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अतिक्रमण हटाने के दौरान की गई पुलिसिया बर्बरता पर असम मीडिया का एकतरफा रुख
23 सितंबर को असम का एक वीडियो क्लिप वायरल हुआ. जिसमें बनियान और लुंगी पहना हुआ एक आदमी छड़ी लिए एक पुलिस वाले के पीछे दौड़ते दिखता है जो अपने साथियों के दल की तरफ भाग रहा है. तुरंत ही छड़ी लिए आदमी को पुलिस गोली मारती है और वह गिर जाता है, जिसके बाद कई पुलिस वाले उसे घेर लेते हैं और लाठियों से मारने लगते हैं. इसके बाद एक और आदमी, जो कि फोटोग्राफर है, मरे हुए व्यक्ति की खून से लाल हुई छाती पर कूदने लगता है.
यह घटना गुवाहाटी से 60 किलोमीटर दूर सिपझार के पास एक गांव में हुई, जब एक निष्कासन अभियान चलाया जा रहा था.
निष्कासित किए जा रहे लगभग सभी लोग पूर्वी बंगाल मूल के मुसलमान थे जिन्हें असम में 'मियां' कहा जाता है. हालांकि यह शब्द अपने असली अर्थों में आदर देने वाला होता है, लेकिन असम में इस शब्द को अपमानजनक रूप से प्रयोग किया जाता है.
अगले दिन केअसोमिया प्रतिदिन अखबार के पहले पन्ने पर दो फोटो छपीं. पहली में एक घायल पुलिस वाला जिसकी वर्दी पर खून दिखाई दे रहा है, दो आम लोगों की मदद से चल रहा है. दूसरी में आदमियों की एक भीड़ दिखाई पड़ती है जिसमें से कई लुंगी पहने हुए हैं और स्वाभाविक रूप से मुसलमान हैं. इसके साथ शीर्षक है, "तीन अतिक्रमण करने वाले पुलिस से भारी मुठभेड़ में मारे गए". पन्ने की हेडलाइन के साथ लिखा था, "सिपझार के नंबर चीन ढोलपुर में अतिक्रमण हटवाने जाने वालों पर जवाबी हमला."
इंडियन रीडरशिप सर्वे के अनुसार असोमिया प्रतिदिन, असमिया भाषा का सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला दैनिक अखबार है.
हेड लाइन के नीचे क्रमवार तरीके से मुख्य बातों को संक्षेप में सूचीबद्ध किया गया था. पहला बिंदु था, "हाथों में गंडासे, छड़ियां और डंडे लिए हुए हजारों लोगों ने पुलिसकर्मियों पर आक्रमण किया."
मुख्य रिपोर्ट के नीचे एक दूसरी रिपोर्ट में मरे हुए व्यक्ति की छाती पर कूदने वाले फोटोग्राफर, जिसकी पहचान बिजॉय बनिया के रूप में हुई है, का फोटो था और उसकी हरकत को "वहशीपन का चरम व अमानवीयता" का प्रदर्शन बताया गया था. इस लेख में पुलिस की आलोचना भी की गई.
असम के बड़े बंगाली दैनिक जुगोसंखा में भी यहीं के फोटो इस्तेमाल किए गए थे, इस अखबार ने शीर्ष पर तीन फोटो लगाए थे. पहले फोटो में पुलिस वाले गोलियां चलाते दिख रहे हैं लेकिन उनका निशाना दिखाई नहीं दे रहा. दूसरे में मरा हुआ व्यक्ति और तीसरे में एक घायल पुलिस वाला दिखाई दे रहा है. हेडलाइन थी, "निष्कासन में लड़ाई का मैदान सिपझार, पुलिस की गोली से दो की जान गई." शीर्षक के नीचे लिखा था कि मुख्यमंत्री ने निष्कासन अभियान जारी रहने की घोषणा की है, और घटना की विभागीय जांच की जाएगी.
असोमिया प्रतिदिन की तरह भी यहां दूसरे लेख में मरे हुए व्यक्ति के ऊपर कूदते हुए फोटोग्राफर की फोटो एक कॉलम में लगाई गई थी और लेख का शीर्षक था, "मरे व्यक्ति के कुल पर हर्ष भरी छलांग, युवक गिरफ्तार."
राज्य के सबसे बड़े अंग्रेजी अखबार द असम ट्रिब्यून ने अपने मुख्य खबर में केवल एक ही फोटो का इस्तेमाल किया जिसमें पुलिस दिखाई न दे रहे निशाने की तरफ फायरिंग कर रही है. खबर का शीर्षक था, "निष्कासन अभियान के दौरान पुलिस की फायरिंग से दो की मृत्यु." हेडलाइन के नीचे दो बिंदुओं में, "ढोलपुर में निष्कासित हुए लोगों का प्रदर्शन हिंसक हुआ" और "नागरिक प्रशासन, पुलिस दल पर भीड़ का हमला" लिखा था.
बगल में एक कॉलम की खबर में "घायल आदमी पर हमला करने के लिए कैमरे वाला गिरफ्तार" का ज़िक्र था.
असमिया भाषा के टीवी चैनल प्रतिदिन प्राइम टाइम में शाम को और अगले दिन सुबह भी घटना की जगह से खबरें और राजनीतिक प्रतिक्रियाएं दिखाई गईं. कवरेज में एक तरफ सभी राजनीतिक दलों, जिनमें भाजपा, कांग्रेस, एआईयूडीएफ और रायजोर दल के इकलौते विधायक अखिल गोगोई की प्रतिक्रियाओं को जगह मिली, वहीं दूसरी तरफ कवरेज अपने दृश्यों की एडिटिंग में पुलिस प्रशासन और शव पर नाचने वाले फोटोग्राफर के पक्ष में झुका हुआ प्रतीत हुआ.
असोमिया प्रतिदिन की तरह ही अन्य टीवी चैनलों ने भी घायल पुलिसवालों और स्पष्ट तौर पर दिखने में मुसलमान लगने वाले प्रदर्शनकारियों की भीड़ के दृश्यों को कवरेज में मुख्य जगह दी. इन दृश्यों को टीवी पर बार-बार चलाया गया. अकेले आदमी के पुलिस वालों की तरफ छड़ी लेकर भागने का दृश्य उसके ऊपर गोली चलाने तक ही काट दिया गया. उसके बाद जो हुआ वह नहीं दिखाया गया.
घटना वाले दिन और उससे अगले दिन भी चैनल ने हिंसा के लिए, एक रहस्यमई "तीसरी फोर्स" को जिम्मेदार ठहराने की कपोल-कल्पित कहानी को गढने की कोशिश की. इसे तृतीय शक्ति नाम दिया गया और यह समझाने की कोशिश की गई कि किसी तीसरी फोर्स ने "शांतिपूर्ण निष्कासन अभियान" - जिसमें 800 परिवार सोमवार को ही निष्कासित किए जा चुके थे, को हिंसक और विध्वंसक बना दिया. इस "तीसरी फोर्स" की बात को न्यूज़18 असम में भी स्क्रीन में नीचे चलती खबरों में जगह मिली.
छपी खबरों में कहीं भी दोनों तरफ का पक्ष रखने की कोशिश नहीं दिखाई दी. टेलीविजन और छपी हुई खबरों में से एक भी रिपोर्ट ने निष्कासित किए जा रहे लोगों के पक्ष को जगह नहीं दी. यानी एक भी वीडियो रिपोर्ट और लेख में, अपने घरों से निकाले गए हजारों लोगों और पुलिस की फायरिंग में मरे लोगों के परिवारों में से एक के भी वक्तव्य को नहीं प्रस्तुत किया गया.
जब राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय प्रकाशनों के लिए काम करने वाले पत्रकारों को खबर मिली तो अगले दिन सुबह से स्थानीय मीडिया के प्रयासों में थोड़ा अंतर दिखाई पड़ा.
प्रतिदिन टाइम्स का एक रिपोर्टर सिपझार वापस गया और निष्कासित किए लोगों में से एक आदमी से बात की. उसके वक्तव्य को थोड़ी देर के लिए चलाया गया जिसमें उसने बताया कि उन्हें रात भर में जगह खाली करने के लिए कहा गया था.
पीड़ितों की आवाज का कवरेज से नदारद होना, वीडियो को पुलिस के हिंसा के महत्वपूर्ण पलों को हटाते हुए एडिट करना और शीर्षकों में घटना को पुलिस पर हुए भीड़ के हमले की तरह बताना, एक बेईमानी है.
खबरों में "झुकाव", एक हेरफेर है जो दिखाई जा रही चीज़ों की बजाय जो नहीं दिखाया जा रहा उससे पैदा होता है. असम मीडिया के द्वारा दिखाए जा रहे चित्र और वीडियो, गरीबों के जलते टूटे-फूटे घरों, उन पर चलते बुलडोजर को नहीं दिखा रहे थे, जिससे यह समझा जा सकता था कि निष्कासित लोग क्यों नाराज हैं. बल्कि वहां रहने वालों या तथाकथित "तीसरी फोर्स" को दोषी करार दिया जा रहा है.
हालांकि निष्कासन अभियान के साथ कुछ रिपोर्टर गए थे लेकिन वह लाश पर नाचते हुए फोटोग्राफर के जैसे पुलिस के साथ संलग्न मीडिया की तरह गए थे, न कि स्वतंत्र पत्रकारों की तरह. परिणामस्वरूप खबरों में, बुलडोजर चलने और आग की शुरुआत कैसे हुई, आग किसने लगाई या निष्कासित लोगों को कितनी देर का नोटिस पीरियड मिला, इसका कोई जिक्र नहीं है.
अगले दिन भी जब रिपोर्टर वापस गया और घटनास्थल पर स्थानीय लोगों से उसने बात की, तो भी उसके प्रयास को जल्दी ही प्रसारण से हटा लिया गया. इस सबके बीच स्क्रीन के नीचे चलते खबरों में "तीसरी फोर्स" की काल्पनिक साजिशें, भाजपा के नेताओं के द्वारा उन "खाकों" की बातों में बदल गईं जिनकी वजह से हिंसा हुई.
पत्रकारिता का एक बुनियादी नियम है कि अगर कोई यह कह रहा है कि बाहर बारिश हो रही है और कोई दूसरा कह रहा है कि बाहर सूखा है, तो पत्रकार का काम दोनों की बात बताना नहीं होता. उसका काम होता है कि वह बाहर देखे और पता लगाए कि कौन सच बोल रहा है. इस समय तो परिस्थितियां ऐसी हैं कि अधिकतर अखबार और टीवी चैनल दोनों पक्ष की बातें भी नहीं बता रहे. वे केवल एक पक्ष की बात कह रहे हैं, भले ही वह सच हो या न हो. अगर वह पक्ष कह रहा है बारिश हो रही है, तो वे एक आवाज में चिल्लाते हैं कि बारिश हो रही है. और अगर विपक्ष कहता है कि सूखा है, तो चाटुकार मीडिया घोषणा कर देता है कि सूखा है.
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