Opinion
बड़े धोखे हैं इस राह में…
आज 19 नवंबर 2021 को गुरु नानक जी के जन्म दिन और प्रकाश पर्व के पावन दिन की सुबह देश में एक नया उत्साह लेकर आयी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गाहे-बगाहे देश को संबोधित करने की अपने शौक से वशीभूत होकर टेलीविजन पर शाया हुए.
लेकिन आज उन्होंने ऐसा कुछ कहा जो लंबे समय से उनके इस तरह के संबोधनों से ऊब चुकी जनता का ध्यान अपनी तरफ खींच सका. मोदी जी की लोकप्रियता में आ रही निरंतर गिरावट और उनके संबोधनों को मिलने वाले ‘थम्स डाउन’ की संख्या आज कुछ थम जाएगी. ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि नरेंद्र मोदी ने आज प्रकाश पर्व के अवसर पर उन तीन कृषि कानूनों को रद्द किए जाने की घोषणा की जिनके खिलाफ आजाद भारत में सबसे लंबा अहिंसक और शांतिमय आंदोलन अपने एक साल पूरे करने जा रहा है. प्रधानमंत्री ने कहा कि आगामी संसद सत्र में इन्हें रद्द करने की प्रक्रिया की जाएगी.
हालांकि अभी तक यह बात ही है क्योंकि कानून रद्द नहीं हुए हैं. इन्हें रद्द किए जाने की बात ही हुई है. और ऐसी बातें कह देने का प्रधानमंत्री का व्यसन बहुत पुराना है.
महज 11 दिनों पहले यानी 8 नवंबर को देश ने नोटबंदी की पांचवीं बरसी मनाई थी. पांच साल पहले जब उस दौरान देश भयंकर अराजकता से गुजर रहा था. बंद हुए नोट बदले जाने का प्रबंधन देश भर में पूरी तरह ढह गया था और लोग हैरान परेशान हो रहे थे. बैंकों के सामने लाइनों में खड़े लोग दम तोड़ रहे थे तब इन्हीं मोदी जी ने गोवा में आयोजित एक सभा में देश से केवल 50 दिन मांगे थे और अगर इतने दिनों में सब कुछ ठीक न हो तो वो जनता के बुलाने पर किसी भी चौराहे पर आने के लिए खुद को तैयार बता रहे थे और जो सजा जनता को देनी होती उसे स्वीकार करने के लिए तत्परता का इजहार कर रहे थे. यह भी एक बड़ी बात ही थी जिसे रुंधे गले से कहा गया था.
लेकिन इस उत्साह के प्रकाश में दिल्ली के वायुमंडल में व्याप्त प्रदूषण की छाया स्पष्ट दिखती है. यह उत्साह थोड़ा धुंधला इसलिए हैं क्योंकि आज के संबोधन में पीएम मोदी ने देश और देशवासियों से इसलिए माफी मांगी कि वो ‘किसान हित में लाए गए इन कानूनों को इसलिए वापिस ले रहे हैं क्योंकि मात्र ‘कुछ’ किसानों को वो इनके फायदे समझा नहीं सके’. दीये कि लौ जैसी पवित्र भावना से उन्होंने ये उद्गार व्यक्त किए. अब दीये को सोचना है कि उसकी लौ वाकई कितनी पवित्र है.
यह उत्साह इसलिए भी थोड़ा धुंधला है क्योंकि अब तक मात्र कृषि कानूनों को वापिस लेने की बात हुई है, कृषि उत्पादों के न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी पर कुछ कहा नहीं गया है. इस उत्साह में थोड़ी कमी इसलिए भी दिखाई दे रही है क्योंकि बिजली कानून को लेकर भी कुछ नहीं कहा गया है. और यह उत्साह इसलिए भी थोड़ा फीका है क्योंकि इन डेढ़ सालों में अब तक चली आ रही ख्रीशी उत्पादों की खरीद की व्यवस्था को लगभग खत्म कर दिया गया है. मंडियां लगभग निष्क्रिय हो चुकी हैं. कृषि लागतों में बेतहाशा बढ़ोत्तरी रोज ब रोज जारी है.
जरूर इसे किसान आंदोलन की एक बड़ी जीत के तौर पर देखा जाना चाहिए कि उसने तमाम कष्ट सह कर लेकिन अपने बुलंद इरादों से कभी पीछे न हटने वाली सरकार के अहंकार को घुटनों पर लाया है और यह घोषणा उसकी तस्दीक करती है. किसानों की जीत इसमें भी है कि उन्हें पहली बार देश के मुखिया ने किसान माना और कहा कि किसान अब अपने घरों को लौटें. उन्होंने यह नहीं कहा कि खालिस्तानी, मवाली, गुंडे, आतंकवादी, विदेशी फंडिंग से स्लीपर सेल के लोग घर लौटें. इसे भी एक बड़ी जीत की तरह देखा जाना चाहिए कि प्रधानमंत्री ने माना कि लोकतन्त्र में एक भी असहमति का स्वर मायने रखता है. बहरहाल आंदोलन की जीत के इन पहलुओं के अलावा बहुत कुछ ऐसा है जिसे आज के संबोधन से समझा जाना चाहिए.
कृषि कानूनों को रद्द करने के लिए आगामी सत्र का इंतजार करना?
इस घोषणा में रद्द किए जाने की घोषणा भी की जा सकती थी. एक अध्यादेश लाकर इन्हें तत्काल रद्द किया जाना इतना मुश्किल काम नहीं था. यहां कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने ठीक ही कहा है कि अगर प्रवर्तन निदेशालय, सीबीआई के निदेशकों की कार्यावधि बनाने के लिए अध्यादेश लाये जा सकते हैं और जिसके लिए संसद के आगामी सत्र का इंतजार नहीं किया जा सकता तो कृषि कानूनों को रद्द करने के लिए क्यों संसद के सत्र का इंतजार किया जा रहा है. जब भूमि अधिग्रहण कानून 2013 को बदलने के लिए अध्यादेश लाये जा सकते हैं तो इन कानूनों के लिए भी क्या आज ही अध्यादेश नहीं लाया जा सकता? महज 14 दिनों बाद संसद का सत्र प्रस्तावित है.
यह पूछना यहां भी उतना ही मौंजूं है जितना ऐसी अन्य घोषणाओं मसलन नोटबंदी, लॉकडाउन आदि के दौरान था कि प्रधानमंत्री जब इस निर्णय तक पहुंचे तो उसकी संवैधानिक प्रक्रिया क्या रही? यानी क्या इस फैसले से पहले कैबिनेट की कोई बैठक हुई? क्या कैबिनेट ने इस पर मुहर लगाई? अन्यथा जहां एक तरफ किसान आंदोलन और सत्य की जीत का जश्न होगा वहीं इस बात की स्वीकार्यता भी होती कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतन्त्र में निर्णय प्रक्रिया इस तरह एकांगी और एक व्यक्ति के अधीन हो चुकी है.
संसद से पारित और देश की सर्वोच्च संस्था राष्ट्रपति से अनुमोदित कानूनों को एक व्यक्ति महज अपनी छवि बनाने के लिए और आगामी चुनावों में उनका फायदा उठाने के लिए एक घोषणा मात्र से इन संवैधानिक संस्थाओं को धता बता सकता है तो यह तात्कालिक जीत के जश्न में दीर्घकालीन संवैधानिक व्यवस्था के लिए कितना ठीक होगा?
निस्संदेह, किसान आंदोलन ने इसका स्वागत करते हुए भी इस घोषणा की समीक्षा और आगे की रणनीति बनाने पर जोर दिया है और पूरे देश को इस बात पर यकीन है कि ये तात्कालिक जीत एक आगाज भर है अभी देश के प्रधानमंत्री को ऐसा बहुत कुछ करना होगा जिसे असल अर्थों में प्राश्यचित्त कहा जा सकता हो.
अंधाधुंध प्रचार से बदलेगी हवा?
इस घोषणा में अगर एक बात जिस पर सभी लोग एकमत होंगे वो है कि यह पांच राज्यों के आगामी चुनावों के मद्देनजर की गयी है. विशेष रूप से पंजाब और उत्तर प्रदेश. भाजपा के आंतरिक सर्वे में कई बार यह बात सामने आ चुकी है कि किसान आंदोलन उसे भारी नुकसान पहुंचाने जा रहा है. इसके अलावा हाल ही में सम्पन्न हुए उप-चुनावों ने भी इस आंकलन पर मुहर लगाई.
इसलिए आज की घोषणा के लिए प्रकाश पर्व का दिन चुना गया और इस घोषणा के बाद नरेंद्र मोदी उत्तर प्रदेश में चार दिनों के लंबे प्रवास पर जा रहे हैं. आज से लेकर आगामी संसद सत्र तक देश के ‘उन कुछ लोगों’ के खिलाफ पर्याप्त माहौल बनाया जा सकेगा जिनके चलते किसानों के हित में लाये गए इन कानूनों को रद्द करना पड़ा.
भाजपा एनआईआईटी कॉर्पोरेट मीडिया आज सुबह से ही मुजफ्फनगर और अंबाला और नोएडा से दूर ऐसी कई जगहों पर अपने स्टार प्रस्तोताओं के साथ पहुंच चुकी थी, जिसमें यह संदेह बाकी नहीं रह जाता कि इन्हें पहले से बता दिया गया था कि फील्डिंग कहां करनी है.
अब यह फील्डिंग स्टूडियो से लेकर जमीनी स्तर पर सजी रहेगी और और ‘उन कुछ लोगों के खिलाफ’ धारणा का जबरदस्त निर्माण होगा जिसके लपेटे में मौजूदा विपक्ष भी आयेगा. क्योंकि यह विपक्ष का आंदोलन साबित किया जाएगा.
अब देखना है कि किसान आंदोलन का नेतृत्व इसे किस रूप में देखता है और कितना एतबार इस घोषणा पर करता है. हालांकि संयुक्त किसान मोर्चा ने परिस्थितियों को भांपने और उनका सामना करने में जिस तरह से विवेक से काम लिया है इसमें कोई संदेह नहीं रह जाता कि वो इस नयी परिस्थिति में भी व्यापक राजनैतिक बदलाव की आधारशिला ही रखेंगे.
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