Report
आज़ादी का ख्वाब दिल में पाले देश की जेलों में कैद महिलाओं की कहानियां
सावित्री को जेल में छह साल हो गये हैं. जमानत तो नहीं हुई, केस भी जाने कब खत्म हो. पति के अत्याचारों से तंग आने पर एक दिन हाथापाई में उसकी हत्या हो गयी. अब मायके और ससुराल वालों के साथ ही बच्चे भी पिता की हत्यारिन मानकर उसकी सुध नहीं लेते हैं. रामरति से उसके अपनों ने भी इसलिए मुंह फेर लिया कि पति और ससुराल वालों के अत्याचारों से तंग आकर अपने दोनों बच्चों को मारकर खुद पंखे से लटक गयी थी, लेकिन बचा ली गयी. वह मरी तो नहीं लेकिन अब जिन्दा लाश बनकर जेल काटने को मजबूर है.
फरज़ाना की बहू ने गुस्से में जहर खा लिया और दहेज हत्या में बेटा और मां दोनों पिछले आठ साल से जेल में हैं. कोई करीबी नहीं है जो कि भागदौड़ करके उनकी हाइकोर्ट से जमानत करवा ले. महज 19 साल की थी जब संगीता जेल में आयी, प्रेमी के साथ पति की हत्या में शामिल होने के अपराध में. तीस साल की होने को है, न प्रेमी ने पूछा न मायके वालों ने. सीधी-सादी गांव की बहू जेल के कायदे सीख कर दबंग तो हो गयी है लेकिन उसके भीतर का दर्द उसकी खामोश आंखें बयां करती हैं. वर्षों, महीनों, दिनों को गिनती भूलती कितनी ही महिलाएं जेल की कैद से आज़ादी की चाहत में असमय ही दुनिया से चली जाती हैं या इतनी संवेदनहीन हो जाती हैं कि उनका जीवन महज खाना और सोने तक ही सीमित रह जाता है.
आज़ादी का ख्वाब दिल में पाले देश की जेलों में कैद महिलाओं की अनगिनत कहानियां हैं. इनमें से कितनी गुनाहगार हैं और कितनी बेगुनाह हैं, यह आमतौर पर कानून नहीं, बल्कि पुलिस के गढ़े गये सबूतों के साथ-साथ समाज और अदालतों का पितृसत्तात्मक नज़रिया तय करता है. कुछ पेशेवर अपराधी महिलाओं को छोड़ दें तो अधिकांश महिलाएं समाजिक मूल्यों और महिला विरोधी परम्पराओं के दबाव, पुरुषों द्वारा गुलाम बनाकर रखने की मनोवृत्ति और औरत के प्रति परिवार के उपेक्षित रवैये के कारण अपराधी बन जाती हैं या बना दी जाती हैं, जिस पर अभी बहुत कुछ लिखा जाना बाकी है.
यह तथ्य किसी से छिपा नहीं है कि आज भी पुलिस-प्रशासन का जेंडर दृष्टिकोण सामंती और पिछड़ा है. यहां तक कि महिला पुलिस अधिकारी और कर्मचारी भी उन्हीं महिला विरोधी मानदण्डों और गालियों का प्रयोग बेधड़क करती हैं जो कि पुरुषों द्वारा किये जाते हैं. सवर्ण पितृसत्तात्मक मानसिकता का इतना अधिक प्रभाव यहां पर होता है कि पुलिसकर्मी महिला मामलों को संवेदनशील तरीके हल करने में सक्षम नहीं होते हैं. अधिकांश तो महिला को अपराधी सिद्ध कर देने भर की ड्यूटी तक ही सीमित रहते हैं. कई बार यह देखा गया है कि महिलाकर्मी पुरुषवादी दृष्टिकोण से महिला अपराधियों के साथ ज्यादा अमानवीय और अभद्र व्यवहार करती हैं. चोरी, देह व्यापार से जुड़ी या गरीब महिला अपराधियों, विशेषकर दलितों और मुस्लिम महिलाओं की गिरफतारी के समय पुलिसकर्मी नियमों का पालन नहीं करते हैं. पुरुष कर्मियों द्वारा महिलाओं के साथ महिला पुलिसकर्मी की उपस्थिति में भी अपमानजनक व्यवहार किया जाता है, लेकिन वे या तो चुप लगा जाती हैं या फिर इस प्रक्रिया में काफी हद तक शामिल हो जाती हैं.
जब महिला बन्दियों को कोर्ट की पेशी के लिए ले जाया जाता है तो महिलाएं पूरा दिन संकोच और डर से पेशाब अथवा अन्य प्राकृतिक जरूरत नहीं बता पाती हैं. यहां पर महिला बन्दियों के लिए कोई अलग व्यवस्था पहले तो होती नहीं है, यदि हो भी तो वहां तक जा पाने की राह बहुत कठिन होती है. बन्दी महिलाएं तमाम शारीरिक और मानसिक परेशानी से गुजरती हुई कितनी प्रकार की बीमारियों को ढोती हैं, लेकिन सिपाहियों का डर और उनकी निगरानी में बैठी बन्दी महिलाओं को दर्द झेलने की आदत पड़ जाती है. यदि कोई महिला हिम्मत करके अपनी जरूरत बता भी दे तो या तो महिला गार्ड उसको धमका देती हैं या फिर पुरुषकर्मियों की घूरती निगाहें उनकी जरूरत को दबा देती हैं. अदालत की तारीख के दिन यदि किसी महिला बन्दी का महावारी का समय हो तो आठ से दस घण्टे जमीन पर बैठना अत्यंत पीड़ादायी और अमानवीय होता है.
अदालतों में बन्दी महिलाओं के प्रति पुलिस से लेकर अदालतों में मौजूद कर्मचारी, वकील और जज आदि का महिला विरोधी नजरिया भी महिला बन्दियों के तनाव को बढ़ाने में सहायक होता है. महिला बन्दियों को पुरुष बन्दियों के साथ एक ही बन्दी गाड़ी में भीड़ के साथ जिस तरह से ले जाया जाता है उसको भी रेखांकित करने की सख्त ज़रूरत है, हालांकि महिला बन्दियों की संख्यानुसार उनके साथ महिला गार्ड को बैठना होता है लेकिन वे पुरुष बन्दियों की भीड़ से खुद को बचाने की खातिर ड्राइवर के साथ वाली सीट पर बैठ कर जाती हैं और महिलाओं को पुरुष बन्दियों के भरोसे छोड़ दिया जाता है जहां उनके साथ जो व्यवहार होता है उसको किसी को बताने और न बताने की जो यातना होती है उसको एक महिला बंदी ही समझ सकती है. यानी कोई औरत यदि जेल जाती है तो उसकी स्वतंत्रता छीनने के साथ ही उसकी निजता भी छीन ली जाती है. यह तो भारतीय महिला जेल बन्दियों के जीवन की महज एक छोटी सी तस्वीर भर है.
एक स्त्री रोग विशेषज्ञ, नर्स या महिला हैल्थ वर्कर आदि की नियुक्ति या समय-समय पर महिलाओं की जांच की व्यवस्था का कोई प्रावधान देश की अधिकांश जेलों में आज तक नहीं किया गया है. जेल के भीतर महिला जेलों में आमतौर पर महज एक पुरुष कम्पाउंडर के भरोसे ही महिला बन्दियों का स्वास्थ्य छोड़ दिया जाता है. यहां पर ऐसी सम्भावना ही नहीं होती है कि महिलाएं अपनी परेशानी खुलकर बता पाएं. वैसे भी यहां पर गिनी-चुनी दवाइयां दी जाती हैं, जो बन्दियों के मर्ज को ठीक तो कम से कम नहीं करती हैं. गम्भीर बीमारी होने पर ही जेल के बाहर सरकारी अस्पताल में ले जाने की व्यवस्था की जाती है. अकसर ही गार्ड न होने के बहाना करके बन्दी को समय पर इलाज नहीं मिलता है. बन्दियों का जीवन हमेशा जेल कर्मचारियों की इच्छा पर ही निर्भर होता है. अधिकांश मामलों में अन्तिम समय में बन्दी को जेल से सरकारी अस्पताल पहुंचाकर मरने के लिए छोड़ दिया जाता है.
जेल में जो महिला बन्दी आती हैं उनमें 2019 के आंकड़ों के अनुसार 27 प्रतिशत अशिक्षित हैं और 41.6 प्रतिशत 10वीं से कम पढ़ी हुई हैं. इनमें ज्यादा संख्या आम तौर पर ग्रामीण और गरीब महिलाओं की ही होती है. इन महिलाओं को अपने ऊपर लगे अपराधों की धाराओं का ज्ञान तो जेल में आकर हो जाता है लेकिन पूरी न्यायिक प्रक्रिया की जानकारी न होने और वकील के खर्चों का इन्तजाम न कर पाने के कारण कई बार अपराध की सज़ा से अधिक जेल में रहने को मजबूर होना पड़ता है. जेल कर्मचारियों और पुरुष बंदियों द्वारा कई बार जेल से बाहर निकालने के नाम पर महिलाओं का शोषण भी किया जाता है. महिला का शिक्षित होना, सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक रुतबा समाज की तरह जेल जीवन को भी प्रभावित करता है. यदि बन्दी के परिजन समय-समय पर पैसा देते रहते हैं तो उसकी हैसियत बेहतर होती है. जेल वार्डर को मिलाई के पैसों से लेकर जो सामान घर से आता है उसका हिस्सा देना जेल का अघोषित नियम है. जो जितना अधिक देता है उसकी सुविधाएं भी उसी अनुरूप तय होती हैं. इस सब का खामियाजा़ गरीब और उन बन्दियों को भुगतना पड़ता है जिनकी कोई मिलाई नहीं आती है.
ग्लोबल प्रिज़न ट्रेंड्स 2020 के अनुसार पूरी दुनिया में 19 हजार बच्चे अपनी बंदी माँओं के साथ जेल में रहते हैं. पिछले एक दशक से कुल महिला बंदियों में से करीब 9 प्रतिशत भारत की जेलों मैं अपने बच्चों के साथ रहती आयी हैं. बच्चों वाली बन्दी मांओं के हालात इसलिए ज्यादा खराब होते हैं कि उनके कारण उनके बच्चों का जीवन असन्तुलित हो जाता है. कई बार यदि माँ को लम्बा समय जेल में रहना पड़ता है तो छह साल से अधिक उम्र के बच्चों के लिए सरकार दूसरी व्यवस्था करती है. अलग-अलग राज्यों में इसके लिए अपनी व्यवस्थाएं हैं. गर्भवती महिलाओं और बच्चों के लिए अतिरिक्त पोषक भोजन का प्रवाधान जेल मैनुअल में किया गया है, लेकिन बहुत कम जेलों में ही वह पूरी मात्रा मिल पाती होगी? कपड़ा व अन्य बुनियादी जरूरतों के विषय में भी जेल मैन्युअल में कईं प्रावधान हैं लेकिन व्यवहार में इस पर अमल नहीं किया जाता है. जब कैदियों के भोजन और रखरखाव के लिए आंवटित बजट की न्यूनतम मात्रा भी उन पर खर्च नहीं की जाती है तो महिलाओं के लिए तो यह उम्मीद और भी कम हो जाती है.
आर्थिक तौर पर पुरुषों पर निर्भर रहने के कारण महिलाएं स्वयं अपने लिए वकील नहीं कर पाती हैं, इसलिए कई बार जमानत करवाने में पीछे रह जाती हैं. सम्पत्ति पर किसी प्रकार का मालिकाना हक न होने के कारण भी उनको पुरुषों के मुकाबले जमानती मिलने के रास्ते में कईं प्रकार की कठिनाइयां आती हैं. यही कारण है कि कितनी ही महिलाओं को समय पर ट्रायल न होने से अपराध की सजा से अधिक समय जेल में रहना पड़ता है. यदि महिला बंदी बेगुनाह साबित हो भी जाये तो लम्बे समय बाद जेल से बाहर जाने के लिए मन से तैयार नहीं हो पाती हैं क्योंकि बाहर कोई उनका इन्तजार करने वाला नहीं होता है और न ही उनको इज्ज़त की नज़र से देखा जाता है.
भारत की 2019 की अपराध रिकार्ड संख्या के अनुसार 31 दिसम्बर 2019 के अन्त तक भारतीय जेलों में कुल 19 हजार 913 बन्दी रहती थीं, जिनमें से केवल 18.3 प्रतिशत (3,652) महिलाएं, महिला जेलों में बन्द हैं. जबकि 81.7 प्रतिशत (16,261) पुरुष जेलों के भीतर मौजूद महिला बैरकों (यानी जेल के भीतर जेल) में बन्द हैं. 2019 के अपराध रिकार्ड संख्या के अनुसार जेलों में महिलाओं की संख्या क्षमता से 56.09 प्रतिशत है. यदि केवल महिला जेलों की बात करें तो उनमें भी केवल 6511 महिला बन्दियों को रखने की क्षमता है लेकिन 3652 महिला बन्दी रहती हैं. पुरुष जेलों के भीतर महिला जेल में यह आंकड़ा 76.7 प्रतिशत है. पूरे देश की जेलों में कुल सजायाफ्ता महिला बंदी 6979 हैं, विचाराधीन 13550 महिला बंदी हैं तो 680 डिटेनी और 85 अन्य प्रकार की महिला बंदी हैं.
यदि देश भर के राज्यों और केन्द्रशासित राज्यों की तुलना की जाय तो जेलों में रहने वाली सबसे अधिक महिला बन्दियों की भीड़ 170.13 प्रतिशत उत्तराखण्ड में दर्ज की गयी है. उसके बाद उत्तर प्रदेश जहां महिलाओं की भीड़ का प्रतिशत 138.38 है. और फिर छत्तीसगढ़ में 136.06 प्रतिशत है. महिला बन्दियों का अनुपात अधिक होने का एक कारण यह भी है कि इन राज्यों में महिला जेल नहीं है. महाराष्ट्र में यह प्रतिशत 120.24 है यहां पर महज एक महिला जेल है.
2014 से 2019 में महिला बन्दियों की संख्या में वृद्धि दर्ज की गयी है. 2014 में कुल बन्दियों की संख्या 4 लाख 18 हजार 536 थी तो 2019 में यह संख्या 4 लाख 78 हजार 600 हो गयी, यानी इस दौरान 14.4 प्रतिशत बन्दी बढ़े हैं. इस दौरान कुल मिलाकर जेलों की संख्या कम हुई है, 2014 में पूरे देश में कुल 1387 जेलें थीं, वहीं 2019 में यह संख्या कम होकर 1350 हो गयी हैं. यानी कि 37 जेलें कम कर दी गयी हैं. पूरे देश के स्तर पर भीड़ 0.9 प्रतिशत बढ़ी है. 2017 में जहां यह 117.6 प्रतिशत थी, वहीं 2019 अन्त में यह 118.5 प्रतिशत थी. महिला जेल में महिला बन्दियों की संख्या में भी 21.7 प्रतिशत का इजाफा हुआ है. अन्य जेलों को मिलाकर 11.0 प्रतिशत की वृद्धि हुई है.
देश भर में 1350 जेलों में महिला जेल महज 31 हैं जिसमें से 15 राज्यों और दिल्ली में हैं. महिलाओं के लिए मात्र एक खुली जेल 2010 में पुणे के यरवदा में बनायी गयी है जबकि पुरुषों की खुली जेल 1953 में ही बना दी गयी थी. अन्य जगह पर जेल के भीतर जेल में ही महिलाओं को रखा जाता है. सबसे अधिक सात महिला जेल राजस्थान में हैं.
कुल मिलाकर यह कहा जा सकता है कि महिला बन्दियों के मानवाधिकारों पर नये सिरे से विमर्श की आवश्यकता है तथा जब पूरी दुनिया में महिला मुद्दों की बात की जा रही है तो आज पहले से ज्यादा इस बात को रेखांकित करना जरूरी है कि महिला बन्दियों के हितों की सुरक्षा के साथ ही पुलिस प्रशासन, जेल प्रशासन और अदालतों में लैंगिक भेदभाव को चिन्हित किया जाय और यहां मौजूद कर्मचारियों को इसके प्रति संवेदनशील बनाया जाय. इसके साथ ही अदालतों की लम्बी चलने वाली न्यायिक प्रक्रिया को त्वरित किया जाय. अंग्रेजों के जमाने से चले आ रहे जेल नियमों में बदलाव करने की आज सबसे अधिक आवश्यकता है
लेखिका उत्तराखंड स्थित सामाजिक-राजनीतिक कार्यकर्ता हैं
(साभर- जनपथ)
Also Read
-
CEC Gyanesh Kumar’s defence on Bihar’s ‘0’ house numbers not convincing
-
Hafta 550: Opposition’s protest against voter fraud, SC stray dogs order, and Uttarkashi floods
-
TV Newsance 310: Who let the dogs out on primetime news?
-
If your food is policed, housing denied, identity questioned, is it freedom?
-
The swagger’s gone: What the last two decades taught me about India’s fading growth dream