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अपने बीच 'पांचवें स्तंभ' की मौजूदगी को लेकर क्यों चिंतित हैं, कश्मीरी पत्रकार?

श्रीनगर में कश्मीर प्रेस क्लब का अधिग्रहण और फिर उसकी तालाबंदी के करीब दो महीने बीत जाने के बाद कुछ कश्मीरी पत्रकारों का कहना है कि भारतीय प्रेस परिषद (प्रेस काउंसिल ऑफ इंडिया) की एक रिपोर्ट ने उनके उस आरोप की पुष्टि कर दी जिसे लेकर वो काफी समय से बोल रहे थें - कि सरकार की आलोचना करने के कारण वे अपने साथी पत्रकारों के निशाने पर हैं.

कश्मीर में मीडिया की दुर्दशा पर रोशनी डालने के कारण प्रेस काउंसिल की काफी तारीफें हो रही हैं. लेकिन पत्रकारों ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि इस रिपोर्ट में ऐसे लोगों के बयान भी हैं जो उन्हें प्रशासन के हिसाब से न चलने के कारण निशाना बनाते हैं और "राष्ट्र- विरोधी" करार देते हैं.

पहले संदर्भ जान लीजिए.

पहली घटना यह हुई कि प्रेस क्लब का पाला 12 लोगों के एक ऐसे समूह से पड़ा जिसकी अगुवाई टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक सलीम पंडित कर रहे थें. पंडित ने 15 जनवरी को यह घोषणा की कि यह संस्थान उनका है. इसके दो दिन बाद जम्मू और कश्मीर प्रशासन ने क्लब परिसर का आवंटन रद्द कर दिया और क्लब को भंग कर दिया गया.

पंडित ने इसी मार्च महीने में भारतीय सेना द्वारा आयोजित एक कार्यक्रम में सफाई देते हुए कहा था कि इस अधिग्रहण का कारण यह है कि प्रेस क्लब को "पाकिस्तान के लिए माउथपीस" के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा था. उन्होंने यहां तक कहा कि क्लब की पिछली कार्यकारिणी के कुछ पदों पर ऐसे "एजेंट्स" भी थे जिन्होंने "सुरक्षा बलों के आतंकवाद विरोधी अभियानों को क्षति पहुंचाई है."

पंडित के इस भाषण के 10 दिन बाद प्रेस काउंसिल द्वारा एक रिपोर्ट प्रकाशित की गई. पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ़्ती द्वारा सरकार की आलोचना करने वाले पत्रकारों को "डराने-धमकाने" का मुद्दा उठाए जाने के बाद प्रेस कॉउंसिल द्वारा एक फैक्ट फाइंडिंग टीम को पिछले साल अक्टूबर और नवंबर महीने में श्रीनगर और जम्मू भेजा गया था.

यह भी बहुत दिलचस्प है कि इस फैक्ट फाइंडिंग कमेटी से मुलाकात करने वाले बहुत से पत्रकार सीधे-सीधे या अप्रत्यक्ष तरीके से क्लब के "अधिग्रहण" की कार्रवाई में शामिल थें जबकि प्रेस काउंसिल ने खुद इस कार्रवाई की निंदा की थी.

जहां एक ओर दैनिक भास्कर के संपादक प्रकाश दुबे, जन मोर्चा की संपादक सुमन गुप्ता और न्यू इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार गुरबीर सिंह जैसे सदस्यों वाली इस कमेटी की रिपोर्ट में इस अंदेशे को सही ठहराया गया है कि पत्रकारों को डराया गया और उन पर दबाव बनाया गया वहीं रिपोर्ट में इससे इतर एक "दूसरे नजरिए" को भी जगह दी गई है.

गौरतलब है कि 17 जनवरी को पत्रकार सज्जाद गुल की उत्तरी कश्मीर स्थित उनके घर से गिरफ्तारी की गई. इसके बाद उन्हें जमानत तो मिल गई लेकिन पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत उन्हें दोबारा जेल में डाल दिया गया. इन्हीं दिनों इंटरनेट पर "राष्ट्र- विरोधी कंटेंट" अपलोड करने के लिए कश्मीर वाला के संपादक फहाद शाह की गिरफ्तारी भी दक्षिण कश्मीर के पुलवामा जिले से हुई. हालांकि ये कंटेंट एक न्यूज़ स्टोरी थी जो उनकी न्यूज़ वेबसाइट पर प्रकाशित होने के लिए तैयार की गई थी. शाह पर भी पब्लिक सेफ्टी एक्ट के तहत मुकदमा दायर किया गया था. इस एक्ट के तहत एक व्यक्ति को अदालत में बिना कोई मुकदमा चलाए दो साल तक के लिए जेल में रखा जा सकता है.

'दूसरा नजरिया'

जहां प्रेस काउंसिल की रिपोर्ट इस दावे को सही ठहराती है कि कश्मीर में मीडिया एक संकट से गुजर रही है वहीं पत्रकारों ने इस ओर इशारा किया है कि कमेटी के सामने हाजिर होने वाले बहुत से लोगों की राय है कि सरकार ने तब तक उनके अधिकार क्षेत्र में दखलअंदाजी नहीं की जब तक कि उन्होंने "राष्ट्र-विरोधी" विषयों से दूरी बनाए रखी. "राष्ट्र-विरोधी" कश्मीर का एक अति प्रिय जुमला है जो सरकार और उसकी नीतियों का विरोध करने वाली सामग्री के लिए इस्तेमाल किया जाता है.

प्रेस काउंसिल की रिपोर्ट के कुछ अंश इस प्रकार हैं-

जम्मू स्थित डेली एक्ससेल्सियर के कार्यकारी संपादक नीरज रोमेत्रा को कमेटी की रिपोर्ट में यह कहते हुए उद्धृत किया गया है कि कश्मीर में "बहुत से पत्रकार उग्रवादियों के प्रभाव में आ जाते हैं."

पिछले सितंबर में जिन चार पत्रकारों की धर-पकड़ की गई उनके मामले में रोमेत्रा का कहना है कि "उन लोगों की विश्वसनीयता शक के घेरे में थी, उनका संबंध अलगाववादी संगठनों से था." हालांकि रोमेत्रा अपने इन दावों से जुड़े कोई सबूत पेश नहीं करते और न ही रिपोर्ट में इस बात को स्पष्ट किया गया है कि पुलिस को अभी भी उन चार पत्रकारों के खिलाफ ऐसे सबूत ढूंढने हैं जो उन्हें दोषी ठहराते हों.

रिपोर्ट से जुड़ी अगली अहम बात यह है कि इसमें हाफिज अयाज गनी को भी उद्धृत किया गया है. गनी पहले व्यवसायी थे लेकिन फिर राइजिंग कश्मीर के संपादक बन गए. गनी ने काफी जोर देकर कमेटी को बताया कि "हम एक आजाद और बेखौफ माहौल में काम कर रहे हैं. महबूबा मुफ्ती ने इस बाबत जो शिकायतें की हैं वो हम पर लागू नहीं होती."

लेकिन ये गनी हैं कौन? ये पहले राइजिंग कश्मीर में बिजनेस पार्टनर थे लेकिन इसके संस्थापक संपादक शुजात बुखारी की हत्या के बाद उन्होंने इस अखबार का अधिग्रहण कर लिया. शुजात रिश्ते में गनी के बहनोई थें. गनी के संपादक बनाने के बाद राइजिंग कश्मीर ने अपने सारे ऑनलाइन आर्काइव्स मिटा दिए, "राष्ट्र-विरोधी" माने जाने वाले कर्मचारियों को हटा दिया गया. और कथित तौर पर कर्मचारियों पर दबाव डालकर "उग्रवादी शब्द के स्थान पर आतंकवादी शब्द का इस्तेमाल" करवाना शुरू कर दिया गया. उनके कई कर्मचारी भी शब्दों के इस तरह से हेरफेर की कार्रवाई को खतरनाक मानकर उसके खिलाफ ही तर्क देते हैं. यह अखबार सरकार के राजस्व से सबसे ज्यादा लाभ पाने वाले अखबारों में से एक है जिसमें खबरों से ज्यादा विज्ञापन और राजनैतिक दलों या सरकार आदि के जन संपर्क संबंधी पर्चे प्रिंट होते हैं.

प्रेस काउंसिल की कमेटी ने पत्रकार बशीर असद और इकबाल अहमद से भी मुलाकात की. इन दोनों को रिपोर्ट में यह कहते हुए उद्धृत किया गया है कि “श्रीनगर में स्थित कश्मीर प्रेस क्लब में महसूस होता है कि जैसे हम मुजफ्फराबाद प्रेस क्लब में हैं. हां, कश्मीर में प्रेस आजाद है.”

असद, कश्मीर सेंट्रल नामक एक वेब पोर्टल चलाते हैं, जिसे पत्रकारों पर निशाना साधने के लिए जाना जाता है. वह अक्सर कश्मीर में सेना द्वारा आयोजित कार्यक्रमों के वक्ता भी होते हैं. अहमद, पंडित की उस टीम का हिस्सा थे जिसने प्रेस क्लब के "अधिग्रहण" की कार्रवाई को अंजाम दिया था. वह कश्मीर सेंट्रल और कजाइन के उर्दू प्रकाशन के संपादक होने के साथ-साथ जम्मू और कश्मीर पंचायत कांग्रेस के अध्यक्ष भी हैं.

असद और अहमद दोनों ने ही कमेटी को यह भी बताया कि "मीडिया में दो धड़े हैं - देशद्रोही और राष्ट्रवादी."

इस मसले पर कश्मीर में एशियन मेल नाम का अखबार चलाने वाले राहिल राशिद के विचार भी कुछ ऐसे ही हैं. उन्होंने कमेटी से कहा कि इस दुनिया में दो तरह के लोग होते हैं और इसी तरह दो तरह के पत्रकार. कुछ पत्रकार सरकार के पक्ष में हैं तो कुछ उसके विपक्ष में. अगर पत्रकार को सरकार के खिलाफ लिखने का अधिकार है, तो सरकार को भी उसका मुंह बंद करने का अधिकार है.

शफत कियारा ने भी यही दोहराया, जो कश्मीर प्रेस क्लब का "अधिग्रहण" करने वाली टीम का हिस्सा थीं. विडंबना यह है कि कियारा प्रेस क्लब की उसी अंतिम निर्वाचित निकाय की भी सदस्य थीं जिस पर सलीम पंडित ने पाकिस्तान से जुड़े होने का आरोप लगाया था. कियारा ने कमेटी से कहा कि “पत्रकारिता और एक्टिविज्म के बीच एक विभाजन रेखा होनी चाहिए." अगर आप पूरी सच्चाई से रिपोर्टिंग करते हैं, तो कोई भी आपको परेशान नहीं कर सकता."

कियारा और इकबाल अहमद के अलावा, प्रेस क्लब के अधिग्रहण का नेतृत्व करने वाले कई अन्य पत्रकारों को भी कमेटी की रिपोर्ट में उद्धृत किया गया है. जैसे कि श्रीनगर न्यूज़ के संपादक इकबाल वानी को, जिन्होंने कहा कि "सार्वजनिक मुद्दों को उजागर करते समय प्रेस को किसी भी तरह की समस्या का सामना नहीं करना पड़ता है." और उनकी टीम को "कहीं से भी किसी भी तरह के दबाव का सामना नहीं करना पड़ता." "बल्कि स्थानीय प्रशासन की शिकायत निवारण प्रक्रिया काफी अच्छी है." वानी ने यह भी कहा, "हमने ऐसा देखा है कि शिकायतों के मामले में त्वरित कार्रवाई की जाती है."

कमेटी ने नए कश्मीर प्रेस क्लब के महासचिव और डेक्कन हेराल्ड के वरिष्ठ संवाददाता जुल्फिकार मजीद से बात की. मजीद ने कहा, "कुछ पत्रकार एक्टिविस्ट बन गए हैं और जो नहीं बने हैं उन्हें इसकी सजा नहीं देनी चाहिए.” यहां एक अहम बात यह है कि मजीद ने लगातार अपने साथी पत्रकारों पर अलगाववादी या सरकारी एजेंट होने का आरोप लगाया है.

माजिद हैदरी एक टेलीविजन पैनलिस्ट हैं. माजिद, पंडित के समूह के सदस्य भी थें. फैक्ट फाइंडिंग कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में इन्हें एक "फ्रीलांस जर्नलिस्ट" के तौर पर दर्शाया है. हैदरी ने कमेटी से कहा, "कश्मीर में हम शैतान और गहरे समंदर के बीच फंस गए हैं.".

यह भी दिलचस्प है कि रिपोर्ट में जावेद बेग नाम के एक राजनैतिक कार्यकर्ता के बयानों का भी हवाला दिया गया है, जो भारतीय सेना द्वारा आयोजित कैंडल लाइट विजिल्स में नियमित तौर पर भाग लेते हैं. बेग ने कहा, “कश्मीर के अखबार मालिक और संपादक नकारात्मकता फैला रहे हैं और भारत की संकल्पना पर सवाल उठा रहे हैं." इसके साथ ही उन्होंने कश्मीरी संस्कृति के "अरबीकरण" पर भी अफसोस जताया.

गौरतलब है कि इन सभी पत्रकारों की टिप्पणियां वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों द्वारा कमेटी को बताई गई बातों के अनुरूप ही हैं.

कश्मीर के डिविजनल कमिश्नर पांडुरंग पोले और पुलिस महानिरीक्षक विजय कुमार का हवाला देते हुए, रिपोर्ट में कहा गया है कि, “कुछ मौकों पर ऐसा वाकया देखने में आया है कि मीडियाकर्मी/ पत्रकार अपने पद का दुरुपयोग करते हैं और ऐसी गतिविधियों का सहारा लेने की कोशिश करते हैं जिनमें लोगों को भड़काने की प्रवृत्ति होती है, जिससे कि अंततः कानून- व्यवस्था की स्थिति गंभीर हो जाती है..."

कुमार ने यह भी कहा कि 2016 से अक्टूबर 2021 के बीच पत्रकारों के खिलाफ 49 मामले दर्ज किए गए. जिनमें से 17 आपराधिक धमकी से संबंधित थे, 24 "जबरन वसूली और अन्य अपराधों" से संबंधित थे, जबकि आठ आरोप गैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) के कठोर अधिनियम के तहत दर्ज थें.

एक और दिलचस्प बात यह है कि वानी, गनी, असद, अहमद और कियारा - जिनको भी इस रिपोर्ट में उद्धृत किया गया है - वो सभी जम्मू और कश्मीर प्रेस कॉर्प के सदस्य हैं. बाद में इन लोगों ने प्रेस काउंसिल की रिपोर्ट के न केवल "झूठे होने बल्कि दुर्भावनापूर्ण" होने के आरोप लगा उसकी आलोचना की. एक बयान में, इस समूह ने कहा कि कश्मीर में मीडिया "फल-फूल" रहा है और यह "संदेश" उसी कमेटी के लिए था जिसने "इन तथ्यों को आसानी से दबा दिया था." (नोट: इन "तथ्यों" का उल्लेख रिपोर्ट में किया गया है.)

इस समूह ने कमेटी को "पूर्वाग्रह से ग्रस्त" होने के साथ ही "बयानों को पूर्व नियोजित तरीके से और खतरनाक स्तर तक तोड़-मरोड़कर" उन्हें अपनी रिपोर्ट में पेश करने का आरोप लगाया. इस समूह का यह भी कहना है कि उन्होंने समिति के साथ अपनी बैठक में स्पष्ट किया था कि किसी भी अधिकृत पत्रकार को पुलिस द्वारा परेशान या तलब नहीं किया गया है. हालांकि समूह ने यह नहीं बताया कि एक "अधिकृत पत्रकार" से उनका क्या आशय है.

मीडिया पर सलीम पंडित का रुख

रिपोर्ट जारी होने से 10 दिन पहले, 3 मार्च को सलीम पंडित ने "इतिहास के चौराहे पर कश्मीर" नाम के एक सेमिनार में भाषण दिया. इस सेमिनार का आयोजन भारतीय सेना की 15 कोर और इंटरनेशनल सेंटर फॉर पीस स्टडीज के कश्मीर चैप्टर द्वारा संयुक्त रूप से आयोजित किया गया था. यह सभा श्रीनगर के बादामीबाग छावनी में आयोजित की गई थी, जिसमें सेना के जवान और बहुत से दूसरे लोग शामिल हुए थे.

इस आयोजन में पंडित का परिचय सेना के एक वरिष्ठ अधिकारी ने टाइम्स ऑफ इंडिया के संपादक के रूप में करवाया था. अधिकारी ने उनकी तारीफ में कहा था कि "इनके द्वारा ही अलगाववादी लॉबी के छिपे हुए एजेंडे को उजागर किया गया था, यही कारण है कि हम इनसे प्यार करते हैं."

कार्यक्रम के दौरान पंडित. स्रोत: भारतीय सेना के प्रवक्ता

कागज के एक टुकड़े को पढ़ते हुए, पंडित ने पत्रकारों पर "एक्टिविस्ट" और "ब्लैकमेलर" होने का आरोप लगाया. उन्होंने फ्रीलांसर्स के तौर पर काम करने वालों पर खास तौर से निशाना साधा.

उन्होंने कहा कि, "यहां कश्मीर में आकर हर किसी ने खुद को पत्रकार दिखाने की कोशिश की है. हालांकि ऐसे लोग इस पेशे के खिलाफ ही हैं. ये लोग खुद को फ्रीलांसर्स कहते हैं." उन्होंने सोशल मीडिया को "भड़कावे और बहकावे के जरिेए के तौर पर उसे आतंकवाद की एक अलग ही तरह की मुहिम" के रूप में पेश किया. उन्होंने आगे कहा, "सफेदपोश आतंकवादियों को सोशल मीडिया का इस्तेमाल करके संस्थानों की छवि-ध्वंस करने का काम सौंपा गया है."

पंडित ने कश्मीरियों को उनके मौलिक अधिकारों का दुरुपयोग करने की परेशानी से संबंधित चेतावनी भी दी. उन्होंने कहा, "मुझे जनरल पाटनकर याद हैं, जो कोर कमांडर थे और मुफ्ती मोहम्मद सईद उस वक्त मुख्यमंत्री थे. उस वक्त वह कश्मीर को मोबाइल फोन या इस तरह के उपकरण देने के कट्टर विरोधी थे क्योंकि उन्हें यह पता था, बल्कि यह पूर्वानुमान था कि कुछ गलत होने वाला है और आगे आने वाले वक्त में मोबाइल फोन का दुरुपयोग किया जाएगा ... और हुआ भी वही."

उन्होंने यह भी कहा, "देश की अखंडता या संप्रभुता को चुनौती देने वाले तत्वों से सख्ती और दृढ़ता से निपटने की जरूरत है ताकि कानून का राज बना रहे ... हमारे जैसा देश ऐसे तत्वों के खिलाफ नरम हो जाता है जो सोशल मीडिया के माध्यम से राष्ट्र के खिलाफ नफरत फैलाते हैं.”

पंडित ने कहा, "वक्त का तकाजा है कि इन तत्वों की पहचान राजनैतिक विचारधारा के आधार पर की जाए."

संयोग से, रिपोर्ट में पुलिस प्रमुख श्रीमान कुमार का बयान छापा गया है कि उन्हें, "यह स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं है कि जम्मू-कश्मीर में काम कर रहे पत्रकारों का एक विस्तृत ब्यौरा रखने के लिए एक कार्यक्रम तैयार है." उन्होंने आगे यह भी कहा, "हमारा उद्देश्य 80 प्रतिशत कश्मीरियों का ब्यौरा रखना है, और हम पत्रकारों के लिए भी ऐसा ही करेंगे."

बावजूद इसके कि कश्मीरी पत्रकारों ने जनवरी में पंडित द्वारा प्रेस क्लब का "अधिग्रहण" करने की घोर निंदा की थी फिर भी उन्होंने सेमिनार में पंडित के बयानों पर टिप्पणी करने से परहेज किया क्योंकि ऐसा माना जाता है कि पंडित के प्रशासन के साथ घनिष्ठ संबंध हैं, जो कि "अधिग्रहण" की कार्रवाई के दौरान उनके सुरक्षा विवरण से भी स्पष्ट है." पत्रकार इस बात से भी वाकिफ हैं कि जम्मू-कश्मीर पुलिस सोशल मीडिया पोस्ट्स के आधार पर भी पत्रकारों पर मुकदमें दायर कर रही है.

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