Opinion
जीतनराम मांझी का बयान राजनीतिक दांव या एक सामाजिक सच्चाई
“तुम्हारे दरवाजे पर हमने
गुजारा है सारा जीवन,
पर हम मिलते हैं कहां?
बाहर हम, भीतर तुम
हम सीढ़ियों पर तुम मंदिर में”
क्योंकि तुमने हमको समझा अछूत......”.
गौरी देशपांडे की उपरोक्त कविता की कुछ पंक्तियां और बिहार के पूर्व मिख्यमंत्री जीतनराम मांझी के बयान में कोई मूलभूत अंतर नहीं है. दोनों ने ही समाज की एक गंभीर समस्या का अपने-अपने तरीके से चित्रण किया है. एक समस्या का काव्य रूप है तो दूसरा राजनीतिक मंच से उठाया गया एक अहम् मुद्दा. मांझी के ऐसे बयान के पीछे का उद्देश्य राजनीतिक हितों को साधने का एक प्रयास हो सकता है, लेकिन तथ्यात्मक दृष्टिकोण से इस बात की वैधता पर कतई ही सवाल नहीं खड़े किये जा सकते.
समस्या यह है कि राजनीति में तथ्यपरक बातें विवादस्पद मान ली जाती हैं या इसे विवादस्पद बना दिया जाता है, क्योंकि इसमें वक्ताओं और प्रवक्ताओं के अपने-अपने राजनीतिक हित छुपे होते हैं. राजनीति अधिकारों और कर्तव्यों को फलीभूत करने का मंच है और ऐसे में अगर मांझी ने इस तरह के बयान दिए हैं तो इसपर सामाजिक और राजनीतिक रूप से जिम्मेवार लोगों को मंथन करना चाहिए था कि उनका बयान कितना सच है या कितना झूठ न कि उनका गर्दन काटने और जीभ काटने का मध्यकालीन फरमान सुनाना चाहिए था.
ऐसे फरमान अपने आप में ही इस बाद के संकेत हैं कि वर्तमान राजनीति मर्यादित वाद-विवाद की परम्परा से हटकर गर्दन और हाथ-पैर काटने की बर्बर राजनीति में तब्दील हो गई है; हालांकि ऐसी राजनीतिक-चेतना के निर्माण के पीछे कुछ राज्यों और राजनेताओं की “ठोक-देने” वाली और “बुलडोजर चला देनेवाली” नीतियां भी जिम्मेवार है.
“ब्राह्मण सत्यनारायण भगवान् की पूजा में आते हैं और भोजन नहीं करते हैं, बल्कि कहते हैं केवल दक्षिणा ही दे दीजिये”- क्या यह बयान मात्र एक राजनीतिक बयान है या हमारे समाज की एक क्रूर सच्चाई भी? बिहार के कुछ क्षेत्रों में इसे “सीधा” बोलते हैं जिसमें कच्चा चावल, दाल, और पैसे दक्षिणा के तौर पर दिए जाते हैं. हमने अपने व्यक्तिगत जीवन में भी शायद ही किसी ब्राहमण पुरोहित को दलितों के यहां पूजा कराने के बाद पका हुआ भोजन करते देखा; दलितों के यहां इन पुरोहितों के लिए पका हुआ भोजन खाना एक भयंकर अपराध की तरह है इसलिए वे ‘सीधा’ या ‘दक्षिणा’ की मांग करते हैं.
बिहार और उत्तर-प्रदेश में पौरोहित्य कार्य से जुड़ा हुआ एक बड़ा तबका है जो अपने जातीय अहंकार में इस कदर मगरूर है कि वह स्वयं को धरती पर आज के दौर में भी ईश्वर का प्रतिनिधि समझता है और अन्य किसी भी जाति को स्वयं से निम्न दर्जे का ही मानता है. हमारे आपके समाज में ऐसे अनगिनत पुरोहित-पण्डे मिल जायेंगे जिनके जीवन का अधिकांश हिस्सा चोरी-छिनैती और राहजनी में गुजरा है और बाद में उन्होंने भगवा धारण कर लिया और “श्रेष्ठ” और “पूजनीय” बन गए. हालांकि यह परंपरा तो महर्षि-वाल्मीकि के समय से ही चली आ रही है.
यहां हम किसी गंभीर विमर्श में नहीं जाना चाहेंगे कि हिन्दू शास्त्रों की मिथकीय व्याख्या या समाजविज्ञानी अध्ययन के अनुसार जातीय संरचना कैसे और किन परिस्थितियों में विकसित हुई, लेकिन इतना तो जरूर कहा जा सकता है कि न तो धार्मिक ग्रंथों का कोई सन्दर्भ और न ही समाजविज्ञानी तरीके से किया गया कोई अध्ययन पौरोहित्य के ऐसे अमानवीय सोच और कार्य को वैधता प्रदान करता है.
जाति या जातीय दंभ एक झूठा-सच है. झूठा इसलिए कि इसके उत्पति के जो धार्मिक-सिद्धांत हैं वह जन्मना नहीं है या फिर बेहद ही अस्पष्ट है या फिर इसपर कोई एकमत नहीं है, और सच इसलिए कि इस झूठ को अंतिम सच मान लिया गया और एक पूरी सामाजिक-राजनीतिक घेराबंदी कर ली गई. दलितों की उत्पत्ति और मूल के सन्दर्भ में सामाजिक चिंतकों की अपनी अलग-अलग धारणाएं हैं; जैसे आंबेडकर ने वेदों और धर्मशास्त्रों को खंगाल कर स्टेनली रोज के नस्लीय सिद्धांत और रिजले के मानवशास्त्रीय अध्ययनों की समीक्षा करके यह निष्कर्ष निकाला कि दलित, अछूत पहले कभी क्षत्रिय थे.
इस सन्दर्भ में यहां हम अपने व्यक्तिगत जीवन से जुड़े कुछ रोचक प्रसंगों की चर्चा करना चाहेंगे जिससे जातीय संरचना और एक कुछ जाति विशेष के सामाजिक और धार्मिक वर्चस्व को समझा जा सकता है:
बहुत पहले एक बार हमारी बेहद ही गरमा-गरम बहश पटना विश्विद्यालय के दलित चिन्तक डॉ. अमित पासवान से जाति की उत्पति पर चल रही थी. हम दोनों के अलग-अलग तर्क और आधार थे, लेकिन उन्होंने एक छोटी सी बात से हमारे तमाम ऐतिहासिक और शास्त्रीय श्रोतों का करारा और अनोखा जवाब दिया. उन्होंने हमसे कहा कि छोड़ों इतिहास और धर्मशास्त्र में क्या लिखा है, बस इतना बताओ कि क्या आज के समय में भी “सवर्ण” तथाकथित निचली-जातियों के साथ बराबरी का व्यवहार करता है? क्या वह आंबेडकर के रोटी-बेटी वाले विमर्श को स्वीकारने की स्थिति में है? तो मुझे स्वीकारना पड़ा कि ऐसी स्थिति कम से कम सामाजिक व्यवहार में सामान्य नहीं है.
दलितों के साथ सामाजिक दूरी कमोबेश आज भी बदस्तूर जारी है. जिसे विवाह समारोह से लेकर मृत्यु तक उनसे बनाई गई दूरी में देखा जा सकता है. अगर उनकी सहभागिता इन सामुदायिक उत्सवों आदि में है भी तो हीन दर्जे का ही है या फिर हीन ही माना जाता है. उनका यह प्रश्न वस्तुतः एक आइना है उस समाज के लिए जो यह दावा करते हैं कि भारतीय समाज में दलितों के साथ भेदभाव नहीं होता है. इस भेदभाव को समझने के लिए न तो इतिहास में झांकने की जरूरत है और न ही धर्म-शास्त्र के गंभीर चिंतन में घुसने की जरूरत. बस आवश्यकता है अपने व्यक्तिगत जीवन से लेकर वर्तमान समाज में देखने का साहस. जवाब खुद-ब-खुद मिल जाएगा.
तेलंगाना में एक सरकारी शोध के सिलसिले में हमने अपने एक मुस्लिम मित्र और एक दलित मित्र के साथ एक विख्यात मंदिर जाने का निर्णय लिया. हालांकि दलित मित्र चर्च जाने का अभ्यस्त था फिर भी हमारे अनुरोध पर या फिर दबाव कहें, वह मंदिर जाने को तैयार हुआ. हम मंदिर के प्रांगण के भीतर प्रवेश कर गए और हम सबने तिलक भी लगाया, लेकिन प्रांगण के भीतर का माहौल कुछ ऐसा था कि मेरे मुस्लिम मित्र की हिम्मत नहीं हुई उसके गर्भ-गृह में प्रवेश करें और फिर हमने उन्हें प्रांगण में ही ठहरने का निर्देश देकर अपने दलित मित्र के साथ गर्भ-गृह में प्रवेश किया, लेकिन यह हमें भी पता नहीं था कि गर्भ-गृह में भक्तों से पण्डे जाति, कुल, मूल आदि पूछते हैं तब “भगवान” तक हमारी बात पहुंचाते हैं.
जब हमारे दलित मित्र से भी उनका कुल, मूल आदि पूछा गया तो वह घबरा गया, लेकिन किसी तरह हमने स्थिति को संभाल लिया. सवाल है कि क्या मंदिर में “भगवान” से भेंट-मुलाकात करने के लिए कुल-मूल-जाति आदि के पूछे जाने की सार्थकता है? क्या मंदिर में प्रवेश करने के लिए एक मानव होना पर्याप्त नहीं है? आखिर भगवान और भक्त के बीच में ऐसे पण्डे और पुरोहितों की उपयोगिता क्या है? मंदिर के पण्डे और पुजारी तो महज परिसर की देख-रेख करने वाले एक केयर-टेकर की तरह होते हैं जिनका काम मंदिर की सुरक्षा और साफ-सफाई करना है इससे अधिक कुछ भी नहीं, जैसा कि कुछ मामलों में माननीय न्यायालय ने भी पंडों और पुरोहितों को “केयर-टेकर” का ही दर्जा दिया है.
अब हमारे सामने दो आरोपी हैं- एक मांझी जिन्होंने पुरोहितों के बारे में कुछ “आपत्तिजनक” बोला, और दूसरा वे लोग जिन्होंने उनके बयान पर उनकी जीभ और गर्दन काटने का फतवा जारी किया. मांझी के बयान में कुछ भी विवादस्पद और आपत्तिजनक नहीं था, बल्कि यह समाज के एक अमानवीय सच को सामने लाने का एक प्रयास कहा जा सकता है. इस साहस के लिए तो उनकी सराहना की जानी चाहिए थी कि उन्होंने समाज के भीतर के उस सूक्ष्म-भेदभाव पर जागरूकता फैलाई जिसपर आमतौर पर जाने-अनजाने सामाजिक विचारक, राजनेता या पत्रकार मौन रहते हैं. इनके बयान को कत्तई विवादस्पद नहीं माना जाना चाहिए था. खैर! विवादस्पद और आपत्तिजनक अगर कुछ हुआ भी तो उनकी तरफ से हुआ जिन्होंने मांझी की जीभ और गर्दन काटने का फतवा जारी किया. यह लोकतान्त्रिक-दिवालियेपन की चरम स्थिति है.
Also Read
-
India’s real war with Pak is about an idea. It can’t let trolls drive the narrative
-
How Faisal Malik became Panchayat’s Prahlad Cha
-
Explained: Did Maharashtra’s voter additions trigger ECI checks?
-
‘Oruvanukku Oruthi’: Why this discourse around Rithanya's suicide must be called out
-
Hafta letters: ‘Normalised’ issues, tourism in EU, ideas for letters