Opinion
क्या सच में हिंदुत्व को खतरा है?
बचपन की सबसे जीवंत पुनर्स्मृतियां मुझे ले जाती हैं महान कलकत्ता की उन हत्याओं की तरफ जब एक 11 या 12 साल के लड़के के रूप में, एक असुरक्षित शहर में स्कूल और घर के बीच बस और ट्राम के द्वारा मुझे यात्रा करनी होती थी. मैं ठीक से समझ नहीं पा रहा था कि क्या हो रहा था, लेकिन कुछ उन दिनों का, जो मेरी स्मृति में प्रतिध्वनित होता है, एक वाक्यांश था कि ‘इस्लाम खतरे में है’.
इस वाक्यांश के निहितार्थ घर और स्कूल में भिन्न-भिन्न थे. स्कूल में मेरी कई मुस्लिम लड़कों से दोस्ती थी जिनकी सामाजिक और राजनीतिक परिस्थिति मेरे घर की तत्कालीन स्थिति से बहुत अलग थी. वे बंगाली के बजाय उर्दू और अंग्रेजी बोलते थे. वे कुछ साल मुझसे उम्र में बड़े थे, राजनीति में गहरी रुचि लेते और उनका ‘पाकिस्तान’ के विचार से भावपूर्ण लगाव था जो कि 1946 में मुझे फंतासी ही दिखायी देता था. उन्हें घर में स्पष्टत: सिखाया जाता था कि भारत में अल्पसंख्यक होने के नाते सिर्फ मुस्लिमों को ही खतरा नहीं है बल्कि एक जीवन पद्धति के रूप में इस्लाम को भी है.
मेरे घर का माहौल एकदम अलग था. वह जगह, जहां हम उस समय रहते थे, मेरे माता-पिता का घर नहीं था बल्कि वह जगह जहां मेरी मां एक बंगाली हिंदू के रूप में पैदा हुर्इं थी, मेरा किसी कथानक के संबंधी-चरित्रों सा निकट का जुड़ाव था. वह एक उदार, धर्म-निरपेक्ष, मध्यवर्गीय बंगाली घर था, जो अखंड भारत के विचार का प्रबल समर्थक और दो राष्ट्र के सिद्धांत का कड़ा विरोधी था. परिवार के जो सबसे समझदार और स्पष्टवादी सदस्य थे, एक सह्दय और खुले दिमाग वाले राष्ट्रवादी थे, वे मेरी मां के राजनीतिक परामर्शदाता हो गए थे. बहुत स्पष्टता और आत्मविश्वास के साथ उनका हमको समझाना कि ‘इस्लाम के खतरे में’ होने का विचार गलत और घातक है और यह मुस्लिम अल्पसंख्यकों के लिए बहुत तकलीफें लाएगा, जिनकी दुर्दशा के विचार से उनमें गहरी और सच्ची सहानुभूति थी, मुझे याद है.
अब पहिया पूरा चक्कर करता दिखायी पड़ रहा है. आज ज्यादा से ज्यादा लोगों ने यह अनुभव करना और कहना शुरू कर दिया है कि हिंदुत्व खतरे में है. अगर कोई इस विचार का तीव्रता से विरोध करे तो उस पर छद्म-धर्मनिरपेक्ष होने का दोषारोपण किया जा सकता है, चाहे फिर वह भारत का प्रधानमंत्री ही क्यों न हो. निश्चित ही हिंदुत्व के खतरे के बारे में बढ़ रहा यह उन्माद ही है जिसके कारण स्वयं उनके अपने ‘परिवार’ (संघ) और उसके विस्तृत परिवार के सदस्यों द्वारा दिलेर एलके आडवाणी तक को नकली धर्म-निरपेक्षतावादी कहना पड़ रहा है.
हिंदुत्व के खतरे में होने के बारे में उन्माद लगातार बढ़ और फैल रहा है और अब यह उदार एवं प्रबुद्ध हिंदुओं तक को बरगला कर अपनी जद में लेने को प्रयत्नरत है. संप्रति यह न केवल धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए बल्कि संपूर्ण भारतीय समाज और स्वयं हिंदुत्व के लिए भी सर्वाधिक गंभीर चुनौती है. हिंदू बुद्धिजीवियों, चाहे वे धर्मनिरपेक्ष हों, नकली-धर्मनिरपेक्ष या एक सामान्य ईमानदार हिंदू हों, से यह उम्मीद की जाती है कि वे इस फैलते उन्माद का विरोध करें, जो कि उन लोगों द्वारा पोषित किया जा रहा है जिनका मुख्य उद्देश्य बदला लेना है- उन वास्तविक या काल्पनिक अन्यायों का जो उनके सह-धर्मियों पर अतीत या वर्तमान में हुए हैं. अब तक हिंदुत्वधर्मी हिन्दुओं के भीतर से इस बावत बहुत कम बौद्धिक प्रतिरोध दिखायी दिया है.
स्वतंत्रता के समय हिंदू बहुल बुद्धिवादी उस उद्भ्रांति से मुक्त थे जो कि उनके बहुत से तत्कालीन मुस्लिम मित्रों की चारित्रिक विशेषता थी और यह नेहरू जी के प्रधानमंत्री बनने तथा उसके बाद के सालों तक जारी रही, लेकिन अब प्रवाह घूम रहा है. धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राजनीतिक पद्धति के भविष्य को लेकर भारत के आधुनिक हिंदू बुद्धिवादियों का आत्मविश्वास अब कम होता लग रहा है जो कि अपेक्षाकृत 1950 में गणतंत्र लागू होने पर था. उनमें से अधिक नहीं तो कुछ तो हैं ही जिन्हें अब न केवल दूसरे धर्मों से बल्कि धर्मनिरपेक्ष आधुनिकता तक से भी हिंदुत्व के खतरे में होने का अहसास होने लगा है. छद्म धर्मनिरपेक्षतावादियों पर हमला सिर्फ वे ही नहीं कर रहे जो दूसरे धर्मों का विरोध करते हैं बल्कि वे भी कर रहे हैं जो धर्मनिरपेक्ष विचारों और संस्थाओं का विरोध करते हैं.
क्या सच में हिंदुत्व को खतरा है? सबूत के तौर पर, निरपेक्ष दृष्टि से आकलन करने पर यह धारणा बनेगी कि आजाद भारत में हिंदुत्व बहुत कम खतरे में है तब की अपेक्षा जबकि इस्लाम भारत में आजादी के पूर्व था, लेकिन असली मुद्दा यह नहीं है. खतरे का वस्तुगत प्रमाण होना एक बात है और सिर्फ खतरा महसूस करना दूसरी. यह ठीक इस तरह से होगा कि आज पाकिस्तान में उन मुसलमानों की संख्या अधिक है जो इस्लाम को खतरे में होना महसूस करते है अपेक्षाकृत उस संख्या के जो तब अविभाजित भारत में महसूस करते थे. भारत के विभाजन ने उपमहाद्वीप के मुस्लिमों की इस भावना को कम नहीं किया कि इस्लाम खतरे में है बल्कि इसे शायद बढ़ाया ही.
हिंदुत्व के खतरे में होने का विश्वास कहां से आया? क्या यह देश या देश के बाहर के दूसरे धर्मों से आया? या यह धर्मनिरपेक्ष विचारों और संस्थाओं के बढ़ते प्रभाव से आया जिन्हें सदैव परम्परावादी हिंदू और मुस्लिम दोनों के प्रतिनिधियों द्वारा अनैतिक और नास्तिक घोषित किया जाता रहा है?
हाल में कुछ आंदोलन यहां हिंदुत्व से दूसरे धर्मों में परिवर्तन को लेकर हुए हैं. धर्मांतरण के पक्ष और उसके विरोध में बहुत सी बातें कही जा सकती हैं, लेकिन निश्चित ही कोई इस तथ्य पर तर्क नहीं कर रहा कि कुछ सौ या कुछ हजार, यहां तक कि कुछ सौ हजार, हिंदू धर्मावलम्बियों के इस्लाम, ईसाई या बौद्ध मत में परिवर्तन से एक प्राचीन, संश्लिष्ट और जीवंत धर्म हिंदुत्व ढह जाएगा. अतीत में हिंदुत्व ने इससे कहीं अधिक बड़ी तादाद में धर्म-परिवर्तन के बावजूद अपने अस्तित्व को बनाए रखा है. अब यह नहीं सोचा जा सकता कि उतना बड़ा धर्मांतरण भविष्य में फिर कभी हो सकता है.
अब यह कहा जाता है कि हिंदू अपने ही देश में सुरक्षित नहीं रहे हैं जबसे उनके मंदिरों पर हमले होना शुरू हुए हैं. पूजास्थल चाहे वह किसी भी धर्म का हो पर हमला एक आपराधिक क्रिया है, इससे धार्मिक विश्वास और प्रथा कमजोर नहीं हो सकते, जब तक कि उस राज्य की धर्मनिरपेक्षता की वैधता को चुनौती नहीं मिलती, जिसकी जिम्मेदारी सभी पूजास्थलों की रक्षा करने की है.
प्रतिद्वंद्वी बर्बर समूहों द्वारा पवित्र जगहों का अपवित्रीकरण करने की वारदातें बढ़ रही हैं. कभी-कभी उन्हें जाने-माने धार्मिक संगठनों का खुला या मौन प्रोत्साहन प्राप्त होता है. आज ऐसे कृत्यों में जो संलग्न हैं, वही यह नारा लगा रहे हैं कि उनका धर्म खतरे में है. पर सिर्फ वे ही नहीं हैं, और भी लोग हैं यह दुख की बात है. जिन्होंने विभाजन के पूर्व भारत में इस्लाम के खतरे में होने का नारा लगाया वे सब बर्बर नहीं थे, उनमें से कुछ शिक्षित, यहां तक कि सृजनशील व्यक्ति थे. निश्चय ही, जन भावनाओं के प्रदर्शन के लिए राहें बनाने में बुद्धिजीवी हमेशा भूमिका निभाते हैं. वे वैसा हमेशा गलत इरादे से नहीं करते, लेकिन वे आसानी से उनके खुद के विचारों से प्रदूषित हो जाते हैं, जब वे उन विचारों की प्रतिध्वनि लोगों में पाते हैं.
आज हिंदुत्व के भविष्य को लेकर हिंदू बुद्धिजीवियों में अधिक चिंता नजर आती है बनिस्बत 50 वर्ष पूर्व के. कहां तक यह उन लोगों की चिंता दर्शाती है, जो अल्पसंख्यक धर्म के पक्ष में बोलते हैं और कहां तक स्वशायी और स्वतंत्र कारणों पर आधारित है, यह सब पता करना आसान नहीं है. चूंकि धर्मनिरपेक्ष आधुनिकता के द्वारा उत्पन्न तनाव समाज में शिद्दत से महसूस किया जा रहा है, ज्यादा और ज्यादा हिंदू बुद्धिजीवी यह विश्वास करने लगे हैं कि उनका धर्म और जीवनशैली खतरे में है, वे इसके स्थायित्व, लचीलेपन और अनुकूलनीयता को देखते हुए इस बारे में जितना उन्हें होना चाहिए उससे कम आत्मविश्वासी हैं. इसका एक परिणाम यह रहा है कि हिंदुत्व की आंतरिक आलोचना (विश्लेषण), जो 19वीं सदी में शुरू हुई और करीब 100 साल तक जारी रही, खत्म होती नजर आ रही है.
यह दुर्भाग्यपूर्ण है क्योंकि किसी धर्म का स्थायित्व स्वयं उसके विचारशील सदस्यों के द्वारा उसकी लगातार समीक्षा पर निर्भर करता है. मार्क्सवादी अर्थशास्त्री और लेखक अशोक रुद्र- कुछ वर्ष पहले वे नहीं रहे- की ‘ब्राम्हनिकल रिलीजन एंड मेन्टेलिटी ऑफ मॉडर्न हिंदू’ शीर्षक से बांगला में ‘हिंदुत्व की आलोचना’ प्रकाशित हुई थी. मुझे आश्चर्य है, आज हिंदी में ऐसी कितनी पुस्तकें लिखी जा रही हैं जो अधिक व्यापक रूप से अन्य भारतीय भाषाओं में प्रयोग की जाती हैं. 19वीं सदी के प्रबुद्ध हिंदू, क्षय होते अपने धर्म और अपने धार्मिक नेताओं एवं भ्रष्टाचार पर प्रहार करने को स्वतंत्र महसूस करते थे. उनके आज के उत्तराधिकारी, बुद्धिवादियों पर निशाना साधना अधिक सुविधाजनक पाते हैं बजाय उन धार्मिक नेताओं पर जिनकी असहिष्णुता और प्रतिशोधी कृत्य हिंदुत्व को अंदर ही अंदर कहीं अधिक नुकसान पहुंचा रहे हैं. आज हिंदुत्व यदि खतरे में है, तो उसका मुख्य कारण उसके अंदर ही हो सकता है, उसके बाहर नहीं.
(अंग्रेजी से अनुवाद : शैलेन्द्र चौहान)
(साभार- जनपथ)
Also Read
-
The Rs 444 question: Why India banned online money games
-
‘Total foreign policy failure’: SP’s Chandauli MP on Op Sindoor, monsoon session
-
On the ground in Bihar: How a booth-by-booth check revealed what the Election Commission missed
-
A day in the life of an ex-IIT professor crusading for Gaza, against hate in Delhi
-
Crossing rivers, climbing mountains: The story behind the Dharali stories