Opinion
पंजाब-हरियाणा: कैप्टन और चौटाला की राजनीति का भविष्य
सत्ता की शतरंज में प्यादों की चाल को समझना उतना ही महत्वपूर्ण है जितना खेलने वाले की मंशा को जानना. बिसात को नियंत्रित करने के लिए भ्रम की चालें अक्सर यहां चली जाती हैं. सत्ता को नियंत्रण में रखने के लिए कई राजनीतिक संधियां प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष रूप में की जाती हैं. सत्ता के दूत अलग-अलग खेमों में सत्ता अनुकूल धारणाएं बनाने में समय-समय पर अपनी भूमिका निभाते रहे हैं. किसान आंदोलन के दस महीने पूरे होने पर पंजाब और हरियाणा की राजनीति में जो उथल-पुथल देखी जा रही है, वो इस बात का गवाह है कि पंजाब और हरियाणा के शांतिपूर्ण किसानों की जिद के आगे सत्ता के गलियारों में भयंकर बेचैनी है. ये बेचैनी क्या शक्ल अख्तियार करेगी यह तो आने वाले दिन ही बताएंगे लेकिन दोनों राज्यों में हो रही सियासी हलचलों को समझना जरूरी है.
विभिन्न कठिन दौरों से गुजरते हुए पंजाब ने सत्ता के कई उतार-चढ़ाव देखे हैं. कई दौर राष्ट्रपति शासन के भी रहे. आजादी के बाद से ही पंजाब में राजनीतिक सत्ता परंपरागत रूप से कांग्रेस और अकाली दल के बीच हस्तांतरित होती रही है. पंजाब की राजनीति में पिछले कुछ समय से चल रही हलचल के परिणाम आखिरकार धरातल पर असंतुष्ट खेमे की जीत के रूप में सामने आ ही गए. अपनी कार्यशैली और महाराजा के अन्दाज के कारण पिछले काफी समय से कैप्टन अमरिन्दर अपने मंत्रिमंडल के सहयोगियों के निशाने पर रहे. कांग्रेस के केंद्रीय नेतृत्व से अच्छे सम्बंधों के कारण अमरिंदर अपनी स्थिती को बार-बार संभालने मे सफल होते रहे. 2017 में कांग्रेस ने 10 बरस के बनवास के बाद कैप्टन अमरिन्दर की अगुवाई में ही पंजाब में फिर से सत्ता प्राप्त की थी.
कैप्टन अमरिंदर ने अपनी सियासत की छवि के केंद्र में अपनी राजसी विरासत को हमेशा रखा. अपने विरोधियों को छोटा बनाने और बौना करने के मौके भी कभी नहीं चूके. अपनी राजनीतिक महत्वाकाँक्षा की परदेदारी भी नहीं की. राष्ट्रीयता और राष्ट्रसेवा की प्राथमिकता को अपने भूतपूर्व सैनिक होने से जोड़ कर बार-बार सामने भी रखते रहे. पंजाब से एक विशेष मोह के कारण कैप्टन ने राष्ट्रीय राजनीति से इतर पंजाब प्रदेश को ही अपनी कर्मभूमि बनाए रखा- पांच बार पंजाब विधानसभा के चुनाव मे सफल रहे, तीन बार प्रदेश कांग्रेस के मुखिया रहे.
हाल के पंजाब के घटनाक्रम में नवजोत सिंह सिद्धू को अहमियत मिलने और खुद को मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने से कैप्टन अमरिंदर नाराज हैं. पंजाब के आगामी विधानसभा चुनाव के लिए कांग्रेस की बढ़ी हुई चुनौतियों, बदलते समीकरणों और किसानों के अन्दोलन से बदले हालात को देखते हुए कांग्रेस आलाकमान ने भी कैप्टन अमरिन्दर की कार्यशैली को ‘आइ ऐम सॉरी कैप्टन’ कह कर विराम लगा दिया. आलाकमान पर दबाव बनाने की रणनीति के माहिर कैप्टन अमरिंदर को ऐसे निर्णय की उम्मीद नहीं थी.
राजनीति के सफर में कैप्टन अमरिंदर ने कई मौकों पर पार्टी हाई कमान को अन्देखा करते हुए फैसले लिए थे. 1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार में भारतीय फौज के स्वर्ण मंदिर में की गयी कार्यवाही के फैसले से आहत हो कर उन्होंने पार्टी छोड़ दी थी. हरियाणा के साथ पानी के बंटवारे को लेकर भी पार्टी के मत व सुझाव के विरूद्ध सतलुज-यमुना लिंक नहर समझौता उन्होंने रद्द कर दिया था. अपने राजनीतिक कद को पार्टी के समानांतर रखने के प्रयासों में खुले बयान देने से भी वे नहीं हिचके. अपने खिलाफ लगे आरोपों को कभी गंभीरता से न मानते हुए उपहास व तंज करके खारिज करना कैप्टन की नियति रही है. पंजाब में हुए राजनीतिक घटनाक्रम में कैप्टन अमरिन्दर के बेबाक बयानों का योगदान भी कम नहीं है.
सोनिया गांधी के सलाहकारों पर सवाल उठाना व राहुल गांधी और प्रियंका वाड्रा की राजनीतिक समझ को कठघरे में खड़ा करने वाले बयान में कैप्टन अमरिन्दर की हताशा साफ दिखायी देती है. नवजोत सिद्धू को आने वाले विधानसभा चुनावों में हराने के लिए किसी मजबूत उम्मीदवार को खड़ा करने के बयान से कैप्टन ने अपनी मंशा स्पष्ट कर दी है.
चुनावों के करीब होने के कारण तेजी से बदलते समीकरणों मे कई तरह के कयास लगाये जाने लगे हैं. अचानक विपक्षी राजनीतिक दलों को कैप्टन अमरिन्दर में संभावनाएं दिखायी देने लगी हैं. भाजपा सुर बदल कर अब कैप्टन की राष्ट्रीयता की प्रशंसा करने लगी है. भाजपा से बढ़ती नजदीकियों की चर्चा पहले भी कैप्टन अमरिन्दर के बारे में खूब जोर पकड़ती रही है, हालांकि राष्ट्रीयता के सवाल को कैप्टन अमरिन्दर ने नवजोत सिंह सिद्धू के बारे में बयान देकर खुद खड़ा किया है. राज्य को सीमावर्ती क्षेत्र बताते हुए पाकिस्तान से होने वाले खतरों की आशंका को इस समय पर फिर से गिना दिया.
राजनीति में पांच दशक की लम्बी पारी खेलते हुए 2017 में अपने आखिरी चुनाव की घोषणा कर चुके अमरिंदर अपना कोई राजनीतिक वारिस नहीं स्थापित कर पाए. प्रदेश में पार्टी को संगठित कर एकजुट रखने में भी असफल ही सिद्ध हुए. उम्र के इस पड़ाव पर एक बार फिर खुद को आजमाने की चाह से भी मुक्त नहीं हो सके. कांग्रेस में रहते हुए ये संभावनाएं बहुत सीमित हो गयी थीं. अपने उद्देश्य की प्राप्ति के लिए नये विकल्प की तलाश ही एकमात्र रास्ता बचता है.
बदली हुई परिस्थितियों में कैप्टन अमरिन्दर ने अपनी संभावनाओं को अभी स्पष्ट नहीं किया है. भाजपा की कोशिश आपदा में अवसर खोजने की है, लेकिन एक विचारधारा से बंध कर लंबे समय तक राजनीति में खुद को बनाये रखने वाले ऐसे कद के नेता के लिए इस विकल्प से ज्यादा सशक्त एक नयी राह चुन कर अपने अनुभव और सामर्थ्य से राजनीति में एक अलग विरासत को बनाया जाना हो सकता है.
ताऊ देवीलाल के सम्मान में तीसरे मोर्चे की झलक
बीते 25 सितम्बर को जींद में देवीलाल जयंती पर हुई सम्मान रैली में जुटी भीड़ और अप्रत्याशित रूप से पहुँचे भाजपा नेता पूर्व केन्द्रीय मंत्री वीरेन्द्र सिंह द्वारा मंच से ताऊ देवीलाल की प्रशंसा करते हुए प्रधानमंत्री के पद को किसी और के लिए त्याग करने की उनकी कुर्बानी को प्रेरणा का स्रोत बताने ने हरियाणा की राजनीति के ठहरे पानी में गहरी हलचल पैदा कर दी है. ज्ञात रहे कि वीरेन्द्र सिंह के पुत्र ब्रिजेंदर सिंह वर्तमान में हिसार लोकसभा से भाजपा के सांसद हैं.
अगस्त 2014 में वीरेन्द्र सिंह ने जींद में ही हरियाणा चुनाव से ऐन पहले हुई भाजपा की रैली में मोदी लहर के चलते अपनी चार दशक पुरानी कांग्रेस पार्टी छोड़ भाजपा का दामन थाम लिया था. पहली मोदी कैबिनेट में वीरेन्द्र सिंह ने केन्द्रीय मंत्री का पद प्राप्त किया. 2019 में अपने बेटे को हिसार लोकसभा से प्रत्याशी बनाने में सफल हुए. दिसम्बर 2020 आते-आते तीन नये कृषि कानूनों के विरोध में आरम्भ हुए किसान आंदोलन के पक्ष में बोलते हुए उन्होंने कहा कि ये आंदोलन ‘प्रत्येक आमजन’ का अन्दोलन है. किसान अन्दोलन के नौ माह पूरे होने पर वीरेन्द्र सिंह ने कहा था कि समय आ गया है कि एक गलती को सुधारा जाय, सरकार को कोई सौहार्दपूर्ण हल निकालना चाहिए.
वीरेन्द्र सिंह के यूं इनेलो की रैली में पहुँचने को एक ओर जहां अचरज से देखा जा रहा है वहीं कई तरह की अटकलें भी राजनीतिक गलियारों में रेंगने लगी हैं. कृषि कानूनों के विरुद्ध उपजे आंदोलन के विस्तार में हरियाणा के किसानों, ग्रामीण वर्ग व शहरी आमजन का जिस प्रकार योगदान हुआ उसने प्रदेश के अन्य राजनीतिक दलों की चिंताएं बढ़ा दी हैं. किसान आंदोलन के शांतिपूर्वक रहते हुए इतना लम्बा खिंच जाने से चिंताएं केन्द्रीय सरकार व ‘प्रधान सेवक’ की भी बढ़ी हुई हैं. अन्य प्रदेशों में होने वाले चुनावों, विशेषकर उतर प्रदेश में किसान अन्दोलन के प्रभावों को कम करने के लिए मोदी व भाजपा कई रणनीतियों पर समानान्तर काम कर रही है, यह भी अनदेखा नहीं किया जा सकता.
पूर्व उपप्रधानमंत्री चौधरी देवीलाल की 108वीं जयंती के मौके पर शनिवार को जींद में इनेलो ने ओमप्रकाश चौटाला की अगुवाई में अपनी ‘खोयी हुई राजनीतिक जमीन’ को फिर से हासिल करने के लिए सम्मान दिवस रैली का आयोजन किया था. शिक्षकों की नियुक्ति में भ्रष्टाचार के मामले में अपनी सजा पूरी कर चुके 86 वर्षीय चौटाला एक बार फिर से राजनीति में सक्रिय हो गए हैं. इनेलो का समर्थक मतदाता आधार अधिकतर किसान कमेरा मजदूर व ग्रामीण वर्ग में ही है. ओमप्रकाश चौटाला ने फिर से अपने परम्परागत वोट बैंक को केन्द्रित किया है.
देवीलाल के पौत्र ओम प्रकाश चौटाला के पुत्र अभय सिंह चौटाला ने किसानों की मांगों का समर्थन करते हुए वर्तमान सरकार के द्वारा अपनाये गए असंवेदनशील रुख व हठधर्मिता के खिलाफ फरवरी 2021 में हरियाणा विधानसभा से त्यागपत्र दे दिया था, लेकिन विगत में ओम प्रकाश चौटाला भाजपा से समझौता करके प्रदेश में मुख्यमंत्री बन कर सरकार चला चुके हैं यह भी भूलने योग्य नहीं है.
रैली में पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल, जम्मू कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री फारुख अब्दुल्ला, जदयू के प्रधान महासचिव केसी त्यागी, वरिष्ठ भाजपा नेता व पूर्व केंद्रीय मंत्री वीरेंद्र सिंह जैसे बड़े नेताओं ने शिरकत की. रालोद के जयंत चौधरी, पूर्व प्रधानमंत्री एचडी देवगौड़ा, समाजवादी पार्टी के मुलायम सिंह यादव इनेलो की रैली में नहीं पहुँचे. ओम प्रकाश चौटाला एक गैर-कांग्रेस गैर-भाजपा तीसरा मोर्चा बनाने के प्रयासों में लगे हैं. जिन राजनीतिक दलों को चौटाला एकजुट करने में लगे हैं वो सभी दल मूलरूप से कांग्रेस के विरोधी रहे हैं.
कृषि कानूनों पर हस्ताक्षर कर और इनके लाभों की व्याख्या करने वाले पंजाब के अकाली दल ने प्रदेश के पिछले चुनावों में बेअदबी मामले मे पंथक वोट चुकने के बाद अपने मजबूत किसान वोट को पंजाब में खो लिया है. पंजाब में भाजपा के साथ अकाली दल का भी भारी विरोध किसानों द्वारा किया जा रहा है. अब अकाली दल द्वारा गैर-कांग्रेस गैर-भाजपा तीसरे मोर्चे को बनाने का आह्वान करना समान्य समझ से परे है.
रैली में चौटाला ने कहा कि कांग्रेस सरकार ने साजिश और षड्यंत्र के तहत उन्हें 10 साल के लिए जेल भिजवाया. अब भविष्य में प्रदेश में इनेलो की सरकार बनेगी. चौटाला ने कहा कि ”किसान अन्दोलन कभी फेल नहीं हुए. किसान अन्दोलन ने भाईचारे को मजबूत किया है. अब एकजुट होकर इस वर्तमान लुटेरी सरकार को सत्ता से उखाड फेंकना है.” चौटाला ने आगे कहा कि ऐलनाबाद के उपचुनाव में इनेलो की जीत के बाद प्रदेश सरकार में भगदड़ मच जाएगी ओर जो लोग इनके साथ गठबंधन में हैं वो इनको छोड़ कर वापिस हमारे साथ शामिल हो जाएंगे. ये सरकार अल्पमत में आ जाएगी, तब निश्चित रूप से मध्यावधि चुनाव होंगे.
चौटाला ने अपने संबोधन में कांग्रेस पार्टी पर खास तौर पर निशाना साधा. कांग्रेस पार्टी ने आरम्भ से ही किसान आंदोलन को समर्थन की खुली घोषणा कर दी थी. किसानों के हितैषी होने का दावा करने वाले चौटाला पूरे संबोधन में मोदी सरकार द्वारा लाये गए तीनों कृषि कानूनों के प्रावधानों से भविष्य में होने वाले प्रभावों पर बोलने से बचते रहे. रैली से एक दिन पहले टाइम्स ऑफ इंडिया के सवाल के जवाब में चौटाला ने दुष्यंत चौटाला की इनेलो में वापसी की संभावनाओं को भी पूर्ण खारिज नहीं किया. यहां याद रखना लाज़िम हो जाता है कि जजपा ने 2019 में भाजपा, मोदी, खट्टर व कांग्रेस के विरोध को ही अपना आधार बना कर चुनाव लड़ा था और जीतने के बाद भाजपा को समर्थन दे कर प्रदेश में भाजपा की गठबंधन सरकार बनवायी थी.
कुछ दिन पहले बसपा हरियाणा के अध्यक्ष रहे जगदीश झींडा अचानक फिर से सक्रिय हो गये और करनाल में एक गुरुद्वारा में प्रेस वार्ता करने को लेकर गुरुद्वारा प्रबंधन से तकरार करके माहौल को अस्थिर करने के प्रयास किये जिसमें स्थानीय प्रशासन ने हस्तक्षेप करके मामले को संभाला. किसानों के मुआवजे में किसान नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी द्वारा कथित अनियमितताओं के आरोप लगाए. कैथल, करनाल, कुरुक्षेत्र, यमुनानगर, अम्बाला में सिख किसानों की बहुतायत है.
(साभार - जनपथ)
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