबदेही का नहीं दिखना वजह है. हमारे द्वारा यह महसूस किया जाना कि हम शोषित हो रहे थे, इससे अब मुक्ति की इच्छा वजह है. इस संबंध में लगातार प्रश्नों और प्रतिप्रश्नों का बढ़ते जाना, वजह है.”
विनोद कुमार शुक्ल ने, जो चिंताएं जाहिर की हैं, मसलन बिना जानकारी दिए ई-बुक जारी करना, अमेजन पर बेचना और किंडल फॉर्म में किताबों को जारी करना, लंबे समय से किताब ‘कभी के बाद अभी’ का जिक्र रॉयल्टी में नहीं होना, इसको लेकर प्रकाशकों ने क्या जवाब दिया?
वह कहते हैं, “कभी के बाद अभी’ की रॉयल्टी नहीं देने संबंधी एकाध गलती उनके द्वारा स्वीकार की गई. जो प्रश्न उठे, उनके उत्तरों से ऐसा लगता है प्रति प्रश्न ही बढ़ रहे हैं. प्रश्न और उत्तरों का यह सिलसिला फिर कब तक रहेगा, क्या पता. अत: हमने दोनों प्रकाशकों से 17 मार्च 2022 को सभी पुस्तकों के अनुबंध समाप्त कर दिए.’’
राजकमल प्रकाशन और विवाद
विनोद कुमार शुक्ल की राजकमल प्रकाशन से सात और वाणी प्रकाशन से तीन किताबें प्रकाशित हुई हैं. इनमें से राजकमल प्रकाशन से छह किताबें लंबे समय से प्रकाशित हो रही हैं, वहीं फरवरी 2022 में ‘महाविद्यालय’ प्रकाशित हुई है. शुक्ल के बेटे शाश्वत बताते हैं, राजकमल सिर्फ छह किताबों की रॉयल्टी दे रहा रहा है. कुछ वर्षों से कविता संग्रह ‘कभी के बाद अभी’ की रॉयल्टी नहीं मिल रही है.
शाश्वत द्वारा दी गई जानकारी के मुताबिक राजकमल प्रकाशन की तरफ से साल 2016-17 में 13,351 रुपए, 2017-18 में 15,304 रुपए, 2018-19 में 22,569 रुपए और 2019-20 में 16,085 रुपए रॉयल्टी के रूप में दिए हैं. इस रॉयल्टी में ई-बुक भी शामिल है.
शाश्वत बताते हैं कि राजकमल से ई-बुक का अनुबंध नहीं हुआ था, लेकिन ये दो किताबें ‘कविता से लंबी कविता’ और ‘नौकर की कमीज’ का 2019-20 से रॉयल्टी दे रहे हैं.
राजकमल प्रकाशन में शुक्ल की अलग-अलग किताबों की रॉयल्टी दर अलग-अलग है. जैसे ‘हरी घास की छप्पर वाली झोपड़ी और बौना पहाड़’ के हार्ड बैक किताबों पर 20 प्रतिशत तो पेपरबैक किताबों पर 6.25 प्रतिशत रॉयल्टी मिलती है. वहीं ‘कविता से लंबी कविता’ के लिए 15 प्रतिशत रॉयल्टी मिलती है. 'सबकुछ होना बचा रहेगा' पर 12.5 प्रतिशत तो बाकी सभी किताबों के लिए 6.25 प्रतिशत की रॉयल्टी मिलती है.
न्यूज़लॉन्ड्री ने राजकमल से मानव कौल और आशुतोष भारद्वाज द्वारा दी गई जानकारी की सच्चाई को लेकर सवाल किया. जिसका जवाब हमें प्रकाशन के प्रबंध निदेशक अशोक महेश्वरी ने दिया. जवाब में कहा गया, ‘‘यह एकदम गलत है. यह किस आधार पर कहा गया, क्या कोई बता सकता है. अभिनेता प्रचार के लिए कई तरह की युक्ति इस्तेमाल कर सकते हैं. उनके लिए यह सामान्य बात है. हालांकि सभी अभिनेता एक जैसे नहीं होते. फैन होने और सम्मान करने में अंतर होता है. सम्मान करने वाला हक की लड़ाई भी सम्मानजनक तरीके से लड़ता है. बिना दूसरे पक्ष को जाने एक तरफा आधी-अधूरी सूचना का प्रसार गलत है. गैर-जिम्मेदार रवैया है. अफसोस की बात है कि एक जिम्मेदार पत्रकार होकर भी आशुतोष भारद्वाज एक तरफा बातें करते रहे.’’
राजकमल से मिले जवाब के मुताबिक, ‘‘विनोद कुमार शुक्ल की पहली किताब ‘सब कुछ होना बचा रहेगा’ (कविता संग्रह) राजकमल से 1992 में प्रकाशित हुई थी. हमारे यहां से उनकी अब तक कुल सात किताबें छपी हैं. जिनमें से एक इसी साल छपकर आई है. ‘नौकर की कमीज’ के सजिल्द संस्करण के प्रकाशन का अधिकार शुरू से ही विनोद जी ने किसी और प्रकाशन को दे रखा है. 1994 में पेपरबैक संस्करण राजकमल को दिया था.’’
राजकमल से हमने 2019 से 2021 के बीच विनोद कुमार शुक्ल की बिकी किताबों और साथ ही मिले रॉयल्टी की जानकारी मांगी. किताबों की बिक्री की जानकारी देते हुए जवाब में बताया गया, ‘‘2021 में विनोद जी के चार काव्य संग्रह के नए संस्करण प्रकाशित हुए हैं- ‘कभी के बाद अभी’ ‘सब कुछ होना बचा रहेगा’ ‘कविता से लंबी कविता’ और ‘प्रतिनिधि कविताएं’. साथ ही ‘कभी के बाद अभी’ ‘सब कुछ होना बचा रहेगा’ किताबों की पेपरबैक संस्करण पहली बार प्रकाशित किए गए हैं. 2022 फरवरी में ‘नौकर की कमीज’ का भी नया संस्करण आया है. जाहिर है, 2021-22 की रॉयल्टी पर इन सबका फर्क दिखेगा. इन्हें किसी औसत में समेटना उचित तरीका नहीं हो सकता. रकम सार्वजनिक रखने की जरूरत होगी तो की जाएगी.’’
विवाद शुरू होने पर राजकमल ने प्रेस रिलीज जारी कर अपना पक्ष रखा था. यह रिलीज भी अशोक महेश्वरी के हवाले से लिखा गया. ‘‘मेरे कार्यकाल में प्रकाशित इस किताब ( महाविद्यालय) से पहले, विनोद जी को लगभग सभी किताबों के लिए एडवांस रॉयल्टी जाती रही है. यह पहली बार हुआ जब उन्होंने ‘महाविद्यालय’ के लिए एडवांस रॉयल्टी की बात नहीं की. हमने इसे उनके विश्वास के रूप में देखा. अविश्वास की बात पहली बार सोशल मीडिया के माध्यम से आई है.’’
बयान के मुताबिक, ‘‘उनकी (विनोद कुमार शुक्ल) इच्छा का सम्मान हमारे लिए हमेशा सर्वोपरि है. वे जो चाहते हैं, हम वही करेंगे…’’
क्या राजकमल प्रकाशन से इससे पूर्व किताब नहीं प्रकाशित करने की बात की गई. इस पर शाश्वत कहते हैं, ‘‘यह सही है कि किताब प्रकाशित नहीं करने के लिए हमने राजकमल प्रकाशन को कभी पत्र नहीं लिखा है. हालांकि हमने फोन पर कई बार ऐसा कहा है, लेकिन जब हमारे पास लिखित में या कोई रिकॉर्डिंग नहीं है. तो हमारे द्वारा इसका दावा करना गलत होगा.’’
राजकमल दावा करता है कि विनोद कुमार शुक्ल की नाराजगी पहली बार सोशल मीडिया के माध्यम से सामने आई है. अपने दावे को वजन देने के लिए रिलीज में लिखा है कि उन्होंने अपने इकलौते कहानी संग्रह ‘महाविद्यालय’ के प्रकाशन का अनुबंध पिछले साल जून में हमसे किया और उसके जल्द प्रकाशन का आग्रह भी करते रहे. जो पिछले सप्ताह प्रकाशित होकर प्रेस से आया है. ‘महाविद्यालय’ के छपने से पहले और उसके बाद भी उसके कवर और प्रोडक्शन के बारे में विनोद जी और उनके सुपुत्र शाश्वत गोपाल शुक्ल की सराहना ही मिली है.
यह सवाल उठता है कि जब शुक्ल को राजकमल से परेशानी थी तो उन्होंने हाल ही में रूचि लेकर ‘महाविद्यालय’ को प्रकाशित क्यों कराया? इस पर शाश्वत कहते हैं, ‘‘पहले यह आधार प्रकाशन से थी. कई वर्षों से उनके द्वारा इसका प्रकाशन बंद कर दिया गया था. राजकमल प्रकाशन की ओर से इसे प्रकाशित करने का प्रस्ताव आया. वर्ष 2021 के मध्य में अनुबंध हुआ. तब कहा गया कि अगस्त 2021 तक यह छप जाएगी. हम इस पुस्तक को जल्द प्रकाशित करवाना चाह रहे थे. लंबे समय से विद्यार्थियों के इस पुस्तक के लिए बहुत फोन आते थे. उनकी पढ़ाई, शोध इसके नहीं होने से प्रभावित हो रहे थे. इसलिए हम तैयार हुए कि वह जल्दी से छप कर आ जाए. बच्चों का नुकसान न हो. लेकिन इसका आवरण ही हम व्हाट्सएप पर 31 जनवरी 2022 को देख पाए. पुस्तक फरवरी 2022 में छपकर आई.’’
अपने जवाब में शाश्वत आगे लिखते हैं, ‘‘अगर इस तरह इस पुस्तक का छपकर आना कोई त्रुटि है तो हम अपनी गलती स्वीकार करते हैं. यह दूसरों के प्रति संवेदनशील होकर निर्णय लिए जाने का परिणाम है. कई बार हमारा जीवन केवल अपने लिए नहीं होता.’’
विनोद कुमार शुक्ल चाहते हैं कि उनकी किताबें ‘मुक्त’ हो. इसको लेकर उन्होंने 17 मार्च को एक पत्र लिखा भी है. किताबों को मुक्त करने के सवाल पर महेश्वरी कहते हैं, ‘‘मुक्त’ होने की बात तब होती है जब कोई ‘बंधक’ हो. किताबों का अनुबंध एक वैधानिक प्रक्रिया है जो परस्पर सहमति से होता है.’’
जवाब में आगे लिखा हुआ है, ‘‘हमने कुछ भी छिपा कर नहीं रखा है. विनोद जी के सभी पत्र व्यवहार हमारे पास सुरक्षित है. रॉयल्टी के भुगतान उन्हें नियमित होता रहा है. अगर उन्हें कोई कमी या शिकायत की बात लग रही थी तो वे हमें अपने और पत्रों की तरफ से इस बारे में कभी तो लिखते. अचानक से उनका नाखुश और असंतुष्ट हो जाना हमारे लिए हैरानी और दुख की बात है.”
विनोद कुमार शुक्ल ने अपने वीडियो में बताया था कि ‘कभी के बाद अभी’ कविता संग्रह का रॉयल्टी में लंबे समय से जिक्र नहीं है. इसको लेकर न्यूज़लॉन्ड्री के सवाल पर राजकमल प्रकाशन ने अपनी गलती को स्वीकार किया है. अशोक माहेश्वरी बताते हैं, ‘‘हमारी तरफ से एक कामकाजी चूक रही है, जिसे स्वीकारने में हमें कोई संकोच नहीं है. ‘कभी के बाद अभी’ के पहले संस्करण की 600 प्रतियों की अग्रिम रॉयल्टी का चेक 14 अप्रैल 2012 को विनोद जी को भेजा गया था. इसके बाद उस संस्करण के समाप्त होने तक वह कभी रॉयल्टी स्टेटमेंट में शामिल नहीं हुआ. और अफसोस की बात है तो उसके बाद दिवस सूची में शामिल नहीं हो सका. यह एक चूक है. विनोद जी के पास रॉयल्टी का हिसाब बराबर जाता रहा, उसके नए संस्करण होने पर भी उसकी प्रति विनोद जी को गई है. फिर भी दोनों तरफ से इस किताब पर इस दौरान कोई चर्चा नहीं हुई. वे कभी भी इशारा कर देते, यह भूल तुरंत सुधार ली जाती.’’
विनोद कुमार शुक्ल ने किताबों को नहीं छापने के लिए राजकमल को 17 मार्च को पत्र भेज दिया है. वहीं राजकमल प्रकाशन उनसे अभी बात करने की तैयारी कर रहा है पूर्व में मिलने की कोशिश को शुक्ल ने थकान होने की बात कर इंकार कर दिया.
वाणी प्रकाशन के साथ रिश्ता
विनोद कुमार शुक्ल की बहुचर्चित और साहित्य अकादमी से सम्मानित किताब ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ वाणी प्रकाशन से प्रकाशित हुई है. इसके अलावा वाणी से कविता संग्रह ‘अतिरिक्त नहीं’ और कविता संकलन प्रकाशित हुई है.
शाश्वत ने न्यूज़लॉन्ड्री को जो डाक्यूमेंट उपलब्ध कराए हैं उसके मुताबिक साल 1996 से साल 2021 तक यानी बीते 25 सालों में वाणी ने शुक्ल को रॉयल्टी के रूप में 1 लाख 35 हजार रुपए दिए हैं. ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ को साल 1999 में साहित्य अकादमी अवार्ड मिला था. अक्सर ऐसा होता है कि जिस किताब को अवार्ड मिलता है उस साल उसकी बिक्री ज्यादा होती है. साल 1999-2000 के दौरान वाणी ने शुक्ल को 5,816 रुपए की रॉयल्टी दी. यहां यह जानना जरूरी है कि तब दीवार में एक खिड़की रहती थी, की कीमत 125 रुपए थी.
वाणी प्रकाशन ने अपनी प्रेस रिलीज में बताया कि दीवार में एक खिड़की रहती थी, किताब का पहला संस्करण वर्ष 1997 में हार्डबाउंड 125 रुपए का था. वहीं वर्ष 2000 में पेपरबैक संस्करण 50 रुपए पर प्रकाशित हुआ. हार्डबाउंड और पेपरबैक संस्करण वर्ष 2010 तक इसी मूल्य पर प्रकाशित हुए. इसके बाद हार्डबाउंड संस्करण 250 रुपए और पेपरबैक 125 रुपए पर प्रकाशित हुआ. साल 2018 से हार्डबाउंड संस्करण 395 रुपए और पेपरबैक संस्करण 195 रुपए पर प्रकाशित हुआ. हार्डबाउंड पर 15% और पेपरबैक पर 10% रॉयल्टी है.’’
न्यूज़लॉन्ड्री के पास मौजूद डॉक्यूमेंट के मुताबिक वाणी प्रकाशन की तरफ से सबसे ज्यादा रॉयल्टी 2020 में 18 हजार रुपए की मिली है. अगर वाणी प्रकाशन द्वारा दिए गए रॉयल्टी का औसत निकाले तो हर साल प्रकाशक ने लेखक को 5,422 रुपए दिए हैं.
विनोद कुमार शुक्ल ने अपने वीडियो में वाणी प्रकाशन पर आरोप लगाए थे कि बार-बार किताब प्रकाशित नहीं करने के लिए लिखित में कहने के बावजूद वाणी प्रकाशन किताब छापता रहा.
न्यूज़लॉन्ड्री के पास शुक्ल और वाणी प्रकाशन के बीच हुआ पत्राचार मौजूद है. 2 नवंबर 2016 को विनोद कुमार शुक्ल ने वाणी प्रकाशन के प्रमुख अरुण महेश्वरी को पत्र लिखा. अपने पत्र में शुक्ल लिखते हैं, ‘‘कृपया कर मेरी किताबों का हिसाब तथा रॉयल्टी शीघ्र भिजवा दें. आपसे यह निवेदन है कि बिना मेरी अनुमति के मेरी किताबों का नया संस्करण भी न निकालें, प्रूफ की गलतियां ऐसे में रह जाती हैं.’’
करीब तीन महीने बाद तीन फरवरी 2017 को अरुण महेश्वरी ने शुक्ल को जवाब दिया. इस जवाब में महेश्वरी लिखते हैं, ‘‘पत्र के साथ वित्तीय वर्ष 2015-16 की रॉयल्टी का हिसाब, चेक व पिछले वर्षों की बिक्री का ब्यौरा भेज रहे हैं. पिछले वर्ष की बिक्री ब्यौरा भेजा गया है. आपकी प्रतिक्रिया नहीं मिली. कृपया उपन्यास में संशोधित कर एक प्रति शीघ्र भेजें ताकि नए संस्करण की तैयारी की जा सके.”
करीब दो साल बाद सितंबर 2019 में शुक्ल ने एक पत्र वाणी प्रकाशन को लिखा. इस पत्र में शुक्ल बेहद नाराजगी में लिखते नजर आते हैं. जिसकी गवाही पत्र का विषय ही देता है. इस पत्र का विषय, ‘‘उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ का अनुबंध समाप्त करें.’ है.
इस पत्र में शुक्ल लिखते हैं, ‘‘वित्तीय वर्ष 2017-18 तथा 2018-19 का लेखा 3 सितंबर 2019 को मिला. वर्ष 18-19 के लेखा में उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती है’ की 500 प्रतियां हार्डबाउंड और 500 प्रतियां पेपरबैक आपने पुनः प्रकाशित कर नया संस्करण निकाला है. इससे पहले मैंने 2 अक्टूबर 2016 को स्पीड पोस्ट तथा ई -मेल भेजा था कि बिना मेरी अनुमति के नया संस्करण न निकालें. इस संबंध में आपने फिर नया संस्करण निकाल दिया. इसके पूर्व में जितने संस्करण निकले हैं, उसकी पूर्व सूचना मुझे कभी नहीं दी गई. इससे मैं दुखी हूं. आपसे अनुरोध है कि उपन्यास ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ का अनुबंध समाप्त कर दें.’’
इसके बाद शुक्ला और वाणी प्रकाशन के बीच कुछ और पत्राचार हुए. जिसमें शुक्ल अपनी किताबों की संख्या की मांग करते हैं. वाणी प्रकाशन द्वारा 4 दिसंबर 2021 को एक विस्तृत पत्र शुक्ल को लिखा गया. इसी पत्र में अब तक दिए गए रॉयल्टी की जानकारी दी गई.
इस पत्र में महेश्वरी शुक्ल के पांच साल पुराने पत्र का जिक्र करते हैं, जिसमें उन्होंने किताब में भाषा की गलती होने की बात करते हुए किताब नहीं प्रकाशित करने की बात की थी. अपनी तबीयत खराब होने और कोरोना के कारण आई परेशनियों का जिक्र करते हुए वे लिखते हैं, ‘‘आपने पुस्तक ‘दीवार में एक खिड़की रहती थी’ में प्रूफ गलतियों की ओर इंगित किया है. पुस्तक में गलतियां नहीं होनी चाहिए. इसके पक्षधर लेखक-प्रकाशक दोनों ही हैं, हम सभी का सम्मिलत ध्येय पाठक है. कृपया मेरे पत्र 2 फरवरी, 2107 को देखें. मेरी चिंता भी आपके समान है. आपने प्रूफ की गलतियां चिन्हित नहीं की. सम्भवतः व्यस्तता होगी. मैं प्रूफ की गलतियों के प्राप्त होने पर नया संस्करण प्रकाशित करूंगा. इस बीच आपका पाठक वर्ग पुस्तक से वंचित नहीं रहना चाहिए. इसलिए हम संस्करण कर ले रहे हैं. यूं भी 2016 से अब तक किसी पाठक ने अशुद्धियों की तरफ इंगित नहीं किया है.’’
शुक्ल नवंबर 2016 को किताब में अशुद्धियों की तरफ ध्यान देते हुए वाणी को पत्र लिखते हैं. 2017 में वाणी किताब की तरफ से अशुद्धियों को दूर करके एक प्रति भेजने के लिए कहा जाता है. 2019 में फिर शुक्ल अनुबंध खत्म करने की बात पत्र में लिखते हैं. इसके बाद 2021 के दिसंबर महीने में वाणी प्रकाशन द्वारा विस्तृत जवाब दिया जाता है. यह बताता है कि लेखक और प्रकाशक के बीच किस हद तक संवादहीनता है.
हालांकि इसको लेकर वाणी प्रकाशन की निदेशक (कॉपीराइट व अनुवाद विभाग) अदिति महेश्वरी गोयल का कहना है, ‘‘इस बीच कई पत्र उनको हमारी तरफ से लिखे गए. वे हमारे वरिष्ठ लेखक हैं. उनकी किताबों को प्रकाशित करना हमारे लिए गर्व की बात है. अचानक से वे किताब वापस लेने की बात करने लगे थे. हमने उनसे पूछा कि आखिर ऐसा क्या हुआ. उन्होंने कहा कि किताब में अशुद्धियां हैं. इस पर हमने कहा कि अगर अशुद्धियां हैं तो हम इसको दूर कराएंगे.’’
वाणी की तरफ से जारी प्रेस रिलीज में लिखा है, ‘‘वर्ष 2013 में मैंने एक पत्र में शुक्ल जी से कहा था कि 'दीवार में एक खिड़की रहती थी' के पृष्ठ संख्या 119 पर नीचे से ऊपर की ओर चौथी पंक्ति में 'विभागाध्यक्ष' के स्थान पर 'प्राचार्य' होना चाहिए- ऐसा एक पाठक ने सुझाव दिया है.’’
अदिति महेश्वरी गोयल वाणी द्वारा पाठक की बात लेखक तक पहुंचाने की बात का जिक्र करते हुए कहती हैं, ‘‘ऐसा शायद ही कोई प्रकाशक करता है. यह गैरजिम्मेदार प्रकाशक के लक्षण नहीं हैं. हमने उनसे कई बार कहा कि आप अशुद्धियां बताएं, लेकिन उन्होंने कभी यह नहीं बताया.’’
शुक्ल द्वारा किताब नहीं प्रकाशित करने की बात पर वाणी प्रकाशन की प्रेस रिलीज में लिखा है, ‘‘3 फरवरी 2017 को मैंने उन्हें पत्र में लिखा था कि वे संशोधन यथाशीघ्र भेजें ताकि पुस्तक कभी आउट ऑफ स्टॉक न हो. उनसे कोई उत्तर प्राप्त नहीं हुआ. पुस्तक को दोबारा प्रूफ रीड कर पाठकों के लिए नया संस्करण प्रकाशित किया गया. नए संस्करण का ब्यौरा उन्हें रॉयल्टी स्टेटमेंट में दिया गया है.’’
शुक्ल की तरफ से किताबों को प्रकाशित नहीं करने वाले पत्र के सवाल पर अदिति कहती हैं, ‘‘हां, हमें उनका पत्र प्राप्त हुआ है. हम उनसे इसको लेकर बात कर रहे हैं. हमने उन्हें आदरपूर्व पत्र भेजा है. जिसमें हमने आग्रह किया कि वो हमसे संवाद करें. पुनर्विचार करें. हम पुस्तकों के साथ, शुक्ल जी के साथ खड़े रहना चाहते हैं. लेखक-प्रकाशक संबंध विश्वास पर निर्भर होता है. हमारा उनका 26 साल का संबंध है.’’
पूरे विवाद की जड़ रॉयल्टी है. शुक्ल के मुताबिक दूसरे लेखकों को लाखों में रॉयल्टी मिलती है. वहीं उन्हें बेहद कम मिलती रही. जिसका अहसास उन्हें लंबे समय बाद हुआ. इस पर अदिति कहती हैं, ‘‘पहली बात यह है कि जिस वर्ष की रॉयल्टी अमाउंट को हेडलाइन बनाकर उछाला गया वो कोरोना काल का था. उस समय किताबें बिक नहीं रही थीं. तब लेखक पढ़े गए और हमने उन्हें स्टेटमेंट भेजा. किताबों रॉयल्टी बिक्री पर निर्भर करती है. कोई और जरिया रॉयल्टी अमाउंट को बढ़ाने का नहीं है.’’
अदिति आगे जोड़ती हैं, ‘‘मैं बिना नाम लिए बताना चाहती हूं कि जिन प्रकाशकों ने बेसिर-पैर की रॉयल्टी ऑफर की हैं, आज उन पर ताले लटके हुए हैं. जबकि वे भारत में दुनिया के सबसे बड़ी कंपनी के पब्लिशिंग हाउस हैं. अभी जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल में पद्मश्री उर्वशी बुटालिया, जो प्रकाशन जगत का सम्मानित नाम है. उन्होंने ऑन कैमरा यह बात कही कि पब्लिशिंग में से एडवांस को बंद कर देना चाहिए. क्योंकि कोई प्रकाशक का दर्द नहीं जानता कि बिना किताब को जाने वो एक लेखक पर दांव लगाता है.’’
लेखक, अनुबंध और उसकी भाषा
विनोद कुमार शुक्ल ने कहा कि अनुबंध पत्र कानून की भाषा में होता है. इकतरफा शर्तें होती हैं. इस पर अदिति कहती हैं, ‘‘शुक्लजी के साथ जो अनुबंध हुआ है वो उनकी सहूलियत के लिए हिंदी में रखा गया है. ऐसे में यह कहना कि अनुबंध की भाषा कठिन है. यह हैरान करता है.’’
वाणी प्रकाशन ने जो जवाब दिया था उसमें इसको लेकर लिखा है, ‘‘वाणी प्रकाशन से हुए उनके सभी अनुबंध पत्र कठिन विधिक भाषा में नहीं हैं. साहित्यकार निर्मल वर्मा व स्वदेश दीपक के कॉपीराइट प्रबंधकों द्वारा किए गए अनुबंधानुसार शुक्ल जी नया अनुबंध करना चाहें, तो उनका स्वागत है.’’
अदिति अनुबंध के सवाल पर कहती हैं, ‘‘अनुबंध लेखक या उनके परिजनों के अलावा हम किसी से साझा नहीं कर सकते हैं. अगर आप चाहें तो ऑफिस आकर देख सकते हैं. हालांकि हम आपको बता दें कि जब शुक्ल जी अनुबंध हुआ था तो उन्होंने कई बदलाव कराए थे. हमने वो बदलाव माने. मसलन साल 1996 में जो अनुबंध हुआ उसमें उन्होंने हमें पेपरबैक प्रकाशित करने का अधिकार नहीं दिया था. पेपरबैक में प्रकाशित करने का अधिकार उन्होंने हमें कुछ साल बाद दिया था. अनुबंध सिर्फ दो पेज का है वो भी हिंदी भाषा में.’’
यह सवाल जब हमने शाश्वत से पूछा तो वे बताते हैं, ‘‘प्रत्येक अपेक्षा केवल लेखक से ही क्यों? अनुबंध लेखक नहीं बनाते, प्रकाशक तैयार करके भेजते हैं. प्रकाशकों से इसे क्यों नहीं मांगा जाता?’’
वे आगे कहते हैं, ‘‘मीडिया को क्यों नहीं देखना चाहिए कि लेखकों के साथ होने वाला अनुबंध कैसा है? उनकी भाषा कैसी है? शर्तें कैसी हैं? अनुबंध की शर्तों में कैसी विविधताएं हैं? किस शर्त का कितना कैसा परिणाम हो सकता है? कोई नव लेखक अपनी पुस्तकें प्रकाशित करवाने के दौरान किस तरह की, किन-किन और कैसी मजबूरियों से घिर जाता है, क्या घेर तो नहीं दिया जाता है? एक वरिष्ठ लेखक का किसी अनुबंध से निकल पाना क्यों कठिन है? हर समझौता लेखक ही क्यों करे? लेखक क्यों नहीं अपनी बात कह पाता है? आज भी क्यों नहीं खुलकर कह पा रहा? अनुबंध इतने लंबे और बड़े क्यों होते हैं? क्यों नहीं कुछ पंक्तियों में समेटकर अनुबंध बनाएं जाएं?’’
हिंदी युग्म में किस तरह से अनुबंध तैयार होते हैं यह सवाल हमने शैलेश भारतवासी से किया. वे रेंट एग्रीमेंट का उदाहरण देते हुए बताते हैं, ‘‘जितने भी इस तरह अनुबंध होते है वो पहले से चले आ रहे हैं. लेकिन आप उसको पढ़ते हैं कि इसमें क्या ऐसा है जो मेरे पक्ष में नहीं होगा. उसी तरह से मकान मालिक भी पढ़ता है. तो मैं कहना यह चाहता हूं कि अगर दो अलग-अलग किस्म के काम करने वाले लोग कानूनी अनुबंध में जाते हैं तो दोनों ही अपने अधिकारों के लिए उसमें बात कर सकते हैं. अगर कोई बिना पढ़े. बिना सजग हुए उस पर हस्ताक्षर करता है तो वो अपने साथ अन्याय कर रहा है.’’
भारतवासी आगे कहते हैं, ‘‘हमारा अनुबंध भी पहले से चला आ रहा है. लेकिन हमारे अनुबंध में कोई लेखक किसी बिंदु पर आपत्ति जताता है. या उसे समझ नहीं आता तो हम उसे समझाते हैं. या लगता है कि वो बात ठीक कह रहा है तो हम उसे बदलने की कोशिश करते हैं. यह पूरा रिश्ता भरोसे का है.’’
शुक्ल अकेले नहीं!
विनोद कुमार शुक्ल के वीडियो पर बहस का दौर चल ही रहा था तभी वरिष्ठ लेखक असगर वजाहत ने भी अपनी किताब वापस लेने की बात कही. ‘जिस लाहौर नई देख्या जन्मा नहीं’ नाम से मशहूर नाटक लिखने वाले वजाहत ने फेसबुक पोस्ट लिखा, ‘‘मैं लंबे अरसे से सोच रहा हूं कि विधिवत तरीके से राजकमल प्रकाशन, दिल्ली को अपनी लगभग आठ किताबों के भार से मुक्त कर देना चाहिए.’’
किताबों को मुक्त करने के करणों का जिक्र असगर वजाहत ने अपने पोस्ट में नहीं किया है. न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए वजाहत लेखकों की परेशानियों का जिक्र करते हैं. वो कहते हैं, ‘‘मेरे लिए रॉयल्टी बड़ा मसला है भी और नहीं भी है. लेखक और प्रकाशक का रिश्ता भरोसे का रिश्ता होता है. पर हम देखते हैं कि प्रकाशक द्वारा कुछ लेखकों को ज्यादा तवज्जो दिया जाता है. प्राथमिकता देने का काम भी अच्छा नहीं होता. दूसरी बात लेखक किताब पाठकों के लिए लिखता है. अगर किताबें उपलब्ध नहीं रहेंगी और पाठक शिकायत करेंगे तो क्या होगा. वो लेखक को अच्छा नहीं लगता है. तीसरी बात प्रकाशक की तरफ से फीडबैक नहीं मिलना भी एक परेशानी है. प्रकाशक कभी नहीं बताते कि किसी किताब का क्या रिस्पॉन्स है. यह लेखक को बड़ा अटपटा लगता है.’’
वजाहत आगे कहते हैं, ‘‘कुछ प्रकाशक लिख देते हैं- ‘इस किताब के किसी भी अंश को किसी भी रूप में प्रस्तुत करने से पहले प्रकाशक की अनुमति अनिवार्य है.’ इसका मतलब यह होता है कि वह लेखक की रॉयल्टी, कॉपी राइट में शेयर कर रहा है. मान लीजिए मेरी किताब का कोई अंग्रेजी में अनुवाद करना चाहता है. वो लेखक के साथ-साथ प्रकाशक की भी अनुमति लेगा. तब प्रकाशक भी उससे डिमांड करेगा कि मुझे इतना पैसा दो. और लेखक महसूस करेगा कि उसके तो हाथ कटे हैं वो किसी को अनुमति दे नहीं सकता. क्योंकि बीच में प्रकाशक भी है. ऐसे ही कुछ कारण थे जिसके बाद मैंने अपनी किताबों को ‘मुक्त’ कराने की बात लिखी थी.’’
असगर वजाहत की आठ किताबें राजकमल से प्रकाशित हुई हैं. इसमें, मैं हिंदू हूं, कैसी आगी लगाई डेमोक्रेसिया, पटकथा लेखन और टेलीविजन लेखन आदि है. विनोद कुमार शुक्ल और असगर वजाहत का मामला हिंदी साहित्य में प्रकाशक और लेखक के बीच हुए विवाद का पहला मामला नहीं है.
इससे पहले ऐसा विवाद हिंदी की दुनिया में निर्मल वर्मा के निधन के बाद उनकी पत्नी कवयित्री गगन गिल और राजकमल प्रकाशन के बीच आया था. इंडिया टुडे की खबर के मुताबिक गिल ने राजकमल पर रॉयल्टी को लेकर आरोप लगाया था. इसके बाद गिल ने अपनी किताबें राजकमल से वापस ले लीं. उसके बाद उन्होंने ज्ञानपीठ को किताबें दीं. वहां से वापस लेकर अब वाणी प्रकाशन को दे दी हैं. हर बार वो अपने हिसाब से अनुबंध बनवाती हैं.
हालिया विवाद के बाद गगन गिल ने समालोचना पत्रिका में एक लेख लिखा है. प्रकाशकों के साथ अपने संघर्ष का जिक्र करते हुए उन्होंने लेखकों को कुछ सुझाव दिए हैं. गिल ने बताया, ‘‘कोई भी अनुबंध जिसमें आपके अधिकार से दूसरे को अधिकार प्राप्त होता है, वह चाहे आपके कॉपीराइट से प्रकाशक के प्रकाशन अधिकार का मामला हो या मकान मालिक से किरायेदार का, उसे आप कभी भी कानूनी नोटिस देकर निरस्त कर सकते हैं. ऐसा कोई अधिकार नहीं जिसके स्वामी तो आप हैं, मगर गलती कर बैठे तो अब संपत्ति ही हाथ से चली जाएगी.
(इस खबर को 30 मार्च की शाम को अपडेट किया गया)
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