Assembly Elections 2022
सहारनपुर: योगीराज का पहला दंगा
गोरख पांडे ने दंगे की राजनीति को चार पंक्तियों में बहुत सटीक समझाया था: ''इस बार दंगा बहुत बड़ा था/ खूब हुई थी/ खून की बारिश/ अगले साल अच्छी होगी/ फसल/ मतदान की''. इस कविता में हिंसा और राजनीति के बीच दिखाए गए रिश्ते की इकलौती कमजोरी यह है कि इसमें दंगे और मतदान का फासला महज साल भर या उससे और कम का है. दंगा यदि सरकार बनने के ठीक बाद हुआ हो और मतदान पांच साल बाद हो रहा हो, तो क्या वाकई उपज पर कोई फर्क पड़ेगा? सहारनपुर स्थित शब्बीरपुर गांव में 5 मई, 2017 को हुई दलित-विरोधी हिंसा से निकले नेता चंद्रशेखर आजाद का उत्तर प्रदेश असेंबली चुनाव में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ को हजार किलोमीटर दूर गोरखपुर जाकर चुनौती देना एक ऐसी घटना है जो पांच साल पुरानी कहानी में छुपे दूसरे किरदारों की नए सिरे से पड़ताल करने को मजबूर करती है.
चंद्रशेखर को क्यों नापसंद करते हैं शब्बीरपुर के लोग?
गृहमंत्री अमित शाह जिस दिन कैराना से भारतीय जनता पार्टी का चुनावी बिगुल फूंक रहे थे, उस दिन खूब पानी बरस रहा था. इतवार का दिन था. पूरा पश्चिम प्रदेश बीते दो दिन से बादल और कोहरे में लिपटा पड़ा था. सहारनपुर शहर में रह कर नौकरी करने वाली शब्बीरपुर की अरुणा पिछली शाम ही अपने गांव निकल गई थीं. उन्हें खबर मिली थी कि गांव में दो-तीन बड़ी गाडि़यां आई हैं और उनके बारे में वहां दरयाफ्त की जा रही है. उनके पहुंचने से पहले ही समूचे गांव में रात को यह बात फैल चुकी थी कि अरुणा को कांग्रेस से टिकट मिलने वाला है. इसका अरुणा को भी खुद पता नहीं था. उनके मन में डर था, एक उत्साह भी था और संशय भी कि कौन लोग आकर यह अफवाह फैला कर चले गए हैं.
चुनावी समीकरण के लिहाज से भी यह बात कुछ अजीब थी. शब्बीरपुर गांव देवबंद विधानसभा में लगता है. देवबंद में या तो राजपूत उम्मीदवार खड़ा करने की परंपरा रही है या मुसलमान. शब्बीरपुर की एक दलित (चमार समुदाय) लड़की को देवबंद से खड़ा किए जाने का कोई औचित्य नहीं था, चाहे वह कोई भी पार्टी हो. इसके बावजूद बात में सच का अंश हो सकता था क्योंकि दंगे के बाद से लेकर अब तक उस गांव से यदि कोई बाहर निकला है और मजबूती से खड़ा हुआ है तो वे अकेले अरुणा ही हैं. अरुणा शब्बीरपुर के दलितों की आवाज हैं. शिक्षित हैं. राजनीतिक रूप से समझदार और तेज-तर्रार हैं. डॉक्यूमेंट्री बनाती हैं. कैमरा चलाती हैं. ऐसे में 40 प्रतिशत का महिला कोटा भरने के लिए कांग्रेस नेतृत्व ने उनका नाम कहीं से खोज ही निकाला हो तो इसमें हैरत नहीं होनी चाहिए थी.
परिवार ने उनसे कहा कि अगर चुनाव लड़ना ही है तो अपने समाज की पार्टी से खड़ी क्यों नहीं हो जाती. 'समाज' की पार्टी मतलब? अरुणा बसपा का नाम लेती हैं और कहती हैं, ''वहां तो देने के लिए हमारे पास पैसे ही नहीं हैं, कहां से टिकट मिलेगा.'' और चंद्रशेखर की आजाद समाज पार्टी के बारे में क्या खयाल है? उन्होंने साफ कह दिया, ''वो देंगे तब भी ना लड़ूं. न बसपा, न चंद्रशेखर, लड़ना होगा तो कांग्रेस से ही लड़ूंगी.''
चंद्रशेखर की पार्टी को लेकर शब्बीरपुर में क्या दिक्कत है? खासकर तब जबकि वे इसी गांव में हुए दंगे की पैदाइश हैं? इस बात को समझने के लिए पांच साल पहले हुए दंगे की नए सिरे से निशानदेही करना जरूरी होगा.
शब्बीरपुर में 5 मई, 2017 की हिंसा के बाद जिन तीन व्यक्तियों पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून (रासुका) के तहत मुकदमा हुआ था उनमें एक चंद्रशेखर थे. बाकी दो थे गांव के प्रधान शिवकुमार और अरुणा के भाई सोनू. सोनू अब इस दुनिया में नहीं हैं. उनकी मौत हो गई. परिवार वाले बताते हैं कि उन्हें गहरा सदमा लगा था. सदमे में तीन साल पहले उनकी जान चली गई. उस वक्त अखबारों में सोनू की आत्महत्या की खबरें आई थीं. ये सब रासुका हटने के बाद हुआ था.
दंगे के बाद गांव में दोनों समुदायों से गिरफ्तारियां हुई थीं. चमार समुदाय से नौ लोगों पर मुकदमे हुए थे. गांव से दो पर रासुका लगी थी, छह पर हत्या का मुकदमा था. रसूलपुर गांव से राजपूत समुदाय का एक युवक दंगे के बीच मारा गया था. बताते हैं कि गांव के मुहाने पर स्थित रविदास मंदिर में मूर्ति को अपमानित करने के बाद वह पलट कर भाग रहा था कि फिसल कर गिर पड़ा और मर गया.
इस हत्या का आरोप अरुणा के परिवार का छोटे अब भी झेल रहा है. पांच और लोग हैं. सब पर 302 लगी हुई है. छोटे बताता है, ''वो रासुका मेरे ऊपर आने वाली थी. मेरी उमर कम निकल गई.''
चंद्रशेखर की बात आने पर अरुणा के बड़े भाई हरीश तुरंत अपने मोबाइल से एक वीडियो निकाल कर दिखाते हैं. वीडियो भीम आर्मी के ही किसी लड़के ने बनाया था. इसे दिखाते हुए वे बहुत आक्रोशित होकर कहते हैं, ''87 लाख की रकम समाज ने इकट्ठा की थी हमारे लोगों को छुड़ाने के लिए. आप वीडियो में देखो. सोनू पर रासुका लगी थी, छोटे पर और चाचा पर मुकदमा था. एक पैसे चंद्रशेखर ने नहीं दिए.''
''हमारा भाई सोनू मर गया. हमने अपने डंगर बेच दिए. खेत तो थे ही नहीं. पापा के ट्यूमर कैंसर में बहुत पहले बिक चुके थे. घर पूरा जल चुका था. केवल मायावती ने 35 लाख रुपए दिए थे मुकदमा लड़ने के लिए गांव को. और कोई पार्टी नहीं आई'', छोटे ने बताया.
हरीश उसे सुधारते हुए बताते हैं कि कांग्रेस पार्टी ने भी पैसों से मदद की थी. ''कांग्रेस के नेता लगातार संपर्क में थे, लेकिन चंद्रशेखर का यहां से न दंगे के पहले कोई लेना-देना था न अब लेना-देना है, जबकि वो इसी गांव से उठा है.''
छोटे भड़कते हुए कहता है, ''आप तो लिखकर ले लो जी, ये भाजपा के लाए हुए हैं चंद्रशेखर. योगी ने निकाला है इन्हें. हकीकत बता रहा हूं. उस दिन जब इनकी बेल हुई, योगी आया हुआ था सहारनपुर. अधिकारियों से मिला. फिर बेल हो गई. सोनू लखनऊ गया था, तब भी बेल नहीं हुई थी. योगीजी आए और रासुका हट गई. सोनू की भी हट गई. अब अकेले तो हटाते नहीं चंद्रशेखर की? सबकी हटानी पड़ी.''
कहीं ऐसा तो नहीं कि आपके परिवार के साथ खास अन्याय हुआ इसलिए आपको चंद्रशेखर से शिकायत है? या फिर गांव में सभी लोग ऐसा ही मानते हैं? इस सवाल के जवाब में वो कहता है, ''आप जाकर पूछ लो जी, हकीकत तो सबको पता है. सब बोलेंगे, कोई डरता नहीं है यहां. वो गोरखपुर गया है अब वोट काटने. योगी का मिलाजुला खेल है.''
दरअसल, शब्बीरपुर के दलितों पर दो अलग-अलग शहरों में मुकदमे कायम हैं- सहारनपुर और देवबंद में. कभी अदालत की पेशी आती है तो कभी थाने में हाजिरी लगानी पड़ती है. अरुणा के चाचा बताते हैं कि महीने में पांच से छह तो औसतन पेशी होती है, ज्यादा भी हो सकती है. सबसे ज्यादा दिक्कत तब आती है जब एक ही तारीख सहारनपुर ओर देवबंद दोनों जगहों की पड़ती है. एक दिन में दोनों जगह जा पाना संभव नहीं हो पाता. फिर पैसे ले देकर हाजिरी बनवानी पड़ती है.
वे कहते हैं, ''ऐसे में दो आदमी एक जगह चले जाते हैं, तीन लोग दूसरी जगह.'' हरीश बताते हैं कि उनकी सारी दिहाड़ी पेशी और तारीख पर ही खर्च हो जाती है.
आखिर मुकदमे का फैसला क्यों नहीं हो रहा? किस कारण से अटका पड़ा है? दबी जबान में गांव के एक शख्स बताते हैं कि कुछ बुजुर्गों के चक्कर में अटका पड़ा है. वे कहते हैं, ''अपने ही समाज के कुछ रसूख वाले लोग ले देकर सुलह करवाना चाहते हैं. जितनी कमाई हो जाए कर लेना चाहते हैं. अपने चक्कर में वो लोग मुकदमे को लटकाए हुए हैं.''
इस मामले में सबसे दिलचस्प बात यह है कि तारीख और पेशी पर दोनों समुदायों के आरोपियों को बराबर जाना पड़ रहा है. गांव से दो राजपूत लड़कों के साथ भी यही बंदिशें हैं, वैसे राजपूत समुदाय के कुल आठ लोगों पर केस चल रहे हैं. छोटे बताता है कि तारीख पर दोनों पक्ष के आरोपी जब मिलते हैं तो इनकी आपस में बात भी होती है, ''वो भी कहते हैं यार केस जल्दी खत्म हो जाए. किसी तरह मामला निपटे.''
राजपूत समुदाय के आरोपियों के साथ बस इतनी सुविधा है कि उनके ऊपर आगजनी आदि के हलके मामले हैं जबकि दलितों पर हत्या का संगीन मुकदमा है.
अरुणा के चाचा इस मामले में बहुत निराशा जताते हैं, ''यो तो जी मरते दम तक ना खत्म होने का. जहां कोई बात आती है दोनों तरफ से भड़काने वाले लग जावें. सुलह न होने देवें. मान लो सुलह कर भी ली तो हम तो फंस गए हैं न? अब हमारा कुछ न होने का.''
शब्बीरपुर दंगे के पीछे क्या दलित वोटों को बिखेरने की राजनीति थी?
दो दिन से हो रही बारिश ने मिट्टी, गोबर और सड़क को एक कर दिया था. रविदास मंदिर से दलितों की आबादी तक ले जाने वाला रास्ता ही थोड़ा चौड़ा और साफ था. इसी रास्ते मई 2017 की भीषण गर्मी में हमने जले हुए मकानों की कतारों को देखा था. मंदिर की तरफ से आने पर सारे जले हुए मकान दाहिने हाथ पर पड़ते थे. पांच साल में नजारा बदल चुका था. पहला ही मकान ठीकठाक बन चुका था और रंगरोगन हुआ पड़ा था. कुछ पर प्लास्टर थे, रंग नहीं. पक्के सभी थे.
यह बात 25 मई 2017 की है, जब मायावती की रैली के बाद दूसरे दौर की हिंसा हुई थी और लोग सहारनपुर व मेरठ के अस्पतालों में भर्ती थे. बाएं हाथ पड़ने वाले रविदास मंदिर के ठीक बगल वाले मकान में उस वक्त हमारी मुलाकात एक बुजुर्ग से हुई थी. उस मकान को जलाया तो नहीं गया था लेकिन उसके फर्श पर तब खून के धब्बे थे जिसे दिखाते हुए उन बुजुर्ग ने बताया था कि यहीं उनके बेटे को तलवार से मारा गया था. उस मकान में एक खिड़की थी जो सड़क पर खुलती थी. आज उसमें एक दुकान खुल चुकी है.
आगे बढ़ते हुए रास्ता बाएं कटता है और भीतर दलित बस्ती में घुसते ही दाहिने हाथ पर ठीक कोने में दंगे के वक्त ग्राम प्रधान रहे शिव कुमार का पक्का मकान है. सामने बायीं गली में एक मकान की दीवार पर मायावती का बड़ा सा फ्लेक्स लटका हुआ है. लोग एक स्वर में बताते हैं कि उनकी नेता तो बहनजी ही हैं. यहां और किसी को वोट नहीं जाता है. यह पूछने पर कि आजाद समाज पार्टी ने किसी को खड़ा किया है या नहीं, लोग मुंह बिचका लेते हैं. अधेड़ व्यक्ति कहता है, ''उसे तो बहनजी के वोट काटने के लिए खड़ा किया गया था.'' किसने खड़ा किया था? ''नेताओं ने... भाजपा ने...। वो यहां का नहीं है.''
बात चल निकलती है. यहां के लोगों में ऐसा कोई नहीं है जिसका दंगे में नुकसान न हुआ हो, लेकिन कोई भी गांव को छोड़कर नहीं गया. दंगे के तुरंत बाद लोग यहां-वहां निकल लिए थे लेकिन पखवाड़े भर के भीतर सभी धीरे-धीरे लौट आए. ज्यादातर दलितों के पास जमीन नहीं है. काम के लिए उन्हें भट्ठे पर जाना पड़ता है. गांव में दो भट्ठे हैं. इसके अलावा ठाकुरों के खेतों पर भी काम करने वे जाते हैं.
दंगे का एक फायदा इस मामले में बेशक हुआ है कि खेतों में काम अब ये अपनी शर्त और दिहाड़ी पर कर रहे हैं. दंगे से पहले ढाई सौ रुपए तक मजदूरी मिल जाती थी. आम तौर से गन्ने की बुवाई और कटाई का ही काम होता है. अब इनकी कोई बाध्यता नहीं है. मांगने पर हजार रुपए भी मिल जाते हैं एक दिन के.
छोटे हंसते हुए कहता है, ''मन करे तो जावें. पांच सौ, हजार, जो मांगे मिल जावे. बाकी भट्ठे का काम तो है ही. वैसे भी हमारे गांव में चमार हमेशा मजबूत रहे हैं. ठाकुरों से हम कभी ना डरे. वो तो चमार ग्राम प्रधान बनाने का इन्होंने बदला ले लिया हमसे, वरना दंगा ना होता.''
शब्बीरपुर का दंगा क्या महज जातिगत श्रेष्ठता और बदले की कार्रवाई थी? गांव में लोगों से बात करने पर चलता है कि मोटे तौर पर घटनाक्रम को लेकर सभी एकमत हैं लेकिन दंगे के पीछे किसकी साजिश थी, उसकी समझदारी सबकी अलग-अलग है. जो बातें तब भी साफ थीं और आज भी आम हैं, वो ये कि बगल के राजपूत बहुल गांव शिमलाना में महाराणा प्रताप जयंती का जुलूस निकला था और महाराणा प्रताप इंटर कॉलेज में सभा हुई थी. इसके मैदान में 5 मई, 2017 को सैकड़ों की संख्या में राजपूत युवा महाराणा प्रताप की जयंती मनाने के लिए जुटे थे. वे केवल स्थानीय लोग नहीं थे, बल्कि हरियाणा, पंजाब और उत्तराखण्ड से भी आए थे. कार्यक्रम के पोस्टरों पर मुख्य अतिथि सुरेश राणा का नाम छपा था. मुख्य आकर्षण फूलन देवी के हत्यारे शेर सिंह राणा की मौजूदगी थी. शेर सिंह राणा उर्फ पंकज सिंह पुंडीर उम्रकैद की सजा काट रहा है जो लंबे समय से जमानत पर बाहर है और अब एक राजनीतिक पार्टी बना चुका है.
इसी सभा में राणा के एक भाषण के बाद भारी संख्या में हथियारबंद युवा खेतों के रास्ते शब्बीरपुर में घुसे थे और सामने पड़ने वाले मकानों को फूंक कर और मारकाट कर के लौट गए थे. इस घटनाक्रम में कहीं कोई बदलाव सुनने को नहीं मिलता, सिवाय शेर सिंह राणा के नाम को लेकर कुछ मतभेदों के, जिसके बारे में खुद अरुणा भी आश्वस्त नहीं हैं. अरुणा बताती हैं कि उन्हें आज तक नहीं पता कि इस मामले में शेर सिंह राणा का हाथ था. वो उसे स्थानीय ठाकुरों का मामला मानती आई हैं.
इस मामले में नए सिरे से दरयाफ्त करने पर एक और आयाम खुलता है. सहारनपुर में रहने वाले एक युवा कांग्रेसी जिनका टिकट इस बार कांग्रेस ने काट दिया, बताते हैं कि उस पूरे घटनाक्रम में कांग्रेसी नेता इमरान मसूद की बड़ी भूमिका रही थी. घटना के बाद मसूद ही नहीं, खुद कांग्रेस पार्टी ने भी आधिकारिक रूप से चंद्रशेखर का समर्थन किया था. बाद में राहुल गांधी को लेकर मसूद शब्बीरपुर भी जाने वाले थे.
यह आम जानकारी है कि आज से महीने भर पहले तक इमरान मसूद पश्चिमी यूपी में कांग्रेस के एकछत्र नेता हुआ करते थे. चुनाव अधिसूचना जारी होने के 48 घंटे के भीतर उन्होंने पार्टी बदल ली और समाजवादी पार्टी में चले गए. कांग्रेस में रहते हुए उनकी ताकत सहारनपुर में किसी को भी जितवा देने या हरवा देने की थी. इसके चलते उन्होंने एक ठीकठाक विरोधी खेमा भी बना लिया था.
इमरान मसूद की दिक्कत यह थी कि उन्हें जिले में दलितों के वोट नहीं मिलते हैं. उन्होंने भीम आर्मी को इसके लिए चढ़ाया और आगे बढ़ाया. सहारनपुर के उक्त युवा कांग्रेसी नेता को इमरान ही पार्टी में लेकर आए थे. वे दावा करते हैं कि उन्हें इस बात की जानकारी इसलिए है क्योंकि वे इमरान के काफी करीबी रह चुके हैं.
शब्बीरपुर दंगे की पृष्ठभूमि वे बड़े विस्तार से बताते हैं, ''जब मुलायम सिंह ने इमरान को मझधार में छोड़ दिया तब एक गैंगस्टर हुआ करता था देवपाल राणा उसने इमरान की मुलाकात हरीश रावत से करवाई और उसे कांग्रेस में ले आए. इसलिए देवपाल राणा का इमरान खास आदमी हो गया. जब झगड़ा हुआ, तब इमरान दोनों ओर से खेल रहा था. वो ठाकुरों की ओर भी था और दलितों की ओर भी. दलित ज्यादा आगे बढ़ गए, ठाकुर बैकफुट पर आ गए. तब दलितों को इसने चढ़ाना शुरू किया. इसकी महत्वाकांक्षा बस इतनी थी कि इसे दलित-मुसमलान समीकरण से वोट मिल जाए.''
वे भी यही बताते हैं कि शब्बीरपुर पर हमला तो ठाकुरों ने ही किया था. इनका सिर्फ इतना मामला था कि ये लोग दलितों की शोभायात्रा नहीं निकलने देते थे. शब्बीरपुर के चारों ओर ठाकुर बहुल गांव हैं. इसलिए तनाव बढ़ता गया. सारा झगड़ा दलितों की झांकी निकालने को लेकर सबसे पहले शुरू हुआ था. इसमें अकसर भाजपा के जिस नेता राघव लखनपाल का नाम लिया जाता है, उसे कांग्रेसी नेता रियायत देते हुए कहते हैं कि वह बहुत निष्क्रिय नेता है. शिमलाना गांव में सभा आदि की बात को भी वो सही ठहराते हैं, लेकिन शेर सिंह राणा को अतिरंजित कर के देखने से इनकार करते हैं.
वे कहते हैं, ''शेर सिंह राणा बिरादरी का हीरो है बस. उसने राजपूत गौरव के लिए कुछ किया है तो लोग राजपूत होने के नाते निजी रूप से उसका सम्मान करते हैं. बाकी उसका कोई राजनीतिक महत्व नहीं है. कोई सामाजिक काम भी नहीं है इसका. राजनीति में कभी ठप्पा नहीं लगना चाहिए. इसके ऊपर फूलन देवी की हत्या का ठप्पा लग चुका है, भले ही उसे राजपूत अपने हित से जोड़कर देखें.''
वे याद करते हुए बताते हैं, ''मैं देवबंद में था जब मेरे पास इमरान का फोन आया. उसने कहा सहारनपुर निकल जा, तेरे घर के पीछे झगड़ा हो रहा है. मैं घर आया तो पता चला कुछ लड़कों ने हंगामा किया हुआ है. इमरान को सब कुछ पता था कि क्या हो रहा है. ये नए लड़के थे, इनकी कोई सोच भी नहीं थी. केवल दीवार तोड़ दो, गाड़ी तोड़ दो, जैसी बचकानी हरकतें कर रहे थे. सब यहीं रविदास छात्रावास से शुरू हुआ था. इमरान ने इन्हीं को हवा देने का काम दिया.''
इमरान मसूद की दोहरी भूमिका के बारे में शहर के कई प्रबुद्ध लोग अब बात कर रहे हैं. बहुत संभव है कि सपा में जाने के बाद उन्हें टिकट न मिलने के कारण राजनीतिक रसूख में आई कमी से ये बातें निकल के आ रही हों. फिर भी इस बात में कोई दो राय नहीं है कि चंद्रशेखर को उन्होंने बाकायदा समर्थन दिया था और इस आशय की खबरें आज भी गूगल पर देखी जा सकती हैं. हां, हमलावर ठाकुरों को भी उनका बराबर का समर्थन था, यह शब्बीरपुर दंगे के संदर्भ में बिल्कुल नया आयाम है.
इस संदर्भ में छोटे की बताई बात याद आती है कि जिन लोगों को शब्बीरपुर कांड में उठाया गया था, उसमें सबसे पहले पुलिस ने शिव कुमार प्रधान को ही दंगे का 'मास्टर माइंड' घोषित किया था. बाद में जब चंद्रशेखर की गिरफ्तारी हुई तो 'मास्टर माइंड' का आधिकारिक तमगा उसे दे दिया गया.
सवाल उठता है कि शब्बीरपुर दंगे के पहले यदि चंद्रशेखर का इस गांव से कोई वास्ता ही नहीं था तो उसे इस गांव में हुई हिंसा का 'मास्टर माइंड' बाद में क्यों बनाया गया? एक और अहम सवाल यह भी है कि योगी आदित्यनाथ के सहारनपुर दौरे के दिन ही उस समेत बाकी दो के ऊपर से रासुका क्यों हटा ली गई. पांच साल बाद जब देश के सबसे बड़े सूबे का चुनाव होने जा रहा है तो क्या ये अधूरे सवाल नहीं पूछे जाने चाहिए?
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