Opinion
जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बचना है तो विकसित देशों को पैसा खर्च करना ही होगा
ग्लासगो जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के औपचारिक समापन के अब पांच दिन भी नहीं बचे हैं लेकिन अभी तक क्लाइमेट फाइनेंस– जो कि वार्ता में सबसे मुद्दा है अटका हुआ है. चाहे मामला साफ ऊर्जा क्षमता विकसित करने का कहो या फिर नेट जीरो टारगेट हासिल करने का विकासशील और गरीब देश स्पष्ट कह चुके हैं कि ये काम बिना पैसे के नहीं हो सकता. चूंकि विकसित और बड़े देश अब तक स्पेस में जमा हुये कार्बन के लिये सबसे अधिक जिम्मेदार हैं और आर्थिक तरक्की कर चुके हैं इसलिए अगर कोयले का प्रयोग रोकना है और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से बचना है तो अमीर और बड़ी अर्थव्यवस्थाओं को अपनी जिम्मेदारी निभानी ही होगी.
वादे अरबों रूपए के पर असल में कुछ नहीं
पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने सोमवार के अमीर देशों से गरीब देशों को क्लाइमेट फाइनेंस पर मदद की अपील की. वैसे अंतरराष्ट्रीय वार्ता के इस प्लेटफॉर्म पर लंबे समय से विकसित देशों ने बड़ी-बड़ी बातें की हैं. क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क (साउथ एशिया) के निदेशक संजय वशिष्ठ कहते हैं, “2009 में ही कोपेनहेगन सम्मेलन के वक्त गरीब और विकासशील देशों को हर साल 100 बिलियन डॉलर की मदद की बात कही गई थी ताकि ये देश क्लाइमेट चेंज के प्रभावों से लड़ सकें लेकिन इसे जमीन पर साकार करने में कोई ईमानदारी नहीं बरती गई.”
इसलिए एक पूर्व राष्ट्रपति के बयान से अधिक महत्वपूर्ण यह होगा कि जो बाइडेन और यूरोपीय देशों के प्रमुख क्या कहते और करते हैं. असल में विकासशील देश कहे जाने वाले चीन और भारत इस वक्त पहले और तीसरे नंबर के कार्बन उत्सर्जक हैं. जहां चीन दुनिया के कुल इमीशन के 30% के लिये जिम्मेदार है वहीं भारत दुनिया के कुल उत्सर्जन का 7% करता है. अमेरिका और यूरोपीय यूनियन (जो मिलाकर दुनिया के कुल इमीशन का 21% कार्बन छोड़ते हैं) ने 2050 तक नेट जीरो का लक्ष्य हासिल करने की बात कही है. चूंकि चीन ने 2060 और भारत ने 2070 को अपना नेट जीरो साल बताया है इसलिये भी विकसित देश फाइनेंस में आनाकानी कर रहे हैं. इसलिये ओबामा ने भी जहां गरीब देशों की वित्तीय मदद की अपील की वहीं चीन और रूस की इस बात के लिये आलोचना की कि वह अपने इमीशन रोकने के लिये कोई आपात कोशिश नहीं की है.
भारत ने आपात कदम की मांग की
भारत ने सम्मेलन में क्लाइमेट फाइनेंस के दायरे के साथ रफ्तार को बढ़ाने की मांग की है. भारत ने ग्लासगो सम्मेलन में कहा कि अमीर देशों ने साल 2020 से प्रतिवर्ष 100 बिलियन (10,000 करोड़) डॉलर देने की बात 2009 में कही थी लेकिन वह वादा पूरा नहीं किया गया है. भारत ने यह सम्मेलन में चेताया है कि विकसित देश क्लाइमेट फाइनेंस पर फिर से मोलतोल की कोशिश कर रहे हैं. असल में विकसित देशों के अब तक के रवैये से जो अविश्वास का माहौल बना है उससे विकासशील देश का काफी असहज हैं.
पेरिस सम्मेलन में यह तय हुआ था कि विकसित देश ही विकासशील देशों को साफ ऊर्जा के संयंत्र लगाने और जलवायु परिवर्तन के प्रभावों से लड़ने के लिये फंड और टेक्नोलॉजी देंगे लेकिन हिन्दुस्तान टाइम्स की खबर के मुताबिक विकसित देश चाहते हैं कि 2025 से भारत, चीन और सऊदी अरब जैसे देश डोनर (दानकर्ता) की श्रेणी में रखे जायें. ऐसा होता है तो जाहिर तौर पर यह क्लाइमेट फाइनेंस को रोकने के लिये दबाव की रणनीति होगी.
क्लाइमेट चेंज निचोड़ रहा है विकाशील देशों को
आर्थिक नजर से देखें तो क्लाइमेट चेंज की मार सबसे अधिक गरीब देशों पर पड़ रही है. इनमें छोटे द्वीप समूह, अफ्रीकी और लैटिन अमेरिकी देश और दक्षिण एशिया प्रमुख हैं. यहां जलवायु प्रभावों के कारण चक्रवाती तूफानों, सूखे या बाढ़ की घटनाओं और समुद्र सतह के बढ़ने या ग्लेशियरों के पिघलने से पैदा संकट आर्थिक चोट पहुंचा रहा है. उनके शहर डूब रहे हैं, मजदूरों की कार्यक्षमता प्रभावित हो रही है, खेती बर्बाद हो रही है और विस्थापन के कारण समस्याएं पैदा हो रही हैं. इसीलिये देश क्लाइमेट फाइनेंस की मांग कर रहे हैं क्योंकि स्पेस में पिछले डेढ़ सौ सालों में अधिकांश कार्बन विकसित देशों ने ही जमा किया है.
भारत ने सम्मेलन की शुरुआत में ही इसे रेखांकित करते हुये क्लाइमेट फाइनेंस की रकम 1 लाख करोड़ डॉलर और कड़ी मॉनीटरिंग की मांग कर दी. भारत के जलवायु परिवर्तन मंत्री ने कहा कि 2009 में तय की गई रकम को अभी क्लाइमेट फाइनेंस के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता. इसे कम से कम एक ट्रिलियन (यानी तय रकम का 10 गुना) होना चाहिये और इसके लिये मजबूत निगरानी व्यवस्था (मॉनीटरिंग मैकेनिज्म) होना चाहिये.
(साभार- कार्बन कॉपी)
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