Opinion

केरल केंद्रीय विश्वविद्यालय द्वारा शिक्षकों को जारी पत्र पर मचा बवाल

राष्ट्रगीत में भला कौन वह

भारत-भाग्य-विधाता है

फटा सुथन्ना पहने जिसका

गुन हरचरना गाता है

मख़मल टमटम बल्लम तुरही

पगड़ी छत्र चंवर के साथ

तोप छुड़ाकर ढोल बजाकर

जय-जय कौन कराता है

पूरब-पश्चिम से आते हैं

नंगे-बूचे नरकंकाल

सिंहासन पर बैठा, उनके

तमगे कौन लगाता है

कौन-कौन है वह जन-गण-मन-

अधिनायक वह महाबली

डरा हुआ मन बेमन जिसका

बाजा रोज बजाता है

ऊपर की ‘अधिनायक’ शीर्षक कविता हिंदी के प्रसिद्ध कवि रघुवीर सहाय के कविता संग्रह ‘आत्महत्या के विरुद्ध’ (1967 ई.) में संकलित है. अब सवाल यह है कि इस कविता में आए बिंदुओं यथा, राष्ट्रगान की अवधारणा और विकास, स्वतंत्रता प्राप्ति के मूल्य एवं उन में आए विचलन, आजादी का वास्तविक अर्थ आदि पर क्या बीए/एमए/पीएचडी की कक्षाओं में चर्चा या व्याख्या राष्ट्र विरोधी गतिविधि मानी जाएगी?

ऐसा इसलिए कि केरल केंद्रीय विश्वविद्यालय ने एक पत्र जारी किया है जिसमें शिक्षकों को सावधान किया गया है कि वे भड़काऊ, राष्ट्रविरोधी या राष्ट्रहित के विरोध में यदि भाषण देंगे तो उन पर सख्त अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाएगी. हालांकि विश्वविद्यालय ने यह नहीं बताया है कि यह कैसे और किन मानकों पर तय होगा कि कौनसा भाषण भड़काऊ, राष्ट्रविरोधी या राष्ट्रहित के विरोध में है? इसे तय करने का अधिकार किसे होगा और इस की प्रक्रिया क्या होगी? क्या इसे एक ‘स्वयंसिद्ध संगठन’ के लोग तय कर देंगे या कोई आहत ‘विद्यार्थी परिषद्’? या फिर कोई भी केंद्रीय सरकार अपनी विचारधारा के अनुरूप फैसला ले लेगी?

क्या कल कोई संगठन या समूह इस कविता को आसानी से राष्ट्रगान विरोधी करार दे देगा? क्या कक्षा में इस कविता की व्याख्या करने के कारण कोई भी शिक्षक निलंबित कर दिया जा सकता है? वैसे नाजीवाद और फासीवाद पर कक्षा के क्रम में एक शिक्षक का निलंबन हो ही गया था. यह महीना सितम्बर का है. इसी महीने की 23 तारीख को राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर की जयंती है. इन्हीं राष्ट्रकवि ने आज़ादी की पहली सालगिरह (1948 ई.) पर ‘पहली वर्षगांठ’ कविता लिखी जिस की कुछ पंक्तियां इस प्रकार हैं.

आजादी खादी के कुरते की एक बटन,

आजादी टोपी एक नुकीली तनी हुई

फैशनवालों के लिए नया फैशन निकला

मोटर में बांधों तीन रंगवाला चिथड़ा

औ’ गिनो कि आंखें पड़ती हैं कितनी हम पर

हम पर यानी आजादी के पैगम्बर पर

राष्ट्रीय झंडे के लिए ‘तीन रंगवाला चिथड़ा’ लिखने के कारण दिनकर पर न जाने राष्ट्रद्रोह की कितनी धाराएं लग जानी चाहिए थीं, पर नहीं लगीं. पर आज यदि कोई शिक्षक इस कविता को पढ़ाएगा या इस पर लेख लिखेगा तो उस का क्या होगा? कहना मुश्किल है. पता नहीं आज विश्वविद्यालयों में अत्यधिक ऊंचाई पर लहराते झंडे के माहौल में धूमिल जैसे हिंदी कवि होते तो उन पर शायद ‘गैरकानूनी गतिविधियां रोकथाम क़ानून (यूएपीए)’ लग जाता क्योंकि वे तो साफ लिख चुके हैं कि-

क्या आजादी सिर्फ तीन थके हुए रंगों का नाम है

जिन्हें एक पहिया ढोता है

या इसका कोई खास मतलब होता है?

ऐसे अनेक उदाहरण ज्ञान विज्ञान के विषयों से दिए जा सकते हैं. मान लीजिए राजनीति विज्ञान या समाजशास्त्र का कोई शिक्षक भारत की अब तक की केंद्रीय सरकारों या अब तक के प्रधानमंत्रियों के बारे में अपनी कक्षा में चर्चा कर रहा है या कोई लेख ही लिख रहा हो और उसी क्रम में यदि वह वर्तमान सरकार या प्रधानमंत्री की तार्किक आलोचना करता है तो उस का यह अकादमिक कार्य ‘राष्ट्रविरोधी’ सिद्ध हो जाएगा? कक्षा में कही गई या लेख में लिखी गई बात क्या इतनी नागवार गुजरेगी कि उस के संस्थान के कुलपति पर इतना दबाव बनने लगेगा कि उस शिक्षक पर कोई अनुशासनात्मक कार्रवाई की जाने लगेगी? ऐसा भारत के विश्वविद्यालयों में हो रहा है.

पिछले दो वर्षों में विश्व भारती विश्वविद्यालय में 11-11 शिक्षक और शिक्षकेतर कर्मचारी अलग-अलग कारणों से निलंबित किए जा चुके हैं. 150 से अधिक कारण बताओ नोटिस जारी किए जा चुके हैं. इन सब से यही लगता है कि भारत के विश्वविद्यालयों में जो भी रही सही ज्ञान, तर्क और संवाद की स्थिति थी वह नष्ट कर दी गई है. ज्ञान की प्रक्रिया गहन बहस तर्क-वितर्क और स्वतंत्र चिंतन से जुड़ी हुई है. ऐसे में जब यह डर शिक्षकों और विद्यार्थियों पर हावी रहेगा कि उन के बोले या लिखे में कहीं कोई ऐसी बात न हो कि उस पर ‘राष्ट्रविरोधी’ चस्पा लग जाए तो वे क्या नए ज्ञान का सृजन कर पाएंगे? तब क्या यह निष्कर्ष निकाल लिया जाए कि अब भारत में ‘विश्वविद्यालय के विचार’ में पूरी तरह परिवर्तन हो गया है?

विश्वविद्यालय अब स्वायत्तता, उन्मुक्तता, सृजनात्मक वैचारिकता की जगह नहीं हैं बल्कि जो दल सत्ता एवं सरकार में है उस की एक विस्तारित एजेंसी के रूप में हैं और वे सरकार की किसी भी योजना, नीति या कार्य का अनुपालन करने के लिए बाध्य हैं. क्या अब संभव नहीं है कि किसी भी विश्वविद्यालय के अर्थशास्त्र विभाग को अपनी संगोष्ठी के दौरान यह लगे कि ‘नोटबंदी’ बिलकुल ही जनविरोधी नीति थी तो वह इसे खुल कर कह सके? ऐसा इसलिए कि अगले ही क्षण ‘कारण बताओ नोटिस’ से लेकर निलंबन बर्खास्तगी तक संभव है.

प्रेमचंद ने साहित्य के बारे में कभी कहा था कि “वह देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सचाई भी नहीं, बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई चलने वाली सचाई है.” इस प्रसिद्ध वाक्य में साहित्य को ‘देशभक्ति’ से भी आगे की वस्तु माना गया है. हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि प्रेमचंद ने यह वाक्य तब कहा था जब भारत में आजादी के लिए संघर्ष जारी था फिर भी किसी ने भी प्रेमचंद की देशभक्ति पर न तो शक किया और न ही उन को ‘राष्ट्रविरोधी’ कहा.

क्या आज के वातावरण में कोई शिक्षक ऐसी बात कहने का साहस कर सकता है और उस के कह देने पर उस के सही सलामत बचे रहने की स्थिति है? पहली बार में इस प्रश्न का जवाब ‘नहीं’ ही आता है. तब क्या यह कहा जा सकता है कि सरकारी तंत्र के हिसाब से भारत के विश्वविद्यालयों में ‘वैचारिक अनुकूलन’ की प्रक्रिया बहुत जोर-शोर से चल रही है? यह ‘वैचारिक अनुकूलन’ सत्ताधारी दल की विचारधारा के अनुरूप ही होगा, हो रहा है.

यानी वर्तमान राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में देश और सरकार को पर्यायवाची बना दिया गया है. यह धारणा प्रचार और सत्ता का इस्तेमाल कर के सामान्य समझ का हिस्सा बनाई जा रही है कि सरकार ही देश है और सरकार का विरोध देश का विरोध है. आज भारत आजादी का ‘अमृत महोत्सव’ मना रहा है. पर क्या आज फिर एक बार राष्ट्रकवि दिनकर की तरह किसी शिक्षक को यह कहने का अवकाश है-

है कौन जगत में, जो स्वतंत्र जनसत्ता का अवरोध करे?

रह सकता सत्तारूढ़ कौन, जनता जब उस पर क्रोध करे?

आजादी केवल नहीं आप अपनी सरकार बनाना ही,

आजादी है उसके विरुद्ध खुलकर विद्रोह मचाना भी

‘रोटी और स्वाधीनता’ शीर्षक यह कविता 1953 ई. की है पर आज हालत यह है कि ‘सरकार के विरुद्ध खुलकर विद्रोह मचाने’ की बात तो दूर की है, एक साधारण शिक्षक की साधारण आलोचना भी सत्ताधारी दल या उससे जुड़े संगठन के लोग बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं. तब क्या हम सच में मान लें कि भारत के विश्वविद्यालयों में अब उम्मीद की जगह सिर्फ अंधेरा है?

(लेखक- योगेश प्रताप शेखर, सहायक प्राध्यापक (हिंदी), दक्षिण बिहार केंद्रीय विश्वविद्यालय)

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