Media
प्रदीप भंडारी मार्का पत्रकारिता: पत्रकारीय पेशे में कितनी नैतिकता है और कितना पाखंड
वैसे तो पत्रकारिता का इतिहास बहुत पुराना है, जो नैतिकता और देश-सेवा के तकाजों से भरा पड़ा है. समाज और शासक के बीच संदेशों का आदान-प्रदान करने वाली ये विधा पश्चिम में सामाजिक विकास के साथ भारत में आयी, हालांकि कुछ लोग नारद मुनि को पहला रिपोर्टर बताते हैं. पहला संपादक कौन था इस पर किसी के पास कोई खास जानकारी नहीं है, लेकिन आज तक जितने भी संपादक हुए किसी को यह पता नहीं चला कि अगले घंटे कौन सी ख़बर बिकेगी (दर्शकों द्वारा पसंद की जाएगी). पता होता तो शीर्ष चैनलों के संपादक दूसरे चैनलों में जाकर पिट नहीं जाते. बहरहाल, हर्फ-ओ-हिकायत में चूंकि हम वर्तमान को इतिहास के आइने में देखने-समझने की कोशिश करते हैं इसलिए प्रदीप भंडारी मार्का पत्रकारिता जिनको भी अच्छी या बुरी लगती है उन सबको ये जानना चाहिए कि इस पेशे में कितनी नैतिकता है और कितना पाखंड.
पत्रकारिता का इतिहास अखबारों से शुरू होता है, निजी टीवी चैनलों ने तो कायदे से सन 2000 के आसपास जन्म लिया है. 1780 में अंग्रेज जब कलकत्ता में ईस्ट इंडिया कंपनी का हेडक्वार्टर बनाकर भारत में अपने पैर जमा रहे थे तब भारतीय राजाओं और रियासतदारों और मुगलों के फौजदारों-सूबेदारों को खरीद लेते थे. कंपनी के अधिकारी इस खरीद-फरोख्त में दलाली कर अच्छी-खासी रकम बनाते थे. उस वक्त एक अंग्रेज जेम्स आगस्टस हिक्की भारत आता है और कलकत्ते से “बंगाल गजट” निकालना शुरू करता है और कंपनी के अधिकारियों के भ्रष्टाचार के बारे में ख़बरें छापने लगता है. आपको जानकर आश्चर्य होगा कि कंपनी के गवर्नर वॉरेन हेस्टिंग्स पर भारत में भ्रष्टाचार के आरोप में हाउस ऑफ कॉमन्स में महाभियोग तक चला. आज ऐसी कल्पना करना भी मुश्किल है. कंपनी के अधिकारी इससे हलकान रहने लगे, लेकिन लंदन में बैठी ब्रिटिश सरकार को भारत में होने वाली हर घटना के तीसरे पक्ष की जानकारी मिलने लगी.
ये पत्रकारिता ही है जिसकी वजह से 1857 की क्रांति के बाद ब्रिटिश सरकार ने ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में दिये अधिकार सीमित कर दिए. पत्रकारिता के जरिये लंदन ने भारत के हर कोने की सूचना का अपना नेटवर्क बना रखा था जो भारतीय सुधारवादियों, राजाओं और नवाबों के संपर्क में थे. इसी बंगाल गजट ने धीरे-धीरे भारतीयों में पत्रकारिता का बीजारोपण किया और 1826 में कलकत्ते में पहला हिंदी अखबार छपा “उदंत मार्तंड”. हिक्की ने सरकार के खिलाफ लिखने की परंपरा शुरू की सो अब तक यही विचार कायम है लेकिन हिक्की की खबरों से कंपनी के अधिकारियों पर कार्यवाही वाला विचार आजाद भारत की सरकारों से गायब होता गया. और जब सरकार ही जनकल्याण की अपनी जिम्मेदारी से भाग चली तो पत्रकारिता बेचारी क्या करेगी!
अब आइए टेलीविजन न्यूज के इतिहास पर- पूर्व प्रधानमंत्री स्व. अटल बिहारी वाजपेयी के शासनकाल में पुष्पित-पल्लवित निजी न्यूज चैनलों का आरंभिक इतिहासकाल सन 2000 से 2005 के बीच है. जी न्यूज, आजतक के बाद 2002 में सहारा और ईटीवी जैसे बड़े नेटवर्क और 2005 में एनडीटीवी, स्टार न्यूज (अब एबीपी), इंडिया टीवी, 2007 में न्यूज 24, उसी के करीब इंडिया न्यूज, 2011 में न्यूज नेशन, 2019 में टीवी 9 भारतवर्ष और रिपब्लिक भारत आदि चैनल स्थापित हुए. कुल मिलाकार इन 20 वर्षों का कोई इतिहास है तो वह तमाम लोगों के अनुभव हैं जो सोशल मीडिया और भड़ास4मीडिया जैसी वेबसाइटों के जरिये देखने-पढ़ने को मिल जाते हैं. लेकिन कभी भारतीय टीवी न्यूज चैनलों के इतिहास पर बात हुई तो हम अपनी आने वाली पीढ़ी को क्या बताएंगे? निस्संदेह तमाम मूर्खताओं के अलावा हमारे पास बताने को कुछ है तो चंद नामी चेहरों की ग्राउंड रिपोर्टिंग है जिसका प्रोमो सुविधा अनुसार दिखने को मिल जाता है.
इस संदर्भ में साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर रहे स्व. राजेन्द्र यादव द्वारा 2007 में प्रकाशित ‘हंस’ के मीडिया विशेषांक की याद आना स्वाभाविक है. मुझे लगता है कि यह इकलौता दस्तावेज है जो भारतीय टीवी न्यूज चैनलों की विकास यात्रा पर प्रकाश डालता है. इस विशेषांक में अजीत अंजुम का विशेष सहयोग रहा- तब वे न्यूज 24 के बड़े ओहदेदार थे.
पिछले दो वर्षों में अर्णब गोस्वामी, नविका कुमार और स्वघोषित पत्रकार प्रदीप भंडारी ने अपने पत्रकारीय कार्य की जैसी नुमाइश की है, उसकी नींव कब और कैसे पड़ी होगी यह ‘हंस’ के विशेषांक में छपी एक-एक कहानी, संस्मरण, विमर्श से समझ में आता है. पूरा विशेषांक बेहद सहज शब्दों में- इलेक्ट्रॉनिक चैनल के लेक्सिकान में बोलें तो बोलचाल की भाषा में- प्रस्तुत किया गया था. जाहिर है बोलचाल की भाषा में हम मां-बहन की गालियां तो ब्रेकिंग न्यूज से भी तेज बोलते हैं. ऐसी भाषा अब टीवी स्क्रीन पर भी सुनायी देने लगी है, जिसका ताज़ा उदाहरण प्रदीप भण्डारी हैं. इसके खिलाफ कुछ बोला तो संस्कार, संस्कृति और नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाले एक साथ पिल पड़ते हैं.
खैर, इस विशेषांक में प्रदीप भंडारी वाले न्यूज चैनल इंडिया न्यूज़ के वर्तमान प्रबंध संपादक राणा यशवंत की लिखी एक कहानी ‘ब्रेकिंग न्यूज़’ भी है. न्यूज़ चैनल में किस तरह से ख़बर को परोसा जाता है उसके पीछे की सारी मर्यादाओं को तार-तार कर विजुअल और ट्रीटमेंट में उलझी इस कहानी में समझाया गया है. जाहिर है 15 साल बाद उनके नेतृत्व में चल रहे न्यूज़ चैनल के न्यूज़रूम में सिंघु बॉर्डर पर हुई हृदयविदारक घटना का विजुअल ट्रीटमेंट कैसे हो और दर्शकों को ख़बर कैसे परोसी जाय, इस पर वैसा ही विमर्श हुआ होगा, जैसा उनकी लिखी कहानी से पता चलता है. उन्होंने जो भी फॉर्मूला लगाया हो, 15 साल बाद भी उनका ट्रीटमेंट सुपरहिट ही रहा.
इस विशेषांक में छपी सारी कहानियां न्यूज़रूम की गंदगी के इर्द-गिर्द बिखरी पड़ी हैं. हर दूसरी कहानी में महिला एंकरों को लेकर कहानी को बिकाऊ बनाने वाला मैटेरियल है. अब ये सब कैसे लाइनअप हुआ ये तो अजीत जी को ही पता होगा, लेकिन एक-दो लेखकों को छोड़ दें तो किसी ने ये बताने की कोशिश नहीं की है कि आने वाली पीढ़ी इनके अनुभवों से क्या सीखे.
‘हंस’ की स्थापना कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद ने की थी, इस वजह से पत्रकारिता औऱ साहित्य जगत में इसका बेहद सम्मान है लेकिन विजुअल और ट्रीटमेंट की भागमभाग कितनी खतरनाक है इसका अंदाजा आप इस बात से लगा सकते हैं कि जब ये विशेषांक प्रकाशित हुआ तो इसका शीर्षक भी विशुद्ध इलेक्ट्रॉनिक चैनल की तरह लिखा गया- “टेलीविजन इतिहास में पहली बार”!
समझ सकते हैं कि भारत में टेलीविजन के इतिहास ने वही लिखा-गढ़ा है जो इस विशेषांक में छपा था. अजीत अंजुम का शुक्रिया जो उन्होंने राणा यशवंत से पूछा कि उनके चैनल की संपादकीय भाषा क्या है. अजीत अंजुम ने श्वेता सिंह से भी पूछा था कि दो हजार के नोट में चिप कब लगेंगे.
(साभार- जनपथ)
Also Read
-
Presenting NewsAble: The Newslaundry website and app are now accessible
-
In Baramati, Ajit and Sunetra’s ‘double engine growth’ vs sympathy for saheb and Supriya
-
A massive ‘sex abuse’ case hits a general election, but primetime doesn’t see it as news
-
Mandate 2024, Ep 2: BJP’s ‘parivaarvaad’ paradox, and the dynasties holding its fort
-
Know Your Turncoats, Part 9: A total of 12 turncoats in Phase 3, hot seat in MP’s Guna