Opinion

अगर बाल विवाह रोकने में नाकाम तो नये कानून से उम्मीद कैसे?

खबरों की मानें, तो बीते कुछ दिनों से देश के कुछ हिस्सों में शादियों की तादाद बढ़ गयी है. कहा जा रहा है कि लड़कियों की शादी की न्यूनतम आयु सीमा 18 से बढ़ाकर 21 साल करने के विधेयक की वजह से ऐसा हो रहा है क्योंकि कानून बन जाने के बाद अनेक परिवारों को कुछ साल इंतजार करना पड़ सकता है. संसदीय समिति के पास विचाराधीन इस विधेयक के पक्ष और विपक्ष में अनेक तर्क दिए गए हैं.

विधेयक के उद्देश्य में बताया गया है कि बाल विवाह रोकने के कानून के बावजूद यह प्रथा जारी है, इसलिए ऐसे सुधारों की जरूरत है. विधेयक को लोकसभा में पेश करते हुए केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे की हालिया रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि 15 से 18 साल की सात फीसदी लड़कियां गर्भवती पायी गयीं तथा 20 से 24 साल की करीब 23 फीसदी लड़कियों की शादी 18 साल से पहले कर दी गयी थी. उन्होंने यह भी बताया कि 2015 से 2020 के बीच 20 लाख बाल विवाह को रोका गया है.

उनकी इस बात से ही प्रस्तावित विधेयक के खिलाफ सबसे बड़ा तर्क उभरता है. मौजूदा कानून के तहत लड़कियों के विवाह की आयु सीमा 18 साल है. इसके बावजूद अगर आज भी बाल विवाह हो रहे हैं, तो यह मानना होगा कि कानून अपेक्षित रूप से प्रभावी नहीं है. ऐसे में नये कानून से बहुत उम्मीद कैसे की जा सकती है? राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे ने यह भी रेखांकित किया है कि बाल विवाह का अनुपात 2015-16 में 26.8 फीसदी था, जो 2019-20 में कुछ घटकर 23.3 फीसदी हो गया. इस कमी की सही वजहों को समझा जाना चाहिए.

साल 2019 की एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार, भारत में महिलाओं की शादी की औसत आयु 22.1 साल है. यह उत्साहजनक है. अनेक अध्ययनों में बताया गया है कि बाल विवाह में कमी और अधिक आयु में शादी का कारण कानून नहीं, बल्कि शिक्षा व रोजगार के मौके बढ़ना, जागरूकता का प्रसार और कल्याणकारी योजनाओं का विस्तार हैं. इस विधेयक को आधार देनेवाली जया जेटली कमिटी ने भी कहा है कि जब तक कल्याणकारी योजनाएं लागू नहीं होंगी, सशक्तीकरण नहीं होगा, तब तक कानून भी प्रभावी नहीं होगा. यह भी उल्लेखनीय है कि 25 से 29 साल के पांच पुरुषों में से एक की शादी वैधानिक न्यूनतम आयु 21 साल से पहले हो जाती है.

कुछ अन्य आंकड़ों को देखा जाए. यूनिसेफ के अनुसार, दुनिया में सबसे ज्यादा बालिका वधुएं भारत में हैं और वैश्विक संख्या में उनका हिस्सा लगभग एक-तिहाई है. देश में 18 साल से कम आयु की ब्याहताओं की तादाद कम-से-कम 15 लाख है तथा 15 से 19 साल की करीब 16 फीसदी लड़कियों की शादी हो चुकी है. संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष की रिपोर्ट (जुलाई, 2020) बताती है कि 18 साल से पहले ब्याह दी गयीं 46 फीसदी लड़कियां सबसे कम आय वर्ग से थीं.

बाल विवाह का क्षेत्रवार ब्यौरा भी संज्ञान में लिया जाना चाहिए. स्वास्थ्य सर्वे को देखें, तो बिहार, पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में 40 फीसदी शादियां बाल विवाह होती हैं. इन राज्यों में कम आयु में मां बनने का आंकड़ा भी अधिक है. ग्रामीण भारत में लगभग 27 फीसदी और शहरों में 14.7 फीसदी शादियां बाल विवाह होती हैं. अध्ययन के दौरान 15 से 19 साल की ब्याहताएं मां बन चुकी थीं या गर्भवती थीं. ऐसा शहरी इलाकों में नाम मात्र था, तो गांवों में आठ फीसदी बालिका वधुएं गर्भवती थीं या मां बन चुकी थीं.

इससे साफ होता है कि एक और कानून बनाने की जगह सरकार को वहां ध्यान देना चाहिए, जहां बाल विवाह की समस्या सघन है. अब एक नजर वैश्विक परिदृश्य पर डालते हैं. संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट में यह बहुत दिलचस्प है कि जिन देशों में लड़कियों की शादी की न्यूनतम आयु 20 या 21 साल है, वहां माता-पिता या सक्षम अधिकारी की अनुमति से 15 से 18 साल की आयु में भी शादी की जा सकती है. इन देशों में जापान और दक्षिण कोरिया जैसे धनी देश भी शामिल हैं. जिन देशों में सबसे अधिक बाल विवाह होते हैं, वे अधिक विकासशील या अविकसित देश हैं.

जनसंख्या के अनुपात में ऐसे विवाहों की सूची में भारत 12वें स्थान पर है. स्टैटिस्ता के अनुसार, भारत में शादी का अनुपात 15 साल से कम आयु में 18 फीसदी और 18 साल से कम आयु में 47 फीसदी है. संयुक्त राष्ट्र जनसंख्या कोष के अनुसार, हर दिन दुनियाभर में 33 हजार बाल विवाह होते हैं. वर्तमान में जीवित 65 करोड़ लड़कियों, महिलाओं की शादी बचपन में हो गयी थी. अनुमान है कि 2030 तक 18 साल से कम आयु की और 15 करोड़ लड़कियों की शादी हो जायेगी.

यूरोपीय संघ की रिपोर्ट के मुताबिक, अधिकतर सदस्य देशों में माता-पिता या सक्षम अधिकारी की अनुमति से 16 साल में भी शादी हो सकती है. संघ के सात देशों- फ्रांस, फिनलैंड, बेल्जियम, आयरलैंड, ग्रीस, स्लोवेनिया और लकज्मबर्ग में शादी की न्यूनतम आयु निर्धारित नहीं की गयी है. प्यू रिसर्च के अध्ययन में बताया गया है कि अमेरिका में हर 1000 शादी में से पांच में लड़की की उम्र 15 से 17 साल होती है. अमेरिका के दक्षिणी राज्यों में यह चलन कुछ अधिक है. ताहिरी जस्टिस सेंटर की रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका में जबरिया बाल विवाह करने का सबसे अधिक चलन प्रवासी समुदायों, खासकर भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश, मैक्सिको, फिलीपींस, यमन, अफगानिस्तान और सोमालिया से आए लोगों में है. अमेरिका में ऐसे भी अनेक राज्य हैं, जहां 12 वर्ष में भी शादी करने की अनुमति है.

बाल विवाह की इस स्थिति के बावजूद दुनियाभर में शादियों की औसत आयु बढ़ती जा रही है. अफ्रीका के देशों में औरतों की शादी की औसत आयु आम तौर पर 17 से 29 साल से अधिक की है. लैटिन अमेरिका में यह आंकड़ा 21 से 33 साल से अधिक का है. एशियाई देशों में महिलाओं की शादी 17 से 29 साल से ऊपर में हो रही है, तो यूरोप में यह औसत 23 से 33 साल से अधिक का है. ओशिनिया के देशों में यह औसत 20 से 30 साल से अधिक का है. अमेरिका में यह औसत 28 साल से अधिक है.

इन सभी आंकड़ों को देखते हुए कहा जा सकता है कि न्यूनतम आयु बढ़ाने से बाल विवाह नहीं रोका जा सकता है. हमें उन उपायों पर ध्यान देना चाहिए, जो हमारे देश में और अन्य देशों में ऐसी शादियों को रोकने में कारगर साबित हुए हैं. यह भी ध्यान दिया जाना चाहिए कि जिन भारतीय राज्यों में यह प्रथा चली आ रही है, वहां जनसंख्या वृद्धि की दर भी अधिक है और वे पिछड़े राज्य भी हैं. उनके विकास पर जोर देने की जरूरत है क्योंकि इस विषमता से कई अन्य समस्याएं भी पैदा हो रही हैं, जो आगे विकराल रूप ले सकती हैं.

यह भी रेखांकित किया जाना चाहिए कि जीवन के हर क्षेत्र में जब महिलाएं आगे आ रही हैं, तो हमारे देश में उनकी श्रम भागीदारी इतनी कम क्यों है और उसमें कमी क्यों आ रही है. एक सरकारी रिपोर्ट के अनुसार, जुलाई से सितंबर, 2020 के बीच महिलाओं की श्रम भागीदारी घटकर 16.1 फीसदी हो गयी थी, जो बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में सबसे कम थी. इसके लिए केवल महामारी को दोष देना समझदारी नहीं है. विश्व बैंक के आकलन में इस मामले में भारत सबसे पिछड़े देशों में है, जहां 15 साल या इससे अधिक आयु की एक-तिहाई से भी कम महिलाएं काम कर रही हैं या काम की तलाश में हैं. वर्ष 2005 में महिलाओं की भागीदारी 26 फीसदी से अधिक थी, जो 2019 में घटकर 20.3 फीसदी रह गयी थी. लगातार घटते रोजगार से हालत और खराब होगी.

साल 2019-20 की एक शैक्षणिक रिपोर्ट के अनुसार, सेकेंडरी शिक्षा के स्तर से देशभर में लड़कियों के पढ़ाई छोड़ने का आंकड़ा 15 फीसदी से अधिक था. देश के 14 राज्यों में यह आंकड़ा राष्ट्रीय स्तर से अधिक था, जिनमें से 12 राज्य पूर्वोत्तर और पूर्वी भारत के हैं. इनके अलावा मध्य प्रदेश और गुजरात में आंकड़ा अधिक रहा था. साल 2013-14 में छह करोड़ से अधिक लड़कियां प्राथमिक शिक्षा में नामांकित थीं, लेकिन 2019-20 में अपर प्राइमरी स्तर में उनकी संख्या केवल 35 लाख रह गयी थी. भारत सरकार की एक रिपोर्ट बताती है कि 2018-19 में लड़कियों के पढ़ाई छोड़ने का आंकड़ा सेकेंडरी स्तर पर 17.3 फीसदी और इलेमेंटरी स्तर पर 4.74 फीसदी था. कोरोना काल में हालात और अधिक बिगड़े हैं.

करीब 30 फीसदी लड़कियां घरेलू जिम्मेदारियों और 15 लड़कियां आर्थिक कारणों से पढ़ाई छोड़ देती हैं. इसमें बाल विवाह भी एक कारण है और वही कई मामलों में परिणाम भी. इससे स्थिति का अनुमान लगाया जा सकता है. साल 2019 की संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट बताती है कि पांच से 19 साल की करीब 28 लाख लड़कियां किसी प्रकार की विकलांगता से जूझ रही हैं. साल 2020 में महिलाओं के विरुद्ध अपराध के 3.71 लाख से अधिक मामले सामने आए. उस साल बच्चों के विरुद्ध हर दिन 350 से अधिक आपराधिक घटनाएं हुईं. कोरोना महामारी ने 23 करोड़ से अधिक लोगों को गरीबी की ओर धकेल दिया है. लड़कियों और महिलाओं के कल्याण के लिए हमें इन मामलों की ओर देखना चाहिए, न कि कानूनी प्रावधान कर अपनी पीठ थपथपानी चाहिए.

जैसा कि बहुत से लोगों ने इंगित किया है, शादी की उम्र की सीमा 21 साल करने से अवैध शादियों की तादाद बढ़ेगी और इससे वंचित समूहों के लोगों को एक आपराधिक कृत्य करने के लिए विवश किया जाएगा. सामाजिक, आर्थिक और शैक्षणिक समस्याओं के समाधान की ओर केंद्र और राज्य सरकारों को ध्यान देना चाहिए, जिससे बदलाव के लिए ठोस आधार बन सके.

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