Obituary
जय प्रकाश चौकसे: “एक ऐसा लेखक जिनको पढ़ने के लिए हम अखबार खरीदते थे”
कहते हैं कि व्यक्ति अपने विचारों से बूढ़ा होता है, उम्र से नहीं, और जय प्रकाश चौकसे के व्यक्तित्व पर यह सूक्ति बिलकुल फिट बैठती है. वह 83 वर्ष की उम्र में भी कैंसर से पीड़ित होने के बावजूद बूढ़े नहीं हुए थे, बल्कि उनकी सोचने-समझने और पढ़ने लिखने की वैचारिक शक्ति ने उन्हें ताउम्र नौजवान बनाए रखा. आखिरी सांस तक अपनी धारदार लेखनी से पाठकों को चमत्कृत करते रहे. उनको पढ़कर ऐसा लगता था जैसे कोई नौजवान लेखक लिख रहा हो. शायद इसीलिए वह युवा पीढ़ी के पाठकों में भी काफी लोकप्रिय रहे. बहुत सारे युवा सिर्फ सिटी भास्कर में उनका स्तम्भ “परदे के पीछे” पढ़ते थे. युवा हिंदी पाठकों के बीच दैनिक भास्कर की लोकप्रियता का यह एक बहुत बड़ा कारण भी है.
फिल्मों के माध्यम से राजनीतिक, सामाजिक विषयों पर वह गंभीर टिप्पणी करते थे. अधिकांश यह व्यंग्यात्मक कटाक्ष होता था. उन्होंने लेखन की खुद की एक विधा इजाद की थी. एक सीमित शब्द संख्या में लिखे गए लेख में फिल्म से लेकर साहित्य, समाज, राजनीति, कला के साथ ही किसी व्यक्ति से जुड़ा संस्मरण ऐसे उद्घाटित करते थे, गोया कि एक धागे में पिरोए गए अलग-अलग किस्म के महत्वपूर्ण फूल हों. उन्होंने अपनी लेखनी से हिंदी सिनेमा ही नहीं बल्कि विश्व सिनेमा से भी पाठकों को अवगत कराया. लेखक व समाज विज्ञानी, डॉ. ईश्वर सिंह दोस्त के शब्दों में चौकसे साहब ने सिनेमा को लेकर एक व्यापक लोकशिक्षण का काम किया है.
एक ऐसा लेखक, जिसको पढ़ने के लिए हम वह अखबार खरीदते थे, जिसमें वह लिखता था, और जब सुबह अखबार आता तो सबसे पहले उनका लिखा स्तम्भ “परदे के पीछे” पढ़ते. जय प्रकाश चौकसे साहब की लेखनी में एक चुम्बकीय आकर्षण था और उनके न रहने पर भी उनका लिखा, पढ़ने वालों को अपनी तरफ खींचता रहेगा. चौकसे साहब को पढ़ना तो अच्छा लगता ही था, सुनना भी बेहद दिलचस्प लगता था. उनसे पहली बार रूबरू होने का मौका, इंदौर प्रेस क्लब द्वारा रवीन्द्र भवन में आयोजित भाषाई पत्रकारिता महोत्सव में मिला. जिसमें गीतकार इरशाद कामिल और फिल्म समीक्षक अजय ब्रम्हात्मज भी उपस्थित थे.
फिल्मों के घटिया कंटेंट को लेकर ब्रम्हात्मज जी द्वारा यह बचाव करने पर कि दर्शक यही देखना चाहते हैं, चौकसे जी ने डांटने के अंदाज में कहा कि क्या दर्शक अच्छी फिल्मे देखना पसंद नहीं करता. थ्री इडियट्स का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि आपके पास अच्छी स्टोरी होनी चाहिए तब तो आप बेहतर फिल्म बना पाएंगे नहीं तो दर्शकों का बहाना बनाएंगे.
उन्होंने कहा कि सुनने वाले कम लोग हैं तो क्या हमें अपनी बातों का स्तर गिरा देना चाहिए. खुद के लेखन को लेकर उन्होंने कहा कि मैं फिल्म का समीक्षक नहीं हूं बल्कि फिल्म को लेकर समाज के बारे में लिखता हूं. भास्कर या नई दुनिया के पास इतना पैसा नहीं है कि मेरी लेखनी बदल दें (भास्कर से पहले नई दुनिया में लिखते थे). वो न सिर्फ बेबाकी के साथ लिखते थे बल्कि बेबाकी के साथ बोलते भी थे. वे भास्कर का धन्यवाद भी यह कहकर अदा करते रहे कि ऐसे दौर में भी अखबार उनके लिखे को छाप रहा है, क्योंकि अपने लेखन के माध्यम से वो सत्ता और दक्षिणपंथी रुझान रखने वालों पर लगातार प्रहार करते रहे हैं. रूस और यूक्रेन के बीच चल रहे युद्ध के समय, उनकी बहुत पहले लिखी गई एक पंक्ति याद आती है कि युद्ध एक हवन कुंड है, जिसमें जीतने और हारने वाले दोनों का लहू घी की तरह स्वाहा किया जाता है.
चौकसे साहब अपने लेखों में अधिकांशतः कवि कुमार अम्बुज वरिष्ठ की कविताओं के अंशों का जिक्र करते रहे. उनके लिए अम्बुज लिखते हैं कि यदि जय प्रकाश चौकसे का ‘परदे के पीछे’ स्तम्भ, इस शताब्दी में किसी हिंदी अखबार का अत्यंत लोकप्रिय स्तम्भ रहा है तो उसका कारण सहज बौद्धिकता में निहित है, जो फिल्मों के बहाने सोशियो-पॉलिटिकल, विविध कलाचर्चा, दार्शनिक सूक्तियों, लोकोक्तियों और सम्प्रेषणीय विचारशीलता की शक्ति में अभिव्यक्ति होती रही है. वे जीवनभर प्रतिपक्ष की बेंच के स्थायी सदस्य बने रहे. उनके न होने से एक जरूरी आवाज कम हो गई है. एक उठा हुआ हाथ कम हो गया है.
एक संस्मरण सुनाते हुए चौकसे जी बताते थे कि एक बार नीमच जिले से एक युवा ने किलोभर देशी घी लाकर उन्हें दिया, और बोला कि मैं आपके लिखे को उतना नहीं समझता लेकिन इतना समझता हूं कि आप अच्छा लिखते हैं. आपको पढ़कर अच्छा लगता है. आप घी खाइए और खूब लिखिए.
वह आजीवन लिखते भी रहे. दैनिक भास्कर में ही लगातार 26 साल तक बिना नागा किए लिखते रहे. इसके पहले नई दुनिया में लिखते रहे. उन्होंने तीन उपन्यास दराबा, ताज बेकरारी का बयान, महात्मा गांधी और सिनेमा व राज कपूर-सृजन प्रक्रिया नामक पुस्तकें, कुरुक्षेत्र की कराह सहित कई कहानियां लिखीं. उनके लेखों के दो संग्रह भी लेखमाला के रूप में प्रकाशित हुए.
बीती दीपावली पर इंदौर के एक उत्साही साथी के साथ उनके घर पर उनसे मिलना हुआ, जो उनसे पहली बार मिल रहा था. उनका स्वास्थ्य देखकर दुख पहुंचा. उन्होंने कहा कि कब तक जिंदा हूं पता नहीं, अब शरीर में जान नहीं रही. इसके बावजूद डेढ़ घंटे तक उनसे बातें होती रहीं. उन्होंने अपने छात्र जीवन से लेकर राजकपूर, सलीम खान से जुड़े संस्मरण सुनाए. उनकी याददाश्त देखकर हम चकित थे. वह बिना रुके नियमित तौर पर इबादत की तरह हर स्थिति में लिखते रहे. बताने लगे कि अब लिखने और पढ़ने में बहुत परेशानी आती है. लेंस की सहायता से पढ़ता हूं और लिखने में भी बहुत समय लगता है, पर एक फिल्म प्रतिदिन देखता हूं. फिल्मों के प्रति उनका अथाह प्रेम था. वही प्रेम और लालित्य उनके लेखन में भी झलकता है. सटीक, कलात्मक और आकर्षक लेखनी के धनी एक बेबाक लेखक जय प्रकाश चौकसे जी को अश्रुपूरित श्रद्धांजलि.
(मृगेन्द्र सिंह, देशबंधु अखबार में पत्रकारिता के अनुभव के साथ ही लगातार लेखन में सक्रिय स्वतंत्र पत्रकार .)
Also Read: नहीं रहे वरिष्ठ पत्रकार और लेखक अनिल धारकर
Also Read
-
How Muslims struggle to buy property in Gujarat
-
A flurry of new voters? The curious case of Kamthi, where the Maha BJP chief won
-
I&B proposes to amend TV rating rules, invite more players besides BARC
-
Scapegoat vs systemic change: Why governments can’t just blame a top cop after a crisis
-
Delhi’s war on old cars: Great for headlines, not so much for anything else