Report
वेद प्रताप वैदिक, पुष्पेश पंत और देवी प्रसाद द्विवेदी के संपादन में रामगोपाल यादव का वाजपेयीकरण
भारत के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी राजनीतिज्ञ होने के साथ-साथ साहित्यकार भी थे. उन्होंने 14 से ज्यादा किताबें और कई कविताएं लिखी हैं. वह कहते थे, "साहित्यकार को अपने प्रति ‘सच्चा’ होना चाहिए साथ ही उसकी ‘दृष्टि रचनात्मक’ होनी चाहिए."
पूर्व प्रधानमंत्री की यह बात हाल में घटी एक घटना के मद्देनज़र बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है. हिंदी के विद्वान बौद्धिक और दशकों की पत्रकारिता के अनुभव वाले कुछ विद्वतजन एक किताब को मौलिक नाम नहीं दे पाए. उनकी दृष्टि की रचनात्मकता कहीं खो गई.
23 नवंबर को समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता, मुलायम सिंह यादव के चचेरे भाई, राज्यसभा सांसद रामगोपाल यादव के 75 साल पूरा होने के मौके पर लखनऊ के इंदिरा गांधी प्रतिष्ठान में एक किताब का विमोचन किया गया. इस किताब का नाम है “राजनीति के उस पार”. किताब रामगोपाल यादव के ऊपर है. इस किताब का संपादन प्रो देवी प्रसाद द्विवेदी, प्रो पुष्पेश पंत और डॉ. वेदप्रताप वैदिक ने किया है.
लखनऊ में आयोजित हुए कार्यक्रम का संचालन लोकप्रिय कवि कुमार विश्वास ने किया जहां मुलायम सिंह यादव और अखिलेश यादव समेत कई दलों के नेता मौजूद थे.
इस किताब में रामगोपाल यादव के बारे में देश के नामचीन लोगों द्वारा लिखे गए विचारों को शामिल किया गया है, जिसे प्रभात प्रकाशन ने प्रकाशित किया है. दिलचस्प बात है कि रामगोपाल यादव की किताब को जो नाम दिया गया है, वह नाम अटल बिहारी वाजपेयी की एक किताब का है. 2014 में छपी वह किताब पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के गैर-राजनीतिक भाषणों का संग्रह है.
करीब सात साल बाद अब “राजनीति के उस पार” नाम से एक नई किताब आई. जिसका संपादन प्रो देवी प्रसाद द्विवेदी, प्रो पुष्पेश पंत और डॉ. वेदप्रताप वैदिक ने किया है.
इसे लेकर कुछ वाजिब से सवाल पैदा हुए हैं. जिन तीन विद्वान प्रोफेसर और संपादकों के संपादन में यह किताब छपी, इतना भारी भरकम आयोजन हुआ क्या उन्हें पता नहीं था कि यह नाम अटल बिहारी वाजपेयी की किताब का है?
इत्तेफाक बस इतना नहीं है कि दोनों किताबों का नाम एक है. बल्कि दोनों किताबों का कवर भी कुछ-कुछ मिलता-जुलता है. क्या यह महज इत्तेफाक है या ऐसा जानबूझकर किया गया? इस पर प्रभात प्रकाशन के प्रमुख प्रभात कुमार न्यूज़लॉन्ड्री से कहते हैं, “किताब का नाम हमने नहीं दिया है. यह संपादकों ने तय किया था. नाम तय करने में हमारी कोई विशेष भूमिका नहीं होती है.”
क्या प्रकाशक अपने स्तर पर एहतियातन किसी किताब के नाम आदि की जांच करते हैं? मसलन एक ही नाम से दूसरी किताब तो प्रकाशित नहीं हुई है. इस सवाल पर प्रभात कहते हैं, “हम ऐसी कोई जांच नहीं करते हैं. आप ने हमें बताया तो पता चला की अटलजी की कोई किताब इसी नाम से है.”
यह दिलचस्प है कि प्रभात प्रकाशन के प्रमुख को वाजपेयी की किताब की जानकारी नहीं थी. मिलते जुलते कवर के सवाल पर प्रभात कहते हैं, “हो सकता है जिस डिजाइनर ने इस किताब पर काम किया है उसने वह किताब पहले देखी नहीं होगी. इस किताब का डिजाइन हमने तैयार नहीं किया है. इस किताब का आवरण बनकर आया था. हमने सिर्फ प्रिंट किया है. इस किताब का संपादन प्रो देवी प्रसाद द्विवेदी, प्रो पुष्पेश पंत और डॉ.वेदप्रताप वैदिक ने किया है.”
किताब के प्रकाशक दावा करते हैं कि इसे तीन लोगों ने मिलकर संपादित किया है. उनके नाम भी किताब के कवर पेज पर दर्ज हैं. किताब के तीन संपादकों में से एक वरिष्ठ पत्रकार डॉ. वेदप्रताप वैदिक किताब के बारे में कुछ चौंकाने वाले खुलासे करते हैं. वह कहते हैं, “मुझे नहीं पता था कि अटलजी की कोई किताब इस नाम से है. जहां तक बात रही किताब के संपादन की तो, मेरा और पुष्पेश का नाम तो ऐसे ही दे दिया गया. हमने किताब भी नहीं देखी है. तीसरे संपादक प्रो देवी प्रसाद द्विवेदी को तो मैं जानता भी नहीं हूं. ना ही उनसे कभी मिला और ना ही फोन पर बात हुई. इसलिए मुझे किताब के बारे में ज्यादा नहीं पता. मैं विमोचन कार्यक्रम में भी नहीं गया था.”
वह आगे कहते हैं, “हमारा नाम संपादक ने ऐसे ही लगा दिया है. हमने सोचा की चलो कोई बात नहीं, किसी नेता के बारे में अच्छा छपे या उससे उसकी छवि बने और वह सर्वगुण बन जाए तो अच्छी बात है. हमने न तो किताब देखी और न ही आपत्ति की.”
यह अपने आप में एक बड़ी दिक्कत की तरफ इशारा करता है. बिना किताब के बारे में जाने, बिना साथी संपादकों के बारे में जाने एक सियासी शख्सियत की किताब में अपना नाम छपवाना बतौर पत्रकार भी एक गलत संदेश देता है. पत्रकार और नेता के बीच का रिश्ता इतना सीधा नहीं होता जितनी सरलता से वैदिकजी ने सर्वगुण होने की बात कही. तो क्या इतने वरिष्ठ और इतने अनुभवी होने के बावजूद वैदिकजी सिर्फ नाम छपवाने का लोभ संभाल नहीं पाए? उन्होंने इस सवाल का जवाब नहीं दिया.
आगे वैदिकजी और भी चौंकाने वाली जानकारी देते हैं. आपको कैसे पता चला कि आपका नाम किताब के संपादक के रूप में लिखा जा रहा है? वैदिक कहते हैं, “मुझे कुछ एक महीने पहले फोन कर बताया गया कि संपादकों में मेरा नाम है. मैंने कहा कोई बात नहीं है.”
इतने लापरवाह रवैये के साथ, इतना वरिष्ठ पत्रकार अपना नाम किसी सियासी शख्सियत की किताब में क्यों जुड़वाएगा? इस बारे में सिर्फ अटकलें लगाई जा सकती हैं.
वैदिक आगे कहते है, “कई बार एक ही नाम की दो किताबें हो जाती हैं, इसमें बुराई क्या है.”
किताब के दूसरे संपादक जेएनयू के पूर्व प्रोफेसर पुष्पेश पंत हैं. किताब के नाम के सवाल पर वो कहते हैं, “अटलजी की किताब के बारे में मुझे कोई जानकारी नहीं है.”
किताब के संपादन में अपनी भूमिका के सवाल पर पंत कहते हैं, ”मैंने इस किताब के कुछ लेखों का संपादन किया है, जो मुझे दिखाए गए थे. जहां तक बात रही बाकी संपादकों से मिलने की तो इस किताब पर काम कोरोनाकाल के समय में किया गया इसलिए हम कभी मिले नहीं.”
वह आगे कहते हैं, “किताब के लिए एक संपादन मंडल बनाया गया था. जिसमें मैं शामिल था.” यह पूछे जाने पर की कितने लोग इस मंडल में थे वो कोई जवाब नहीं देते.
हमने पुष्पेश पंत को वैदिकजी के जवाब की जानकारी दी कि उन्होंने कोई संपादन नहीं सिर्फ अपना नाम छापने की सहमति दे दी. इस पर पुष्पेश पंत कहते हैं, “मुझे नहीं पता वैदिकजी ने ऐसा क्यों कहा. मुझे कुछ लेख दिए गए थे जिसका संपादन मैंने किया.”
क्या इस किताब के संपादन के लिए रामगोपाल यादव ने आपसे कहा था? इस पर पंत कहते हैं, “सीधे उनका फोन तो नहीं आया लेकिन उनसे जुड़े लोगों ने मुझे इसके लिए कहा था.”
वेदप्रताप वैदिक की तरह पुष्पेश पंत भी किताब के लोकार्पण में मौजूद नहीं थे. वो कहते हैं, “मुझे बुलाया गया था लेकिन कोरोना के कारण सावधानी बरतते हुए मेरे परिवार ने जाने से इंकार कर दिया.”
किताब के तीसरे संपादक प्रो देवीप्रसाद द्विवेदी हैं. द्विवेदी बनारस के संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय में प्रोफेसर हैं. उन्हें पद्म श्री और पद्म भूषण से सम्मानित किया गया है.
वह किताब के नाम को लेकर कहते हैं, “यह किताब नहीं है. अन्य लोगों के विचारों को किताब के रूप में प्रकाशित किया गया है.”
क्या आपको पता था कि यह नाम अटल बिहारी वाजपेयी की किताब का है, इस सवाल पर द्विवेदी कहते हैं, “यह प्रकाशक का काम होता है. इसमें परेशान होने वाली कौन सी बात है. क्या नाम रख दिया गया. नाम एक क्यों है यह आप लोगों का विषय है. आप समझते होंगे. यह मुझसे क्यों पूछ रहे हैं."
जाहिर है उन्हें भी अटल बिहारी वाजपेयी की किताब के बारे में जानकारी नहीं थी. वो कहते हैं, “यह प्रकाशक का काम होता है. यह संपादक का काम नहीं होता है.”
यह अपने आप में चौंकाने वाली जानकारी है कि किताब का नाम संपादक या लेखक नहीं बल्कि प्रकाशक तय करते हैं. बाकी सवालों का जवाब में उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा कि किताब पढ़िए, और फोन काट दिया.
किताब के नाम को लेकर सुगबुगाहट चल रही थी. दिलचस्प ये रहा कि दो संपादक किताब के विमोचन कार्यक्रम से नदारद रहे. विमोचन का मंच संभाला कवि कुमार विश्वास ने. रामगोपाल यादव से जुड़े कुछ संस्मरण वरिष्ठ पत्रकार हेमंत शर्मा ने भी लोगों को सुनाया.
Also Read
-
TV Newsance 310: Who let the dogs out on primetime news?
-
If your food is policed, housing denied, identity questioned, is it freedom?
-
The swagger’s gone: What the last two decades taught me about India’s fading growth dream
-
Inside Dharali’s disaster zone: The full story of destruction, ‘100 missing’, and official apathy
-
August 15: The day we perform freedom and pack it away