Opinion

क्या खैरात बांटना ही लोक कल्याणकारी राज की अवधारणा है?

हैदराबाद के अंतिम निजाम मीर ओसमान अली खान के बारे में एक किंवदंती है कि एक दिन वह अपने रथ से कहीं जा रहे थे तो एक आदमी की मृत्यु उनके रथ के पहिए के नीचे आ जाने से हो जाती है. ओसमान साहेब तो ठहरे दिलदार. उन्होंने अपना खजाना उसके घर वालों के लिए खोल दिया. यह बात जंगल की आग की तरह फैल जाती है. अब ओसमान साहेब का बाहर निकलना बंद. जैसे ही उनका रथ निकले कोई न कोई उनके पहिे के नीचे आ जाता. स्थिति बहुत गंभीर हो गई. फिर ओसमान साहेब को एक फरमान निकालना पड़ा कि जो कोई उनके पहिए के नीचे आएगा उसके परिवार वालों को कठिन यातनाएं दी जाएंगी. यातना के डर से लोगों ने मरना छोड़ दिया.

कहने का आशय यह है कि लोग पैसे के लिए या फिर मुफ्त में कुछ पाने के लिए मरने से भी नहीं चूकते, तो पंजाब या देश के अन्य भागों में जब जनता खैरात बांटने वालों को अपना अधिनायक चुन लेती है तो आश्चर्य नहीं होना चाहिए. केंद्र में मोदी सरकार और दिल्ली में केजरीवाल सरकार भी ओसमान साहेब की तरह खैरात बांटने की योजना चला रही है जिसमें कांग्रेस की राजस्थान और छत्तीसगढ़ सरकारें भी घुसती चली जा रही हैं. यह लोग लोककल्याणकारी राज के नाम पर रहम परोस रहे हैं. पुराने जमाने में राजा खुश होकर गले का हार तोड़कर लोगों को दे दिया करता था और दरबारी इंद्र मान उसे पुरुष सूक्त सुना दिया करते थे. कौन जानता था कि समूचे भारत को अपने अन्न से पोषण करने वाला पंजाब मुफ्तखोरी को अपनाएगा. क्या खैरात बांटना ही लोककल्याणकारी राज की अवधारणा है? बिलकुल नहीं. आइए, समझते हैं.

पंडित जवाहर लाल नेहरू भारतीय संविधान के अनुच्छेद 36 से 51 तक के पुरोधा रहे हैं. यह भारतीय संविधान का ऐसा अंग है जो भारत में लोककल्याणकारी राज्य की एक अवधारणा को प्रस्तुत करता है. उनके अनुसार सबके लिए समान अवसर प्रदान करना, अमीरों-गरीबों के बीच अंतर मिटाना व जीवन-स्तर को ऊपर उठाना, कल्याणकारी राज्य के आधारभूत तत्व हैं. यह महात्मा गांधी के समान वितरण के मार्ग का अनुसरण करता है जो यह कहता है कि समान वितरण का वास्तविक निहितार्थ यह है कि प्रत्येक व्यक्ति के पास अपनी सभी प्राकृतिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए साधन होंगे और इससे अधिक नहीं. श्रीकृष्ण चन्द्र शर्मा (यूनाइटेड प्रोविंस: सामान्य) संविधान सभा की बहस में कहते हैं, "भारत को धन की आवश्यकता है और जब हम कहते हैं कि भारत को धन की आवश्यकता है, तो हमारा मतलब है कि भारत एक गरीब देश है और इसलिए दुनिया के किसी भी महान देश के साथ प्रतिस्पर्धा करने और इसे समानता के आधार पर खड़ा करने के लिए पर्याप्त मजबूत होना चाहिए. अब, एक समय था जब धन को सोने और चांदी या देश के कुछ अन्य संसाधनों में शामिल माना जाता था. आधुनिक संदर्भ में, किसी राष्ट्र की संपत्ति मुख्य रूप से उसके जवानों, उनके चरित्र और मस्तिष्क और उनकी कार्य क्षमता में होती है."

ऑस्ट्रियाई-ब्रिटिश अर्थशास्त्री और दार्शनिक फ्रेडरिक हायेक ने अपनी किताब द रोड टू सर्फडॉम में एक बहुत अच्छा तर्क दिया. ब्रिटिश मार्क्सवादी, जो यह मानते थे कि फासीवाद या नाजीवाद समाजवाद के खिलाफ एक पूंजीवादी प्रतिक्रि‍या थी उनको यह कहकर तर्कहीन कर दिया कि फासीवाद, नाजीवाद और समाजवाद की केंद्रीय आर्थिक योजना और व्यक्ति पर राज्य को सशक्त बनाने में समान जड़ें थीं. यह दीगर बात है कि भारत के वामपंथी अब भी यही मानते हैं जो ब्रिटिश मार्क्सवादी द्वितीय विश्वयुद्ध के समय मानते थे.

उन्होंने कहा कि केंद्रीकृत नियोजन से समाज अधिनायकवाद की ओर मुड़ जाता है और अधिनायक निरंकुश बनने की ओर अग्रसर हो जाता है- जैसे भगवंत मान मुख्यमंत्री होते हुए अरविंद केजरीवाल के पांव छूता है और संसद में सरकारी सांसदों के भाषण के प्रत्येक पंक्ति में मोदी मोदी होता है. उनका कहना है कि नियोजन, चूंकि यह जबरदस्ती है, अतः विनियमन का एक निम्नतर तरीका है, जबकि मुक्त बाजार की प्रतिस्पर्धा बेहतर है “क्योंकि यह एकमात्र तरीका है जिसके द्वारा हमारी गतिविधियों को एक-दूसरे के साथ बिना अधिकार के जबरदस्ती या मनमाने हस्तक्षेप के समायोजित किया जा सकता है.”

वह समझते थे कि समाजवाद के नाम पर यह जो केंद्रीकृत नियोजन के तहत अल्पसंख्यक की चाहत को बहुसंख्यक पर थोपा जा रहा है वह अलोकतांत्रिक है. इन अधिनायकवादियों के लक्ष्यों की खोज में इन अल्पसंख्यकों की धन या संपत्ति लेकर कार्य करने की शक्ति, कानून के शासन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता को नष्ट कर देती है. जहां केंद्रीकृत योजना है, "व्यक्ति पहले से कहीं अधिक एकमात्र साधन बन जाएगा, जिसका उपयोग प्राधिकरण द्वारा ‘सामाजिक कल्याण’ या ‘समुदाय की भलाई’ के नाम पर मतिहीनता के लिए किया जाएगा.

ली क्वान यु, जो सिंगापुर के प्रधानमंत्री रहे हैं और जिन्होंने मलेशिया से अलग हुए सिंगापुर को यूरोप और अमेरिका की तरह विकसित बना दिया उन्होंने बिजली या पानी के बिल को माफ नहीं किया वरन लोगों को कार्य करने के लिए संपन्न बनाया, जैसे श्रीकृष्ण चन्द्र शर्मा या दूसरे कांग्रेसी आजादी के समय चाहते थे. उनका मानना था कि बिजली बिल माफ कर देने से लोगों में कार्य करने की रुचि नहीं रह जाती है, जैसा फ्रेडरिक हायेक या फिर महात्मा गांधी समझते थे. रोटी के टुकड़ों को बांटने से पहले उसे बनाना पड़ता है जो समाजवाद नहीं समझता है. वह लोककल्याणकारी राज्य के नाम पर लोगों को कर्महीन और भाग्यवादी बनाता है.

अभी बिहार, उत्तरप्रदेश या फिर हिंदी पट्टी में मजदूरों का मिलना कठिन हो गया है. उसके पीछे जो कारण सामने आया वह था सार्वजनिक वितरण प्रणाली के माध्यम से लोगों में मुफ्त का अनाज बांटना. सामाजिक सुरक्षा होनी चाहिए, वृद्धा पेंशन जैसी योजना होनी चाहिए, मुफ्त शिक्षा और स्वास्थ्य जरूर होना चाहिए किन्तु सबको मुफ्त में अन्न नहीं, बिजली नहीं. लोगों को मुफ्त में अन्न, बिजली या कपड़ा मिल जाए तो वे काम क्यों करें. वह कहते हैं यदि पेट न होता तो कोई किसी की नहीं सुनता. नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री बनने से पहले मनमोहन सिंह सरकार द्वारा लाए खाद्य सुरक्षा कानून के तहत मिल रहे मुफ्त के राशन-पानी की जमकर आलोचना की थी. यहां तक कि प्रेस कांफ्रेंस भी की थी.

उनका कहना था कि सामाजिक मद में यह सरकार जो खुलकर खजाना लुटा रही है वह अधिक दिनों तक चलने वाली नहीं है, किन्तु नरेंद्र मोदी उसे खुद भूल गए क्योंकि मुफ्त में वितरण कर लोगों को कर्महीन बना कर ही तो समाज में अलगाव पैदा किया जा सकता है. बेरोजगारों को भगवान अधिक याद आते हैं, कमाऊ पूत तो भगवान को याद कर उनके ऊपर एहसान कर दिया करते हैं. मोदी ने सामाजिक मद में खर्च होने वाले धन को भीख की तरह बर्बाद होने वाला बताया था और अब लोगों को उन्होंने भिखारी बनने की राह दिखा दी.

ज्ञात इतिहास में भारत सबसे अधिक विकास मनरेगा के आने के बाद से कर रहा था क्योंकि लोगों के पास खर्च करने के लिए पर्याप्त धन की आमदनी हो रही थी. ली क्वान यु ने बिजली या पानी बिल माफ करने के बदले लोगों की बचत को उनकी कमाई का 45 फीसदी तक कर दिया जिसका फल यह निकला कि सिंगापुर में लोग कार्य करने के लिए प्रेरित हो रहे थे. वहीं मलेशिया अपनी मलय संस्कृति को लेकर अंधेरे और गरीबी की गर्त में डूबता गया.

लोककल्याणकारी राज्य के रूप में मुफ्त में सिर्फ शिक्षा और स्वास्थ्य की वकालत मार्क्स करते हैं. वह कहते हैं, "सभी बच्चों की सार्वजनिक विद्यालयों में मुफ्त शिक्षा. अपने वर्तमान रूप में कारखानों में बच्चों के काम का अंत." वह श्रम दायित्व की बात करते हैं न कि मुफ्त अन्न की. जब श्रम दायित्व की बात आती है तो वह कहते हैं, "प्रत्येक के लिए सामान श्रम–दायित्व, औद्योगिक सेनाओं की स्थापना, विशेषकर कृषि के लिए. कृषि का उद्योग के साथ संयोजन." वह कहीं भी लोगों को कर्महीन बनाने की बात नहीं करते हैं.

रघुराम राजन और लुई जिंगल्स अपनी पुस्तक सेविंग कैपिटलिज्म फ्रॉम द कैपिटलिस्ट्स में लिखते हैं कि यदि गरीब को मुफ्त में जमीन सिर्फ इस बात के लिए सरकार द्वारा दे दी जाए जिससे कि उसकी वित्तीय सहायता होगी तो यह गलत है. वह कहते हैं, "अब जबकि इस विचार में पर्याप्त योग्यता है, यह कोई रामबाण इलाज नहीं है. यदि गरीब किसी और की निजी संपत्ति पर कब्जा कर रहे हैं या, जैसा कि आमतौर पर विकासशील देशों में होता है, सरकारी भूमि या फिर अतिक्रमण को वैध करने से शेष भूमि पर सभी कब्जा करने के लिए अपने आप को स्वतंत्र मान बैठेंगे, जिससे संपत्ति की व्यापक असुरक्षा हो सकती है, इसके विपरीत प्रभाव को नजरअंदाज नहीं किया जा सकता है."

अर्थशास्त्र में नोबेल पुरस्कार विजेता अभिजीत बनर्जी, जो लोक कल्याणकारी राज्य को मानने वाले हैं, वह भी मानते हैं कि गरीबी किन्हीं संरचनात्मकता के संकट की उपज नहीं है बल्कि वह एक मानसिक अवधारणा है, जिसे व्यक्तिगत प्रतिस्पर्धा से खत्म किया जा सकता है. उन्होंने अपनी पुस्तक पुअर इकोनॉमिक्स में इसे अच्छे से समझाया है. यही बात जब युवा राहुल गांधी ने 2014 के आम चुनाव में लोगों के सामने कही तो कुमार विश्वास ने उन्हें पप्पू बना दिया. क्या प्रतिस्पर्द्धा मुफ्त माल से मिलेगी या फिर अनाज के लिए उद्यम करने से, जैसा कि मार्क्स ने कहा?

कभी सोचा है कि यह मुफ्त में जो लोककल्याणकारी राज्य के नाम पर भीख देकर अधिनायकवाद को जन्म दिया जाता है उसका खर्च कौन वहन करता है. सबसे ज्यादा उस मुफ्त को खाने वाले. मन में प्रश्न आया होगा- कैसे? समझते हैं. दिल्ली में जब अरविंद केजरीवाल ने 2014-15 में सत्ता संभाली थी तो उसका बजट 30940 करोड़ रूपए का था. इस साल 2022 का बजट दिल्ली सरकार ने 69000 करोड़ रुपए कर दिया जो सात साल में दुगुना से अधिक हो गया. समर्थकों के लिए खुशी से लहालोट होने वाली बात है, लेकिन कभी सोचा कि यह 69000 करोड़ रुपए आएंगे कहां से. उत्तर है- कर से. जी हां, दिल्ली सरकार ने अपने करों में बेतरतीब इजाफा किया है खैरात बांटने के लिए.

2014-15 में बजट 30940 करोड़ रूपए का था और 2021-22 में दिल्ली सरकार कर से 43000 करोड़ रूपए उगाही की बात कर रही है- यानी 13000 करोड़ ज्यादा. यह कर कौन देगा? वही गरीब जनता क्योंकि यह कॉर्पोरेट टैक्स नहीं है. दिल्ली सरकार कहती है, "वित्तीय वर्ष 2021-22 के लिए 69000 करोड़ रुपए के प्रस्तावित बजट के लिए 43000 करोड़ रुपए कर राजस्व से, 1000 करोड़ रुपए गैर कर राजस्व से, 325 करोड़ रुपे केंद्रीय करों में हिस्सेदारी से, 9285 करोड़ रुपए लघु बचत ऋण से, 1000 करोड़ रूपए पूंजीगत प्राप्तियों से, 6000 करोड़ रूपए जीएसटी प्रतिपूर्ति से, 2088 करोड़ रुपए केंद्र प्रायोजित योजना से. केवल 657 करोड़ रुपए भारत सरकार की अनुदान सहायता से और शेष राशि, प्रारंभिक शेष (ओपनिंग बैलेंस) से जुटाई जाएगी."

इस तरह की मुफ्तखोरी को बढ़ावा देने से सरकार तेल और गैस के दामों में बेतहाशा वृद्धि करती है. वह उद्योगों को दिए जाने वाली बिजली की दर को बढ़ा देती है जिससे वस्तुएं महंगी हो जाती हैं और उसका भार भी जनता के ऊपर ही आता है जिससे मुद्रास्फीति में बेतहाशा वृद्धि होती है फलस्वरूप गरीब और गरीब हो जाते हैं. असमानता बढ़ती जाती है. एक रिसर्च के मुताबिक भारत में गरीबी रेखा से नीचे के लोगों में 127 फीसदी की बढ़त 2021-22 में हुई है जिसके पीछे एक ही कारण है और वह है बेरोजगारी, जो लोक कल्याणकारी राज्य को गलत परिभाषित करने के कारण हुई है.

न्याय जैसी योजनाएं जो गरीबों के खाते में सीधे नगद ट्रांसफर की बात करती हैं वह भी गलत था जो संयोग से धरातल पर नहीं आ सका. भारत की सरकार निवेश पर ध्यान देती है किन्तु बचत के लिए हतोत्साहित करती है जिसका एक जीता-जागता उदहारण पुरानी पेंशन स्कीम को खत्म करना है. असली लोक कल्याणकारी योजना है लोगो को बचत के लिए प्रोत्साहित करना, सामाजिक सुरक्षा प्रदान करना न कि मोती की माला गले से तोड़कर खैरात बांटना.

भले ही जनता जनार्दन अभी लालच में मुफ्तखोरी का मजा ले रही है लेकिन भविष्य के लिए खुद को पंगु कर रही है. ऐसी सरकार शक्ति को केंद्रीकृत कर जनता की स्वतंत्रता का उल्लंघन करने से भी नहीं चूकती है जो धीरे-धीरे परिलक्षित भी हो रहा है.

(साभार- जनपथ)

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