Opinion

दशहरा: जब रावण जल रहा है तब मुखिया से देश की कुछ अपेक्षाएं

मुखिया की काबिलियत है कि वो ‘मुख’ सा हो. उसकी चुनौती है कि ‘मुख’ सा बना रहे. बना ही न रहे बल्कि मुख की तरह दिखता भी रहे. गोस्वामी तुलसीदास ने मुखिया की यह काबिलियत बतायी है. तुलसीदास निस्‍संदेह महाकवि हैं, अपने समय से थोड़ा आगे भी, लेकिन अंतत: एक दीन-हीन भक्त जो सभी को अपनी तरह भक्त बना लेने पर आमादा हैं. उन्हें भी हिंदुओं की दुर्दशा की कम चिंता न थी. अलग-अलग भाव, विचार, उद्गार और भक्ति के तौर-तरीकों से उन्हें हिंदुओं के खंडित हो जाने का खतरा दिखायी देता था. विविधता में खतरा भांप लेने की जो नज़र उन्होंने हिंदुओं को दे दी उससे यह समाज आज 600 साल बाद भी उबर न पाया.

लेकिन तुलसीदास, जो कविता में महाकवि हैं और विचार में हिंदुओं के बड़े संगठनकर्ता, नीति को भली-भांति समझते थे. उन्होंने नीति में कहा है कि एक मुखिया को ‘मुख’ जैसा होना चाहिए जो खाने-पीने के लिए तो समूल शरीर में एक ही हो, लेकिन उसे शरीर के सभी अंगों की परवाह हो. वो सबको बराबर पोषण पहुंचाने का अपना दायित्व माने. तुलसी यूं ही घर-घर में नहीं पहुंचे, विशेष रूप से उस भारत में जिसे उत्तर कहा जाता है और जो सबसे ज़्यादा समस्यामूलक है. इसका उत्तर प्रदेश भर से संबंध नहीं है, बल्कि कालांतर में जिसे गौ-पट्टी, गोबर पट्टी, हिन्दी पट्टी आदि के नाम से जाना जाने लगा उसने तुलसी को पचा लिया. अपने उदर और मस्तिष्क में उतार लिया. ऐसा उतार लिया कि अब उसके सच्चे अनुयायियों को एक भी चौपाई नहीं आती. इसका अर्थ सामान्य भाषा में यह हुआ कि एक महाकवि अब केवल हिंदुओं का संगठनकर्ता बन कर रह गया है. उनकी चौपाई की किसी अर्द्धाली को नारा बनाने के लिए केवल जरूरत भर ही उनकी कविता का इस्तेमाल किया जाने लगा.

90 के दशक से देखें तो पूरे रामचरितमानस से राम के चरित्र के लिए उसके अनुयायियों ने केवल इतना भर चुन लिया कि ‘तुलसी मस्तक तब नवे जब धनुष बान लो हाथ’. हनुमान को केवल राम का निजी अंगरक्षक और आकंठ सेवकाई में डूबे एक वफादार सिपाही के रूप में दिखायी जाने वाली अर्द्धाली को नारे में बदल दिया गया. यथा- राम काज कीजे बिना, मोहे कहां विश्राम. बात कहां राम के मर्यादा पुरुषोत्तम बनाने की हुई थी, पहुंच और पहुंचा दी गयी कहां! खैर…

मूल मुद्दा है “मुखिया मुख सों चाहिए, खान पान को एक / पालै पोसै सकल अंग, तुलसी सहित विवेक” की चर्चा. वजह है कि कल तुलसी के एक बड़े अनुयायी ने कहा कि मानव अधिकार पर चयनित ढंग से बात करने वाले मानव अधिकारों को सबसे ज़्यादा नुकसान पहुंचाते हैं. यह जो अनुयायी हैं यह तुलसी की कविता के अनुयायी नहीं हैं, बल्कि तुलसी की हिन्दू एकता के प्रयासों के अनुयायी हैं. इसलिए तुलसी की कविता में निहित नीति पर ध्यान न दिया हो, यह संभव नहीं बल्कि निश्चित है. चयनित होने की छूट सबको है. लोग स्वभावतया चयनित होते हैं. वे भी अपने चयन के विवेक के बूते ही सत्ता में हैं जिन्हें यह लगा कि मानव अधिकारों के मामलों में चयनित होने से मानव अधिकारों को नुकसान पहुंचता है.

यह चूंकि एक ट्वीट के जरिये कहा गया है इसलिए संक्षिप्तता की वजह से शायद बात स्पष्ट नहीं हो पायी कि यह एहसास बयानी थी, आत्म-परीक्षण के लहजे में कही गयी थी या इसके जरिये तोहमत लादी गयी है. सुधिजन इस पर प्रकाश डालेंगे.

लेकिन अगर यह आभास है जिसे सेल्फ-रियलाइज़ेशन कहा जाता है तब जिसने यह कहा उसकी सराहना की जानी चाहिए, हालांकि इस बात के लिए अफसोस भी व्यक्त किया जा सकता है कि बहुत लंबा वक़्त ले लिया कहने में. कम से कम जब से संघ की शाखाओं में जाना शुरू किया यानी बालपन से, तब से ही मानव अधिकारों को लेकर चयनित प्रतिक्रिया अपनाने का प्रशिक्षण प्राप्त कर रहे हैं और 20 साल से मुखिया बने बैठे हैं. आज जाकर यह बोध हुआ कि कुछ मामलों में चयनित नहीं होना चाहिए!

अगर यह तोहमत है तब ‘किसने किस पर’ लगायी का सवाल खड़ा हो जाता. और कह भी कौन रहा है? जिसमें छप्पन छेद हैं? मतलब कोई ऐसा व्यक्ति जो हमेशा से सेलेक्टिव रहा हो वह किसी और पर यह तोहमत कैसे लगा सकता है कि कोई सेलेक्टिव क्यों है? इसलिए यह मुखिया होने की चुनौती है. मुखिया को छोड़कर बाकी सभी को फिर भी ये रियायत है कि वो कब, कैसे, कहां, क्यों बोलें लेकिन मुखिया को हर कब, कहां, कैसे, क्यों पर बोलना चाहिए. लखीमपुर पर बोलेंगे नहीं और कश्मीर पर पूछेंगे कि कोई बोला क्यों नहीं. फिर कोई अगर कश्मीर पर बोलेगा और पूछेगा कि नोटबंदी करने से सारे आतंकवादी मय आतंकवाद खत्म हो जाने थे और अगर कुछ बच भी जाते, तो उन्हें अनुच्‍छेद 370 हटाने के बाद खत्म हो जाना था. फिर भी ये कौन हैं, कहां से आ रहे हैं, कौन इन्हें पाल-पोस रहा है कि इन दो-दो कारगर उपायों के बाद भी वहां हिंदुओं और सिखों को मार रहे हैं? तब कहेंगे ऐसा क्यों बोला?

मुख समान मुखिया को चाहिए कि पहले अपने अधीन मंत्री को बर्खास्त करते हुए लखीमपुर में किसानों की जघन्य हत्या पर स्वयं का मुख खोलें और कश्मीर जो अब विशुद्ध रूप से एक कानून व्यवस्था का मामला है उसे ठीक से संभालें और मानव अधिकारों के सम्मान में तत्काल उन 700 किसानों की शहादत पर एक अफसोसनामा लिखें और कानून वापिस लें. मानव अधिकारों के सम्मान और उनकी रक्षा के लिए तत्काल उन बंदियों को बाइज्जत रिहा करें जो इस देश में वाकई मानव अधिकारों के लिए जन-जन के बीच काम करते रहे हैं.

मुख का काम केवल भोजन चबाना नहीं होता बल्कि उसकी अपनी एक स्वतंत्र अभिव्यक्ति भी होती है. लोग एक-दूसरे को मुख के कारण ही पहचानते हैं. यहां मुख के आयतन को थोड़ा बड़ा किया जा सकता है. अब इसे मुंह कहा जा सकता है. मुंह लेकर कहीं जाया जाता है. मुंह को छुपाया जाता है. शर्मिंदगी का भाव सबसे पहले मुंह पर ही आता है. अगर मुंह मुखिया का हो तो उसे इसकी सबसे ज़्यादा परवाह करनी चाहिए. इसी मुंह और मुख में एक जुबान भी होती है जिसे खोला जाता है, चलाया जाता है, इसकी लाज बचायी जाती है और इसे पक्का किया जाता है. जब यह जुबान मुखिया की हो तब और ज़्यादा सतर्क रहने की ज़रूरत होती है.

सुन रहे हैं न मुखिया जी….!

(साभार- जनपथ)

Also Read: एनएल टिप्पणी एपिसोड 82: लखीमपुर हिंसा पर खबरियां चैनलों का शीर्षासन और हर हर मोदी का नाद

Also Read: जागरण, न्यूज़ 18 हिंदी और इंडिया डॉट कॉम ने गलत जानकारी देकर की मोदी सरकार की तारीफ