Report
अफगानी महिलाओं ने सैनेटरी नैपकिन बनाकर शुरू किया खुद का व्यवसाय
"मेरा बेटा अच्छी तरह से शिक्षित होने के बावजूद नौकरी नहीं खोज पा रहा है. जिसके चलते उसे मज़दूरी करनी पड़ती है. बेहतर जीवन की कोई उम्मीद नहीं है और अफगानिस्तान की स्थिति ने घर पर एक अच्छा जीवन पाने की उम्मीद को खत्म कर दिया है." नवरोज़ कहती हैं.
काबुल की 40 वर्षीय नवरोज़ पिछले तीन साल से भारत में रह रही हैं. उन्हें सिलाई का काम आता है. अभी तक वह क्रोकेट के झुमके बनाकर बेचा करती थीं. लेकिन कोविड माहमारी ने उनके आय के सभी साधन छीन लिए.
कंधार से भारत आयीं 23 वर्षीय साईबा यूएनएचसीआर द्वारा संचालित कार्यक्रमों के माध्यम से अपनी शिक्षा पूरी कर रही हैं. वह एक व्यवसायी महिला बनना चाहती हैं. लेकिन उनके परिवार की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है इसलिए वो किसी विश्वविद्यालय की डिग्री लेने में असमर्थ हैं. साईबा कहती हैं, "शरणार्थी का दर्जा मुझे नौकरी के किसी भी अवसर की गारंटी नहीं देता है बल्कि मेरे लिए रोजगार पाना कठिन बना देता है. आधार कार्ड जैसे नागरिकता दस्तावेजों की कमी के कारण हम महिलाओं को काम पर कोई नहीं रखता. वहीं अपनी बचत के लिए बैंक खाता खोलना भी मुश्किल हो जाता है."
संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) के साथ मिलकर दिल्ली के मालवीय नगर में कुछ गैर-सरकारी संगठन (एनजीओ) ऐसी ही कई अफगान महिलाओं को एक साथ लाने का काम कर रहे हैं. इस प्रोजेक्ट के अंतर्गत महिलाओं को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उन्हें सैनिटरी नैपकिन बनाना सिखाया जा रहा है. इन महिलाओं की सबसे बड़ी समस्या है दिल्ली में इन्हें नौकरी के अवसर न मिल पाना. हैंड-मेड सैनिटरी नैपकिन बनाना सीखकर ये महिलाएं अपना व्यवसाय शुरू कर रही हैं. यह सैनिटरी नैपकिन बाजार में मिलने वाले प्लास्टिक सैनिटरी नैपकिन से अलग और सुरक्षित हैं.
इस परियोजना के लिए द पीसबिल्डिंग प्रोजेक्ट और पीपल बियॉन्ड बॉर्डर्स साथ आए हैं. इसका उद्देश्य पर्यावरण के अनुकूल रीयूजेबल पैड बनाना है. साथ ही एनजीओ कामख्या द्वारा विकास कार्यशालाओं का आयोजन किया जा रहा है जिनमें महिलाओं और लड़कियों को पैड बनाने का प्रशिक्षण दिया जा रहा है. इसके बाद पैड बनाकर नवरोज़ और साईबा जैसी कई अफगान महिलाएं अपने लिए आय और आजीविका कमा सकेंगी. साथ ही इन महिलाओं में मासिक धर्म को लेकर कई भ्रम टूटेंगे. शुरुआत में कामख्या फाउंडेशन अफगान महिलाओं द्वारा बनाए गए पैड खरीदेगा जब तक ये महिलाएं व्यवसाय चलाने के लिए पूरी तरह सशक्त नहीं हो जातीं. इस परियोजना में हजारा, ताजिक और पश्तून समुदाय की महिलाएं हिस्सा ले रही हैं.
पीपल बियॉन्ड बॉर्डर्स और पीस बिल्डिंग प्रोजेक्ट ने हाल ही में इन महिलाओं के लिए आजीविका मॉडल को तैयार करने के लिए यूएनडीपी से अनुदान अर्जित किया है.
पीसबिल्डिंग फाउंडेशन की काशवी बताती हैं, "हम इन महिलाओं को कपडे से बना रीयूजेबल पैड बनाने की ट्रेनिंग दे रहे हैं. कामख्या द्वारा कच्चा माल और उपकरण प्रदान किए गए हैं. यह परियोजना मासिक धर्म उत्पादों की सस्ती पहुंच प्रदान करेगा. साथ ही अफगान महिलाओं को भारत में आजीविका चलाने में मदद मिलेगी. अफगानी महिलाओं में मासिक धर्म को लेकर भी भ्रम रहता है. जागरूकता की कमी के कारण महिलाएं स्कूल छोड़ देती हैं. इसके अलावा भी कई ऐसे मिथ्य हैं. इसलिए इस परियोजना के जरिए महिलाओं में जीवित सामाजिक-सांस्कृतिक भ्रम मिटाना चाहते हैं. इसके लिए सामुदायिक बैठकों और कार्यशालाओं का भी आयोजन किया जा रहा है."
कामख्या फाउंडेशन की नंदिनी कहती हैं, "बाज़ार में बिकने वाला प्लास्टिक पैड स्वास्थ्य के लिए अच्छा नहीं होता. इनमें जैल होता है जो खून को फैला देता है. जिससे लगने लगता है कि ज्यादा ब्लीडिंग हो रही है. जबकि महिलाएं मासिक धर्म के दौरान 50- 60 एमएल ब्लीडिंग करती हैं. कपडे से बना पैड बार- बार नहीं बदलना पड़ता और यह हाइजैनिक होता है. यह सुरक्षित है और इसे बनाने में कम लागत आती है. एक पैड को चार-पांच महीने तक चलाया जा सकता है. इसका दूसरा पहलू यह है कि यह पैड इको फ्रेंडली है. इसमें प्लास्टिक नहीं है. यह महिलाएं जो इसे बना रही हैं खुद भी इसी पैड का इस्तेमाल करती हैं."
बता दें कि अफगानिस्तान की रूढ़िवादी संस्कृति में, मासिक धर्म के बारे में तमाम गलतफहमियां हैं. अफगानिस्तान में मासिक धर्म को भ्रम माना जाता है. युवा लड़कियां इसे नकारात्मक, शर्मनाक या गंदी चीज से जोड़ती हैं. कई माता-पिता अपनी बेटियों के साथ मासिक धर्म पर चर्चा करने से इनकार करते हैं. दूसरी ओर, लड़कियां अपने मासिक धर्म की शुरुआत के बारे में इस डर से चुप रहती हैं कि उनके माता-पिता उनकी शादी कर देंगे.
हाल ही में यूनिसेफ की एक यू-रिपोर्ट पोल के अनुसार, अफगानिस्तान में 50 प्रतिशत से अधिक लड़कियों को मासिक धर्म होने के बाद भी उन्हें इसके बारे में नहीं पता होता है.
Also Read
-
Can truth survive the fog of war? Lessons from Op Sindoor and beyond
-
Bogus law firm and fake Google notices: The murky online campaign to suppress stories on Vantara
-
Bearing witness in Leh: How do you report a story when everyone’s scared to talk?
-
Happy Deepavali from Team NL-TNM! Thanks for lighting the way
-
As Punjab gets attention, data suggests Haryana, UP contribute to over a third of Delhi’s PM 2.5