Opinion
रूस-यूक्रेन युद्ध की चपेट में भारत का प्रिंट मीडिया, गहराया कागज का संकट
शायद आपको इसकी जानकारी न हो कि देश के सभी अखबार पिछले कुछ समय में कागज के दामों में अभूतपूर्व वृद्धि के कारण संकट के दौर से गुजर रहे हैं. रूस-यूक्रेन युद्ध ने इस संकट में आग में घी का काम किया है. हम जानते हैं कि एक अखबार के लिए पाठकों का प्रेम ही उसकी बड़ी पूंजी होती है. मेरा मानना है कि अखबार किसी मालिक या संपादक का नहीं होता है, उसका मालिक तो उसका पाठक होता है. पाठक की कसौटी पर ही अखबार की असली परीक्षा होती है. पाठक परिवार का सबसे अहम हिस्सा है इसलिए हर पाठक को अच्छे और कठिन दौर की जानकारी होनी चाहिए.
कोरोना काल के दौरान ही अखबारी कागज की किल्लत शुरू हो गई थी. दुनियाभर में अनेक पेपर मिल बंद होने से अखबारी कागज की कमी हुई और इसकी कीमतों में भारी वृद्धि होने लगी. यूक्रेन युद्ध के कारण रूस पर लगे प्रतिबंधों से रूस से अखबारी कागज की आपूर्ति पूरी तरह बंद हो गई. इससे रही-सही कसर भी पूरी हो गई है. कंटेनरों की कमी का अलग संकट है. फिनलैंड अखबारी कागज का एक बड़ा उत्पादक है, कुछ समय पहले वहां मजदूर लंबी हड़ताल पर चले गए थे.
एक अन्य बड़े उत्पादक कनाडा के ट्रक ड्राइवर वैक्सीन जरूरी करने के खिलाफ हड़ताल पर चले गए थे. कुल भारतीय अखबारी कागज के आयात का लगभग 40 प्रतिशत हिस्सा कनाडा से आता है. दुनियाभर में कागज की कमी का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि हाल में श्रीलंका ने लाखों स्कूली छात्रों के लिए परीक्षा रद्द कर दी है क्योंकि वहां प्रिंटिंग पेपर की कमी है और उसके पास कागज आयात करने के लिए विदेशी मुद्रा नहीं हैं. श्रीलंका इन दिनों गंभीर आर्थिक संकट से गुजर रहा है.
भारत अपने अखबार के कागज की जरूरत का 50 फीसदी से ज्यादा विदेशों से आयात करता है. अगस्त, 2020 में घरेलू अखबारी कागज का मूल्य लगभग 35 रुपए प्रति किलो था, जो आज 75 रुपए हो गया है. विदेशी कागज में तो अभूतपूर्व वृद्धि हुई है. साल 2020 में जो विदेशी कागज 375 डॉलर प्रति टन था, वह अब 950 से 1000 डॉलर प्रति टन हो गया है. समाचार पत्र उद्योग ने आयातित अखबारी कागज पर पांच प्रतिशत सीमा शुल्क हटाने के लिए केंद्र सरकार से अनुरोध किया है.
इस पर सरकार को तत्काल निर्णय करना चाहिए. इससे अखबारों को बहुत राहत मिल सकती है. अन्य अखबारों की तरह प्रभात खबर को भी इस भारी मूल्य वृद्धि की चुनौती का सामना करना पड़ रहा है. अखबारी कागज को एक चुनौती ई-कॉमर्स कंपनियों से भी मिल रही है. कोरोना काल में उनका कारोबार बढ़ने से पैकिंग मैटेरियल की मांग भी बढ़ी है. अनेक कागज मिलों ने अखबारी कागज की जगह पैकिंग और क्राफ्ट पेपर का उत्पादन शुरू कर दिया है.
भारत में अधिकांश कागज मिलें रद्दी कागज की लुगदी से अखबारी कागज का निर्माण करती हैं. इन कंपनियों के पास पुरानी नोटबुक और रद्दी की भी कमी है, नतीजतन कई कंपनियों ने अखबारी कागज आपूर्ति करने से हाथ खड़े कर दिए हैं. होता यह है कि जब भी किसी उत्पाद की लागत बढ़ती है, तो कंपनियां उपभोक्ता के मत्थे इसे मढ़ देती हैं. लेकिन भारत में अखबार एकमात्र ऐसा उत्पाद है, जो अपनी कीमत से आधे से भी कम में बिकता है.
अखबारों का मूल्य चार- पांच रुपए है. इसमें से ही हॉकर व एजेंटों का कमीशन जाता है. जबकि एक अखबार की लागत 10 से 12 रुपए तक आती हैं. अखबार अपना घाटा विज्ञापनों से पूरा करते हैं. लेकिन कोरोना के दौरान कारोबार पर भारी मार पड़ी और विज्ञापन आने लगभग बंद हो गए. हालात सुधरे हैं, लेकिन अब तक सामान्य नहीं हो पाए हैं.
हिंदी पाठकों की संख्या में खासी बढ़ोतरी हुई है. लेकिन हिंदी पाठक अखबार के लिए उचित मूल्य देने के लिए तैयार नहीं है. यदि एक रुपए भी अखबार की कीमत बढ़ाई जाती है, तो हमारे प्रसार के साथी परेशान हो उठते हैं क्योंकि बड़ी संख्या में पाठक अखबार पढ़ना ही छोड़ देते हैं. पेट्रोल, दूध, फल-सब्जियां, खाने-पीने की हर वस्तु की कीमत बढ़ी है. यहां तक कि कटिंग चाय भी पांच रुपए से कम में कहीं नहीं मिल रही है. अखबार आपको सही सूचनाएं देता है, आपको सशक्त बनाता है.
रोजगार के अवसर हों या राजनीति, मनोरंजन या फिर राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय खबरें, यह सब आपको उपलब्ध कराता है. बावजूद इसके पाठक उचित कीमत अदा करने के लिए भी तैयार नहीं होते हैं. पाकिस्तान में अखबार की कीमत औसतन 25 रुपए है. मुझे ब्रिटेन में रहने और बीबीसी के साथ काम करने का अनुभव रहा है. वहां पाठक खबरें पढ़ने के लिए पूरी कीमत अदा करने को तैयार रहते हैं. वहां गार्जियन, टाइम्स और इंडिपेंडेंट जैसे अखबार हैं, जो लगभग दो पाउंड यानी लगभग 200 रुपए में बिकते हैं. यह सही है कि वहां की आर्थिक परिस्थितियां भिन्न हैं.
मौजूदा दौर में खबरों की साख का संकट है. लोकतंत्र में जनता का विश्वास जगाने के लिए सत्य महत्वपूर्ण है. सोशल मीडिया पर तो जैसे झूठ का बोलबाला है. इसके माध्यम से समाज में भ्रम व तनाव फैलाने की कोशिशें हुई हैं. कोरोना संकट के दौर में सोशल मीडिया पर महामारी को लेकर फेक वीडियो व फेक खबरें बड़ी संख्या में चली थीं.
टीवी चैनलों में खबरों के बजाय बेवजह की बहस आयोजित करने पर ज्यादा जोर है. वहां एक और विचित्र स्थिति है कि एंकर जितने जोर से चिल्लाए, उसे उतनी सफल बहस माना जाने लगा है. लेकिन संकट के इस दौर में साबित हो गया है कि अखबार से बढ़कर भरोसेमंद माध्यम कोई नहीं है. संकट के समय में अखबार आपको आगाह भी करता है और आपका मार्गदर्शन भी करता है. अखबार अपनी खबरों के प्रति जवाबदेह होते हैं. यही वजह है कि अखबार की खबरें काफी जांच-पड़ताल के बाद छापी जाती हैं.
कोरोना संकट के दौर में भी अखबार के सभी विभागों के साथी मुस्तैदी से अपने काम में लगे रहे तथा अपने को जोखिम में डालकर पाठकों तक विश्वसनीय खबरें पहुंचाने का काम करते रहे. प्रभात खबर ने अपने पाठकों तक प्रामाणिक खबरें तो पहुंचाई ही, साथ ही अपने सामाजिक दायित्व के तहत अखबार के माध्यम से अपने पाठकों तक मास्क पहुंचाने, हॉकर भाइयों को राशन पहुंचाने और अन्य ऐसे अनेक प्रयास किए ताकि कोरोना काल में आप हम सब सुरक्षित रहें. इस भरोसेमंद माध्यम के लिए पाठकों को अधिक कीमत अदा करने में संकोच नहीं करना चाहिए.
(लेखक प्रभात खबर के प्रधान संपादक हैं. यह लेख प्रभात खबर से साभार प्रकाशित है)
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