Opinion
हिंदी पट्टी के बौद्धिक वर्ग के चरित्र का कोलाज है 'गाजीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेल' किताब
पत्रकार उर्मिलेश की किताब गाजीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेल हिंदी पट्टी के बौद्धिक वर्ग के चरित्र का एक कोलाज प्रस्तुत करती है. खुद लेखक भी साहित्य के विद्यार्थी, पेशे से पत्रकार और किताबों के लेखक के रूप में इस बौद्धिक वर्ग का हिस्सा हैं. इस किताब की विषय-सूची जग-जाहिर और स्थापित तथ्य को उजागर कर देती है कि हिंदी के बौद्धिक वर्ग के शीर्ष कहे जाने वाले बहुलांश व्यक्तित्व तथाकथित अपर कास्ट के हिंदू मर्द हैं और जो महिलाएं भी शीर्ष व्यक्तित्व के रूप में सामने आई हैं, वे भी अपर कास्ट की ही हैं.
अपर कास्ट के अतिरिक्त जिस एक शीर्ष व्यक्तित्व की चर्चा की गई है, वह व्यक्तित्व वर्ण-व्यवस्था के क्रम में शूद्र समाज से और संवैधानिक शब्दावली में ओबीसी समाज से है. हां, दलित समाज से भी एक व्यक्ति इसमें थोड़ी सी जगह बनाने में कामयाब हुआ है. महादेवी वर्मा, गोरख पांडेय, नामवर सिंह, राजेंद्र माथुर, एसपी सिंह, मृणाल पांडेय, विद्यानिवास मिश्र, दीनानाथ मिश्र, पीएन सिंह, प्रेमपति और अमिताभ बच्चन. इस परिमंडल के इर्द-गिर्द घूमते अधिकांश पात्र तथाकथित अपर कास्ट के हैं.
इन अपर कास्ट शीर्ष व्यक्तित्वों के बीच जिस नॉन अपर कास्ट बौद्धिक ने सबसे प्रभावशाली रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई है उसका नाम है राजेंद्र यादव. दलित समाज से तुलसीराम की भी उपस्थिति किताब में कम शब्दों में लेकिन प्रभावी तरीके से दर्ज है. धार्मिक अल्पसंख्यक समुदाय के सदस्य के रूप में हिंदू पट्टी से एमजे अकबर की उपस्थिति है. भारतीय मुसलमान भी जातियों में बुरी तरह से बंटे हुए हैं. एमजे अकबर अपर कास्ट मुस्लिम का प्रतिनिधित्व करते हैं. आदिवासी समाज और पसमांदा मुस्लिम समाज का कोई शीर्ष एवं प्रभावशाली बुद्धिजीवी इस किताब के बौद्धिक समाज में उपस्थित नहीं है और न ही ओबीसी, दलित और आदिवासी समाज की कोई महिला इस किताब में उपस्थित है.
इस लिहाज से हिंदी के बौद्धिक जगत पर अपर कास्ट का अभी भी वर्चस्व है, चाहे वामपंथी के रूप में हो, चाहे उदारपंथी के रूप में, या फिर दक्षिणपंथी के रूप में. कमोबेश बौद्धिक जगत में वही पक्ष और वही प्रतिपक्ष है, एकाध अपवादों को छोड़कर, जैसे राजेंद्र यादव या तुलसीराम.
यह किताब महादेवी वर्मा से शुरू होती है और किताब के अंतिम अध्याय में भी महादेवी वर्मा उपस्थित हैं. लेखक को महादेवी के व्यक्तित्व का सबसे आकर्षक पक्ष उनके द्वारा न्याय की सार्वजनिक तौर पर खुली पक्षधरता और अन्याय एवं अत्याचार का मुखर तरीके से प्रतिवाद है. पूरी किताब को पढ़ते हुए यह तथ्य उजागर होता है कि लेखक अन्याय के सार्वजनिक प्रतिवाद को और न्याय की सार्वजनिक पक्षधरता को एक बड़ा मूल्य मानते हैं. महादेवी वर्मा, गोरख पांडेय, राजेंद्र माथुर, राजेंद्र यादव, महाश्वेता देवी और डी प्रेमपति आदि उन्हें बहुत प्रिय हैं. इन सबके व्यक्तित्व में सबसे कॉमन चीज है, न्याय की सार्वजनिक पक्षधरता और अन्याय का सार्वजनिक प्रतिवाद.
जिस व्यक्तित्व ने लेखक को सबसे अधिक विचलित किया और आहत किया है उनका नाम नामवर सिंह है. नामवर सिंह के प्रति वितृष्णा की वजह सार्वजनिक और निजी दोनों है. जो निजी है, उसका भी बुनियादी चरित्र सार्वजनिक है. नामवर सिंह का जातिवाद, सामंती मिजाज, अवसरवाद, व्यक्तिगत लाभ-हानि के गणित और उसके लिए जोड़-तोड़ ने कैसे केवल जेएनयू के भारतीय भाषा केंद्र को उत्कृष्ट संस्थान बनने से वंचित कर दिया, इसके साथ देश के अन्य संस्थानों में नियुक्ति में उनकी भूमिका ने देश के अकादमिक और बौद्धिक जगत को पतनशील एवं बौद्धिक तौर पर दरिद्र बनाया.
राजेंद्र यादव अपने समग्र व्यक्तित्व के साथ इस किताब में आते हैं, अपनी खूबियों एवं सीमाओं दोनों के साथ. इन खूबियों-सीमाओं में व्यक्तिगत खूबियां और सीमाएं भी शामिल हैं. राजेंद्र यादव के संस्मरण में एक बात खलती है. एक ओर लेखक उनके व्यक्तित्व की सीमाओं को और कमियों-कमजोरियों को उजागर करने वाले तथ्यों को विस्तार से रखते हैं, लेकिन खुद के तथ्यों को अपने विचारों से ढंकने की कोशिश करते हुए भी दिखते हैं. राजेंद्र यादव के प्रसंग में लेखक वस्तुगत तथ्यों पर अपने सब्जेक्टिव ऑब्जर्वेशन को कई बार वरीयता देते हुए दिखते हैं.
सबसे दिलचस्प अध्याय गाजीपुर में क्रिस्टोफर कॉडवेल की आवाजें हैं. जिसके आधार पर किताब का शीर्षक भी चुना गया है. हालांकि यह शीर्षक किताब की अंतर्वस्तु के साथ पूरी तरह न्याय नहीं करता है और बौद्धिक जगत में क्रिस्टोफर कॉडवेल के नाम का बाजार के लिए इस्तेमाल अधिक लगता है. पता नहीं यह लेखक की खुद की पसंद थी या प्रकाशक की. गाजीपुर का अध्याय सबसे दिलचस्प है, यह लेखक की जन्मभूमि है. जिसके साथ उनका गहरा जुड़ाव है. उत्तर प्रदेश में गाजीपुर स्वतंत्रता आंदोलन और क्रांतिकारी वामपंथी आंदोलन का गढ़ रहा है. गाजीपुर पर लिखते समय उर्मिलेश पूरी तरह डूबकर लिखते हैं. गोरख पांडेय के संस्मरण के साथ यह इस किताब का सबसे पठनीय अध्याय है.
किताब में सबसे बड़ी खूबी यह दिखाई देती है कि वे वर्ण-जाति के दायरे से मुक्त दिखते हैं और किसी व्यक्तित्व के आकलन का आधार वर्ण-जाति नहीं, बल्कि उसके गुण-अवगुण बनाते हैं. ब्राह्मण जाति के गोरख पांडेय उन्हें अत्यन्त प्रिय हैं, एक हद तक आदर्श हैं. इस किताब को एक पत्रकार के दस्तावेज के तौर पर भी पढ़ सकते हैं, जिसमें 80 के दशक से लेकर 21वीं शताब्दी के प्रारंभिक दशकों के बीच के हिंदी पट्टी के इतिहास, समाजशास्त्र और व्यक्तियों को संचालित करने वाले मनोविज्ञान का भी अध्ययन है.
Also Read
-
Hafta x South Central feat. Josy Joseph: A crossover episode on the future of media
-
Encroachment menace in Bengaluru locality leaves pavements unusable for pedestrians
-
बिहार में विधानसभा चुनावों का ऐलान: दो चरणों में होगा मतदान, 14 नवंबर को आएंगे नतीजे
-
October 6, 2025: Can the BJP change Delhi’s bad air days?
-
सुप्रीम कोर्ट में चीफ जस्टिस बीआर गवई पर जूता फेंकने की कोशिश