Opinion

अफगानिस्तान: ऑपरेशन एंड्यूरिंग फ्रीडम से तालिबान रिटर्न तक

शायद ही किसी ने 20 साल पहले यह अनुमान लगाया होगा कि अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी सेना के ‘ऑपरेशन एनड्यूरिंग फ़्रीडम’ (7 अक्टूबर, 2001 से 28 दिसंबर, 2014) और ‘ऑपरेशन फ़्रीडम्स सेंटिनल’ (28 दिसंबर 2014 से अगस्त 2021) का अंत ऐसा होगा. भले ही अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन और विदेश सचिव एंटनी ब्लिंकेन दावा करें कि अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिकी और नाटो सेना का अभियान सफल रहा है, पर वास्तविकता यह है कि अमेरिका और नाटो देशों के दूतावासों को अपने शेष बचे सैनिकों को एक ऐसे काबुल से अफ़रातफ़री में निकालना पड़ रहा है, जब वहां कोई सरकार अस्तित्व में नहीं है.

यह 29 अप्रैल, 1975 के सायगॉन (हो ची मिन्ह सिटी, वियतनाम) से किसी तरह बच निकलने जैसा मामला नहीं है. तब वियतनामी पीपुल्स आर्मी से अमेरिका का युद्ध चल रहा था और वे निश्चित ही अमेरिकी दूतावास को निशाना बनाते, लेकिन अफ़ग़ानिस्तान में तो तालिबान से पिछले साल हुए समझौते के तहत सैनिकों की वापसी हो रही है और तालिबान ने समझौते के बाद से या अभी 15 अगस्त को काबुल पर क़ाबिज़ होने के बाद अमेरिकी या नाटो सैनिकों पर हमला नहीं किया है. इससे न केवल उसकी छवि में सुधार हुआ है, बल्कि घरेलू स्तर पर भी भरोसा बढ़ाने में मदद मिली है. साथ ही, अमेरिकी सेनाओं से सीधी भिड़ंत न कर उन्होंने अपनी सामरिक शक्ति को भी बचाया है.

उन्होंने यह भी आश्वासन दिया था कि काबुल में हर दूतावास और विदेशी नागरिक को सुरक्षा दी जायेगी. अभी तक तो यही लग रहा है कि इस वादे का पालन हो रहा है. सुरक्षा परिषद की बैठक में संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने भी कहा है कि संयुक्त राष्ट्र और मानवीय मदद कर रही संस्थाएं और कर्मी सुरक्षित हैं तथा उन्हें काम करने में आम तौर पर कोई बाधा नहीं है. ऐसा कर तालिबान दुनिया को यह संदेश देना चाहते हैं कि उनके वादों पर भरोसा किया जा सकता है और वे दुनिया के साथ चलना चाहते हैं. इससे देश के भीतर भी उनके प्रति विश्वास बढ़ सकता है. 25 साल के अनुभवों ने तालिबान को एक ठोस राजनीतिक, सैनिक और कूटनीतिक संगठन का रूप दे दिया है.

अमेरिका और नाटो सेनाओं की वापसी का मसला अमेरिकी राजनीति और समाज में लगातार बहस का विषय रहा है. बराक ओबामा, डोनाल्ड ट्रंप और जो बाइडेन का यह प्रमुख चुनावी वादा रहा है. जब पिछले साल इस संबंध में समझौता हुआ था, तब आम तौर पर उसका स्वागत हुआ था. लेकिन तालिबान द्वारा 10 दिन के भीतर काबुल समेत समूचे अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़ा करने, अफ़ग़ान सेना व पुलिस के समर्पण करने या भाग जाने तथा राष्ट्रपति पद से औपचारिक रूप से इस्तीफ़ा दिये बिना अशरफ़ ग़नी के देश छोड़ देने की पृष्ठभूमि में जिस प्रकार अमेरिकी दूतावास को ख़ाली किया गया है और हवाई अड्डे से निकलने की कोशिश हो रही है, उससे बाइडेन प्रशासन की रणनीतिक क्षमता पर सवाल उठना स्वाभाविक है.

अशरफ़ ग़नी कह चुके हैं कि वापसी की वजह से ऐसा हुआ है. जो लोग ग़नी की सरकार में थे और उसके समर्थक थे, ग़नी को कोसते हुए वे भी अमेरिका को कटघरे में खड़ा कर रहे हैं, अमेरिका, ब्रिटेन व नाटो सदस्य देशों में मीडिया, पूर्व सैनिक और राजनेता बाइडेन प्रशासन को दोषी ठहरा रहे हैं. सैन्य मामलों के कई जानकारों का कहना है कि हालिया दिनों में अमेरिकी रवैये से अफ़ग़ान सरकार और सेना तथा तालिबान विरोधी लोगों का मनोबल गिर गया. अमेरिका पर उन लोगों के साथ विश्वासघात का आरोप भी लग रहा है, जिन्होंने अलग-अलग भूमिकाओं में 20 साल तक अमेरिकी सेनाओं का साथ दिया है, जिस कारण उन्हें तालिबान के बदले की कार्रवाई का डर है. हालांकि अमेरिका और अन्य देशों ने कुछ लोगों को बाहर निकाला है और आगे यह संख्या बढ़ सकती है. तालिबान ने ऐसे सभी लोगों तथा सरकारी कर्मियों को माफ़ करने की घोषणा की है. इस पर कितना और कैसा अमल होता है, यह तो समय बतायेगा.

बहरहाल, तालिबान की इस जीत में यह एक पहलू है, अन्य कई और अधिक महत्वपूर्ण कारण व कारक हैं, लेकिन हवाई अड्डे की वर्तमान अराजकता और अमेरिका की किरकिरी से तालिबान को बहुत फ़ायदा होता दिख रहा है. अवकाश पर गये बाइडेन को आलोचनाओं के कारण देश को संबोधित कर फिर से कहना पड़ा कि उनका निर्णय सेना व देश के हित में है. लेकिन जिस तरह से 16 अगस्त को और उससे पहले के भाषणों में वे बार-बार बहुत ख़र्च होने, सैनिकों के हताहत होने, अफ़ग़ानों को अपना निर्णय स्वयं करने तथा अफ़ग़ान की पूर्व सरकार व सेना के पीछे हटने का उल्लेख करते रहते हैं, वह एक प्रकार से अमेरिका की हार की स्वीकारोक्ति है.

सुरक्षा परिषद की बैठक में भी इस स्थिति का असर साफ़ दिखा. चाहे संयुक्त राष्ट्र हो या प्रमुख देश हों, वे भी अफ़ग़ानिस्तान में केवल मानवीय सहायता, मानवाधिकार और आतंकियों पर लगाम रखने तक ही अपनी भूमिका सीमित रखना चाहते हैं. अंतरराष्ट्रीय समुदाय तालिबान पर अभी किसी तरह का दबाव बनाने की स्थिति में नहीं है. यदि कुछ महीने या साल बाद वहां कुछ भी होता है, मसलन- गंभीर गृह युद्ध, मानवाधिकार उल्लंघन, महिलाओं के अधिकारों का हनन आदि, तो वैश्विक स्तर पर, विशेषकर अमेरिकी और यूरोपीय इसका दोष बाइडेन सरकार को ही देंगे. बाइडेन के ‘अमेरिका इज़ बैक’ के दावे तथा उनकी डेमोक्रेटिक पार्टी के चुनावी संभावनाओं को इससे बहुत चोट पहुंची है.

लेकिन यह सब कहने का मतलब यह नहीं है कि बड़े देश और पड़ोसी देश भू-राजनीतिक खेल को छोड़ देंगे या अफ़ग़ानिस्तान में दख़ल देना बंद कर देंगे या फिर गृह युद्ध नहीं होगा. असल में, इन सब की शुरुआत हो चुकी है. बाइडेन ने कहा है कि उनके असली रणनीतिक प्रतिद्वंद्वी- चीन और रूस- चाहेंगे कि अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान में अरबों डॉलर झोंकता रहे और अनिश्चित काल तक वहीं उलझा रहे. उधर सुरक्षा परिषद में इन देशों ने भी वर्तमान स्थिति के लिए अमेरिका की जल्दबाज़ी को दोषी ठहराया है.

अफ़ग़ानिस्तान में रूस, चीन और ईरान ने अपने दूतावास ख़ाली नहीं कर अपनी इच्छा शक्ति का प्रदर्शन भी कर दिया है तथा तालिबान को भी छवि का लाभ पहुंचा दिया है कि उनसे विदेशियों को ख़तरा नहीं है और वह ज़िम्मेदार संगठन है. रूसी राजदूत ने तो तालिबान के साथ घूमकर काबुल की स्थिति देखने का कार्यक्रम भी बनाया है. इससे वे पश्चिम को तालिबान के साथ अपनी निकटता का संदेश भी देना चाहते हैं और अगली सरकार को वैधता दिलाने में मदद भी करना चाहते हैं. दिलचस्प बात है कि रूस उन चंद देशों में है, जिन्होंने तालिबान को प्रतिबंधित किया हुआ है. चीन के अपने सामरिक और आर्थिक हित हैं और उसने इसे छुपाया भी नहीं है.

मध्य एशिया के देश भी अप्रभावित नहीं हैं. हज़ारों अफ़ग़ान सैनिक, दर्ज़नों जहाज व हेलीकॉप्टर उन देशों में पहुंचे हैं. अनेक वारलॉर्ड, ग़नी सरकार के लोग और तालिबान विरोधियों के अलावा अफ़ग़ान शरणार्थी भी इन देशों में हैं. अफ़ग़ानिस्तान में आबादी का एक हिस्सा उन जातीयताओं का है, जो पड़ोसी देशों में बहुमत में हैं. ईरान और पाकिस्तान अपने हितों और प्रभाव को बनाये रखना चाहेंगे. तुर्की उल्लेखनीय भूमिका की आकांक्षा रखता है. अमेरिका अभी थोड़ा अचंभित और अवाक ज़रूर है, पर वह अपने हितों और अपने संपर्कों को सुरक्षित रखना चाहेगा तथा भावी परियोजनाओं में हिस्सेदारी भी चाहेगा.

अफ़ग़ानिस्तान से आपूर्ति होने वाले अफ़ीम का बहुत बड़ा वैश्विक कारोबार है. वह भी एक कारक बना रहेगा. पंजशीर घाटी में तालिबान के ख़िलाफ़ सोवियत क़ब्ज़े और तालिबान के विरुद्ध लड़े अहमद शाह मसूद के परिवार द्वारा प्रतिरोध तैयार करने की कोशिशों की ख़बर है. देश से बाहर भागे अब्दुल रशीद दोस्तम, अत्ता नूर, अशरफ़ ग़नी और उनके निकटवर्ती तथा तालिबान के विरोधी आम लोग भी बहुत देर तक चुप नहीं बैठेंगे. तालिबानी कमांडरों और नेताओं की आपसी तनातनी भी नयी लड़ाइयों की वजह बन सकती है या पुरानी खेमेबाज़ी का समीकरण बदल सकती है. काबुल और अन्य जगहों में कई आतंकी संगठन भी सक्रिय हैं, जिनमें से कुछ तालिबान के निकट हैं, तो कुछ उनके विरोधी हैं. ये अपने स्तर पर या किसी देश या बाहरी समूहों के इशारे पर हमलावर रहेंगे. कुछ अपराधी गिरोहों तथा एक-दो आतंकी समूहों के समर्पण की ख़बरें संतोषजनक हैं, पर इस मामले में बहुत कुछ करना है. यदि तालिबान को लंबे समय तक सत्ता में रहना है, तो आतंकियों को रोकना होगा. एक मसला तालिबान की ओर से लड़ रहे विदेशी लड़ाकों का भी है. सरकार गठन के बाद इनका क्या होगा, एक बड़ा सवाल है.

बहरहाल, अभी दुनिया की चिंता यह है और होनी भी चाहिए कि हवाई अड्डे की अराजकता तथा सीमाओं के बंद रहने से ज़रूरी चीज़ों की कमी न हो. हिंसा, महामारी और अन्य ऐसे संकटों को नियंत्रित रखा जाए. जितना जल्दी हो, एक सरकार काबुल में गठित हो और प्रांतों में प्रशासन औपचारिक तौर पर काम करना शुरू करे.

यह स्वागतयोग्य है कि तालिबान एक समावेशी सरकार बनाने की इच्छा जता रहे हैं तथा पूर्व राष्ट्रपति हामिद करज़ई, पूर्व विदेश मंत्री व सुलह काउंसिल के प्रमुख अब्दुल्ला तथा पूर्व प्रधानमंत्री गुलबुद्दीन हिकमतयार इस संबंध में तालिबान से बात कर रहे हैं. इसके अलावा, विभिन्न इलाक़ों में प्रभावशाली लोगों से सलाह ली जा रही है. ध्यान रहे, अफ़ग़ान समाज में बड़े-बुज़ुर्गों और धार्मिक रूप से आदरणीय लोगों की सबसे ज़्यादा सुनी जाती है. सोवियत दख़ल के दौर में लड़े मुजाहिद भी अच्छा-ख़ासा असर रखते हैं. ऐसी उम्मीद है कि अफ़ग़ान स्वतंत्रता दिवस 19 अगस्त तक सरकार का गठन हो जायेगा और फिर सामुदायिक प्रतिनिधियों से उस पर मुहर लगवाकर अंतरराष्ट्रीय मान्यता की क़वायद शुरू होगी.

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