Opinion
यूपी में जातियों की नाराजगी और राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं पर चर्चा करने से क्यों बच रहा है मीडिया?
उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव होने में कुछ ही वक्त बाकी है. सभी पार्टियां आगामी चुनाव के लिए अपनी तैयारियों में जुटी हुई हैं. उत्तर प्रदेश में सत्ता किस ओर जाएगी वैसे तो इसका निर्णय हमेशा से वहां का बहुसंख्यक पिछड़ा और दलित समाज ही करता आया है, लेकिन इस वक्त मीडिया ये बताने की कोशिश कर रहा है कि ‘यूपी में सत्ता की चाबी ब्राह्मणों के पास है’.
ऐसा माहौल बनाया जा रहा है जैसे ब्राह्मण ‘जाति’ न होकर दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों की तरह पूरा एक ‘वर्ग’ हो. मीडिया यूपी की भाजपा सरकार में ब्राह्मणों की तथाकथित उपेक्षा और तथाकथित नाराजगी को मुद्दा बनाकर उसे ‘चर्चा’ के केंद्र में ले आया है. तथाकथित उपेक्षा इसलिए क्योंकि वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश सरकार में ब्राह्मण जाति से एक उपमुख्यमंत्री सहित कुल नौ मंत्री हैं. इस भारी-भरकम हिस्सेदारी और अपने कार्यकाल में जमकर ‘सवर्ण तुष्टिकरण’ करने वाली यूपी की योगी सरकार से अगर ब्राह्मण जाति असंतुष्ट है और खुद को उपेक्षित महसूस कर रही है, तो फिर प्रदेश में ब्राह्मणों से बड़ा वोटबैंक रखने वाली कई पिछड़ी और दलित जातियां, 2017 में बीजेपी को वोट देकर कितना उपेक्षित और ठगा हुआ महसूस करती होंगी? उनमें कितनी नाराजगी होगी?
दरअसल, मीडिया अन्य जातियों- चाहे वे पिछड़ी जातियां हों, दलित हों, आदिवासी हों या फिर मुसलमान या अन्य- की संख्या, उनकी राजनीतिक भागीदारी, नाराजगी, राजनीतिक क्षेत्र में उनकी उपेक्षा और उनके हितों पर चर्चा करने से बचता है.
यही मीडिया पिछड़ी, दलित और वंचित जातियों की ‘राजनीतिक गोलबंदी’ पर जातिवाद का आरोप लगाकर अपनी छाती पीटता है. बदनाम करने की कोशिश करता है. ये जातियां जब जातिगत जनगणना की मांग करती हैं तो यही मीडिया यह आरोप लगाता है कि जातियों की जनगणना हुई तो ‘सामाजिक ताना-बाना’ बिगड़ जाएगा. आज इसी मीडिया को एक जाति ब्राह्मण के राजनीतिक हितों, तथाकथित उपेक्षा और नाराजगी पर डिबेट आयोजित करने और अख़बारों के पन्नों में जातिगत ख़बरों को लीड कवरेज देने में कोई दिक्कत नहीं हो रही है.
वैसे हमेशा से ऐसा ही होता रहा है. सवर्ण जातियों, खासकर ‘ब्राह्मण हितों’ पर चर्चा करने में मीडिया को ‘कम्फर्ट’ महसूस होता है और अन्य जातियों पर डिबेट करने, उनको कवरेज देने पर जातिवाद का ‘अपराधबोध’ होने लगता है.
मीडिया जब जाति पर चर्चा करने ही लगा है तो उसे एक जाति-विशेष के बजाय उत्तर प्रदेश की तमाम जातियों की नाराजगी और राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं पर चर्चा करनी चाहिए. किसी विश्वकर्मा से, किसी नाई से, किसी पाल, निषाद, मौर्य, कुशवाहा, यादव, कुर्मी, राजभर, लोध, चौहान, कुम्हार, कहार, मुसलमान और दलित से भी पूछना चाहिए कि वह बीजेपी की यूपी सरकार के बारे में क्या कह रहा है? सरकार के कामकाज और तौर-तरीकों से क्या वह संतुष्ट है? या ब्राह्मणों की तरह वह भी सरकार में ‘उपेक्षित’ महसूस कर रहा है? इन जातियों की खुशी और नाराजगी के बारे में भी देश-प्रदेश को पता चलना चाहिए.
अगर मीडिया को भाजपा से जातियों की नाराजगी पर चर्चा करनी है तो सबसे पहली चर्चा मीडिया को यूपी सरकार में उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य की जाति पर करनी चाहिए क्योंकि 2017 में तो भाजपा ने सरकार बनने पर केशव प्रसाद मौर्य को मुख्यमंत्री बनाने का ख्वाब दिखाकर इस बिरादरी के साथ ही पूरे पिछड़े वर्ग के लोगों ‘ठग’ लिया था. जिस केशव प्रसाद मौर्य के चेहरे पर पिछड़े भाजपा की तरफ गोलबंद हुए, उन्हें भाजपा ने डिप्टी सीएम बनाया और उनकी हैसियत सरकार में किसी राज्यमंत्री जितनी ही रह गयी.
यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के बीच सम्बन्ध कैसे रहे हैं यह भी सर्वविदित है. डिप्टी सीएम रहते हुए सार्वजनिक कार्यक्रम में उन्हें ‘स्टूल’ पर बैठा देने के बाद मौर्य, कुशवाहा, शाक्य, सैनी जाति के लोग अपमानित महसूस कर रहे हैं या नहीं? हकदार होने के बावजूद केशव प्रसाद मौर्य से मुख्यमंत्री की कुर्सी छिन जाने की ‘टीस’ उनकी जाति के लोगों के अन्दर है या नहीं है? इन सवालों के जवाब तलाशते हुए मीडिया को कभी नहीं देखा गया.
ओमप्रकाश राजभर के सामाजिक न्याय समिति की रिपोर्ट लागू न होने और सरकार पर पिछड़े वर्गों के हितों की अनदेखी करने का आरोप लगाकर बीजेपी से गठबंधन तोड़ने और सरकार में मंत्री पद छोड़ने के बाद राजभर समाज के मन में क्या चल रहा है? वह बीजेपी के बारे में क्या कह रहा है? किसी राजभर से भी यह सवाल मीडिया को जरूर पूछना चाहिए.
इसी तरह पहले मनोज सिन्हा और बाद में एके शर्मा के मुख्यमंत्री पद की रेस में आने और फिर पिछड़ जाने के बाद भूमिहार क्या बीजेपी के साथ ही रहेगा या वह भी किसी नये ठिकाने की तलाश में है? समाजवादी पार्टी की सरकार में जिस यादव जाति की तूती बोलती है वह योगी आदित्यनाथ के मंत्रिमंडल में एक राज्यमंत्री का पद मिलने से कितना संतुष्ट है?
कभी जो बसपा ‘तिलक तराजू और तलवार….’ का नारा देकर सत्ता में आयी उसके कोर वोटर से भी पूछना होगा कि वह बसपा के नये प्रयोग ‘प्रबुद्ध सम्मेलन’ से खुश तो है न? समाजवादी पार्टी के कोर वोटर से भी मीडिया को पूछना चाहिए कि सरकार में आने के लिए परशुराम की मूर्ति लगवाने की घोषणा से वे असहज तो नहीं न हैं? उन्हें कोई आपत्ति तो नहीं न है? जब तक सभी जाति समुदाय के लोगों के हितों से जुड़े हुए यह सवाल नहीं पूछे जाएंगे तब तक ‘बैलेंस’ नहीं बनेगा.
दरअसल, सपा और बसपा जैसी पार्टियों के उभार के बाद ब्राह्मण उत्तर प्रदेश की राजनीति में ‘ड्राइविंग सीट’ से धीरे-धीरे ‘छोटे सपोर्टिव वोट बैंक’ पर आ गया और इस वक्त वो उत्तर प्रदेश की राजनीति में अपने पुराने वर्चस्व और दबदबे को फिर से स्थापित करने के लिए संघर्ष कर रहा है. उत्तर प्रदेश में यह जाति फिर से ‘ड्राइविंग सीट’ पर आना चाहती है.
इस संघर्ष में उसे मीडिया का पूरा समर्थन मिल रहा है क्योंकि मीडिया में आज भी ब्राह्मण जाति का ही एकाधिकार है. जब तक यह एकाधिकार रहेगा तब तक इसी तरह सिर्फ एक जाति के राजनीतिक उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कभी नाराजगी, कभी उपेक्षा और कभी सम्मान के बहाने निजी लाभ के एजेंडे सेट किये जाते रहेंगे.
लेखक राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (तत्कालीन) में उत्तर प्रदेश के संयोजक रह चुके हैं
(साभार- जनपथ)
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