Opinion

क्या बसपा ब्राह्मण सम्मेलन कर अपने बहुजन वैचारिकी से भटक रही है?

बसपा के ब्राह्मण सम्मेलन पर आजाद समाज पार्टी के संस्थापक चन्द्रशेखर आजाद का यह कहना कि हर पार्टी को अपने ढंग से चलने और जनाधार बढ़ाने का हक है, एक सुलझे हुए राजनेता की टिप्पणी है. बहुजन समाज पार्टी द्वारा किये जा रहे ब्राह्मण सम्मेलन को मात्र जोड़-तोड़ की चुनावी राजनीति के नजरिये से नहीं देखा जाना चाहिए. इसके पीछे के सामाजिक सच को भी जानना जरूरी है.

बसपा का यह सामाजिक गठजोड़ वर्तमान हालात के बिल्कुल अनुरूप है. ब्राह्मण समाज एक राजनैतिक समाज है. वह अपने सामाजिक हितों को ध्यान में रख कर चलता है. अपने हितों के अनुरूप अगर ब्राह्मणों को बदलना भी पड़ जाए तो वे बदलने में थोड़ा सा भी संकोच नहीं करते. उनके समाज दर्शन में दलित अछूत हैं, लेकिन जरूरत पड़ने पर वे दलितों के पैर छू लेते हैं और उन्हें बराबरी का सम्मान भी दे देते हैं. बड़ी बात है कि वे इसे मानवतावाद की रक्षा में किया गया कार्य बताकर करते हैं. इस मामले में, दलितों और गैर-दलितों का ऐसा कोई समाज नहीं है जो ब्राह्मणों की बराबरी कर सके. जिस तरह ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य एक दूसरे के स्वभाविक मित्र हैं, उस तरह दलितों का कोई स्वाभाविक मित्र नहीं है. लोग मजबूरी में दलितों के साथ जुड़ते हैं, स्वतः या खुशी-खुशी नहीं.

बसपा के शुभचिंतकों में बहुतों को लगता है कि बसपा ब्राह्मण सम्मेलन कर अपने बहुजन वैचारिकी से भटक रही है. वे लोग ऐसा कहने और सोचने के लिए स्वतंत्र हैं, लेकिन एक राजनैतिक पार्टी के रूप में बसपा का ब्राह्मण सम्मेलन कहीं से भी अराजनैतिक नहीं है. बहुजन वैचारिकी अपनी जगह है और व्यावहारिक राजनीति अपनी जगह है. एक राजनैतिक पार्टी होने के नाते वह बहुजन समाज बनने और बनाने का इंतजार नहीं कर सकती. इससे उसके खत्म हो जाने का भय है. ऐसे में, बसपा ब्राह्मणों को अपनी पार्टी से जोड़ रही है तो इसका मतलब यह नहीं है कि वह ब्राह्मणों के धर्म और दर्शन को स्वीकार करने जा रही है. वह चाह कर भी ऐसा नहीं कर सकती, इसलिए कि यह उसके वजूद से जुड़ा हुआ प्रश्न है. अपने वजूद को बचाने के लिए बसपा कोई जोखिम तो ले सकती है लेकिन स्वयं अपने पैर में कुल्हाड़ी मारेगी, ऐसा नहीं कहा जा सकता.

ब्राह्मण समाज के लोग भी उसके साथ आएंगे तो वे अपने धर्म और दर्शन को छोड़कर नहीं आएंगे. वे भी अपनी पहचान के महापुरुषों, देवी-देवताओं और भगवानों के साथ आएंगे. इसमें कोई बुराई भी नहीं. ब्राह्मण हों या गैर-ब्राह्मण, हमारा संविधान हर किसी को अपने धर्म और दर्शन के साथ जीने का हक देता है. ऐसे में, ब्राह्मण स्वेच्छा से जय भीम का नारा लगाते हुए आएं तो आएं, लेकिन इसके लिए उन पर कोई दबाव नहीं बनाया जा सकता. बहुजन वैचारिकी में दलित, आदिवासी और पिछड़े हिन्दू धर्म के अंग नहीं माने गए हैं. इसका मतलब है, वे हिन्दू धर्म के शूद्र, दलित और आदिवासी नहीं हैं. उन पर यह पहचान थोपी गयी है, लेकिन समस्या यह है कि अभी तक हिन्दू धर्म के बरक्स उनकी कोई एक स्वतंत्र और व्यापक धार्मिक पहचान नहीं बन पायी है. इसलिए निकट भविष्य में बहुजन राजनीति के परवान चढ़ने की कोई संभावना नहीं है. अगर आरक्षण या अन्य इसी तरह के किसी मुद्दे की वजह से वह परवान चढ़ेगी भी तो स्थायी नहीं होगी.

बहुजन वैचारिकी का मसला एक बड़े समाज की धार्मिक पहचान से जुड़ा हुआ मसला है. बामसेफ और बसपा को इस क्षेत्र में कुछ सफलता भी हासिल हुई है. इसलिए बसपा लाख ब्राह्मण सम्मेलन करे, वह अपनी इस पहचान को खोने का जोखिम हरगिज नहीं ले सकती. अगर उसके साथ कोई जोखिम है तो स्वयं उसकी बहुजन वैचारिकी में है. बौद्ध धर्म से जुड़े होने के कारण वह हिन्दू धर्म की ओर झुकी हुई है. ब्राह्मणों ने बुद्ध को विष्णु का 10वां अवतार बता कर अपने धर्म में यूं ही नहीं शामिल कर लिया है. यह भी कि ऐसा करने के लिए बुद्ध ने ब्राह्मणों को पूरा स्पेस दिया है. बौद्ध धर्म के पास कोई सिविल कानून नहीं था, इसलिए स्वयं बाबा साहेब ने उसे हिन्दू धर्म का एक सम्प्रदाय बताया था. इसके अलावा, ऐसे और भी कई कारण हैं जो बौद्ध धर्म को हिन्दू धर्म के करीब ले जाते हैं.

बामसेफ के संस्थापकों में से एक माननीय डी. के. खापर्डे चाहते थे कि पहले बहुजन वैचारिकी के आधार पर समाज तैयार किया जाए और फिर राजनैतिक पार्टी बनायी जाए. इसके विपरीत, मान्यवर कांशीराम का कहना था कि नहीं, ये दोनों बातें साथ-साथ चलेंगी. इन दोनों के सहयेगी माननीय दीनाभाना जी किस के पक्ष में थे मुझे जानकारी नहीं. अपनी इसी समझ के अनुरूप मान्यवर कांशीराम ने बहुजन समाज पार्टी बनायी थी. आज बसपा का ब्राह्मण सम्मेलन माननीय डी. के. खापर्डे की आशंकाओं को मूर्त करता हुआ प्रतीत होता है. उन्हें बहुजन राजनीति के चक्कर में बहुजन वैचारिकी के खत्म होने का भय था, लेकिन बहुजन समाज को तैयार करने के दौरान लोग साहेब कांशीराम से पूछते थे कि आप अपने लोगों को सांसद और विधायक कब बनाएंगे? दूसरी पार्टियों के लोग तो उन्हें सांसद और विधायक बना रहे हैं. ऐसे में वे आपके पास क्यों आएंगे? लोगों की बात भी उचित थी. इसी बात को ध्यान में रखते हुए मान्यवर कांशीराम ने अपनी सोच बदल ली थी.

बहुजन वैचारिकी का फैलाव और बहुजन राजनीति दोनों साथ-साथ चलेंगी. इन दोनों को साथ ले कर चलने में जोखिम तो है, पर ऐसा कौन सा बड़ा काम है जो बिना जोखिम के है. बस इन्हें साध कर चलना आना चाहिए. ऐसे में, सारा दारोमदार लीडरशिप के ऊपर है. अगर उसमें क्षमता है तो वह इन दोनों को अपने पक्ष में साध कर चल सकता है. बहुजन वैचारिकी और बहुजन राजनीति दो अलग-अलग चीजें हैं. ये एक दूसरे से जुड़ी हो कर भी एक दूसरे से स्वतंत्र हैं. इसलिए बहुजन वैचारिकी जैसे-जैसे कहेगी, बहुजन राजनीति वैसे-वैसे नहीं चलेगी. राजनीति जितनी वैचारिकी से जुड़ी हुई बात है उतनी ही रणनीतियों से भी. साहेब कांशीराम ने जब मुलायम सिंह से समझौता किया था तो बहुजन वैचारिकी को ध्यान में रखकर किया था लेकिन जब भाजपा के साथ गठबंधन किया था तो वह रणनीतियों का मसला था. ठीक यही बात भाजपा के साथ भी थी. बसपा के साथ उसका गठबंधन भी रणनीतिक था. ऐसे ही नहीं मान्यवर कांशीराम ने भाजपा को वल्चर और बसपा को सुपरवल्चर बताया था. यह उनकी नेतृत्व क्षमता थी कि बसपा से गठबंधन के बाद भाजपा उत्तर प्रदेश में हाशिये पर चली गयी थी.

वर्ष 2007 में बसपा ने सीधे भाजपा से समझौता न कर के ब्राह्मण समाज के साथ समझौता किया था जिसके चलते उसे विधानसभा में पूर्ण बहुमत मिला था. ब्राह्मण समाज के राजनैतिक होने का यह एक बड़ा सबूत था कि उसके अधिकांश लोग बसपा को वोट दिये थे. बसपा के साथ ब्राह्मणों के जुड़ने का एक बड़ा लाभ यह हुआ था कि तब उसके साथ अतिपिछड़ी जातियों और दलितों में गैर-चमार/जाटव जातियों के अधिकांश लोग भी जुड़ गये थे. ब्राह्मणों के समर्थन के कारण इन जातियों में बसपा की स्वीकार्यता बढ़ जाती है. इससे बसपा के पक्ष में हवा बन जाती है और मुस्लिम समाज के लोग भी उसके पक्ष में खड़े हो जाते हैं. इसलिए बसपा के ब्राह्मण सम्मेलन की जो आलोचना हो रही है वह सैद्धांतिक रूप से बहुत कुछ सही होते हुए भी सतही और राजनीति से प्रेरित है.

(लेखक दिल्ली विश्वविद्यालय के शहीद भगत सिंह कॉलेज में हिन्दी के एसोसिएट प्रोफेसर हैं)

(साभार- जनपथ)

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