Opinion
मुक्तिबोध की जाति पर दिलीप मंडल और प्रियदर्शन को उनके एक मुरीद का संदेश
मुक्तिबोध की जाति का प्रसंग खत्म होने का नाम नहीं ले रहा. मुझे सिर्फ तीन बातों पर हैरानी है. पहली यह कि मुक्तिबोध की कविताओं की ओजस्विता और साहस की उनकी जाति से हत्या करने की कोशिश की गई है. दूसरी यह कि पॉलिटिकली इनकरेक्ट करार दिए जाने के डर से हिंदी की लेखक बिरादरी ने इस पर खामोश रहने का घामड़पन दिखाया. लेकिन मेरी तीसरी हैरानी बहुत बड़ी चिंता भी है. और वह चिंता है तथ्य से खिलवाड़ के खिलाफ आवाज उठाने वाले दो पत्रकारों पर बजरंगी दलित हितैषियों का फूहड़ हमला. इस हमले की महीन परतों की विस्तार से पड़ताल होनी चाहिए. क्योंकि इस हमले के चक्कर में हमारे बीच प्रगतिशील दिखने वाले बहुत सारे लोग नंगे नजर आने लगे हैं.
अभिषेक और विश्वदीपक पर हमला बोलने वाले अपने-अपने गिरेबानों में झांकें. यह याद दिलाना जरूरी है कि जब बड़े-बड़े ब्राह्मणवादी दलित चिंतक बड़े-बड़े ब्राह्मण दरबारों में मजे से चाकरी कर रहे थे तब अभिषेक और विश्वदीपक दोनों ने अपने-अपने दिल की सुनी. आप गूगल कर लीजिए. किस बजरंगी दलित हितैषी की हिम्मत है जो इनकी प्रगतिशीलता पर कीचड़ उछाले? किसकी हिम्मत है जो उन्हें जातिवादी कहे?
अभिषेक और विश्वदीपक का अपराध क्या है? यही कि डॉक्टर दिलीप मंडल ने फतवा जारी किया कि मुक्तिबोध कुशवाहा हैं और उन्हें यह अजीब लगा. क्या वो यह साबित करने लगते कि नहीं मुक्तिबोध महान हैं उन पर ऐसी बात नहीं होनी चाहिए? क्या वाकई मुक्तिबोध को महान बताने के लिए अभिषेक और विश्वदीपक की जरूरत थी. हिंदी के लेखक मर गए थे? लेकिन उन्होंने चूं नहीं की. क्यों नहीं की? इसे समझना मुश्किल नहीं है.
विश्वदीपक ने उस आधार को ही खत्म करने की कोशिश की जिस पर मुक्तिबोध को घसीटने की कोशिश हो रही थी. आप एक पत्रकार के तौर पर और क्या करेंगे? उस आधार की खोज में विश्वदीपक उनके बेटे तक पहुंचे. और उसने क्या निकाला? यही ना कि इस पर बहस फिजूल है. वो आजीवन जातिविरोधी रहे. वामपंथी रहे. डिक्लास रहे. उसकी पहली ही लाइन है “हालांकि यह पूछना शर्मनाक है.” इस लाइन में एक महान लेखक को गलत धरातल पर जज किए जाने की बेचैनी दिखती है.
इस संवेदनशीलता के लिए प्रियदर्शन अभिषेक और विश्वदीपक को मूर्ख बता रहे हैं. प्रियदर्शन और डॉक्टर दिलीप मंडल दोनों पत्रकारिता के बुनियादी उसूलों को दरकिनार कर अभिषेक और विश्वदीपक के शिकार पर निकल पड़े. और उनके पीछे चल पड़ा अनुयायियों का एक ऐसा रेला जिसे फैक्ट नाम की चिड़िया से कोई लेना-देना नहीं.
मुश्किल यह है कि जब आप विचारों और तथ्य के स्तर पर गलत साबित हो गए तब भी शालीनता से बात वापस नहीं ली. घाघ तरीके से कहने लगे कि हम आपकी जांच कर रहे थे. इसे खीझ उतारना कहते हैं. कमाल की बात यह है कि ऐसे लोग हर जगह पर फैक्ट की बात करते हैं. पत्रकार होने का दावा करते हैं. क्या प्रियदर्शन एनडीटीवी में ऐसा “तीर” चला लेंगे? या डॉक्टर दिलीप मंडल इंडिया टुडे, स्टार न्यूज में चला लेते? नहीं, वहां वो फैक्ट दुरुस्त करने के लिए लाखों रुपए की पगार लेते रहे.
मंडलजी को याद होगा रोहित वेमुला की हत्या के बाद संसद में बहस चल रही थी. तत्कालीन मानव संसाधन मंत्री स्मृति ईरानी ने संसद में कहा कि जांच कमेटी में चार लोग हैं. एक दलित प्रोफेसर भी हैं. उनका नाम भी बताया. सारे अखबारों और चैनलों पर पूरे दिन वही चलता रहा. लेकिन विश्वदीपक की तरह ही एक पत्रकार ने जांच कमेटी के सभी सदस्यों को फोन मिला दिया. सबसे उनकी जाति पूछी. जिन्हें दलित बताया जा रहा था वो भी सवर्ण निकले थे. अगले दिन हंगामा मच गया. अगर मंडलजी स्मृति ईरानी के सलाहकार होते तो आसान सा फॉर्मूला बता देते कि मैडम कह दीजिए मैं टेस्ट ले रही थी. और पूरा देश टेस्ट में फेल हो गया. वो तो शिक्षा मंत्री भी थीं. टेस्ट लेने का अधिकार था उनके पास. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी तक्षशिला से लेकर गोरखनाथ तक पर देश का “टेस्ट” ले चुके हैं. योगी आदित्यनाथ ने अभी-अभी चंद्रगुप्त मौर्य पर टेस्ट लिया है.
मंडलजी अपनी सहूलियत से विस्मृतियों के शिकार हो जाते हैं. केवल तीन महीने पहले उन्होंने एनडीटीवी के संकेत उपाध्याय पर हमला बोल दिया था. क्योंकि वह बोल गए थे कि आरक्षण केवल दस साल के लिए लागू हुआ था. यह वाकई तथ्यात्मक तौर पर गलत था. तब मंडलजी फैक्ट पर मर मिटे थे. संकेत को ट्यूशन देने की बात करने लगे थे. उन्हें आरक्षण के तहत आया जर्नलिस्ट बता दिया. उनके पिता तक पहुंच गए. हालांकि संकेत भी कह सकते थे कि मैं टेस्ट ले रहा था. और एक लाइन में कह देते कि दिलीप मंडल फेल हो गए.
खैर, मंडल जी ने संकेत के बारे में कोई पड़ताल नहीं की. संकेत ने बाकायदा सार्वजनिक तौर पर कहा था कि दलितों के उत्पीड़न के अपराध से मुक्त होने के लिए ब्राह्मण जो पहला काम कर सकते हैं वो ये कि अपना जनेऊ तोड़ दें और सार्वजनिक तौर पर बिना शर्त माफी की मांग करें. आपको क्या यह बात मजाक लगती है? कल को अगर समरेंद्र सिंह ने आपको तथ्यों के आधार पर गलत साबित कर दिया या आपकी आलोचना कर दी तो आप उन पर यह कहकर हमला कर देंगे कि वो क्षत्रिय हैं? यही ब्राह्मणवाद का मूल है. कि जो आप जानते हैं वो अंतिम है और अगर कोई इस जानकारी के दायरे का अतिक्रमण करता है तो अपराधी है, दुश्मन है. इसी ब्राह्मणवादी सोच के तहत विश्वदीपक और अभिषेक का शिकार करने की गंदी कोशिश हुई है.
क्या वाकई मुक्तिबोध की जाति को किसी बौद्धिक विमर्श के लिए उछाला गया? नहीं. आप गौर कीजिए सबसे बड़ी आपत्ति क्या थी. कि कुशवाहा मुक्तिबोध के कवि सम्मेलन में सारे कवि पंडित. यही ना? इसके बाद तमाम बजरंगी दलित हितैषी ‘अंधेरे में’ उतरते चले गए. मतलब अगर मणिका दुबे की जगह मणिका बौद्ध होतीं, किशोर तिवारी की जगह किशोर ठाकुर होते, भरत पंडित की जगह भरत प्रजापति होते और मनोज शुक्ला की जगह मनोज पासवान होते तो कोई दिक्कत नहीं थी. सब मेधावी कहलाते. तब छत्तीसगढ़ की सरकार क्रांतिकारी कहलाती. आपकी पूरी बौद्धिकता के ऐतराज के बिंदु यही थे ना.
इस पूरे प्रसंग में प्रियदर्शन का सामने आना वाकई परेशान करने वाला है. प्रियदर्शन बहुत शालीन व्यक्ति हैं. वो कभी भी किसी की आलोचना नहीं करते. और लेखकों की तो हरगिज नहीं. वो अपनी बिरादरी से कभी नहीं पूछते कि पार्टनर तुम्हारी पॉलिटिक्स क्या है. जाति तो हरगिज नहीं पूछते. इसीलिए वह डॉक्टर दिलीप मंडल के बिछाए जाल में फंस गए.
इसकी वजह बताता हूं. जब अनामिका को साहित्य अकादमी का पुरस्कार मिला तो विश्वदीपक ने एक लंबा लेख लिखा. उन दिनों किसान आंदोलन अपने उरूज पर था. उसने लिखा कि कैसे हिंदी पट्टी के सबसे बड़े लेखक और कवि जनता के बड़े सवालों और चिंताओं से कटे हुए हैं. उसने सवाल उठाया था कि हमारे समय का सबसे बड़ा कवि क्यों न दलित उत्पीड़न पर कुछ बोलता है, न नौजवानों पर लाठीचार्ज पर, न अल्पसंख्यकों को रौंदे जाने पर, न स्त्री उत्पीड़न पर. ये हिंदी का कैसा कवि है? कमाल की बात है कि देश के शिक्षा मंत्री रमेश पोखरियाल निशंक की किताब भी साहित्य अकादमी पुरस्कार की अंतिम सूची में शामिल थीं. अनामिका को जिस “दिगंत में टोकरी” के लिए पुरस्कार दिया गया वो बाज़ार में कहीं उपलब्ध नहीं थी. प्रियदर्शन इस पर चुप थे. क्योंकि पंडित अनामिका की शान में आयोजित जलसे में शामिल बड़े-बड़े क्रांतिकारियों के साथ प्रियदर्शन भी थे.
प्रियदर्शन अनामिका के बहुत बड़े मुरीद हैं. यकीन न हो तो आप उनकी वॉल पर जाकर आगे-पीछे देख लीजिए. प्रियदर्शन बहुत आगे-पीछे देखकर चलते हैं. वो अभिषेक और विश्वदीपक की तरह नहीं हैं कि दिल के हाथों लुट जाएं. तपाक से लिख दें या बोल दें. जाहिर सी बात है विश्वदीपक का लेख अनामिका तक भी पहुंचा होगा. क्योंकि उन दिनों पूरी हिंदी पट्टी में एक भी लेखक ऐसा नहीं था जो इस नजरिए से लेखन और लेखक को देख रहा हो. प्रियदर्शन ने उस वक्त विश्वदीपक को नॉन एंटिटी की तरह ट्रीट किया. दिलीप मंडल के जरिए उन्हें फिर से मौका हाथ लगा.
डॉक्टर मंडल के अनुयायियों की संख्या अपार है. वह अलग-अलग तरीके से उन्हें संबोधित करते रहते हैं. जो चिंताजनक है वो यह कि प्रियदर्शन ने उनके अपार अनुयायियों का समर्थन या आकर्षण हासिल करने के लिए अभिषेक और विश्वदीपक पर ही हमला नहीं बोला, मुक्तिबोध पर भी हमला बोल दिया. मुक्तिबोध की प्रशंसा में महाआख्यान लिखते हुए वह बहुत होशियारी से उनकी पूरी लेखकीय यात्रा पर सवाल खड़े कर देते हैं. वह क्या लिखते हैं? वो लिखते हैं कि “अगर वे (मुक्तिबोध) दलित होते तो क्या ‘अंधेरे में’ के भीतर जिस जुलूस का जिक्र है, उसका नेतृत्व करने वाले का नाम ‘डोमाजी उस्ताद’ होता या कुछ और होता? क्या यह सच नहीं है कि हमारी जातिगत संरचनाएं हमारी मनोरचनाओं का भी चुपचाप निर्माण करती रही हैं जिनके कुछ रूप अचेत ढंग से हमारे लेखन में दिखने लगते हैं?”
जो प्रियदर्शन पंडित अनामिका की शान में पोथियां लिख देते हैं वो मुक्तिबोध पर जातिवादी होने की तोहमत जड़ देते हैं. जरा सोचकर देखिए वो कुशवाहा निकल गए होते तो इनका क्या होता. मतलब ‘ब्रह्मराक्षस’ लिखने से मुक्तिबोध जातीयता से मुक्त नहीं होते लेकिन ‘डोमाजी उस्ताद’ लिख देने से वो प्रियदर्शन के लिए संदिग्ध हो जाते हैं.
पॉलिटिकल लोकेशन को समझिए. जो समस्या कन्हैया के भक्तों की है वही दिलीप मंडल के अनुयायियों की भी है. कन्हैया के भक्त क्या कहते हैं? कि जहां-जहां वह जाते हैं उसी को प्रगतिशीलता माना जाए. मतलब कन्हैया प्रगतिशीलता के सर्टिफिकेट हैं. आप लिखकर ले लीजिए कल को वह बीजेपी या जेडीयू में भी चले गए तो उसको भी भाई लोग कम्युनिस्ट पार्टी से ज्यादा क्रांतिकारी कहने लगेंगे.
दिलीप मंडल के साथ भी यही है. वह जातिवादी विमर्श के शाही इमाम बनकर रहना चाहते हैं. एक जमाना था जब शाही इमाम के फतवे पर मुसलमान पागल हो जाते थे. फिर वो भी भी दिन आया जब इमाम साहब जामा मस्जिद की राजनीति में भी अप्रासंगिक हो गए. पंडीजी लोग भी यही करते रहे हैं. वो विमर्श को सत्यनारायण की कथा समझते हैं. कि अगर ब्राह्मण नाराज हो गया तो घरबार लुट जाएगा, व्यापार में नुकसान हो जाएगा, पति मर जाएगा यहां तक कि अगला जन्म भी खराब हो जाएगा. सबको पता है कि इस देश में न सत्यनारायण की कथा बंद होने वाली है और ना ही फतवेबाजी. लेकिन पढ़े लिखे लोगों को दोनों ही से बाज आना चाहिए.
आपका समाधान क्या है? वही जो भारतीय जनता पार्टी और संघ की वैचारिकी का है? कि मुसलमानों को अरब सागर में फेंक देना चाहिए क्योंकि उनके पुरखों ने भारत के लोगों पर अत्याचार किए थे? दिलीप मंडल तो पोल के मास्टर हैं. वो पोल कर लें कि क्या ब्राह्मणों को दलित उत्पीड़न के अपराध के लिए इस देश से बाहर कर देना चाहिए. उनके अनुयायी टूटकर कहेंगे हां. तो क्या इसको मान लिया जाए? यह वैसा ही है जैसे आप पोल करें कि क्या किसी बलात्कार के आरोपी को चौराहे पर फांसी दे देनी चाहिए. लोग कहेंगे हां. दरअसल ये भावनाओं के साथ खेलना है. आप जवाब सोचकर सवाल पूछते हैं. और अपनी चालाकी को जनता के माथे पर डालकर लोकतांत्रिक बने रहते हैं. यही तो संघ और बीजेपी कर रही है. फिर दिक्कत क्या है? कहां है?
दिलीप मंडल तो तमिलनाडु में दलितों को पुजारी बनाए जाने पर भी लट्टू हो जाते हैं. यह बाबा साहब की शिक्षाओं में आग लगा देने जैसा है. आप ऐसी व्यवस्था को जातिभेद विमुक्ति का रास्ता तभी मान सकते हैं जब अपने आपको चेतना और बौद्धिकता के स्तर पर बाबा साहेब से ऊपर मान लें. कल को ये लोग साबित कर देंगे कि देश में दलितों का राज आ चुका है. 131 में से 77 दलित-आदिवासी लोकसभा सांसद बीजेपी के है. एक पिछड़ा चाय वाला गरीब प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठा हुआ है. एक दलित राष्ट्रपति की कुर्सी पर है. बाबा साहेब की सबसे बड़ी फोटो मायावती नहीं, संघ अपने मंचों पर लगा रहा है. पांचजन्य आंबेडकर विशेषांक निकाल रहा है. एक दिन ऐसे लोग पूछ देंगे दलित राज और कैसा होता है? आप कहेंगे ऐसा नहीं होता है तो उनके अनुयायी आप पर हमला कर देंगे. प्रियदर्शन आपको “बेचैन और अशांत” कहकर नॉन एंटिटी साबित कर देंगे.
मायावती के मंचों पर बजता हुआ शंख किसके अनुयायियों को जातिभेद मुक्ति का प्रस्थान बिंदु नजर आ रहा है? बीएसपी के मंच पर देशस्थ ब्राह्मण शंख बजा रहे थे. जिनसे इतने चिढ़ गए दिलीपजी. मंत्रोच्चार से मायावती का स्वागत किया गया. उन्होंने पंडितों की थमाई हुई तलवार भी उठाई और गणेश की मूर्ति का अनुष्ठान भी किया. उन्होंने एलान किया कि कांशीराम की बीएसपी ब्राह्मणों को न्याय दिलाने के लिए मैदान में उतरेगी. हम रिकॉर्ड संख्या में ब्राह्मणों को विधानसभा और संसद में पहुंचाएंगे. उन्होंने एक बार भी दलित उत्पीड़न का जिक्र नहीं किया. पूना पैक्ट में बाबा साहेब के साथ हुए धोखे को मायावती ने अंजाम तक पहुंचा दिया है. कांशीराम की बनाई हुई पार्टी के लिए तीन दशक में दलित शोषित से शोषक हो गए. क्या हम पूछ नहीं सकते कि दलितों ने किसका शोषण किया है? और आप इसे दलित चेतना साबित करने पर आमादा हैं.
दिलीपजी हम सब आपके मुरीद हैं. लेकिन कई बार उसी स्पेस में हम असहमत भी हो सकते हैं. लेकिन आप असहमति को आक्रमण मान लेते हैं. आप अनुयायियों से घिरे रहते हैं. और उन्होंने आपको यकीन दिला दिया है कि आपको साथियों की नहीं भक्तों की जरूरत है. जबकि सचेतन बदलाव केवल साथियों के दम पर आते हैं. विश्वदीपक और अभिषेक ने इससे इंकार किया तो आपने उनपर हमला बोल दिया. यह ठीक नहीं था. इसे सदाशयता के साथ स्वीकार करके आगे बढ़ जाते. जब बाबा साहब और गांधी वृहतर सवालों के परिप्रेक्ष्य में किसी बिंदु पर साथ आ सकते हैं तो हम सब क्यों नहीं.
गुस्सा छोड़ दीजिए. इस प्रसंग को यहीं स्थगित कीजिए. आप पर आरोप है कि आप खर्च नहीं करते. आप एक अच्छा आयोजन कीजिए. अभिषेक और विश्वदीपक को बुलाइए. उन्हें जी-भरके गालियां दीजिए, और गले से लगाइए. प्रियदर्शनजी को भी बुलाइए. वह हम सबसे बड़े हैं. या कहें हम सब उनके सामने बच्चे हैं. लड़ने-झगड़ने का अधिकार हमारा है, उनका नहीं. उन्हें इस बात के लिए चिंतित होना चाहिए कि हमने लड़ना छोड़ क्यों दिया. सवाल उठाना क्यों छोड़ दिया. हमारी खबर आनी क्यों बंद हो गई. मेरा अनुरोध है कि पर्यवेक्षक के तौर पर मुझे और समरेंद्र सिंह को भी बुलाया जाए. इस दुनिया में बहसों की गुंजाइश वैसे भी कम होती जा रही है. इसको और कम न किया जाए. अगर हम आपस में लड़ते रहे तो किसी दिन संघ आंबेडकर की पटेल से भी ऊंची मूर्ति नागपुर मुख्यालय में लगवा देगा और हम सब आपके नेतृत्व में वहां उनकी आरती उतारने जाया करेंगे.
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