Obituary
शेन वॉर्न: जब स्पिन के मास्टर ने कही अपनी कहानी
जनवरी 1992, दूरदर्शन पर रात के 11 बजे टेस्ट मैच के मुख्य अंशों के प्रसारण के दौरान भारत के क्रिकेट फॉलोवर्स ने पहली बार एक युवा, स्थूलकाय और सुनहरे बालों वाले शेन वार्न को देखा.
यह वह दौर था जब केबल को टीवी को उभरने में देर थी और सार्वजनिक प्रसारक दूरदर्शन विदेश में होने वाली टेस्ट श्रृंखलाओं (1989 के पाकिस्तान दौरे को छोड़कर) का सीधा प्रसारण नहीं करता था. इसलिए टीवी पर 30 मिनट का पैकेज आता था जिसमें मैच के मुख्य अंश दिखाए जाते थे.
उस रात लोगों ने 22 वर्षीय वॉर्न को भारतीय टीम के खिलाफ श्रृंखला के तीसरे टेस्ट मैच में सिडनी क्रिकेट ग्राउंड पर अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में पदार्पण करते देखा.
पहले मैच में वार्न डरे-सहमे और उदासीन से लगे. उनका खेल अप्रभावी रहा और भारतीय बल्लेबाजों ने उनके 45 ओवरों में 105 रन जड़ दिए. वह केवल एक विकेट ही ले पाए.
इन आंकड़ों को देखकर कोई नहीं कह सकता था कि आने वाले वर्षों में वॉर्न स्पिन गेंदबाजी में महानता की अभूतपूर्व ऊंचाइयों तक पहुंचेंगे. जिस तरह वह गेंद को घुमा रहे थे उसे छोड़कर कुछ भी, न कोई विविधता, न ही योजना और न ही उनका एक्शन. यह संकेत नहीं दे रहा था कि उनके अंदर कितनी प्रतिभा छुपी है.
और यह प्रतिभा 1993 की गर्मियों में इंग्लैंड में उभर कर सामने आई. ओल्ड ट्रैफर्ड में एशेज के पहले टेस्ट के पहले दिन वॉर्न की पहली गेंद को 'बॉल ऑफ द सेंचुरी' कहा जाता है, और उसकी व्याख्या इतनी तरह से की गई है कि आप छोटे-मोटे विवरण भूल जाते हैं. लूपी लेग ब्रेक गेंद ड्रिफ्ट हुई, घूमी, थोड़ा नीचे आई, लेग स्टंप के बाहर जाने को हुई और जैसे ही माइक गैटिंग ने हाफ-फॉरवर्ड खेला, यह शातिर तरीके से उनके ऑफ स्टंप के ऊपरी हिस्से पर जा लगी.
दो दशक बाद भी, द गार्जियन के लिए एशेज के सबसे यादगार क्षणों के बारे में लिखते हुए बार्नी रोने ने लिखा- "वॉर्न की गेंद के बारे में कहने के लिए वास्तव में कुछ नहीं बचा है. इसे एशेज में शेन वॉर्न की शुरुआती डिलीवरी के रूप में जाना जाता है; या अधिक सामान्य रूप से इसे 'द बॉल ऑफ द सेंचुरी', 'बर्थ ऑफ ए सुपरस्टार', 'अवेकनिंग ऑफ द क्रैकेन', 'ऑस्ट्रेलिया के कस्टर्ड-ब्लॉन्ड लेग-ब्रेक एल्विस का जेलहाउस रॉक' और इसी तरह की कई उपाधियों से नवाजा जाता रहा है. आंशिक रूप से ऐसा इसलिए है क्योंकि इसपर बहुत कुछ पहले ही कहा और लिखा जा चुका है, इतना कुछ कि एक विशाल पुरानी लाइब्रेरी बन जाए जिसमें इतिहासकार की निष्पक्ष व्याख्या से लेकर जीवनीकार के प्रशंसाओं के सागर तक सब कुछ हो.”
लेकिन, उनपर लिखी गई 12 किताबों और उनकी उपलब्धियों और विवादों के कई वर्णन सामने आने के बाद, वॉर्न ने तय किया कि वह अब इसे जीवनीकारों पर नहीं छोड़ेंगे.
नो स्पिन: मेरी आत्मकथा (एडबरी प्रेस) उनकी कहानी है जिसे उनके दोस्त और पूर्व अंग्रेजी क्रिकेटर एवं कमेंटेटर मार्क निकोलस ने उन्हीं के शब्दों में लिखा है.
वॉर्न बड़ी स्पष्टवादिता के साथ अतीत की बातें करते हैं. अतीत के आइने में झांकते हुए वह प्रौढ़ावस्था में अपने विचारों और भावनाओं का पुनः मूल्यांकन करते हैं, हालांकि ऐसा करते हुए वह कभी-कभी आत्मरति की ओर जाने लगते हैं. लेकिन ज्यादातर वह स्पष्टवादी हैं.
उदाहरण के लिए, अपने पहले एशेज टेस्ट में अपनी प्रतिष्ठित गेटिंग गेंद को याद करते हुए वह उसे 'अनायास मिली सफलता' बताते हैं, 'जो दिलेरी और ठंड' की वजह से मिली. कुछ ऐसा जो वह फिर से क्रिकेट के मैदान पर नहीं कर सके.
उन्होंने टेस्ट क्रिकेट के यादगार 15 वर्षों में असाधारण प्रतिभा के साथ लेग ब्रेक गेंदे फेंकी और 2007 में सिडनी में अपना आखिरी मैच खेलने से पहले 700 से अधिक विकेट लिए. ऐसा करते हुए अपनी मैच जीतने की क्षमता और मैदान के बाहर ग्लैमरस व्यक्तित्व से उन्होंने न केवल लेग-स्पिन गेंदबाजी की चुनौतीपूर्ण कला को पुनर्जीवित किया बल्कि अक्सर विवादों में भी घिरे रहे.
इस बात के लिए उनकी सराहना होनी चाहिए कि उन्होंने केवल लुभावनी बातें करने की बजाए अपने संस्मरण में सुखद और अप्रिय घटनाओं की समान रूप से समीक्षा की है. वह अपने जीवन के कटु-सत्यों का सामना करने से हिचकते नहीं हैं.
हालांकि अपने वास्तविक व्यक्तित्व को प्रकट करने के प्रयास में वॉर्न कभी-कभी बहुत अधिक आत्म-अनुग्रहकारी और पुनरावर्ती प्रतीत होते हैं. बेहतर संपादन के द्वारा इससे बचा जा सकता था. उनके कद के खिलाड़ी के लिए यह उपयुक्त है कि पुस्तक के सबसे रोमांचक हिस्से उन विवादों और महिलाओं के बारे में नहीं हैं जिनके बारे में वह बात करते हैं, बल्कि उस कला के बारे में हैं जिसके प्रदर्शन में वह अपने समकक्षों में सबसे अधिक प्रभावशाली थे.
शुरुआती असफलता के बाद, 70 के दशक के ऑस्ट्रेलियाई लेग स्पिनर टेरी जेनर के मार्गदर्शन में वॉर्न ने अपनी कला को निखारने और अनुशासित करने के प्रयासों के बारे में लिखे गए अध्याय विशेष रूप से दिलचस्प हैं.
वॉर्न के गुरु ने, जिन्हें वह टीजे कहते हैं, स्पिन करने की उनकी प्रचुर प्रतिभा को विकेट लेने की क्षमता की ओर निर्देशित किया और उन्हें सिखाया कि प्रत्येक गेंद प्लानिंग के साथ करनी चाहिए. वह क्या गेंद करने जा रहे हैं और किसी विशेष बल्लेबाज को एक विशेष गेंद क्यों फेंक रहे हैं, आदि.
उनका एक्शन सुधारने और रॉंग-अन (जिसे उपमहाद्वीप में गूगली कहा जाता है) तथा फ्लिपर गेंदों का प्रदर्शन निखारने के साथ टीजे ने उन्हें गति बदलना और सीधी गेंद करना भी सिखाया और उन्हें एक ऐसा गेंदबाज बना दिया जो यह प्रतीक्षा नहीं करता कि बल्लेबाज कब गलती करे, बल्कि उन्हें घातक गलतियां करने पर मजबूर कर देता है.
रॉडनी मार्श के नेतृत्व वाली क्रिकेट अकादमी में बिताया उनका समय भी महत्वपूर्ण है, लेकिन महान क्रिकेटर रिची बेनो के साथ उनकी बातचीत अधिक दिलचस्प है- विशेषकर वह प्रसंग जब एयरपोर्ट पर बातचीत के दौरान रिची एक संतरा लेकर उन्हें 'रॉंग-अन' की विविधताओं के बारे में बताते हैं.
लेकिन सबसे रोचक अध्याय वह है जिसमें वॉर्न लेग-स्पिन गेंदबाजी की बारीकियों पर बात करते हैं. यह अध्याय उपयोगी तो है ही लेकिन वॉर्न की बारीकियों के प्रति सजगता को जानकार बेहद स्फूर्ति मिलती है. अलग-अलग एंगल पर गेंदबाजी, गति की विविधताएं, पिचिंग और मैच की स्थिति के साथ अनुकूलन, फील्ड सेटिंग और सबसे महत्वपूर्ण, मानसिकता को समझना. इस अध्याय को हाल के दशकों में प्रकाशित क्रिकेट साहित्य में सबसे अधिक पठनीय संग्रहों में निश्चित रूप से शुमार किया जाना चाहिए.
अन्य खूबियों के अलावा यह पुस्तक वॉर्न की पारिवारिक इतिहास की गहरी समझ से ओतप्रोत है. जिस तरह से वह अपनी अप्रवासी दादी और दादा के जीवन का वर्णन करते हैं वह उल्लेखनीय है. उसी प्रकार का विवरण वह अपने माता-पिता के साथ संबंधों का भी करते हैं, जो उनके लिए बहुमूल्य था और जिसका उनके जीवन पर सबसे स्थायी प्रभाव था.
अपने मेहनती माता-पिता और भाई के साथ बड़े होने का उनका स्नेहपूर्ण वर्णन 70 और 80 के दशक के मेलबर्न में ऑस्ट्रेलियाई मध्यवर्गीय जीवन की सटीक व्याख्या है. उनके पिता ने जिस तरह वॉर्न के खेल जीवन में रूचि दिखाई और उनका समर्थन किया. पहले एक विफल ऑस्ट्रेलियाई रूल्स फुटबॉल खिलाड़ी के रूप में और बाद में क्रिकेट इतिहास के सबसे सफल लेग-स्पिन गेंदबाज के रूप में वह दिखाता है कि ऑस्ट्रेलिया के समाज में खेलों का क्या स्थान है.
असावधानीवश पाकिस्तान में एक सट्टेबाज के साथ हुई बातचीत से लेकर अनजाने में ली गई प्रतिबंधित दवा के कारण अप्रत्याशित रूप से ड्रग टेस्ट पॉज़िटिव पाए जाने तक, वॉर्न अपने करियर के हर विवाद पर अपना पक्ष रखते हैं. इन दोनों मामलों में ही ज्यादातर लोग ऐसे थे जिन्हें वॉर्न पर कोई संदेह नहीं था, और इस पुस्तक के बाद यह संख्या भी बढ़ने वाली है.
कई महिलाओं से संबंधों के कारण अक्सर सुर्खियों में रहने वाले वॉर्न स्वीकार करते हैं कि इस लापरवाह मनोविनोद के कारण ही उनके तीन बच्चों की मां सिमोन से उनकी शादी टूट गई. वह पछताते हैं कि वह अपने बच्चों के लिए शर्मिंदगी का कारण बने, क्योंकि वह उन्हें अपने जीवन का सबसे मूल्यवान हिस्सा मानते हैं. पहली शादी टूटने के बाद वार्न का एकमात्र गंभीर संबंध अभिनेत्री एलिजाबेथ हर्ले के साथ था. लेकिन लंबी दूरी के रिश्ते की असुविधाओं के कारण वह भी अधिक समय तक नहीं टिका.
अपने असंयमी बर्ताव और कामुकता के क्षणों के बावजूद, वॉर्न का मानना था कि वह मूल रूप से एक प्रतिबद्ध पारिवारिक व्यक्ति हैं. उन्होंने न केवल पहली पत्नी के साथ अपने संबंध सुधारे, बल्कि आत्मनिरीक्षण के लंबे सत्र भी किए.
क्रिकेट की यादों में वापस जाते हुए वॉर्न नेतृत्व, टीम का तालमेल, खेल के प्रति दृष्टिकोण और प्रशिक्षण के बारे में सुदृढ़ विचार व्यक्त करते हैं. स्टीव वॉ को एक स्वार्थी खिलाड़ी और कप्तान के रूप में खारिज करते हैं और एलन बॉर्डर तथा मार्क टेलर को सर्वश्रेष्ठ कप्तानों की उपाधि देते हैं.
उसी स्पष्टता के साथ वह पूर्व ऑस्ट्रेलियाई कोच जॉन बुकानन का तिरस्कार भी करते हैं. वॉर्न 'बैगी ग्रीन-वर्शिप कल्चर' की अवहेलना करते हैं, जो उनके अनुसार एडम गिलक्रिस्ट और जस्टिन लैंगर जैसे सहयोगियों की मदद से स्टीव वॉ ने प्रचारित किया. यह भारत जैसी उपमहाद्वीप की टीमों के लिए दिलचस्प सबक हो सकता है.
हाल के वर्षों में, भारतीय टीम के शीर्ष नेतृत्व द्वारा मैदान के बाहर जो गौरव प्रदर्शन किया जा रहा है उससे लगता है कि अब यह समझा जाने लगा है कि जो अंध-राष्ट्रवाद प्रदर्शित करते हैं वही जुनून के साथ खेलते हैं. वॉर्न ने ठीक ही कहा है कि टीम की एकजुटता और गर्व की भावना प्रदर्शन सिर्फ मैदान में होना चाहिए. इसके बाहर राष्ट्रीय टीम के खिलाड़ी को भी किसी अन्य खेल-प्रेमी की तरह ही बर्ताव करना चाहिए.
ब्रायन लारा और सचिन तेंदुलकर को अपनी पीढ़ी के सर्वश्रेष्ठ बल्लेबाज बताते हुए वॉर्न काफी ईमानदारी से स्वीकार करते हैं कि वह अक्सर उनपर भरी पड़े. लेकिन वह हमेशा प्रतियोगिता में बने रहे क्योंकि उन्होंने इन सर्वश्रेष्ठ दिग्गजों को गेंदबाजी करने की चुनौती का आनंद लिया.
संभवत: 1998 में उनके कंधे के ऑपरेशन के बाद उनकी 'रॉंग-अन' गेंदों और विविधताओं ने अपना दंश खो दिया. इसका मतलब था कि जब तेंदुलकर और अन्य भारतीय बल्लेबाजों ने उन्हें 1998 की श्रृंखला में बेअसर कर दिया था तब वह अपनी सर्वश्रेष्ठ गेंदबाजी नहीं कर रहे थे. तब भी जब 2001 में वीवीएस लक्ष्मण और राहुल द्रविड़ ने और भी बेहतर तरीके से उन्हें विफल किया.
हालांकि आम तौर पर भारतीय परिस्थितियों में अपने उच्च मानकों को बनाए रखना उनके लिए एक संघर्ष था, उन्होंने 2004 के भारतीय दौरे में अच्छी गेंदबाजी की.
उपमहाद्वीप में हो या ऑस्ट्रेलिया में, वॉर्न भारतीय बल्लेबाजों पर काबू पाने में नाकाम ही रहे, फिर भी भारतीयों ने उन्हें खूब सम्मान दिया. लेग-स्पिन गेंदबाजी की कला को पुनर्जीवित करने वाले चेहरे के रूप में उनकी अपील देश के लाखों क्रिकेट-प्रेमियों के मन में मजबूती से बैठ गई थी.
राजस्थान रॉयल्स को इंडियन प्रीमियर लीग का पहले संस्करण जिताने में उन्होंने अपनी नेतृत्व क्षमता का बखूबी इस्तेमाल किया. वॉर्न का टीम मालिकों के साथ काम करने का अनुभव अच्छा रहा, मामूली मतभेदों को दूर कर टीम की पूरी कमान संभालने और उसे चैंपियनशिप जिताने की सभी यादें उन्होंने साझा की हैं.
वह बताते हैं कि टीम की जीत लिए संयुक्त प्रयास करने की भावना पैदा करने की इस प्रक्रिया में उन्होंने किस तरह एक भारतीय खिलाड़ी के सर से वरिष्ठता और स्टारडम के अहंकार को उतारा.
भले ही उन्होंने अपने शर्मनाक ऑफ-फील्ड क्षणों के विवरण साझा किए हैं, लेकिन इस किताब को यादगार वही भाग बनाते हैं जब वार्न गेंदबाजी की कला की बात करते हैं. वह कला जिसने बड़े-बड़े बल्लेबाजों को चौंका देने वाली गेंदों के दर्शन कराए हैं.
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