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रामभक्त रंगबाज़: हिंदी पट्टी की कायर खामोशी को तोड़ता है राकेश कायस्थ का यह उपन्यास

मैं इस डिस्क्लेमर से अपनी बात शुरू करना चाहता हूं कि साहित्य में मेरा कोई दखल नहीं है. ना ही मैं साहित्यकार हूं. मैं पेशेवर आलोचक भी नहीं. हिंदी का अध्यापक भी नहीं. आम तौर पर मैं समीक्षाएं भी नहीं लिखता. लेखक तो हरगिज नहीं हूं. लेकिन मैं एक पाठक जरूर हूं. एकदम साधारण पाठक. जब किताब खुद को पढ़ने पर मजबूर कर दे, स्तब्ध कर दे, आपको लगातार आहत करे, फिर आतंकित करती जाए और अंत की ओर बढ़ते हुए आपकी समूची वैचारिकी के खिलाफ बगावत कर दे, आपको ललकारने लगे, आपकी चेतना पर चोट करने लगे तो आप क्या करेंगे? आगे जो पढ़ेंगे उसे इन परिस्थितियों में कस्बा आरामगंज के चौराहे पर खड़े एक सफेदपोश शहरी की सफाई मान सकते हैं. अरे हां, बताना भूल गया. आरामगंज आपको नक्शे में कहां मिलेगा. चौहद्दियों के बदलने के दौर में यह काम बहुत मुश्किल भी तो हो गया है.

आरामगंज मिलेगा आपको राकेश कायस्थ के उपन्यास रामभक्त रंगबाज़ में. ये रंगबाज़ आरामगंज के चौराहे पर जिंदादिली का कारवां है जिसे बुत में तब्दील किए जाने की साजिशों का महीन जाल बुना जा रहा है. रंगबाज़ मतलब मास्टर आशिक मियां. पढ़ाने वाले मास्टर नहीं, कपड़े सिलने वाले मास्टर. आशिक मियां का पूरा वजूद प्रभु राम पर टिका हुआ है. सिलाई के हुनर की कमाई खाने की बात पर वह कहता है, “खाते तो हम वही हैं, जो हमारे रामजी हमें देते हैं.” आशिक मियां जो तीज-त्योहार का मुहूर्त बता दें तो पूरे आरामगंज के पंडित न काट सकें. आशिक मियां जो अली और बजरंगबली में स्पाइडरमैन की साम्यता तलाशकर भेद के सवालों पर ताले लगा सकता है. आशिक मियां जो हर डर का शर्तिया उपाय बताता है रामरच्छा स्त्रोत सिरहाने रखकर सो जाओ. पांडे बाबा का पढ़ाया हुआ आशिक मियां. अनिल कपूर का दीवाना आशिक मियां. दशहरे के जुलूस में मुंह से आग निकालकर नाचने वाला आशिक मियां. हर बात पर मानस की चौपाइयां सुना देने वाला आशिक मियां. जुलेखा बानो को घर की लक्ष्मी कहने वाला आशिक मियां. जिसके घर की दीवारों पर मुसलमानों ने गद्दार लिख दिया और दशहरे के जुलूस में जिसे हिंदुओं ने जला दिया. आशिक मियां जिसकी कब्र पर हिंदू फफक-फफककर रोए. आशिक मियां जिसकी कब्र पर मुसलमानों ने पीट-पीटकर अपनी छातियां तोड़ डालीं.

बस इतनी सी कहानी है रामभक्त रंगबाज़ की. मैंने बीच के तमाम किस्से गोल कर दिए हैं. यह कितना मुश्किल काम है जब आप रंगबाज़ के साथ आरामगंज चौक से लेकर वाल्मिकी बस्ती, कर्बला चौक, रैयत टोली और मेन रोड की यात्राओं पर निकलेंगे. कर्फ्यू की रातों में साइकिल के कैरियर पर पीछे बैठकर. या बैठेंगे उसके साथ टू इन वन टेलर की शटर गिराकर सिलाई मशीन पर. हनीफ के साथ बैठकर तुरपाई करेंगे पतलूनों और चोलियों की. और रात के अंधेरे में सुनेंगे नारा, “हिंदू हिंदी हिंदुस्तान, मुल्ला भागे पाकिस्तान.” दिल्ली के औरंगजेब रोड पर कालिख पोते जाने की कहानी कोई नई नहीं है. इसके पहले आरामगंज में रैयत टोली को जाने वाले रास्ते पर श्रीराम पथ का पत्थर लगाया गया था. वह पत्थर उपन्यास के आगे बढ़ते-बढ़ते आपके सीने में धंसता जाता है.

शहर के सबसे जिंदादिल बच्चों के मोहल्लों के मिनी पाकिस्तान के तौर स्थापित किए जाने की लोकतांत्रिक राष्ट्रवादी खबरों के बीच आप पाएंगे कि राकेश कायस्थ ने आपको एक भीषण मुठभेड़ के बीच छोड़ दिया है जहां आपका कोई भी बचाव काम नहीं कर रहा. आशिक मियां के साथ आप खुश हो जाते हैं और उसके साथ आप भी दरकने लगते हैं. मंडल आयोग की खदबदाहट और आडवाणी की रथयात्रा से बदलते माहौल के बीच एक सोए हुए शहर में दलितों, मुसलमानों और सवर्णों के बीच सेकुलरिज्म की किताबी व्याख्याओं से परे आशिक मियां उर्फ रंगबाज़ जिस राम को बचाने की कोशिश कर रहा है वह आखिर में उसकी जान ले लेती है. यह सवाल आपके साथ-साथ चलता रहता है कि अगर राम आशिक मियां के नहीं हैं तो फिर किसके हैं.

राकेश कायस्थ ने बहुत महीनी के साथ 90 के दौर की रस्सी पर किसी सधे हुए नट की तरह पैर रखा है और जब वहां से उतरते हैं तो 2022 में पता चलता है कि वह दौर तो गुजरा ही नहीं- “ताज्जुब की बात नहीं आगे चलकर जमाना इतना खराब हो जाए कि तुम्हारी वाली नस्ल इसी को सबसे अच्छा बताने लगे.” उपन्यास शुरू होता है तो लगता है आप कमलेश्वर के कितने पाकिस्तान से गुजर रहे हैं. लेकिन जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाते हैं राकेश आपको एक साथ शानी के काला जल, राही मासूम रजा के ओस के बूंद, तुलसीराम के मुर्दहिया और शैलेष मटियानी के भागे हुए लोग के चौराहे पर ले जाकर छोड़ देते हैं. यहां से निकलने या कहिए निकल भागने की जो तड़प मेरी थी, या आपकी होगी या रंगबाज़ आशिक की है उतनी ही राकेश कायस्थ की भी है. वह कोई फंसाती नहीं बुनते. कोई भाषाई चमत्कार नहीं रचते. बस आपको रंगबाज़ आशिक से नजरें मिलाने पर मजबूर कर देते हैं. और पाते हैं कि आप दरअसल नजरें चुरा रहे हैं.

इसे रचने के लिए जिस कौशल की जरूरत पड़ती है भाषा उसका एक बहुत छोटा सा हिस्सा है. इससे ज्यादा बड़ा हिस्सा है उस दौर को पकड़ना जिस दौर की कहानी लिखी जा रही है. उस समय की राजनीति में धंसना. उसके मुहावरों को जीना. और सबसे ज्यादा, राजनीतिक घटनाओं पर समाज के अलग-अलग तबकों की अभिव्यक्ति को महसूस करना. इसे केवल साधना नहीं होता, पाठकों को इस अनुभूति से बचाना भी होता है कि यह शब्दों और घटनाओं की कलाकारी है. जब आप घटनाओं और पात्रों के साथ खुद को जीने लगते हैं तो अपने आपको एक जादुई यथार्थवाद का हिस्सा बनते चले जाते हैं. राकेश कायस्थ ने यही किया है.

वह मंडल के दौर में जातिवाद पर नब्ज रखते हुए लिखते हैं, “वाल्मीकि नगर वाली औरतों के लिए आशिक आरामगंज में खुलने वाली वह खिड़की है, जिससे झांककर वह अंदर की पूरी दुनिया देख लेती हैं.” तो वहीं कमंडल से छींटे जा रहे हिंदू राष्ट्रवाद के जल पर बसंती चाची से कहलवाते हैं “ई भंगिन और पंडिताइन को एक मत बनाओ.” रंगबाज़ कहता है, “अरे चाची ई नया जमाना है, छुआ-छूत भला कौन मानता है! रामजी भी तो केवट के नाम पर चढ़े और शबरी के जूठे बेर खाए थे.” तमतमाई हुई बसंती चाची का यह कहते हुए सावित्री बुटीक से निकलना कि “बेसी पंडिताई मत छांट औकात भुला गइल बाड़े तू आपन.. अब ई मियवां हमरा के प्रवचन दिही कि रामजी का बतवले बाड़े.” इसके बाद रंगबाज़ की बेचैनियां हैं. रैयत टोली के भीतर छाई हुई दहशत है. आरामगंज चौक पर बदलती हुई ज़ुबानें हैं.

एक लुहार लड़के दिलीप के प्यार में ठाकुर सर्वदमन सिंह की बेटी पूजा का घर से भाग जाना यूं तो एक व्यक्तिगत बगावत है. लेकिन राकेश कायस्थ ने इसे जिस तरह बाबरी मस्जिद के विध्वंस के बैकड्रॉप में बनती जातीय गोलबंदी के समानांतर रचा है वह एक साथ हैरान और परेशान दोनों करता है. पांच वक्त की नमाजी जुलेखा बानो रंगबाज़ के टेलर हाऊस में गेट पर लगी रामजी की विशाल फोटो देखकर फिदा हो जाती है. वह घर आकर रंगबाज़ से कहती है, “रामजी का फोटो लगा दीजिए घर में.” रंगबाज़ का कहना कि “काहे काफिर बनना है का.” इसपर जुलेखा का जवाब “काफिर बने हमारे दुश्मन. फोटो रखने से कोई काफिर होता तो आप नहीं हो गए होते.” ऐसा रंगबाज़ आरामगंज के चौक पर गेरुआ होती राजनीति के साल दशहरे के जुलूस में कट्टर हिंदुओं के मनुहार पर नाचता हुआ जब जला दिया जाता है तो आप महसूस करने लगते हैं कि आलू के छिलके की तरह उतरती हुई चमड़ी आशिक रंगबाज़ की नहीं, आपके बदन की है. आप महसूस करने लगते हैं कि दफ्न किए जा रहे रंगबाज़ पर डाली जा रही मिट्टी के नीचे आप भी दब गए हैं.

कायदे से इस उपन्यास को यहीं खत्म हो जाना चाहिए था. लेकिन राकेश कायस्थ ने इसे एक तार्किक परिणति पर ले जाने का जोखिम उठाया है. वह नफरत को राजनीति की बाइनरी में बदल दिए जाने के साथ आदमी के भीतर मची उथल-पुथल को साधते हैं. रंगबाज़ के बेटे शमी का हैदराबाद चले जाना. एक ईसाई लड़की लिंडा से शादी कर लेना. अपने अब्बू की तलाश में आरामगंज चौक पर उनके कातिल से मुलाकात. और फिर रंगबाज़ की कब्र पर उसकी सिसकियों का बादलों के साथ एकसार हो जाना. राकेश कायस्थ जहां ले जाकर आपको छोड़ते हैं आप समझ नहीं पाते कि आपको उदास होना है या खुश. हताश होना है या आश्वस्त. आप मजबूत हैं या बिखरे हुए. पूरे आरामगंज के चौराहे पर आप निपट अकेले होते हैं. न रंगबाज़ आपके साथ है और न ही लेखक. शमी का यह कहना पीठ से चिपक जाता है कि “घर से बेदखल आदमी शायद दूसरा घर बना भी ले लेकिन मुल्क से बेदखल आदमी क्या करेगा.” इसी शिल्प, साहस और संवेदना ने राकेश कायस्थ को पहले ही उपन्यास के साथ इस समय के सबसे महत्त्वपूर्ण उपन्यासकारों की कतार में शामिल कर दिया है.

सब्जेक्टिव सी नजर आने वाली मामूली घटनाओं को भी राकेश कायस्थ ने फैक्ट का आधार दिया है. यहां तक कि दिन और तारीख के पीछे भी पूरी रिसर्च है. हिंदू-मुसलमान की राजनीति के बीच पिछड़ी जातियों की घुटन और उनकी पीठ पर पैर रखकर अपने वर्चस्व को बचाए रखने की सवर्णों की बेचैनी को एक साथ रचते हुए उपन्यास बहुत प्यार से स्त्री मुक्ति के सवालों को अपने साथ जोड़ लेता है. 90 के दशक में उदारीकरण की जो शुरुआत हुई उसने कैसे देखते ही देखते राजनीतिक-सामाजिक समीकरणों को बदलना शुरू कर दिया यह उसी आरामगंज के चौराहे पर आपको बिना कोशिश के समझ में आने लगता है. कदम-कदम पर आपको महसूस होगा कि किस तरह से न्याय की प्रक्रिया को दलितों-पिछड़ों और अल्पसंख्यकों के खिलाफ इस्तेमाल किया गया है.

पिछले दस साल में सांप्रदायिकता, जातिवाद और पॉलिटिकल नरेटिव पर इतना सधा हुआ उपन्यास नहीं लिखा गया. कथन को कथ्य में बदल देने की यह विलक्षणता राजेंद्र यादव और कमलेश्वर के बाद बहुत कम लेखकों में नजर आती है. और पूरे उपन्यास में इसे बार-बार साकार करने वाले लेखक तो न के बराबर हैं. मुझे इस बात की बिल्कुल हैरानी नहीं है कि हिंदी की मौजूदा आलोचना ने अभी तक इतने ताकतवर उपन्यास को जानबूझकर दरकिनार किया है. राकेश कायस्थ के पास आलोचकों के ध्यानाकर्षण का एक भी गुण नहीं है. वह न तो विश्वविद्यालय के अध्यापक हैं, न ही हिंदी के लेखकों के बीच उठते-बैठते हैं, न दिल्ली, लखनऊ, पटना या भोपाल में रहते हैं और ना ही बहुत ज्यादा इसकी परवाह करते हैं. बावजूद इसके रामभक्त रंगबाज़ एक बेमिसाल उपन्यास है. पाठकों की अपनी भी एक प्रयोगशाला होती है. रचनाएं उसी प्रयोगशाला से गुजरकर कालजयी होती हैं. राकेश कायस्थ के रामभक्त रंगबाज़ से नजर चुराना असंभव है.

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