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खाद्य-पदार्थों की बढ़ती कीमतों में जलवायु-परिवर्तन है बड़ी वजह

यह साल अब खत्म होने को है. कोरोना महामारी, अपने नए ओमिक्रॉन रूप के साथ थमने का नाम नहीं ले रही है, और जलवायु परिवर्तन की पहले से मौजूद विपदा भी नए रिकॉर्ड बनाती जा रही है. ऐसे में दिसंबर की शुरुआत में ही एक नए झटके ने हम सब पर असर डाला- वह है खाद्य-पदार्थों की बढ़ती कीमतों में जलवायु-परिवर्तन की भूमिका.

कोरोना ने जिन करोड़ों लोगों को गरीबी के जाल में फंसा दिया था, उन्हीं लोगों पर इन बढ़ी हुई कीमतों ने भी ज्यादा असर डाला है. हाल यह है कि दुनिया का हर तीसरा आदमी आज की तारीख में पर्याप्त भोजन जुटाने की स्थिति में नहीं है.

संयुक्त राष्ट्र के खाद्य एवं कृषि संगठन के मुताबिक, महंगाई के साथ समायोजित करके देखें तो 2021 के 11 महीनों में खाद्य-पदार्थों की कीमतें पिछले 46 सालों में सबसे ज्यादा हैं. दुनिया भर में खाने-पीने की चीजों की कीमतें गेहूं के दामों में बढ़ोतरी के बाद बढ़नी शुरू हुईं.

गेहूं की कीमतें अमेरिका और कनाडा समेत इसके मुख्य उत्पादक देशों में सूखे और तेज तापमान के चलते बढ़ीं थीं. जैसा कि व्यापार से जुड़ी कई रिपोर्टों में दिखाया गया कि अमेरिका में इस वसंत में सूखे और तेज गर्मी के चलते गेंहू के उत्पादन में 40 फीसदी की कमी आई.

दुनिया के सबसे बड़े गेंहू निर्यातक रूस में इस मौसम के बारिश के लिए अनुकूल स्थितियों न होने के चलते वहां गेहूं की अनुमानित पैदावार नहीं हो सकी. इस वजह से घरेलू इस्तेमाल की पर्याप्त उपलब्धता को ध्यान में रखकर रूस ने गेहूं के निर्यात पर टैक्स लगा दिया.

एग्री कमोडिटीज मार्केट्स, रोबोबैंक के प्रमुख कार्लोस मेरा के मुताबिक, "फ्रांस की क्रांति और अरब-क्रांति जैसी घटनाओं पर खाद्य-पदार्थों की कीमतें बढ़ाने का आरोप लगाया जाता रहा है." वह रूस में 2010 के सूखे का जिक्र कर रहे थे, जिससे वहां गेहूं के उत्पादन में कमी हुई और उसकी कीमतें बढ़ गई.

इसके चलते 2011 में दुनिया भर में गेंहू की कीमतें बढ़ीं, जिसका व्यापक विरोध हुआ और उसके फलस्वरूप कई सरकारों का पतन हुआ.

तब से एक दशक बीत चुका है. अब हम अपनी रोजाना की जिंदगी में खेती से जुड़ी चीजों के दामों में तेज वृद्धि ज्यादा बार देख रहे हैं, जैसे हाल में बढ़ीं टमाटर की कीमतें. इस तरह से दाम बढ़ने की और भी वजहें हो सकती हैं लेकिन तापमान निश्चित तौर पर खाद्य-पदार्थों की कीमतें बढ़ने की एक बड़ी वजह बन रहा है.

जलवायु -परिवर्तन मौसम के अचानक बदलने और इससे जुड़ीं आपदाओं के लिए खाद-पानी का काम कर रहा है. इससे बड़े पैमाने पर फसलें बर्बाद हो रही हैं और साथ ही उनसे होने वाले मुनाफे पर भी दीर्घकालिक असर पड़ रहा है.

इस सदी के पहले दो दशकों में, आपदाओं में उल्लेखनीय रूप से वृद्धि हुई है. 2000 के दशक में जहां एक साल में ऐसी 360 घटनाएं होती थीं, वहीं 2010 के दशक में हर साल ऐसी 440 घटनाएं हुईं. इन घटनाओं में तेजी को देखने के लिए बता दें कि 1970 के दशक में किसी साल में प्राकृतिक आपदाओं की संख्या केवल 100 थी.

मौसम में तेज बदलाव और आपदा का सबसे बुरा असर खेती पर पड़ता है. गरीब और मध्यम आय वाले देशों में 2008 से 2018 के बीच कृषि- क्षेत्र को मध्यम और बड़ी श्रेणी की 26 फीसदी आपदाओं का सामना करना पड़ा. एक आकलन के मुताबिक, इसके चलते इस अवधि में ऐसे देशों को फसल और मवेशियों की क्षति से 108.5 अरब डॉलर का नुकसान उठाना पड़ा.

इसका क्या अर्थ निकाला जाना चाहिए? जलवायु-परिवर्तन का खेती पर दो तरह से असर पड़ता है- पहला तो इसके चलते उत्पादन में कमी आती है, दूसरे इस वजह से संबंधित फसल का उपभोग भी घटता है. दोनों कारक उस खाद्य-पदार्थ की उपलब्धता और उसके मूल्य को प्रभावित करते हैं, ज्यादातर मामलों में उनकी कीमतें बढ़ती हैं, जैसा कि हम अभी देख रहे हैं.

दूसरे शब्दों में कहें तो, खेती के उत्पादन में कमी आने का मतलब है- खाने-पीनें की चीजों का जरूरतमंद व्यक्ति से दूर हो जाना. इस आंकड़े पर नजर डालिए: आपदाओं के चलते दुनिया को फसलों और मवेशियों के उत्पादन पर चार फीसदी तक का नुकसान हो रहा है. यानी कि हर साल 6.9 ट्रिलियान किलो कैलोरी का नुकसान या फिर सालाना सात मिलियन वयस्कों द्वारा ली जा सकने वाली कैलोरी का नुकसान.

अगर इस नुकसान को हम गरीब और मध्यम आय वाले देशों के संदर्भ में देखें तो यह आपदाओं के चलते प्रतिदिन 22 फीसदी कैलोरी के नुकसान में दर्ज होता है. यानी कि जलवायु-परिवर्तन से होने वाली आपदाएं केवल किसानों पर असर डाल कर उनका आर्थिक नुकसान नहीं कर रहीं बल्कि यह खाद्य-पदार्थों की उपलब्धता भी कम कर रही हैं. इसके अलावा, उत्पादन में कमी से कीमतें बढ़ जाती हैं, जिसका नतीजा यह होता है कि लोगों की खुराक घट जाती है. दरअसल, यह जलवायु- परिवर्तन के चलते आने वाली आपदाओं का भोजन-जाल है, जो हम में से हर एक को जकड़ लेता है.

(साभार डाउन टू अर्थ)

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