Opinion
कॉप-26: टूटा विश्वास, गहराया अविश्वास
क्लाइमेट कांफ्रेंस (कॉप26) खत्म हो चुका है और दुनियाभर के देशों ने ग्लास्गो जलवायु समझौते पर हस्ताक्षर कर दिये हैं. ऐसे में सवाल ये है कि क्या ये समझौता वैश्विक तापमान को पूर्व-औद्योगिक स्तर से 1.5 डिग्री सेल्सियस ऊपर रखने, जो जलवायु परिवर्तन के विध्वसंक परिणामों को रोकने के लिए जरूरी है, में मदद करेगा. मेरा स्पष्ट विचार 'नहीं' में है. मैं ऐसा सिर्फ इसलिए नहीं कह रही हूं कि इस समझौते में कार्बन उत्सर्जन कम करने का लक्ष्य आवश्यकता के स्तर से कम है बल्कि इसलिए भी कह रही हूं क्योंकि कॉप-26 ने फिर एक बार अमीर और उभरते हुए देशों के बीच गहरे अविश्वास को जाहिर कर दिया है. इसमें ये स्वीकार करने के लिए बहुत कम प्रयास हुआ कि जलवायु परिवर्तन से निबटने के लिए उस स्तर पर सहयोग की जरूरत है, जो पहले कभी नहीं देखा गया.
लेकिन फिर भी हमलोग कुछ राहत के संकेत देखने को उत्सुक हैं, अतः मैं ये भी बताना चाहती हूं कि ग्लास्को में हुई कांफ्रेंस में हमने क्या हासिल किया. सच बात तो ये है कि दो वर्षों के बाद और कमरतोड़ कोविड-19 लॉकडाउन व आर्थिक नुकसान के बावजूद ये स्वीकार करने के लिए पूरी दुनिया एक मंच पर आई कि जलवायु परिवर्तन के खतरे असली हैं और इसके लिए आपातकालीन परिवर्तनकारी कार्रवाई की जरूरत है. हमलोग अजीबोगरीब व चरम मौसमी घटनाएं व ऊर्जा कीमतों में इजाफा देख रहे हैं. ये बिल्कुल साफ है कि यहां से वापसी नहीं है– पृथ्वी को बाद में नहीं, बल्कि इस दशक के अंत तक उत्सर्जन में भारी कमी चाहिए.
हालांकि, ग्लास्गो जलवायु समझौते में सबसे बुनियादी और घातक गलती इसके पहले पेज में है. इसमें हालांकि उपेक्षापूर्ण ढंग से जलवायु न्याय की कुछ संकल्पनाओं के महत्व को रेखांकित किया गया है. मगर इसी बिन्दू से महात्वाकांक्षी व प्रभावी कार्रवाई का ढांचा धराशाई हो जाता है. मैं ऐसा क्यों कह रही हूं?
जलवायु परिवर्तन भूत, वर्तमान और भविष्य से जुड़ा हुआ है. हम इस सच को मिटा नहीं सकते कि कुछ देश (अमरीका, यूरोपीय संघ-27, यूके, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, जापान, रूस और अब चीन) तापमान में इजाफे को 1.5 डिग्री सेल्सियस पर सीमित करने के लिए जितने उत्सर्जन की आवश्यकता है, उस कार्बन बजट का 70 प्रतिशत हिस्सा इस्तेमाल कर चुके हैं. लेकिन दुनिया की 70 प्रतिशत आबादी को अब भी विकास का अधिकार चाहिए. ये देश वृद्धि करेंगे, तो उत्सर्जन में इजाफा होगा और जो दुनिया को तापमान वृद्धि के विध्वंसक स्तर पर ले जाएगा. इसी वजह से जलवायु न्याय कुछ के लिए अतिरिक्त संकल्पना नहीं, बल्कि प्रभावी और महात्वाकांक्षी समझौते के लिए शर्त है. समझदारी में कमी ही समस्या का मूल है. इसी वजह से जब एक समझौते पर आने के लिए जलवायु वार्ता देर तक चल रही थी, तो दुर्घटनावश अब तक कोयले का इस्तेमाल बंद नहीं करने वाले यूरोपीय संघ के प्रतिनिधि जलवायु परिवर्तन के महत्वपूर्ण नियम न मानने वाले 'मूल निवासियों' की आलोचना करते देखे गये.
ये तब है जब यूरोपीय संघ के साथ ही पहले से विकसित देशों के एकमुश्त उत्सर्जन के कारण 'मूल निवासियों' की दुनिया तबाही से जूझ रही है. ये शर्मिंदगी से कम नहीं है कि दुनिया इस सच से मुकर गई है कि उसे ‘नुकसान और क्षति’ पर काम करने की जरूरत थी और उसे वजनदार शब्दों व नई कमेटियों के वादों और विमर्शों से नहीं बल्कि पैसों से मरम्मती की जरूरत है. अनुकूलन की जरूरत के मामले में भी यही है. देशों को भीषण मौसमी प्रकोपों से निबटने के लिए उपाय ढूंढना होगा. ग्लास्गो जलवायु समझौते की एकमात्र उपलब्धि- अगर आप उसे उपलब्धि कह सकते हैं, तो ये है कि ये समझौता अनुकूलन के लिए वित्तीय सहयोग की जरूरत को स्वीकार करता है और इसे दोहराता है. लेकिन, इससे ज्यादा कुछ नहीं करता है.
पहले से अमीर देशों ने विकासशील दुनिया के खर्च व जलवायु परिवर्तन के प्रभावों को कम करने के खर्च के भुगतान को लेकर गंभीरता या इच्छा नहीं दिखाई. ग्लास्गो जलवायु समझौता 'गहरे अफसोस के साथ' इस बात को दर्ज करता है कि विकसित मुल्कों द्वारा साल 2020 तक 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर जुटाने के लक्ष्य को हासिल नहीं किया जा सका. क्लाइमेट फाइनेंस को अब भी 'दान' के नैरेटिव का हिस्सा माना जाता है और सच कहा जाए, तो अमीर दुनिया पैसा देने को लेकर अब इच्छुक नहीं है.
लेकिन सच तो ये है कि ये फाइनेंस जलवायु न्याय के लिए है, जिसे कुछ के लिए लिखित रूप में महत्वपूर्ण के तौर पर खारिज कर दिया गया है. इसकी आवश्यकता इसलिए है क्योंकि जलवायु परिवर्तन पर वैश्विक समझौता ये मांग करता है कि जिन देशों ने समस्याएं उत्पन्न की हैं, जो देश वायुमंडल में कार्बन डाइऑक्साइड के उत्सर्जन का कारण हैं, उन्हें अपने योगदान के आधार पर बड़े स्तर पर उत्सर्जन में कमी लानी चाहिए. बाकी दुनिया जिन्होंने ने उत्सर्जन में कोई योगदान नहीं दिया है, उन्हें प्रगति का अधिकार मिलना चाहिए. इस प्रगति में कर्बन उत्सर्जन कम हो, ये सुनिश्चित करने के लिए वित्त व टेक्नोलॉजी मुहैया कराये जाएंगे. ये एक दूसरे पर निर्भर इस दुनिया के सहकारी समझौते का हिस्सा है.
कॉप-26 के बाद, दुनिया 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान के भीतर रहने के आसपास भी नहीं है. सच बात ये है कि साल 2030 तक उत्सर्जन में 50% तक कटौती कर 2010 के स्तर पर लाने के लक्ष्य की जगह इस दशक में दुनिया भर में उत्सर्जन में इजाफा होगा. यहां सवाल ये नहीं है कि कोयले के इस्तेमाल को चरणबद्ध तरीके से हटाना चाहिए, लेकिन अलग-अलग और वास्तविक इरादे से ट्रांजिशन के लिए धन उपलब्ध कराया जाना चाहिए.
हम ऊर्जा संक्रमण का बोझ विकासशील देशों पर नहीं लाद सकते हैं, जो जलवायु परिवर्तन के प्रभावों के सबसे ज्यादा वल्नरेबल हैं. जलवायु परिवर्तन अस्तित्व पर खतरा है और कॉप-26 को ये सीख देनी चाहिए कि दुनिया को सुरक्षित रखने के लिए किंडरगार्टन डिप्लोमेसी से आगे बढ़ने की आवश्यकता है.
(डाउन टू अर्थ से साभार)
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