Opinion

कृषि कानून वापस लिया, सीएए-एनआरसी भी वापस लेना होगा: अरुंधति रॉय

आज जब हम नई दिल्ली के जामिया मिल्लिया इस्लामिया पर दिल्ली पुलिस के हमले के दो साल पूरे होने को याद कर रहे हैं, तो हमें सीएए-एनआरसी से बात शुरू करनी चाहिए. हमें यह याद करने की जरूरत है कि जामिया से लेकर शाहीन बाग और पूरे देश में जो आंदोलन खड़ा हुआ,

वह किन अंदेशों को समझते हुए खड़ा हुआ था. आखिर इस सीएए-एनआरसी की असलियत क्या है.

2019 में जब सीएए-एनआरसी की बात हो रही थी, तब मैंने असम की यात्रा की और उन गांवों में और ब्रह्मपुत्र नदी के उन छोटे-छोटे द्वीपों में गई, जहां 19 लाख लोगों के नाम एनआरसी से निकाल दिए गए थे.

दरअसल एनआरसी की यह बात असम में बांग्लादेशी प्रवासियों के खिलाफ शुरू हुई थी. और अब इसको पूरे देश में लागू करने की कोशिश की जा रही है, जिसके साथ नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) लाया गया. सीएए और एनआरसी को मिला कर मुसलमान समुदाय के खिलाफ लाया गया है. इसमें कोई शक नहीं है.

यह फासीवादी दक्षिणपंथी हिंदू सरकार अपने नागरिकों को अवैध ठहराने की कोशिश कर रही है. लेकिन अगर आप व्यवहार में देखें कि असम में जो हो रहा है, उसमें एनआरसी से बेदखल किए गए बहुसंख्यक लोग मुसलमान नहीं हैं. ऐसा इसलिए हुआ कि वहां मुसलमान लोगों को अपने ऊपर खतरों का अंदाजा था, उन्होंने अपने कागजात को सावधानी से संभाल कर रखा था. वहां जिन लोगों के पास कागज नहीं हैं वे हैं गरीब लोग, दलित, आदिवासी, औरतें. इस तरह हम देखते हैं कि सीएए-एनआरसी इस कट्टरपंथी, फासीवादी सरकार का एक ऐसा कदम है, जो इस देश के नागरिकों के पैर के नीचे से जमीन खींच लेने के लिए बना है.

इतिहास में अब तक एक ही बार ऐसा हुआ है कि किसी राज्य ने देश की जनता से कहा हो कि वह इसका फैसला करेगा कि देश में रह रहे लोगों में नागरिक कौन है, और इसका फैसला उन दस्तावेजों के आधार पर होगा जिसकी मंजूरी राज्य देगा. यह 1935 में नाजी जर्मनी में हुआ था, जब न्यूरेम्बर्ग सिटिजनशिप लॉ बनाए गए थे. नागरिकता को साबित करने के लिए हिटलर के राज ने जिस तरह के दस्तावेज तय किए थे, उन्हें अब लीगेसी पेपर्स कहते हैं.

हाना आरेंट एक यहूदी बुद्धिजीवी थीं, जिसने कहा था कि नागरिकता अधिकारों का अधिकार है, जिसके होने से आपको सारे अधिकार मिलते हैं. ऐसे में क्या होगा जब आपकी नागरिकता पर ही खतरा आ जाए. जब पूरी की पूरी आबादी, दलितों, मुसलमानों, आदिवासियों की नागरिकताएं खतरे में पड़ जाएं. उनके लिए असम में डिटेंशन सेंटर बनाए जा रहे हैं.

आप जानते होंगे उनको बनाने के लिए मेहनत करने वाले कौन लोग हैं, उनकी सामाजिक और आर्थिक हालत क्या है, किसी दिन वे खुद उस सेंटर में कैद हो सकते हैं. लेकिन सीएए-एनआरसी को जिस पैमाने पर लागू किया जा रहा है, उसमें खतरा तो करोड़ों लोगों के सामने है, और सरकार क्या करोड़ों लोगों को डिटेंशन सेंटर में डाल सकती है? नहीं. ये डिटेंशन सेंटर इसलिए भी बनाए जा रहे हैं ताकि वे यह बात हमारी कल्पना में कायम कर दें कि डिटेंशन सेंटर ही इन लोगों की जगह है. मुसलमानों की जगह, आदिवासियों की जगह, दलितों की जगह डिटेंशन सेंटर में है, क्योंकि उनके पास कोई हक नहीं है. जब समुदायों से उनका हक छीन लिया जाए, तो उनकी सामाजिक स्थिति क्या हो जाएगी? यह एक नई जाति व्यवस्था की तरह होगी.

यह हुकूमत एक तरह से नई जाति व्यवस्था बना रही है, जो पुरानी जाति व्यवस्था के साथ-साथ चलेगी, जिसमें कुछ नागरिकों के पास अधिकार होंगे, कुछ के पास नहीं होंगे. ऐसी स्थिति में हम सब उजड़ जाएंगे, तितर-बितर हो जाएंगे और इस देश में, इस समाज में अपनी-अपनी जगह खोजते फिरेंगे. ऐसे में हम कैसे लड़ेंगे?

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी, और जामिया मिल्लिया इस्लामिया के छात्रों ने जो किया, हमें इसी के संदर्भ में उसे समझने की जरूरत है. उन्होंने जो किया वह बहुत अहम है. उन्होंने इस बुनियादी खतरे को समझा, और उन्होंने कहा कि यह एक ऐसा खतरा है जिससे लड़ना होगा और सरकार को वापस लेने पर मजबूर करना होगा. और वे हम सबके लिए खड़े हुए.

अगर आप भाजपा और आरएसएस की विचारधारा को देखेंगे तो उसमें वह साफ-साफ और सरेआम जिन लोगों से नफरत करती है, वे हैं मुसलमान, ईसाई और कम्युनिस्ट. इन तीन समुदायों से उनकी नफरत सार्वजनिक है. लेकिन यह सरकार ऐसी है जो सबसे घृणा करती है. यह खुद को देशभक्त कहती है, लेकिन यह देश के गरीबों से, मजदूरों, आदिवासियों, दलितों से घृणा करती है. मुसलमानों से तो यह घृणा करती ही है, अपने खुद के वोटरों से भी घृणा करती है. इसे जानना हो तो आप प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के काम करने का तरीका देखिए. उनके उठाए गए कदमों से झलकता है कि जनता एक दुश्मन है, जिस पर घात लगा कर हमला करना है. सबसे पहले यह नोटबंदी से शुरू हुआ, बीच रात में. यह ऐसा था जैसे कोई क्रिकेट का बैट लेकर आपकी रीढ़ की हड्डी को तोड़ दे.

नोटबंदी उसी तरह का एक हमला था. उसके बाद आया सीएए-एनआरसी. जिस तरह इन्होंने पहले नोटबंदी की, उसी तरह कोविड महामारी के दौरान चार घंटे की नोटिस में लॉकडाउन लगाया. इसके नतीजे में हमने देखा कि किस तरह लाखों मजदूरों के लिए एक खौफनाक त्रासदी खड़ी हो गई. इस सरकार के जेहन में ही नहीं था कि इस देश में ऐसे लोग भी होते हैं जो एक-एक कमरे में रहते हैं, उन्हें उसका रेंट देना है, उसके लिए उन्हें काम करना है, नहीं करेंगे तो वे शहर में रह ही नहीं सकते हैं. लॉकडाउन लगने के बाद उनको रातो-रात हजारों मील पैदल चल कर अपने गांव लौटना पड़ा.

फिर उसके बाद आया किसान कानून, जिसका मकसद किसानों की जमीनें छीनना है. यह किसानों के अस्तित्त्व को खत्म करने वाला कानून है. यह सब ऐसी चीजें हैं जो छत्तीसगढ़ में, नर्मदा घाटी में पहले से चल रही हैं. लेकिन वे लोग गरीब हैं, बहुत दूर हैं, गांवों में रहते हैं, तो उनकी बातें कोई नहीं सुन रहा था. अब जब पानी नाक तक पहुंचा है तो यह बात सबकी समझ में आ रही है कि जो लोग इस देश पर हुकूमत कर रहे हैं वे कैसे लोग हैं, और वे क्या कर रहे हैं.

छात्रों ने इन अंदेशों को समझा और विरोध किया. और भी बहुत सारे लोगों ने, एक्टिविस्टों ने, वकीलों ने, बुद्धिजीवियों ने, संस्कृतिकर्मियों ने इन बातों को समझा. और यही वजह है कि उन पर हमले किए गए. जामिया में, जेएनयू में छात्रों के ऊपर हमले हुए, उन्हें बदनाम किया गया, उससे पहले उमर खालिद जैसे छात्रों के साथ 2016 से जो हो रहा है, वह इस हुकूमत के एक चरित्र को दिखाता है. यह फासीवादी हुकूमत सिर्फ बुद्धिजीवियों और बौद्धिकता के खिलाफ नहीं है, यह हर किस्म की समझदारी के खिलाफ है. यह खेती की समझदारी के खिलाफ है, यह जमीन पर काम करने की समझदारी के खिलाफ है, यह कारीगरों और शिल्पियों की समझदारी के खिलाफ है.

यह किसी भी चीज को नहीं समझती, सिवाय नफरत के. हमारे पास एक ऐसी सरकार है जो देश को प्यार करती है लेकिन लोगों से प्यार नहीं करती है. दो दिन पहले हमने देखा मोदी जी बनारस में एक मंदिर में सीमेंट के भारत माता के नक़्शे को प्रणाम कर रहे थे. आज जबकि उनकी नीतियों के चलते पूरा देश आर्थिक रूप से, और कोरोना महामारी में, बदहाल है. आज जब इस देश के एक्टिविस्ट जेल में है, छात्र जेल में हैं, बुद्धिजीवी जेल में हैं, आखिर वे किस देश की पूजा कर रहे थे? किसानों की नहीं, दलितों की नहीं, मजदूरों की नहीं, महिलाओं की नहीं, आदिवासियों की नहीं. वे पूजा करते हैं तो अंबानी की, अडानी की.

इन हालात को बदलना होगा, और यह आसान नहीं है. उन्होंने सत्ता पर अपनी पकड़ को बनाए रखने के लिए चुनाव की पूरी व्यवस्था ही बदल दी है. अब चुनावों में किसी दल के पास पर्याप्त संसाधन नहीं है, सिर्फ भाजपा ही ऐसा दल है जिसके पास चुनाव की फंडिंग है. चुनावी बॉन्ड्स के बारे में लाया गया कानून, निर्वाचन क्षेत्रों की बदली जाने वाली सीमाएं - हर चीज इस तरह की जा रही है कि वे सत्ता में बने रहें. आज इस देश के संस्थानों पर सिर्फ भाजपा का नहीं, बल्कि आरएसएस और उसकी विचारधारा का कब्जा है.

यह कब्जा ऐसे किया गया है कि अगर वे चुनाव हार भी जाएं, तब भी सत्ता में उन्हीं के लोग रहेंगे. हमने खुद देखा कि किस तरह मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई ने सर्वोच्च न्यायालय को एक प्रशासनिक संगठन में बदल दिया, उसे सीएए-एनआरसी के रोजमर्रा के कामकाज की निगरानी करने का जिम्मा दे दिया. यह तब किया गया जब यह सवाल अभी हल नहीं हुआ था कि सीएए-एनआरसी संवैधानिक है भी कि नहीं, वे इस सुनवाई को ही टालते रहे.

इन कानून की संवैधानिकता पर सवाल खड़े थे और न्यायालय इसको तय किए बिना इसको लागू कर रहा था. उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय का मजाक बना दिया. ऐसे हालात में हम सबके लिए बड़ा सवाल है कि भविष्य क्या होने जा रहा है. इसका जवाब मुश्किल बना रहेगा जब तक हम यह नहीं समझते कि ये सारे संघर्ष आपस में जुड़े हुए हैं, जब तक हम अलग-अलग लड़ते रहेंगे. वे यही चाहते हैं कि हम अलग-अलग बने रहें, जामिया के छात्र सिर्फ जामिया के लिए लड़ें, जेएनयू के छात्र सिर्फ जेएनयू के लिए लड़ें, छत्तीसगढ़ के लोग सिर्फ छत्तीसगढ़ के लिए लड़ें, किसान सिर्फ किसान के लिए लड़ें. वे यही चाहते हैं कि एक जाति दूसरे के खिलाफ, एक धर्म दूसरे धर्म के खिलाफ बना रहे. हम आज जिस हालात में हैं हमें समझना पड़ेगा कि चीजें ऐसे नहीं चल पाएंगी.

हमारा देश भारत एक सामाजिक करार पर बना है. यह करार सैकड़ों समुदायों, भाषाओं, धर्मों, जातीयताओं, जातियों, क्षेत्रों, नस्लों के बीच में है. अगर इस करार को तोड़ दिया जाए, और आरएसएस-भाजपा की विचारधारा इस करार को तोड़ने की विचारधारा है, तो भारत नहीं रहेगा. शायद 10 या 20 साल लगेंगे, लेकिन इस करार के टूटने के बाद भारत भी नहीं रह जाएगा. अगर आप देखना चाहते हैं कि देश कैसे खत्म होते हैं तो आप बस सोवियत संघ और यूगोस्लाविया को देख लीजिए.

इसलिए हमें यह समझने की जरूरत है कि जामिया और एएमयू के छात्रों ने और उन सारे लोगों ने, जो सीएए के खिलाफ खड़े हुए, उन्होंने समझा कि यह हमारे देश के सामने बुनियादी खतरा है. और उनमें से कई लोग आज यूएपीए के तहत जेल में हैं. किसी लोकतंत्र में ऐसा कोई कानून कैसे हो सकता है कि आप किसी को उठा कर सालों के लिए जेल में बंद कर दें. वे इसे प्रीवेंटिव डिटेंशन कहते हैं, एक लोकतंत्र में ऐसे कानून की जगह कहां होती है? इस आतंकवाद के कानून के तहत सरकार ने जिस-जिस को भी उठाया है, उसे अच्छी तरह मालूम है कि वे आतंकवादी नहीं हैं. इसीलिए वे उन्हें आतंकवादी कह रहे हैं.

साईबाबा आतंकवादी नहीं हैं, सुधा भारद्वाज आतंकवादी नहीं हैं, आनंद तेलतुंबड़े आतंकवादी नहीं हैं, सुरेंद्र गडलिंग, गौतम नवलखा, उमर खालिद, शरजील इमाम, कोई भी आतंकवादी नहीं है. बल्कि सच्चाई इसके उलट है. आप जानते हैं खुर्रम परवेज क्यों जेल में हैं. क्योंकि वे कश्मीर में एक मजबूत पाए की तरह खड़े थे, वे एक मुश्किल जमीन पर खड़े थे, जहां से वे वहां के अवाम के खिलाफ राज्य की कार्रवाइयों के खिलाफ भी थे और मिलिटेंसी के खिलाफ भी. कश्मीर पर भारतीय राज्य ने जो दहशत थोपी है, उनके संगठन ने इसके दस्तावेज तैयार किए. वे इसलिए जेल में हैं कि उन्होंने उस दहशत को और भारतीय राज्य को, जो एक दहशतगर्द राज्य है, उजागर किया.

यूएपीए इसी का एक नमूना है कि यह दहशत किस तरह थोपी जा रही है. अमित शाह ने यूएपीए को और भी कठोर बनाते हुए यह बात जोड़ी कि सिर्फ संगठन ही नहीं, व्यक्ति भी आतंकवादी माने जा सकते हैं. आप-हम, यहां मौजूद सभी नौजवान, छात्र, नेता, एक्टिविस्ट, और बुद्धिजीवी जेल में डाले जा सकते हैं. एक अगस्त 2019 को यूएपीए कानून में संशोधन के समय अमित शाह ने जो कहा था, वह मैं आपको पढ़ कर सुनाना चाहती हूं, “महाशय, बंदूकों से आतंकवाद नहीं बढ़ता, आतंकवाद की जड़ इसको फैलाने वाले प्रचार में है. और अगर ऐसे सभी व्यक्तियों को आतंकवादी घोषित कर दिया जाए, तो मैं नहीं सोचता कि संसद के किसी सदस्य को इस पर आपत्ति होनी चाहिए.”

यह छात्रों पर, बुद्धिजीवियों पर हमला है, यह हम सब पर हमला है जिनको अर्बन नक्सल कहा जाता है. और हमें इस हमले का एक साथ सामना करना है. जैसे इन्हें कृषि कानून वापस लेने पड़े, वैसे ही इनको सीएए-एनआरसी को वापस लेना पड़ेगा.

आखिर में मैं दो और बातें कहना चाहती हूं. पहली बात यह है कि इनको सत्ता से हटाना पड़ेगा. यह बात हमें साफ-साफ कहने की जरूरत है कि जो भी विपक्षी दल आपस में एक दूसरे के साथ लड़ते हैं, वे फासिस्टों के साथ हैं. उत्तर प्रदेश में चुनाव होने वाले हैं, हम चाहते हैं कि जो भी दल फासीवाद के खिलाफ हैं वो एक साथ हो जाएं. और अगर वो नहीं होते हैं तो इसका मतलब है कि वो इनके साथ हैं.

दूसरी बात यह है कि हमें एक बड़ी अहम मांग उठाने की जरूरत है कि हमारे देश में कोई व्यक्ति सिर्फ एक ही कार्यकाल के लिए प्रधानमंत्री बन सकता है. हमें राजा-महाराजाओं का समय नहीं चाहिए. वह समय खत्म हो गया. अब हमें मांग करनी है कि एक व्यक्ति सिर्फ एक ही बार प्रधानमंत्री बन पाए, उससे ज्यादा नहीं. हमारी तरफ से यह एक लोकतांत्रिक मांग उठनी चाहिए.

शुक्रिया.

15 दिसंबर 2021

अनुवाद: रेयाज़ुल हक़

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