Assembly Elections 2022
उत्तराखंड चुनाव 2022: अपनी-अपनी सीट पर दो दिग्गजों का संघर्ष
नेपाल सीमा से लगे खटीमा में बीजेपी चुनाव कार्यालय के बाहर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी का विशाल कट-आउट लटका है. इस विधानसभा क्षेत्र के दोनों ओर हाईवे पर प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के चेहरों के साथ सरकार की उपलब्धियां गिनाते और विपक्ष को नाकारा बताते चुनावी होर्डिंगों की भरमार है. मुख्यमंत्री धामी पिछले 10 सालों से खटीमा के विधायक हैं और बीजेपी ने इस सीट के महत्व को देखते हुए संगठन की पूरी ताकत यहां झोंकी है.
सीएम होने का फायदा लेकिन सत्ता विरोधी लहर से सामना
खटीमा में कुल आठ उम्मीदवार मैदान में हैं जिनमें मुख्यमंत्री धामी के अलावा कांग्रेस के भुवन चंद्र कापड़ी, बीएसपी के रमेश राणा और आम आदमी पार्टी के एसएस कलेर शामिल हैं. बीजेपी ने चुनाव ऐलान से करीब छह महीने पहले जुलाई में राज्य की बागडोर 45 साल के पुष्कर सिंह धामी को सौंपी. पार्टी कार्यकर्ताओं का कहना है कि खटीमा की जनता में इससे बड़ा उत्साह है.
धामी के करीबी और उनके चुनाव प्रचार में सक्रिय हेमराज बिष्ट कहते हैं, “धामी जी जनता के बीच सीएम फेस के तौर पर जा रहे हैं. वो युवा हैं और उनकी छवि बहुत साफ है. खटीमा के लोग जानते हैं कि वो विधायक नहीं एक मुख्यमंत्री चुन रहे हैं.”
बीजेपी अपने प्रचार विज्ञापनों में “मोदी धामी सरकार” के नारे लगा रही है और विपक्ष खटीमा में “धामी की निष्क्रियता” और क्षेत्र में “विकास की कमी” को मुद्दा बना रहा है.
कांग्रेस के उम्मीदवार भुवन चन्द्र कापड़ी बीजेपी पर “पद बड़ा या कद बड़ा” वाले प्रचार का आरोप लगाते हैं और कहते हैं कि जनता इसे नकार देगी. वह शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी, सड़कों के खस्ताहाल, गरीबों को जमीन का पट्टा न दिए जाने और आवारा पशुओं के कारण खेती को नुकसान और सड़क दुर्घटनाओं को मुद्दा बना रहे हैं.
कापड़ी कहते हैं, “साढ़े नौ साल विधायक और छह महीने मुख्यमंत्री रहते क्या किया यह महत्वपूर्ण है. इस पर धामी जी के पास कहने के लिए कुछ नहीं है.”
पिछले चुनावों के मुकाबले इस बार विधानसभा चुनाव में जमीन पर नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता लहर नहीं दिखती और चुनाव क्षेत्रीय मुद्दों पर है. पिछला चुनाव सिर्फ 2709 वोटों से जीता था. इस बार भी उनकी सीट पर मुकाबला दिलचस्प है. लेकिन हेमराज बिष्ट कहते हैं कि धामी ने पिछला चुनाव भले ही कम अंतर से जीता लेकिन इस बार उन्हें बड़ी जीत मिलेगी.
बिष्ट ने न्यूज़लॉन्ड्री से कहा, “पिछली बार स्थानीय बीजेपी में 80% लोग धामी जी के चुनाव लड़ने के खिलाफ थे. फिर भी वो चुनाव जीते तो इस बार कोई दिक्कत नहीं होगी.”
थारू जनजाति का कितना असर?
खटीमा के कुटरा गांव में चलती आटा चक्की के शोर के बीच कुछ युवक अखबार की सुर्खियों में डूबे हैं और सियासी बहस गरमा रही है. कुटरा थारू, जनजातिय बहुल्य गांव है और खटीमा विधानसभा में इस जनजाति के करीब 30 हजार वोटर हैं. मूल रूप से कृषि और पशुपालन से जुड़े थारू समुदाय के बीच बेराज़गारी और गरीबी बड़ी समस्या है. वैसे इस जनजाति के वोट अक्सर अपने ही समाज के राणा उम्मीदवारों को जाते रहे हैं. साल 2012 में निर्दलीय उम्मीदवार को तौर पर लड़े रमेश राणा को करीब 14 हजार और पिछली बार बीएसपी के टिकट पर करीब 18 हजार वोट मिले और वो तीसरे नंबर पर रहे.
लेकिन अपनी अनदेखी के कारण थारू समुदाय का एक हिस्सा नाराज़ दिखता है. इन गांवों में लोग कहते हैं कि इस बार “सीधी टक्कर” होगी. कुटरा गांव में विदेश और उमेश राणा बदलाव चाहते हैं. उनके मुताबिक चुनाव जीतने के बाद विधायक यहां कभी नहीं आए और उनके मुख्यमंत्री बनने से उन्हें बदलाव की बड़ी उम्मीद नहीं दिखती. उधर कांग्रेस का आरोप है कि रमेश राणा जैसे उम्मीदवारों को “छुपा समर्थन देकर”, बीजेपी “बांटो और राज करो” की नीति अपना रही है.
बिष्ट कहते हैं, “अगर हमारे (बीजेपी) लिए थारु समुदाय में उत्साह नहीं है तो कांग्रेस के लिए भी नहीं है. असल में थारू समुदाय के कुछ लोग समझ रहे हैं कि बीजेपी अच्छा काम करती है और ये लोग (थारू जनजाति) अपना वोट एकमुश्त डालते हैं. ये कांग्रेस का दुष्प्रचार है कि रमेश राणा को बीजेपी ने खड़ा किया है.”
स्थानीय पत्रकार प्रवीण कोली कहते हैं, “पिछले दो चुनावों का रिकॉर्ड देखें तो रमेश राणा की मौजूदगी से यहां मुकाबला त्रिकोणीय बना है. देखना होगा कि तीसरी बार चुनाव मैदान में उतरे रमेश राणा को लेकर थारूओं में वैसा उत्साह नहीं दिखता फिर भी उनकी मौजूदगी इन चुनावों में अहम फैक्टर रहेगा.”
लालकुंआं: अपनों के बीच घिरे हरीश रावत
खटीमा से 50 किलोमीटर दूर लालकुंआं विधानसभा सीट पर कांग्रेस नेता हरीश रावत लगातार डेरा डाले हैं. चार बार लोकसभा सदस्य और केंद्र में मंत्री और प्रदेश के मुख्यमंत्री रह चुके 73 साल के रावत के लिए यह सीट आसान नहीं है. पहले रामनगर सीट से उनकी उम्मीदवारी की घोषणा हुई, फिर पार्टी में अन्तर्कलह के कारण उन्होंने वहां से लालकुंआं का रुख किया. लालकुंआं सीट पर नाम के ऐलान के बाद हटाई गईं संध्या डालाकोटी अब बागी उम्मीदवार के तौर पर रावत के सामने हैं.
डालाकोटी ने न्यूज़लॉन्ड्री से कहा, “कोरोना महामारी हो या प्राकृतिक आपदा, मैंने राशन बांटने से लेकर अपनी जमीन पर लोगों को बसाने का काम किया और कांग्रेस के सक्रिय कार्यकर्ता की भूमिका निभाई लेकिन ‘लड़की हूं, लड़ सकती हूं’ का नारा देने वाली पार्टी ने मुझसे टिकट छीन लिया.”
लालकुआं सीट पर कुल 13 उम्मीदवार हैं. बीजेपी ने पिछली बार यह सीट 27,000 से अधिक वोटों से जीत कर उसने अपने वर्तमान विधायक को टिकट न देकर नए चेहरे मोहन सिंह बिष्ट को उतारा है, जो रावत को टक्कर दे रहे हैं. हरीश रावत के आलोचक कहते हैं कि उन्होंने अपनी बेटी के लिए हरिद्वार सीट से टिकट सुनिश्चित करने के लिए पहले रामनगर जाने और फिर सीट बदलने का “राजनीतिक ड्रामा” किया. हालांकि लालकुंआं में प्रभाव रखने वाले दो मजबूत कांग्रसी नेता हरीश दुर्गापाल और हरेन्द्र वोहरा अभी रावत के साथ हैं, और बीजेपी के बागी पवन चौहान भी मैदान में हैं जिनसे रावत को मदद मिल सकती है.
पिछली हार से नहीं सीखा कांग्रेस ने
पिछले 2017 विधानसभा चुनावों में हरीश रावत को कांग्रेस ने मुख्यमंत्री के चेहरे के तौर पर उतारा लेकिन तब पार्टी को सबसे करारी हार मिली और वह 70 में से सिर्फ 11 सीटें ही जीत पाई. खुद रावत दो विधानसभा सीटों (किच्छा और हरिद्वार ग्रामीण) से चुनाव हार गए. बीजेपी के उम्मीदवार मोहन सिंह बिष्ट लगातार अपने भाषणों में रावत को “बाहरी” उम्मीदवार बता कर हमला कर रहे हैं. राजनीतिक विश्लेषकों को आश्चर्य है कि 2107 की दोहरी हार से मिले सबक के बावजूद इस बार हरीश रावत ने अपने लिये पांच साल में कोई सीट तैयार नहीं की.
देहरादून के वरिष्ठ पत्रकार अविकल थपलियाल कहते हैं, “रावत ने रामनगर क्षेत्र में प्रभाव रखने वाले अपनी ही पार्टी के रंजीत रावत से बैर बढ़ाया और पार्टी में कलह बढ़ा. ये हैरान करने वाली बात है कि जिसे मुख्यमंत्री का उम्मीदवार कहा जा रहा है उसके सामने बागी उम्मीदवार को बिठाने में पार्टी कामयाब नहीं हुई. राज्य में मुख्यमंत्री पद के दावेदार पहले भी चुनाव हारते रहे हैं और रावत लालकुंआं को हल्के में नहीं ले सकते.”
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