Opinion
कॉप-26: भारत के नए जलवायु लक्ष्य- साहसिक, महत्वाकांक्षी और दुनिया के लिए एक चुनौती
2070 तक शुद्ध शून्य उत्सर्जन (नेट जीरो एमिशन) हासिल करने की भारत की प्रतिबद्धता से यह साफ है कि बातें बहुत हो चुकी हैं, अब तेजी से काम शुरू कर देना चाहिए.
कॉप 26 में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए एक रणनीति की घोषणा की जिसे उन्होंने पंचामृत कहा है.
इसमें शामिल है:
• भारत 2030 तक अपनी गैर-जीवाश्म ऊर्जा क्षमता 500 गीगावाट तक पहुंचा देगा.
• भारत 2030 तक अपनी ऊर्जा आवश्यकताओं का 50 प्रतिशत नवीकरणीय (रिन्यूएबल) ऊर्जा से पूरा करेगा.
• भारत अब से 2030 तक कुल अनुमानित कार्बन उत्सर्जन में एक अरब टन की कमी करेगा.
• 2030 तक भारत अपनी अर्थव्यवस्था की कार्बन तीव्रता को 45 प्रतिशत से भी कम कर देगा.
• वर्ष 2070 तक भारत नेट जीरो के लक्ष्य को प्राप्त कर लेगा.
भारत के जलवायु परिवर्तन के ये लक्ष्य प्रशंसनीय हैं और अब भारत ने समृद्ध दुनिया के पाले में गेंद डाल दी है कि अब उनकी बारी है. ऐसा इसलिए कहा जा सकता है, क्योंकि ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन में भारत का ऐतिहासिक योगदान नहीं रहा है.
1870 से 2019 तक, भारत का उत्सर्जन वैश्विक कुल के मुकाबले 4 प्रतिशत तक बढ़ा है. हालांकि भारत को 2019 में दुनिया के तीसरे सबसे बड़े प्रदूषक के रूप में जाना गया, लेकिन भारत का कार्बन डाइऑक्साइट उत्सर्जन 2.88 गीगाटन था, वहीं पहले नंबर पर रहे चीन का सीओ2 उत्सर्जन 10.6 गीगाटन था और अमेरिका का सीओ2 उत्सर्जन 5 गीगाटन था. ऐसे में इन देशों से भारत की तुलना नहीं की जानी चाहिए. वह भी तब, जब हमें अपनी अर्थव्यवस्था को विकसित करने और अपने लाखों लोगों की ऊर्जा की जरूरतों को पूरा करने की बहुत आवश्यकता है.
इसलिए, हर कोण से देखा जाए तो हमें अपने कार्बन उत्सर्जन को कम करने के लिए इन वैश्विक लक्ष्यों को नहीं लेना था. यही कारण है कि भारत के लिए इसे हासिल करना न केवल एक चुनौती है, बल्कि दुनिया के लिए भी इसका अनुसरण करना भी एक चुनौती है.
लेकिन, इन महत्वाकांक्षी लक्ष्यों का क्या मतलब है? इस बारे में बात करते हैं-
• 2030 तक 500 गीगावाट गैर-जीवाश्म ईंधन ऊर्जा क्षमता क्या भारत इस लक्ष्य को पूरा करेगा.
भारत के केंद्रीय विद्युत प्राधिकरण (सीईए) ने 2030 के लिए देश के ऊर्जा सम्मिश्रण के लिए एक अनुमान लगाया है. इसके अनुसार, बिजली उत्पादन के लिए गैर-जीवाश्म ऊर्जा की भारत की स्थापित क्षमता (सौर, पवन, जलविद्युत और परमाणु) 2019 में 134 गीगावाट थी, जो 2030 तक 522 गीगावाट हो जाएगी.
इसके लिए सौर ऊर्जा की स्थापित क्षमता को 280 गीगावाट और पवन ऊर्जा को 140 गीगावाट तक जाने की आवश्यकता होगी. इसके अनुसार 2030 तक कुल स्थापित क्षमता 817 गीगावाट और बिजली उत्पादन 2518 अरब यूनिट होगा. सीईए के इस अनुमान को देखते हुए भारत 2030 तक अपनी 500 गीगावाट गैर-जीवाश्म ईंधन ऊर्जा क्षमता को पूरा कर सकता है.
• भारत अक्षय ऊर्जा से 50% ऊर्जा आवश्यकताओं को पूरा करेगा: भारत कोयला स्रोत में निवेश नहीं करने का इरादा रखता है
सीईए के अनुसार, 2019 में भारत अपने बिजली उत्पादन का 9.2 प्रतिशत अक्षय ऊर्जा से पूरा कर रहा था. 2021 तक, अक्षय ऊर्जा क्षमता में 102 गीगावाट की वृद्धि के साथ उत्पादन लगभग 12 प्रतिशत तक बढ़ गया. इसका मतलब है कि हमें 2030 तक 50 प्रतिशत बिजली उत्पादन लक्ष्य को पूरा करने के लिए इसे बढ़ाने की आवश्यकता है.
2030 में भारत की बिजली की आवश्यकता 2518 अरब यूनिट होने का अनुमान है और यदि हम अक्षय ऊर्जा से अपनी 50 प्रतिशत आवश्यकताओं को पूरा करने का लक्ष्य रखते हैं, तो स्थापित क्षमता को 450 गीगावाट से बढ़ाकर 700 गीगावाट करना होगा. यदि हम जलविद्युत को नवीकरणीय ऊर्जा का हिस्सा मानते हैं- जैसा कि विश्व स्तर पर माना जाता है, तो हमें नई अक्षय ऊर्जा की क्षमता को बढ़ाकर 630 गीगावाट करने की आवश्यकता होगी. यह निश्चित रूप से हासिल किया जा सकता है.
2030 के लिए भारत ने जो लक्ष्य तय किया है, उसे हासिल करने के लिए भारत को अपनी कोयला आधारित ऊर्जा पर रोक लगानी होगी. वर्तमान में, लगभग 60 गीगावाट क्षमता के कोयला ताप विद्युत संयंत्र निर्माणाधीन हैं या पाइपलाइन में है. सीईए के अनुसार 2030 तक भारत की कोयला क्षमता 266 गीगावाट हो जाएगी, जो निर्माणाधीन 38 गीगावाट के अतिरिक्त हैं. इसका मतलब है कि भारत ने कहा है कि वह इससे आगे अब नए कोयला संयंत्रों में निवेश नहीं करेगा.
• भारत 2021-2030 तक अनुमानित कार्बन उत्सर्जन में 1 अरब टन की कमी करेगा: यह भी संभव है, साथ ही, इसका पालन करने की चुनौती भी दुनिया को दी गई है.
भारत का वर्तमान कार्बन डाइऑक्साइड (सीओ2) उत्सर्जन (2021) 2.88 गीगा टन है. पिछले दशक 2010-2019 में परिवर्तन की औसत वार्षिक दर के आधार पर सेंटर फॉर साइंस एंड एनवायरमेंट (सीएसई) ने एक अनुमान लगाया था, जिसके अनुसार यदि सब कुछ सामान्य रहता है, तब 2030 तक भारत का कार्बन डाइऑक्साइड उत्सर्जन 4.48 गीगाटन होगा. इस नए लक्ष्य के अनुसार, भारत अपने कार्बन उत्सर्जन में 1 अरब टन की कटौती करेगा. यानी कि 2030 में हमारा उत्सर्जन 3.48 गीगाटन होगा. इसका मतलब है कि भारत ने अपने उत्सर्जन में 22 फीसदी की कटौती करने का महत्वाकांक्षी लक्ष्य रखा है.
प्रति व्यक्ति की दृष्टि से: भारत का प्रति व्यक्ति सीओ2 उत्सर्जन 2.98 टन होगा और इस नए लक्ष्य के अनुसार यह 2.31 टन प्रति व्यक्ति होगा. यदि आप दुनिया से इसकी तुलना करें, तो 2030 में अमेरिका का प्रति व्यक्ति सीओ2 उत्सर्जन 9.42 टन, यूरोपीय संघ का 4.12, कॉप-26 का आयोजन कर रहे देश यूनाइटेड किंगडम का 2.7 और चीन का 8.88 टन होगा.
आईपीसीसी के अनुसार 2030 में वैश्विक सीओ2 उत्सर्जन 18.22 गीगाटन होना चाहिए ताकि दुनिया तापमान में 1.5 डिग्री सेल्सियस की वृद्धि से नीचे रहे. यदि हम 2030 में वैश्विक जनसंख्या को लेते हैं और इसको विभाजित करते हैं, तो इसका मतलब होगा कि 2030 में पूरी दुनिया का सीओ2 2.14 टन प्रति व्यक्ति होना चाहिए. भारत इस लक्ष्य तक पहुंच रहा है. ऐसे में पूरी दुनिया को 2030 में जाने के लिए प्रतिबद्ध होना चाहिए.
कार्बन बजट के संदर्भ में: 2 नवंबर, 2021 को घोषित नई राष्ट्रीय प्रतिबद्धता भागीदारी (एनडीसी) के तहत अब भारत आईपीसीसी के 400 गीगाटन कार्बन बजट का 9 प्रतिशत हासिल कर लेगा. आईपीसीसी का यह कार्बन बजट 2030 तक 1.5 डिग्री सेल्सियस का लक्ष्य हासिल करने के लिए रखा गया है. साथ ही, इसका लक्ष्य इस दशक (2020-30 तक) में विश्व उत्सर्जन का 8.4 प्रतिशत और 1870-2030 के बीच विश्व उत्सर्जन का 4.2 प्रतिशत हासिल करना भी है.
• कार्बन की तीव्रता में 45% की कमी: भारत को इसे हासिल करने के लिए काफी काम करना होगा.
कार्बन की तीव्रता (इंटेंसिटी) अर्थव्यवस्था के विभिन्न क्षेत्रों के सीओ2 के उत्सर्जन को मापती है और मांग करती है कि अर्थव्यवस्था के बढ़ने पर इन्हें कम किया जाए. सीएसई के अनुसार, भारत ने 2005-2016 के बीच सकल घरेलू उत्पाद की उत्सर्जन तीव्रता में 25 प्रतिशत की कमी हासिल की है, और 2030 तक 40 प्रतिशत से अधिक हासिल करने की राह पर है.
लेकिन इसका मतलब यह है कि भारत को परिवहन क्षेत्र, ऊर्जा आधारित औद्योगिक क्षेत्र, विशेष रूप से सीमेंट, लोहा और इस्पात, गैर-धातु खनिज, रसायन से उत्सर्जन को कम करने के लिए अधिक उपाय करने होंगे.
इसके लिए भारत को अपनी परिवहन व्यवस्था को सुदृढ़ करने की भी आवश्यकता होगी, ताकि हम वाहनों को नहीं, बल्कि लोगों को एक से दूसरी जगह स्थानांतरित कर सकें. इसके लिए हमारे शहरों में सार्वजनिक परिवहन सेवाओं में वृद्धि करनी होगी. इसके अलावा हमारे आवास की उष्म क्षमता में भी सुधार करना होगा. वह सब हमारे हित में है.
• 2070 तक नेट जीरो: यह लक्ष्य विकसित देशों और चीन को अधिक महत्वाकांक्षी होने की चुनौती देता है.
आईपीसीसी के अनुसार 2030 तक वैश्विक उत्सर्जन आधा होना चाहिए और 2050 तक नेट जीरो (शुद्ध शून्य) तक पहुंच जाना चाहिए. चूंकि दुनिया में उत्सर्जन में भारी असमानता है, इसलिए ओईसीडी देशों को 2030 तक नेट जीरो का लक्ष्य हासिल करना है, जबकि चीन को 2040 और भारत और बाकी दुनिया को 2050 तक इस लक्ष्य तक पहुंचना होगा. हालांकि, नेट जीरो के लक्ष्य न केवल असमान हैं बल्कि महत्वकांक्षी भी नहीं हैं. इसके अनुसार ओईसीडी देशों ने नेट जीरो का अपना लक्ष्य 2050 और चीन ने 2060 घोषित किया है.
इसलिए, भारत का 2070 का नेट जीरो का लक्ष्य इसका ही विस्तार है और इसके खिलाफ तर्क नहीं दिया जा सकता है. हालांकि, यह संयुक्त नेट जीरो लक्ष्य दुनिया को 1.5 डिग्री सेल्सियस तापमान वृद्धि से नीचे नहीं रख सकता है और इसका मतलब है कि ओईसीडी देशों को 2030 तक अपने उत्सर्जन में कमी लानी होगी. सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि चीन, जिसका शेष बजट के 33 प्रतिशत पर कब्जा है, उसे इस दशक में अपने उत्सर्जन में भारी कमी करने के लिए कहा जाना चाहिए. अकेला चीन इस दशक में 126 गीगाटन उत्सर्जन करेगा.
भविष्य
भारत ने ऊर्जा क्षेत्र में बड़े पैमाने पर परिवर्तन को स्वीकार किया है, जिसे भविष्य के लिए डिजाइन किया जाएगा और यह नए जलवायु परिवर्तन लक्ष्यों के अनुरूप होगा. लेकिन जो बड़ा मुद्दा हमें चिंतित करने वाला है. वह, यह कि हमें यह सुनिश्चित करना होगा कि विकास समान हो और अपने ऊर्जा लक्ष्यों को हासिल करने के लिए देश में गरीबों को उनके अधिकारों से वंचित न किया जाए. क्योंकि हमारे यहां बड़ी संख्या में ऐसे लोग हैं, जिन्हें अभी भी अपने विकास के लिए ऊर्जा की आवश्यकता है. अब, भविष्य में, जैसा कि हमने खुद को प्रदूषण के बिना बढ़ने का लक्ष्य निर्धारित किया है, हमें गरीबों के लिए स्वच्छ, लेकिन सस्ती ऊर्जा उपलब्ध कराने पर काम करना चाहिए.
चूंकि कार्बन डाइऑक्साइड ऊपर पहुंच कर वातावरण में जमा हो जाता है और औसतन 150 से 200 साल तक रहता है. और यही उत्सर्जन तापमान को बढ़ाने में अपनी भूमिका निभाता है. भारत ने अब इस बोझ को आगे नहीं जोड़ने के लिए प्रतिबद्धता जताई है.
पहले से ही औद्योगिकीकरण की चपेट में आ चुकी पूरी दुनिया और खासकर चीन को प्रकृति का कर्ज चुकाना चाहिए. ऐसे में, प्रधानमंत्री मोदी का यह कहना सही है कि इसके लिए बड़े पैमाने पर फंड की आवश्यकता पड़ेगी. यह विडंबना ही है कि जलवायु परिवर्तन के लिए अब तक जो फंडिंग भी हुई है या हो रही है, वह पारदर्शी नहीं है और उसका सत्यापन भी नहीं होता.
(साभार- डाउन टू अर्थ)
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