Opinion
यूपी की राजनीति में विरासत और माफिया का धार्मिक रंग
सोमवार के प्राइम टाइम को लिखते समय बार-बार एक चीज नजर से टकरा रही थी कि वो क्या चीज है जो दिख तो रही है लेकिन साफ-साफ नहीं दिख रही है. कुछ था तो छूट रहा था. मैं इस दुविधा से गुजर रहा था कि यूपी की राजनीति में माफिया और विरासत शब्द का क्या मतलब है. मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम से कई खबरें छपी हैं कि माफिया का सफाया हो गया. इस माफिया से किसे टारगेट किया जा रहा है.
उसी तरह से विरासत का जिक्र किन संदर्भों में आ रहा है, इसके इस्तेमाल से क्या कहने से बचा जा रहा है और क्या कहा जा रहा है. प्राइम टाइम के खत्म होने के बाद तक इस सवाल से टकराता रहा. समय की कमी के कारण माफिया को छोड़ दिया लेकिन विरासत को समझने लगा. उसमें भी कई चीजें साफ होने से रह गईं जो यहां लिखने की कोशिश करना चाहता हूं.
विरासत और माफिया के इस्तेमाल के जरिए यूपी की चुनावी राजनीति में धर्म को ठेला जा रहा है. जिस विरासत से अभी तक मिली-जुली संस्कृति की पहचान होती थी उस पहचान से विरासत को अलग किया जा रहा है. अरबी के इस शब्द को विकास से जोड़ कर जो खेल खेला जा रहा है उसे समझने के लिए आपको प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री के भाषणों की कॉपी पढ़नी चाहिए.
महंगाई और कोराना के दौर में आम जनता में यह संदेश गया कि बीजेपी धर्म की राजनीति में उलझाए रखती है इसलिए बीजेपी धर्म को इस बार विरासत के नाम से पेश कर रही है. ऐसा नहीं है कि उसके भाषणों में राम मंदिर का खुलकर जिक्र नहीं है लेकिन विरासत के बहाने वह अपनी धर्म की राजनीति को नए सिरे से मान्यता दिलाने की कोशिश कर रही है. जैसे टूथपेस्ट का नया ब्रांड आता है तो वह कुछ नए शब्दों के साथ आता है उसी तरह धर्म की राजनीति विरासत का कवच ओढ़ कर आ रही है जिसमें एक ही धर्म से जुड़ी विरासतों की चर्चा है.
प्रधानमंत्री के काशी में दिए गए लंबे भाषण का टेक्स्ट पढ़ रहा था. भोजपुरी, संस्कृत और संस्कृत निष्ठ हिन्दी के सहारे वे अपने भाषण में बहुत कुछ सवालों के जवाब देने से बच गए. गौरव और परंपरा के विशेषणों से इतना भर दिया कि काशी कॉरिडोर के लिए तोड़े गए सैंकड़ों घरों और मंदिरों का सवाल कहीं गूंजता ही नहीं.
मंदिर को मॉल बना देने पर करोड़ लोगों को लग सकता है कि विकास हुआ है क्योंकि समाज इसी तरह से धारणाओं के बीच जीता है. घर में खाने को नहीं है लेकिन शादी का सेट इस तरह से तैयार कर दिया जाएगा जैसे फ्रांस का वर्साय महल दूल्हे के बाप का ही है. अपनी वास्तविकता से अतिरिक्त और अतिरंजित वास्तविकता में जीने वाले इस समाज के लिए इन चीजों का कोई महत्व नहीं है कि काशी कॉरिडोर के लिए पुराने-पुराने मंदिर और स्मारक क्यों तोड़े गए. क्या मंदिर के रास्ते को चौड़ा करने के लिए कोई और विकल्प नहीं था?
इस बात को लेकर बनारस में ही बहस कुछ लोगों की होकर रह गई और शहर ने पल्ला झाड़ लिया. धरोहर बचाओ का आंदोलन ठंडा पड़ गया. बनारस ने इसकी चर्चा तो सुनी मगर चर्चा नहीं की. आंखों से देखते रहे लेकिन जुबान से बोलना भूल गए. शायद यही वजह है कि अब बनारसीपन की बात बंद हो चुकी है. जब नजर ही नहीं आएगी तो बात क्या होगी. औघड़पन और अल्लहड़पन बनारसीपन का हिस्सा नहीं रहे. वो अब लेखों और झूठे भाषणों में नजर आते हैं.
बनारसीपन का मतलब हो गया है सहना और चुप रहना. बिना डरे बोलने की जगह बोलते हुए डरना नया बनारसीपन है. एक धर्म और एक राजनीति की तरफ से कमजोरों को ललकार देने का साहस तो होगा ही लेकिन उस एक धर्म और एक राजनीति के भीतर गलत को गलत बोलने का साहस अब बनारस में नहीं है. काशी के अतीत में जीने वाला बनारस खुद अतीत हो चुका है. उसे अब बनारस को देखने के लिए चौराहों पर लगी एलईडी स्क्रीन के पास जाना पड़ता है.
बहरहाल इस विषयांतर से लौटते हुए मैं विरासत और माफिया के चुनावी प्रयोग पर आना चाहता हूं. प्रधानमंत्री के भाषण में उस्ताद बिस्मिल्लाह खान का जिक्र वही चालाकी है जो एपीजे अब्दुल कलाम को अच्छा मुस्लिम बताती है. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण की कॉपी में बनारस का वह हिस्सा गायब है जिससे कोई बिस्मिल्लाह खान निकलता है. जिसकी शहनाई की धुन एक मुसलमान की बजाई शहनाई है बल्कि उसमें उस बनारस का राग है सदियों के दौरान सबके मिलने से बनता है.
हम उन धुनों से विरासत के नाम पर कुछ सदियों को अलग नहीं कर सकते हैं. प्रधानमंत्री मोदी अपने भाषण में काशी और उसके समानांतर पूरे भारत से जिन प्रतीकों को चुनते हैं उससे प्राचीन भारत के नाम पर एक बड़े भारत को अलग कर देते हैं. काशी की प्राचीनता सुदूर अतीत के प्राचीन भारत के कालखंड तक सीमित नहीं है. वो याद भी करते हैं तो औरंगजेब के संदर्भ में. प्रधानमंत्री के लिए विरासत हिन्दू धर्म का नया पर्यायवाची बन गया है. इसके लिए वे विरासत से एक बड़े हिस्से की विरासत को विस्थापित कर देते हैं. लोगों को निकाल दो, उनके शब्दों को रहने दो.
काशी के बाद गोवा जाते ही प्रधानमंत्री मिली-जुली संस्कृति की बात करने लगते हैं. काशी के भाषण में एकाध पंक्ति में निपटा देते हैं कि विभिन्न मत-मतांतर के लोग आते हैं. गोवा जाते ही पोप फ्रांसिस की बात करने लगते हैं. गोवा में मिली-जुली संस्कृति के लिए पोप फ्रांसिस नाम गर्व से लिया जाता है. बहरहाल, वोट के लिए काशी और गोवा के बीच प्रधानमंत्री कैसे बदल जाते हैं, इसे जानने के लिए नरेंद्र मोदी का काशी और गोवा में दिया हुआ भाषण सुन सकते हैं. इस सूची में काशी के बाद शाहजहांपुर का भाषण भी जोड़ लीजिए. मेरी गुजारिश है कि पीआईबी और प्रधानमंत्री की वेबसाइट पर मौजूद भाषण की कॉपी पढ़िए.
विरासत को विकास से जोड़ा जा रहा है. यह केवल व से विकास और व से विरासत की सतही तुकबंदी नहीं है बल्कि एक समुदाय के साथ-साथ रोजगार और महंगाई के मुद्दे के समुदाय को भी बाहर कर देने की जुगलबंदी है. बहुत चालाकी से विरासत हिन्दू धर्म के विकल्प में आ रहा है, अभी धीरे-धीरे जगह बना रहा है लेकिन चुनाव नजदीक आते ही विरासत अपना चोला उतार फेंकेगा और हिन्दू-हिन्दू करने लगेगा. अभी के लिए विरासत के सहारे मुस्लिम विरोधी टोन से बचा तो जा रहा है लेकिन विरासत के इस्तेमाल से उस टोन की चादर बिछाई जा रही है जिस पर खुलकर लाउडस्पीकर दहाड़ने वाले हैं.
मुझे यूपी की अपराध की दुनिया की जानकारी नहीं है. मसलन किस इलाके में किस माफिया का किन चीजों पर कब्जा है. शिक्षा का माफिया अलग होता है. रेत का अलग होता है. खनन का अलग होता है. परिवहन का माफिया अलग होता है. क्या ये सारे माफिया यूपी से खत्म हो गए हैं? प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री हर भाषण में माफिया और कट्टा के इस्तमाल से किसकी याद दिला रहे हैं? सीधे सीधे नाम लेकर बोलने की जगह अपराध के बहाने क्या वे केवल कानून व्यवस्था की बात कर रहे हैं? तो फिर क्या वे इस पर बोलना चाहेंगे कि अगर इतनी ही अच्छी व्यवस्था थी तो लोगों पर गलत तरीके से रासुका क्यों लगाई गई?
हाथरस में बलात्कार पीड़िता के शव को उसके ही घर के आंगन में नहीं रखने दिया गया और रात के वक्त अंतिम संस्कार कर दिया गया. माफिया अगर पुलिस में नहीं होता तो कानपुर के व्यापारी मनीष गुप्ता की हत्या नहीं होती. माफिया अगर राजनीति में नहीं होता तो पुलिस के इंस्पेक्टर सुबोध कुमार सिंह की हत्या के मामले में इंसाफ मिल गया होता.
अगर माफिया के इस्तेमाल में बीजेपी का मुस्लिम विरोधी टोन नहीं है तो मेरा एक सवाल है. क्या मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ या प्रधानमंत्री अपने किसी एक भाषण में विकास दूबे के सफाये का जिक्र कर देंगे? क्या विकास दूबे माफिया नहीं था? माफिया की सफाई हुई है तो दो चार के नाम लेकर भी बोले जा सकते हैं ताकि पता चले कि माफिया का इस्तेमाल चुनावी वोट साधने के लिए नहीं हो रहा है.
वे ऐसा नहीं करेंगे क्योंकि तब विकास दूबे के जिक्र से वोट बैंक बिगड़ जाएगा. उनके भाषणों से कभी साफ नहीं होता कि माफिया कौन है, किस-किस माफिया का सफाया कर दिया लेकिन माफिया को लेकर संदर्भों के जाल इस तरह से बुने जाते हैं कि दिखने लगता है कि माफिया कौन है. वह कोई मुसलमान है. क्या माफिया का एक ही धर्म होता है? या तरह-तरह के माफिया तंत्र की दुनिया में एक ही धर्म के लोग हैं?
विरासत और माफिया केवल एंटी मुस्लिम शब्द नहीं हैं बल्कि एंटी नौकरी और एंटी महंगाई भी हैं. कोरोना की दूसरी लहर के तांडव का तो जिक्र ही नहीं हो रहा है. सारी उम्मीद इस बात पर टिकी है कि विरासत और माफिया अगर चल गए तो यूपी के नौजवानों को संविदा की नौकरी देकर उनमें गर्व का हवा भर दिया जाएगा. वे फूले-फूले से नजर आएंगे और फूले भी न समाएंगे.
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