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मोदी सरकार के अधीन कोयले की नीलामी: छत्तीसगढ़ को सालाना 900 करोड़ रुपये से ज्यादा का घाटा

साल 2015 में, केंद्र सरकार ने छत्तीसगढ़ में दो कोयला ब्लॉकों की नीलामी की. इनमें एक ब्लॉक गारे पाल्मा IV/1 की 1,585 रुपये प्रति टन की बोली लगी जबकि दूसरे गारे पाल्मा IV/7 को 2,619 रुपये प्रति टन में नीलाम किया गया. कार्टेलाइजेशन अर्थात फायदे के लिए गुटबंदी के आरोप लगने पर सरकार ने पहले ब्लॉक की नीलामी को बोली बहुत कम बताकर रद्द कर दिया. दूसरे ब्लॉक के मामले में उसने कॉन्ट्रैक्ट को ठंडे बस्ते में यह कहकर डाल दिया कि नीलामी जीतने वालों ने नियमों का उल्लंघन किया था.

इसके बाद सरकार ने फिर से नवंबर 2020 में यानी पांच साल बाद खदानों की नीलामी की. इस बार पहला ब्लॉक जिसमें 159.4 मिलियन टन कोयला था, उसे जिंदल स्टील एंड पावर लिमिटेड को 342.25 रुपए प्रति टन के हिसाब से बेचा गया. यह 5 साल पहले की उस कीमत के एक चौथाई से भी कम था जिसे सरकार ने बहुत कम कहकर खारिज किया था. वहीं दूसरा ब्लॉक 2015 की तुलना में करीब 60 प्रतिशत कम दाम पर बेचा गया.

नतीज़तन, 57,206 मिलियन टन कोयला भंडारों से लैस छत्तीसगढ़ को सालाना 900 करोड़ रुपये से ज्यादा का घाटा उठाना पड़ेगा. वहीं बेचे गये दोनों खदानों के जीवनकाल (यानी कि करीब 19-50 साल) में राज्य को, 2015 में लगी बोलियों के हिसाब से 24,065 करोड़ रुपये के संभावित राजस्व से हाथ धोना पड़ेगा. यह आकलन सरकारी अनुमानों और आंशिक रूप से आरटीआई द्वारा प्राप्त दस्तावेजों के अध्ययन पर आधारित है.

कुल मिलाकर, केंद्र सरकार ने 19 खदानों को पिछले साल महामारी के बीच में नीलाम किया जिससे कई राज्यों को हज़ारों करोड़ के संभावित राजस्व से हाथ धोना पड़ा.

तो मोदी सरकार ने क्यों पहले “कम कीमतों” पर खदानें बेचने से इंकार कर फिर उन्हें पहले से कहीं कम कीमतों पर बेच दिया?

2020 में सरकार ने एक नए तरह की बिडिंग (बोली) व्यवस्था की शुरुआत की. यह राज्य सरकारों के साथ साझा किये जाने वाले राजस्व प्रतिशत पर निर्भर थी जिसमें निजी और विदेशी कंपनियों को कोयला खदानों में खनन कर कोयला बेचने की अनुमति दी गयी. गौतम अडानी समूह और उसकी सहायक कंपनियों ने इनमें से 12 खदानों पर बोली लगायी, जिनमें से दो में वे जीत गए.

आलोचकों ने नीलामी के लिए निर्धारित किये गए वक़्त पर सवाल उठाये. झारखंड जहां पर पूरे भारत के कोयले का 26 प्रतिशत से अधिक है- ने इस पूरी प्रक्रिया को ही एक 'ढोंग' करार दिया.

निजी कंपनियां किस कदर खुशकिस्मत रहीं:

छत्तीसगढ़ के गारे पाल्मा कोल IV/1 ब्लॉक के लिए 2015 की नीलामी के दौरान 1,585 करोड़ रुपये की सबसे ऊंची बोली वेदांता के बाल्को द्वारा लगायी गयी थी. वहीं नवंबर, 2020 की नीलामी के वक़्त 159.4 टन कोयला भंडार वाले इस ब्लॉक को जिंदल स्टील पावर लिमिटेड (जेएसपीएल) को 342.25 रुपये प्रति टन के दाम पर बेच दिया गया. यह सौदा राजस्व के 25% की साझेदारी के अंतिम प्रस्ताव पर आधारित था.

यदि 2015 में बाल्को की बोली भी स्वीकार कर ली जाती, तो भी जितनी इस खदान की उम्र बची है उतने वक़्त में छत्तीसगढ़ को राजस्व में 14,174 करोड़ रुपए कम का घाटा होता.

छत्तीसगढ़ में स्थित दूसरी खदान गारे पाल्मा IV/7 है जिसमें 239.04 एमटी (मिलियन टन) कोयला है. इस खदान को 2,619 रुपये प्रति टन की दर पर मोने इस्पात को नीलाम कर दिया गया था. लेकिन सरकार ने यह करार 2018 में इस आधार पर रद्द कर दिया कि मोने करार के मुताबिक “समयसीमा के हिसाब से खदानों को विकसित करने में असफल रही” थी. पांच साल बाद सरकार ने इसी खदान को पहले से 60 प्रतिशत कम दाम पर नीलाम किया, जो कि आंकलन के अनुसार छत्तीसगढ़ के लिए खदान से आने वाले राजस्व में लगभग 9,891 करोड़ रुपए का घाटा है.

2020 में जिन खदानों की नीलामी के लिए उतारा गया उन सभी खदानों के वास्तविक वाणिज्यिक मूल्य का पता लगाना बहुत मुश्किल है. हालांकि छत्तीसगढ़ के दो ब्लॉक्स के मामले में 2015 की नीलामी की बोलियों के कारण हिसाब लगाना आसान हो जाता है.

राज्य सरकारों के खर्च पर बेहद कम दामों में ये सौदे खनन कंपनियों को उपलब्ध कराने के लिए 2020 में हुई इन नीलामियों की आलोचना भी हुई. उन्हें ये मदद दो रूपों में मिली.

पहला, एक जटिल सूत्र के तहत फ्लोर प्राइस को बहुत निचले स्तर पर रखा गया और नीलामी के लिए एक ऐसे वक्त को चुना गया जब कोयले का सालाना 85% उपभोग करने वाला ऊर्जा क्षेत्र मंद पड़ा था और उसमें कोयले की मांग भी घटती जा रही थी.

दूसरा, कोविड-19 की पहली लहर के दौरान लगने वाले देशव्यापी लॉकडाउन ने अर्थव्यवस्था को बहुत अधिक नुक्सान पहुंचाया जिससे वह अभी तक नहीं उबर पाया है.

खनिज संपन्न राज्यों के लिए चिंता की बात यह है कि इस वक़्त जारी दूसरे दौर के 67 कोल ब्लॉक्स की नीलामियों के लिए भी केंद्र सरकार फ्लोर प्राइस और राजस्व में हिस्सेदारी का वही सूत्र फिर से अपनाने वाली है.

कोल इंडिया के दफ़्तर में 28 फरवरी, 2019 को हुई एक बैठक के बारे में आरटीआई के जरिये जानकारी मिलती है जिसमें भारत सरकार के पूर्व सचिव और नीति आयोग के एक वरिष्ठ अधिकारी ने कहा कि आने वाले समय में व्यावसायिक खनन ही 'अंतिम लक्ष्य' है.

इन सब परेशानियों के बीच ऊर्जा क्षेत्र के अंदर का संकट राज्य सरकारों के लिए अलग चिंता का सबब है.

कोयला क्षेत्र में सुधारों के दावे

2014 में भारत के उच्चतम न्यायालय ने आवंटन की प्रक्रिया को मनमाना और गैर कानूनी पाये जाने पर प्राइवेट प्लेयर्स को आवंटित 214 ब्लॉक्स का आवंटन रद्द कर दिया.

इससे कुछ ही महीनों पहले भ्रष्टाचार विरोधी लहर पर सवार होकर सत्ता में पहुंची मोदी सरकार ने देश की सबसे ऊंची अदालत द्वारा गैर कानूनी ठहरायी गयी कानूनी प्रक्रिया को कानूनी बनाने के लिए नियमों में फेरबदल कर दिया और एक ऐसा कानून बना दिया जिससे कि एक फार्मेसी कंपनी भी खदानों को खरीद सके और कोयला बेंच सके. जबकि पहले कोल ब्लॉक्स केवल उन निजी कंपनियों को ही बेचे जाते थे जो स्टील, सीमेंट या एल्युमिनियम के उत्पादन से जुड़ी थीं.

2015 से 2019 के बीच जब नए नियमों के हिसाब से कुछ कोल ब्लॉक्स की नीलामी हो गयी तब केंद्र सरकार ने शेखी मारते हुए कहा कि इस नीलामी और आवंटन की प्रक्रिया से राज्यों को 3.35 लाख करोड़ रुपए से अधिक की आय होगी. हालांकि 2018 के मध्य आते-आते, रिपोर्ट्स बताने लगीं कि राज्यों द्वारा इन नीलामियों से केवल 5,684 करोड़ रुपए की आय ही प्राप्त हुई.

2018 में सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनी कोल इंडिया लिमिटेड ने कोयला क्षेत्र में भविष्य में होने वाली मांग का आंकलन करने वाली एक कमीशंड स्टडी, ‘कोल विज़न 2030' प्रकाशित की. इसमें अनुमान लगाया गया कि भारत अपनी कोयले की ज़रूरतों को मौजूदा खदानों से ही पूरा कर सकता है, "नए कोयला खदानों की मौजूदा प्रक्रिया के अलावा आवंटन या नीलामी की कोई जरूरत नहीं है. पहले से ही नीलाम और आवंटित हो चुके खदानों को छोड़कर अनुमानित मांग को देखते हुए नए कोयला खदानों को शुरु करने की ज़रूरत बहुत सीमित स्तर पर हैं."

इसके बावजूद, 18 जून, 2020 को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने घोषणा की कि भारत के कोयला क्षेत्र को 'दशकों के लॉकडाउन' से आज़ादी मिल रही है.

70 के दशक में सरकार द्वारा कोयला क्षेत्र को अधिग्रहित कर लेने के बाद पहली बार निजी खनन कंपनियां को खनन और खुले बाजार में कोयला बेचने की आज़ादी मिली. इस कदम ने कोल इंडिया लिमिटेड के एकाधिकार को खत्म कर दिया और घरेलू और विदेशी निजी क्षेत्र की कंपनियों के लिए भी इस उद्योग में जगह बना दी.

केंद्रीय कोयला मंत्रालय ने उस वक़्त छत्तीसगढ़ की इन दो खदानों समेत 38 कोयला खदानों की नीलामी की घोषणा की थी लेकिन अंत में सरकार केवल 19 को ही नीलाम कर पायी.

पूर्वानुमानित विफलता

इसकी उम्मीद पहले से थी कि 2020 के दौर की नीलामी 2015 के मुकाबले कहीं बदतर होगी.

इस अवधि में पावर सेक्टर में शीर्ष पद पर रहे एक सेवानिवृत्त नौकरशाह ने समझाया, "2015 की नीलामियां सुप्रीम कोर्ट द्वारा 214 ब्लॉक्स के रद्द करने के बाद उपजी अनिश्चितता के कारण हुई थी. पावर सेक्टर के प्लेयर्स और दूसरे लोग घबरा गए थे और उन्होंने किसी भी कीमत पर संसाधनों पर कब्जा करने की कोशिश की.”

वे बताते हैं कि इसीलिए कुछ लोगों ने पिछली बार के मुकाबले बहुत ऊंची बोली लगायी.

2020 तक जब प्रधानमंत्री मोदी द्वारा कोयला क्षेत्र को खोलने और अगले दौर की निलामियां शुरू करने का निर्णय लिया गया, तब तक परिस्थितियां नाटकीय ढंग से बदल चुकी थीं. कोयले का सबसे बड़ा उपभोक्ता (84.5%) पावर सेक्टर संकट में था.

विद्युत वितरण कंपनियां या डिस्कॉम्स के नाम से जानी जाने वाली कंपनियां खतरे में थीं. नरेंद्र मोदी सरकार की उदय (UDAY) योजना, जिसे 2015 में डिस्कॉम्स का कर्ज़ खत्म करने और उन्हें वित्तीय सुधार के रास्ते पर लाने के लिए लॉन्च किया गया था, बुरी तरह असफल रही.

जैसे UDAY में कल्पना की गई थी, न तो डिस्कॉम्स अपनी दरों को बढ़ा पायी और न ही अपने तकनीकी या वाणिज्यिक घाटे में कमी ला पायी. बल्कि मोदी सरकार द्वारा बिजली नेटवर्क का विस्तार करने के कारण कर्ज और ज्यादा बढ़ गया. इसके विपरीत, 2015-16 में डिस्कॉम्स पर कुल 1.9 लाख करोड़ रुपये का ऋण था जो कि वित्त वर्ष 2020-21 में बढ़ कर 4.5 लाख करोड़ रुपये हो गया.

उन सेवानिवृत्त नौकरशाह ने बताया, "2020 तक डिस्कॉम्स, ऊर्जा उत्पादन करने वाली कंपनियों के बहुत बड़े कर्ज की देनदार थीं. इसका नतीजा यह हुआ कि ऊर्जा उत्पादन करने वाली कंपनियों को नकदी की तंगी झेलनी पड़ी. अतः उनकी कोयले की मांग ऊर्जा क्षेत्र के खराब प्रदर्शन से प्रभावित थीं.”

ऐसे वक़्त पर नीलामियों में नीची बोलियां लगना स्वाभाविक था.

कोविड-19 की पहली लहर के कारण लगे देशव्यापी लॉकडाउन ने अर्थव्यवस्था को द्वस्त कर दिया और आर्थिक स्थिति को लेकर एक अनिश्चितता छा जाने से हालात और ज्यादा बदतर हो गये. आयातित कोयला भारत के कोयले को पहले से कहीं बेहतर प्रतिस्पर्धा दे रहा था और खनन करने वालों को जिला खनिज फॉउण्डेशनों को अतिरिक्त भुगतान करना पड़ रहा था.

सेवानिवृत्त अधिकारी ने कहा कि यदि सरकार खुद ही बिजली के दाम नियंत्रित करती है तो वह पूरी ईमानदारी से कोयले द्वारा अधिकतम राजस्व ले पाने का दावा नहीं कर सकती.

उन नौकरशाह ने बताया, "सरकार कोयले को ऊर्जा क्षेत्र के संदर्भ में देखती है. सरकार के सभी फैसले ऊर्जा क्षेत्र की जरूरतों के हिसाब से लिये जाते हैं. ऐसा इसलिये क्योंकि बिजली के दाम तय करना एक बहुत ही संवेदनशील (राजनैतिक रूप से) मसला है."

वह उस अंतरविरोध की तरफ इशारा कर रहे थे जहां एक तरफ तो राजस्व को ज्यादा से ज्यादा बढ़ाने के लिए कोयला खदानों की नीलामी की जा रही थी, वहीं दूसरी ओर कोयले के सबसे बड़े उपभोक्ता ऊर्जा क्षेत्र को अपने उत्पाद बिजली की कीमतें बढ़ाने से रोक दिया गया था.

बेहद कम फ्लोर प्राइस

2020 के कोयला ब्लॉक्स की बिक्री को प्रधानमंत्री मोदी द्वारा किया गया एक बड़ा सुधार बताया गया और नीलामी के नियमों में अनेक बदलाव किये गये. जिस भी बोली लगाने वाले द्वारा खनन से मिलने वाले कोयले को बेचकर उससे होने वाली आय में से सबसे ज्यादा हिस्सा साझा करने का प्रस्ताव दिया जाता, उसी की लगायी गयी बोली विजयी रहती. बोली लगाने के लिए आय के चार प्रतिशत को आधार माना गया.

सरकार ने किसी कंपनी की मासिक आय के आकलन के लिए दो तरीके निकाले. पहला तरीका था कंपनी द्वारा वास्तव में एक महीने में प्राप्त की गयी आय की गणना. जबकि दूसरे तरीके में एक निश्चित अवधि के लिए कोयले का एक कल्पित दाम तय कर उसे उस पूरे कालखंड में बेचे गये कोयले की मात्रा से गुणा कर देना.

इन दोनों में से जो भी रकम ज्यादा होती उसी को राज्य सरकार के हिस्से के रूप में तय कर दिया जाता, जो कि बोली में प्रस्तावित आय की हिस्सेदारी पर आधारित होता था.

यह जानने के लिए कि नीलामियों के एक साल बाद राज्य सरकारों को कितनी आय हासिल हुई, हमने सरकारी फार्मूले के हिसाब से रुपये/टन में एक फ्लोर प्राइस निकालने की कोशिश की जिससे कि इसकी तुलना 2015 के बेंचमार्क साल से की जा सके.

जैसा कि पहले ही रिपोर्ट हुआ, फ्लोर वैल्यू 2015 के बेंचमार्क 150 रुपये/टन से 50 प्रतिशत से भी ज्यादा कम थी.

कल्पित मूल्य, औसत बाजार मूल्य को उस नेशनल कोल इंडेक्स के आंकड़ों के साथ समायोजित कर के निकाला जाता है जिसको नीलामियों की शुरुआत करने हेतु किसी भी पदार्थ की बाज़ार में सही कीमत को जानने के लिए बनाया गया था.

प्रतिनिधि मूल्य और कल्पित मूल्य ‘ग्रेड’ के अनुसार बदलते रहते हैं, जो कि कोयले की गुणवत्ता के मामले में एक खास मतलब रखने वाला उद्योग विशिष्ट शब्द है. पहले दौर की निलामियों के लिए मार्च, 2020 के प्रतिनिधि मूल्यों को ही मान्य माना गया था.

G12 के ग्रेड के साथ गारे पाल्मा IV/1 को 54.76 रुपये प्रति टन के फ्लोर प्राइस पर नीलाम किया गया. जबकि IV/7 ब्लॉक को G11 के औसत ग्रेड के साथ 58.96 रुपये प्रति टन के सीमा मूल्य पर नीलाम किया गया. 2015 में दोनो ब्लॉक्स का फ्लोर प्राइस एक ही था, 150 रुपये प्रति टन.

वाणिज्यिक कोयला खनन में प्रवेश

राज्य सरकार को अपनी आय का 25 प्रतिशत हिस्सा देने का वादा कर, जिंदल स्टील ने छत्तीसगढ़ की गारे पाल्मा IV/1 ब्लॉक की नीलामी को जीत लिया. दस्तावेज बताते हैं कि केंद्र सरकार ने इसी आधार पर आकलन कर लिया कि छत्तीसगढ़ को सालाना 205 करोड़ रुपये की राजस्व हिस्सेदारी मिलेगी. ब्लॉक में मौजूद 114 मिलियन टन खनन योग्य कोयले से राज्य को समय के साथ 3,895 करोड़ रुपये प्राप्त होंगे.

अगर केंद्र सरकार 2015 के 1,585 करोड़ रुपये प्रति टन के राजस्व के आंकड़ों पर भी टिक गयी होती तो राज्य सरकार सालाना 951 करोड़ रुपये या ब्लॉक के जीवनकाल में 18,069 करोड़ रुपये के राजस्व प्राप्त करती. इस तरह ब्लॉक की जितनी उम्र है उतने सालों के भीतर राज्य की आय में आने वाला अंतर 14,174 करोड़ रुपये का है जो कि बेहद चौंका देने वाला है.

दूसरी ओर गारे पाल्मा IV/7 से सरकार ने 118 करोड़ रुपये सालाना के राजस्व का अनुमान लगाया. इस ब्लॉक में 60.47 मिलियन टन खनन योग्य भंडार हैं. इसका आशय है कि राज्य सरकार को इस खदान से उसके पूरे जीवनकाल में 5,946 करोड़ रुपये की आय प्राप्त होगी.

हालांकि यदि 2015 के दर 2,619 रुपये प्रति टन के हिसाब से देखा जाये, तो राज्य को सालाना 314.28 करोड़ रुपये और खदान के पूरे जीवनकाल में 15,837 करोड़ रुपये आय प्राप्त की होती. इस मामले में कुल 9,891 करोड़ रुपये का अंतर देखने को मिलता है.

जो कि कुल 24,065 करोड़ का अनुमानित घाटा है.

तुलना संभव नहीं

8 फरवरी, 2021 को कांग्रेस के राज्य सभा सांसद विवेक तंखा ने संसद में सवाल किया था कि क्या 2020 में गारे पाल्मा के दो ब्लॉक्स से छत्तीसगढ़ सरकार को 2015 के मुकाबले कम आय प्राप्त होगी? और अगर ऐसा हुआ है तो, उन्होने कोयला मंत्री को राज्य को होने वाली वार्षिक हानि का आकलन करने को कहा.

कोयला मंत्री प्रह्लाद जोशी ने जवाब दिया, "प्रीमियम आय की तुलना नहीं की जा सकती क्योंकि दोनों दौर की नीलामियों में बोली के मानदंड अलग-अलग थे. 2015 की नीलामी में बोली लगाने के तरीके का आधार सीमित उपभोग के लिए रुपये प्रति टन के हिसाब से था, जबकि 2020 में कोयला खदानों की नीलामी का आधार राजस्व का प्रतिशत था और कोयले के उपयोग पर कोई बंदिश नहीं थी.”

हमने मंत्रालय के भीतर के वो अनुमान हासिल किये जिनके आधार पर कोयला मंत्री प्रह्लाद जोशी ने 10 नवम्बर, 2020 को कहा था कि इन नीलामियों से राज्यों को 7,000 करोड़ रुपये से अधिक की आय प्राप्त होगी. इस हिसाब से अकेले छत्तीसगढ़ की राज्य सरकार को ही इन दो ब्लॉक्स के माध्यम से राजस्व की हिस्सेदारी के रूप में 323 करोड़ रुपये की आय प्राप्त होगी.

जेएसपीएल द्वारा 25% के अंतिम प्रस्ताव के साथ ही गारे पाल्मा IV/1 से 205 करोड़ रुपये प्राप्त होंगे, वहीं गारे पाल्मा IV/7 के लिए सारदा एनर्जी की 66.75 प्रतिशत की बोली से राज्य को 118 करोड़ रुपये मिल जायेंगे.

हमने इसे 2015 के प्रस्तावों के साथ जोड़ कर देखा. 1,585 रुपये प्रति टन की बोली के साथ IV/1 ब्लॉक द्वारा राज्य के खजाने में प्रति वर्ष 951 करोड़ रुपये जुड़ते, इस हिसाब से सालाना 726 करोड़ रुपये का नुकसान बैठता है.

दूसरी ओर IV/7 ब्लॉक के लिए मोने की 2015 की बोली 2,619 रुपये प्रति टन है, जिसका मतलब छत्तीसगढ़ राज्य को प्रति वर्ष 314.28 करोड़ रुपये की आय हुई होती. 2020 की तुलना में यह सालाना 196.28 करोड़ रुपये का नुकसान है.

कुल मिलाकर साल भर में छत्तीसगढ़ सरकार को 922.28 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ होगा.

समय के साथ राज्य को हुए नुकसान का आकलन करने के लिए हमने इनकी तुलना कोयले के नवीनतम उपलब्ध बाजार मूल्यों के आंकड़ों के साथ की. एक आशावादी नजरिए के साथ भी राष्ट्रीय कोयला सूचकांक मूल्य में 10 अंकों की वृद्धि करने के बाद भी ऐसा नजर आ रहा है कि राज्य को अभी भी सालाना 909 करोड़ रुपये से अधिक का नुकसान होगा.

नवीनतम प्रतिनिधि मूल्य यहां से लिए गए हैं

अधिकतम राजस्व की प्राप्ति नहीं है लक्ष्य

आरटीआई के जरिये कोयला मंत्रालय के जिन वाणिज्यिक कोयला खनन संबंधी परिचर्चा पत्रों तक पहुंचा जा सका, उन पर दर्ज नीति आयोग की टिप्पणियां दिखाती हैं कि सरकार का थिंक टैंक नीति आयोग कोयले द्वारा ज्यादा से ज्यादा राजस्व हासिल करने की नीति के खिलाफ था.

आयोग ने कोयला क्षेत्र में सुधार के लिए, अपने उप-सभापति की अगुवाई वाली समिति की सिफारिशों से कोयला मंत्रालय की नीतियों में बड़े अंतरों को चिन्हित किया. सरकार का थिंक टैंक 4 प्रतिशत फ्लोर प्राइस को खत्म करना चाहता था क्योंकि इस वजह से कई ब्लॉक गैर-लाभकारी बन जाते.

आयोग यह भी चाहता था कि मंत्रालय दो चरणों में होने वाली बोली लगाने की प्रक्रिया को छोड़कर एक चरण वाली प्रक्रिया को अपना ले. फिलहाल, बोली लगाने वाली कंपनीयों की बोली को स्वीकारने से पहले तकनीकी क्षमताओं के हिसाब से आंकलन किया जाता है. एक चरण वाली प्रक्रिया से तकनिकी आंकलन की आवश्यकता ख़त्म हो जाएगी जिससे क्षेत्र में नए लोगों को मौका मिलेगा.

मंत्रालय ने सूचित किया है कि वह नीलामियों को मिलने वाली प्रतिक्रिया के आधार पर इस दिशा में आगे बढ़ सकती है.

हमने कोयला मंत्रालय के उच्च-स्तरीय अधिकारियों को नीलामियों से सम्बंधित विस्तृत प्रश्न भेजे, लेकिन हमें अभी तक उत्तर नहीं मिल है.

श्रीगीरीश जलीहाल और तपस्या द रिपोर्टर्स कलेक्टिव के सदस्य हैं, जो सहयोग के रूप में कार्य करते हैं. यह कई भाषाओं में प्रकाशित होता है.

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