Pakshakarita
'पक्ष'कारिता: हिंदी के अखबार हिंदी के लेखकों को क्यों नहीं छापते हैं?
“हिंदी में आज हमें न पैसे मिलते हैं, न यश मिलता है. दोनों ही नहीं. इस संसार में लेखक को चाहिए किसी की भी कामना किए बिना लिखता रहे.”
(प्रेमचंद और उनका युग, रामविलास शर्मा, राजकमल प्रकाशन)
हिंदी के कथा सम्राट प्रेमचंद ने जब अपने एक छात्र जनार्दन राय से कहा था कि लेखक को बिना किसी कामना के लिखते रहना चाहिए, तब उनकी कल्पना में पता नहीं यह बात थी या नहीं कि बिना पैसे और यश के तो फिर भी लिखा जा सकता है लेकिन बिना छपने की जगह के लेखक बने रहना बहुत मुश्किल काम है. कोई छापने को तैयार न हो तो दो ही विकल्प बचते हैं- लिखना त्याग दें या फिर लिख कर अपने बक्से में रख लें; दूसरा, खुद ही प्रकाशक व मुद्रक बन जाएं यानी अपना छापाखाना, अखबार, पत्रिका आदि शुरू करें. ये इतना आसान कभी नहीं रहा. प्रेमचंद ने 'आवाज़े खल्क', 'स्वदेश', 'मर्यादा' 'जमाना' आदि में 27 साल स्वतंत्र पत्रकारिता की, तब जाकर 1930 में 'हंस' की स्थापना की और दो साल बाद 'जागरण' पत्र का संपादन शुरू किया.
अभी-अभी उनकी जयन्ती गुज़री है. उनका जिक्र इस स्तम्भ के लिहाज से मौजूं बन पड़ा है कि एक लेखक या पत्रकार के लिए उनके जमाने और इस जमाने के दो फर्क बहुत दिलचस्प और काबिले गौर हैं. पहला फर्क ये है कि उस जमाने में लेखकों को छपने की जगहों (मुद्रित) की दिक्कत नहीं थी जबकि आज हिंदी के एक लेखक की हिंदी के अखबार तक पहुंच बहुत मुश्किल हो गयी है. इसी का दूसरा पहलू यह है कि उस जमाने में अपना उद्यम शुरू करना पहाड़ जैसा काम था जबकि आज ये बहुत आसान है. कैसे? दरअसल, इन दोनों नुक्तों में एक ही चीज समान रूप से पायी जाती है- वेब माध्यम. आज आपको अखबार न छापे तो क्या हुआ, फेसबुक से लेकर ब्लॉग, यूट्यूब आदि तमाम मंच मौजूद हैं. कोई कमी नहीं. कुछ नहीं तो लेखक अपनी वेबसाइट शुरू कर सकता है यानी उद्यम खड़ा कर सकता है. इतने विविध माध्यम, इतने मंच, उससे ज्यादा लिखने वाले- लेखन के इतिहास में यह अभूतपूर्व लोकतांत्रिक स्थिति है. इस 'टू मच डेमोक्रेसी' में हालांकि जो बुनियादी सवाल छूट जाता है वो अखबारों की भूमिका का है, कि हिंदी के अखबार आखिर हिंदी के लेखकों को क्यों नहीं छापते.
चौंक गए? यह सुनने में अजीब लगता है क्योंकि हमने कई दिनों से अखबारों का वैसा अध्ययन नहीं किया, जैसा आज से 15-20 साल पहले पत्रकारिता की कक्षाओं का नियमित असाइनमेंट होता था. उसे 'कंटेंट अनालिसिस' कहते थे. इस अध्ययन की ओर मेरा खास ध्यान एक नौजवान पत्रकार के संदेश के कारण गया जिन्होंने शिकायती लहजे में कहा कि नये लोगों को आजकल कोई नहीं छापता. मन में मैंने कहा कि छापता तो कोई पुराने लोगों को भी नहीं है. वास्तव में, हिंदी के अखबार हिंदी के लेखकों को छापना बंद कर चुके हैं. निजी अनुभव भी यही बताता है- सामुदायिक ब्लॉग जनपथ को किसी भी हफ्ते में औसतन दो से तीन दर्जन उम्दा वैचारिक लेख, टिप्पणियां, समीक्षाएं, संस्मरण इत्यादि प्राप्त होते हैं. इन्हें लिखने वाले हिंदी के मंजे मंजाये लोग हैं, अध्येता हैं, पत्रकार हैं, स्तंभकार हैं लेकिन ये लोग अखबारों को अपने लेख सामान्यत: नहीं भेजते. जो नाम आज से पांच-छह साल पहले तक अखबारों के संपादकीय पन्ने पर दिखते थे, वे वहां से गायब हो चुके हैं या वेब पर आ चुके हैं. फिर सवाल उठना जायज है कि हिंदी के अखबार अगर संपादकीय पन्ना अब भी छाप रहे हैं तो वहां वे छापते क्या हैं? किन्हें छापते हैं?
दस अखबारों के संपादकीय पन्ने का अध्ययन (16-31 जुलाई 2021)
इस सवाल को और समझने के लिए मैंने बीते पखवाड़े हिंदी के 10 अखबारों के संपादकीय पन्नों का एक 'कंटेंट अनालिसिस' किया. इस विश्लेषण के दो पैमाने बनाये. पहला, लिखने वाले की बाइलाइन यानी नाम, जिससे पता चल सके कि प्रकाशित लेख मूल हिंदी का है या किसी अंग्रेजी के लेखक का अनूदित लेख. दूसरा पैमाना बीते पखवाड़े (16 जुलाई से 31 जुलाई) घटी प्रमुख घटनाएं जिससे यह पता लगे कि हमारे अखबार किन विषयों पर विचार परोस रहे हैं और किन से बच रहे हैं. नतीजे अपेक्षा से कहीं ज्यादा चौंकाने वाले निकले. इन नतीजों के अपने राजनीतिक-सामाजिक निहितार्थ भी हैं. जो अखबार अध्ययन के लिए मैंने लिए, वे निम्न हैं: नवभारत टाइम्स, हिंदुस्तान, दैनिक जागरण, दैनिक भास्कर, जनसत्ता, राजस्थान पत्रिका, अमर उजाला, दैनिक हरिभूमि, पायनियर हिंदी और बिजनेस स्टैंडर्ड हिंदी. ध्यान रहे, संपादकीय पन्ना ऐसा पन्ना होता है जो संस्करणों के हिसाब से नहीं बदलता, समान रहता है. इसलिए किसी अखबार के हर संस्करण का पाठक संपादकीय पन्ना एक ही पढ़ रहा होता है.
सबसे पहले कम प्रसार संख्या वाले अखबारों की बात. पायनियर हिंदी में पायनियर के अंग्रेजी लेखों का अनुवाद ही ज्यादातर छपता है. एक हिंदी बाइलाइन पर चार अंग्रेजी की बाइलाइन यानी हिंदी लेखकों के मूल लेख केवल 20 प्रतिशत. बिजनेस स्टैंडर्ड हिंदी में तो 100 फीसदी अनूदित लेख छपते हैं. हरिभूमि में बमुश्किल एक लेख कभी छपता भी है तो वो मूल हिंदी में ही होता है, वहां अंग्रेजी से उधार नहीं लिया जाता. जनसत्ता में अंग्रेजी के कॉलम और लेख चलते हैं, लेकिन अनुपात कम है- बमुश्किल 25 प्रतिशत. ध्यान रहे, जनसत्ता और हरिभूमि के संस्करण एक से ज्यादा तो हैं लेकिन धारणा-निर्माण में इनकी बहुत भूमिका नहीं है. हिंदी की इससे थोड़ा ही खराब स्थिति नवभारत टाइम्स में है जहां अंग्रेजी से अनूदित लेखों का अनुपात करीब एक-तिहाई है. याद रहे नवभारत टाइम्स दिल्ली में बिकता है, इसका राष्ट्रीय प्रसार नहीं है.
अब आइए हिंदी प्रदेश की जनता को छेकने वाले बड़े अखबारों पर. यहां प्रेमचंद का प्रतिबद्ध लेखक फंसता हुआ दिखेगा. आयकर छापे के बाद जन्मा स्वतंत्र पत्रकारिता का नया वीरबालक दैनिक भास्कर 70 प्रतिशत से ज्यादा अंग्रेजी की बाइलाइनें अनुवाद कर के छापता है यानी हर दो हिंदी लेख पर पांच अंग्रेजी के लेख; राजस्थान पत्रिका इस मामले में भारी है क्योंकि वहां 80 प्रतिशत से ज्यादा वैचारिक कंटेंट अंग्रेजी से अनुवाद होकर छपता है और महज 20 प्रतिशत मूल हिंदी के लेख होते हैं. अंग्रेजी का रोग अमर उजाला के संपादकीय को भी लगा हुआ है. वहां मूल हिंदी में मात्र 33 प्रतिशत लेख छपते हैं, बाकी सब अंग्रेजी से अनुवाद.
बच गए हिंदुस्तान और दैनिक जागरण. हिंदुस्तान हर मामले में संतुलनवादी अखबार है तो संपादकीय कंटेंट में भी संतुलन दिखता है. करीब 55-56 प्रतिशत मूल हिंदी और 45 प्रतिशत अंग्रेजी से अनूदित माल यहां के संपादकीय पन्ने पर छपता है. तमाम प्रगतिशील, सेकुलर, लोकतांत्रिक हलके में बुरी नजर से देखे जाने वाले दैनिक जागरण का हाल अचंभित करने वाला है. हिंदी के लेखों का अनुपात यहां 85-90 प्रतिशत के बीच है और अंग्रेजी से अनूदित सामग्री अधिकतम 14 प्रतिशत तक जाती है. वास्तव में, संपादकीय पन्ने के छपने वाले कुल वैचारिक कंटेंट (मूल हिंदी और अनूदित दोनों मिलाकर) की संख्या के मामले में दैनिक जागरण अपने तमाम प्रतिद्वंद्वियों को मिलाकर भी कोसों आगे है. दैनिक भास्कर, हिंदुस्तान, अमर उजाला और पत्रिका ने अगर 15 दिनों में कुल 30 वैचारिक लेख छापे तो दैनिक जागरण इस मामले में 40 के पार है, वो भी ज्यादातर हिंदी.
एक बीमारी सब पर भारी?
यदि बीते 15 दिनों में भास्कर, हिंदुस्तान, अमर उजाला और पत्रिका के संपादकीय पन्ने पर छपे मात्र हिंदी कंटेंट को समेट लें और दैनिक जागरण से तुलना करें, तो हम पाते हैं कि 100 में अकेले 60 लेख जागरण छाप रहा है और बाकी सब 40 में सिमट जा रहे हैं. कोई बड़ी आसानी से कुछ स्वाभाविक सवाल कर सकता है कि अंग्रेजी से अनूदित लेखों से आपत्ति क्या है? दूसरे, लेखों की संख्या से क्या होता है, गुणवत्ता को देखिए.
पहले सवाल का जवाब दो तरीके से दिया जा सकता है. अव्वल तो हिंदी के अखबारों में वैचारिक लेखों के अनुवाद की स्थिति बहुत दयनीय है. निजी अनुभव है कि अनुवादक अगर बाहर का हो तो एक लेख के लिए उसे हजार या बहुत हुआ तो दो हजार रुपये मिलते हैं. जनसत्ता से निकलने के बाद ओम थानवी के संपादकीय सलाहकार रहते हुए राजस्थान पत्रिका बाहर से दो हजार में एक लेख अनुवाद करवाता था. ऐसे ही इंडिया टुडे जैसी पत्रिका पिछले कई साल से 500 रुपये पन्ने पर अटकी हुई है. आउटलुक जैसी पत्रिका दो-तीन हजार से ज्यादा नहीं देती, लेख चाहे कितना ही बड़ा हो. बाकी सबके यहां ज्यादातर इन-हाउस काम होता है. अब इतने पैसे में कैसे अनुवादक मिलेंगे और कैसा अनुवाद, ये कहने वाली बात नहीं. बुनियादी बात ये है कि अंग्रेजी में लिखने वालों का मुहावरा हिंदी के आम पाठक से कटा होता है. अगर सावधानी से सरल शब्दों में समझाने वाला अनुवाद नहीं किया गया, तो शाब्दिक अनुवाद अच्छे से अच्छे लेख का कचरा कर सकता है.
दूसरे, अधिकतर अखबार अंग्रेजी की बाइलाइनें उठाते हैं तो इसके पीछे वजह यह नहीं कि हिंदी में उन विषयों के लेखक मौजूद नहीं हैं. एक तो उधार के नाम पर वॉशिंगटन पोस्ट या न्यूयॉर्क टाइम्स लिखा देखकर उन्हें तमगे जैसा कुछ महसूस होता है, भले माल फीका हो. इसके अलावा एक सच यह भी है कि 10 साल पहले तक संपादकीय विभागों से लेखकों को फोन कर के रोजमर्रा की घटनाओं पर टिप्पणी मंगवाने का चलन खत्म होता जा रहा है क्योंकि अखबारी लोगों का हिंदी के पब्लिक डोमेन यानी लोकवृत्त से रिश्ता टूट चुका है. चाह कर भी किसको फोन करेंगे और कौन उनके कहने पर दो-चार हजार रुपये में लिखेगा? जो दो-चार लोग एक फोन कॉल पर कुछ भी लिख देते थे पहले, वे आज भी चंपे हुए हैं- वेदप्रताप वैदिक, सुधीश पचौरी, अवधेश कुमार और अभय कुमार दुबे विरल उदाहरण हैं. बाकी लेखक मर खप गए जो कुछ साल पहले छपा करते थे.
जो अखबारों के पन्ने में टिके हैं, उनके टिके होने का भी लेना-देना उनके अंतर्निहित गुणों से है जो आज के अखबारी धंधे के सर्वथा अनुकूल है. मसलन, एक किस्सा याद आता है कि किसी अखबार ने आजादी के छप्पन साल पूरे होने पर सुधीश जी से लेख मंगवाया था. उन्होंने तपाक से लिख के भेज दिया और शीर्षक मारा- अब तक छप्पन. ये तब की बात है जब लेख मेल से नहीं भेजे जाते थे और सुधीश जी की लिखावट से परिचित डेस्क के पत्रकारों को कम्पोज करने में हिब्रू याद आ जाती थी. बहरहाल, ऐसे ही एक हैं जिनके पास लेख के लिए इमरजेंसी में फोन आया तो पूरी ईमानदारी से उन्होंने पूछ लिया- इसके पक्ष में लिखना है या विपक्ष में? ये भी पुरानी बात है, इसीलिए उनका यह सर्वकालिक गुण आज तक टिका हुआ है. 2014 के बाद से ऐसी प्रजाति दुर्लभ हो चली है क्योंकि पाले खिंच गए हैं. दक्खिन टोले वाले सब जागरण में भाग गए. वाम टोले वाले बहरिया दिए गए.
हिंदी लेखकों की एक तीसरी प्रजाति भी है- जल, आबादी, स्त्री, बचपन, कूड़ा, पहाड़, नदी, मौसम, भोजन, स्वास्थ्य, गरीबी, इत्यादि के स्थायी आहार पर जीवित रहने वाली. जनसत्ता जैसे अखबारों में लंबे समय से यह प्रजाति लगातार छप रही है. इसके लेखक किसी मुद्दे के न पक्ष में रहते हैं न विपक्ष में क्योंकि उनका उठाया मुद्दा ही बेहद शाकाहारी, एनजीओवादी और तकरीबन रोज़ ही ठंडा होता है. जनसत्ता हिंदी लेखकों को छापने का बेशक इकलौता दम भर सकता है, लेकिन वहां बीते कुछ वर्षों से जो छप रहा है उसे पढ़ना गोबर के ढेर पर फिसलने जैसा अनुभव है. गुणवत्ता का सवाल यहीं आता है. इसी में मुद्दे और पक्षधरता का सवाल भी छुपा है.
उनका तालिबान चिंता, अपना वाला ठीक
सोचिए, पिछले पखवाड़े के कुछ जरूरी मुद्दे क्या रहे? पेगासस की जासूसी, दैनिक भास्कर और भारत समाचार पर छापा, दानिश सिद्दीकी की तालिबान द्वारा हत्या, नीट की परीक्षाओं में ओबीसी कोटा, किसान संसद और मानसून सत्र. कुछ और घटनाएं हो सकता है छूट रही हों. आइए, एक-एक कर अखबारों को देखें कुछ मुद्दों पर और सोचें कि जो छप रहा है, वो गोबर नहीं तो और क्या हो सकता है.
सबसे बड़ी खबर पेगासस जासूसी कांड को दैनिक भास्कर, अमर उजाला, हिंदुस्तान और नवभारत टाइम्स को छोड़कर किसी ने भी संपादकीय पन्ने के काबिल नहीं समझा. भास्कर ने 30 जुलाई को राजदीप सरदेसाई, 23 जुलाई को शशि थरूर और 22 जुलाई को रितिका खेड़ा व विराग गुप्ता के न सिर्फ लेख छापे, बल्कि 20 जुलाई को संपादकीय टिप्पणी भी की. 21 जुलाई को नवभारत टाइम्स ने भी पेगासस पर संपादकीय लिखा था, अगले दिन वेदप्रताप वैदिक को इसी मसले पर छापा. हिंदुस्तान ने 20 जुलाई को पवन दुग्गल और 27 जुलाई को विभूति नारायण राय को छापा. अमर उजाला को भारत में कोई नहीं मिला तो उसने न्यूयॉर्क टाइम्स से कुछ उठाकर 22 जुलाई को छाप दिया. इसी में देख लीजिए, अकेले वैदिक और राय हिंदी के ऐसे स्थापित लेखक हैं जो हिंदी के अपने मुहावरे में पेगासस जासूसी का महत्व हिंदी के आम पाठक को समझाने की काबिलियत रखते हैं. इसकी अपेक्षा आप राजदीप, शशि थरूर, रितिका खेड़ा या दुग्गल के अनूदित लेखों से नहीं रख सकते.
यहीं दैनिक जागरण अकेले एक लेख से बाजी मार ले जाता है, जो 21 जुलाई को छपा जिसका शीर्षक था- ''व्यर्थ का हंगामा है पेगासस''. आधा पन्ने के इस लेख में संपादक को दर्द देता हुआ एक बॉक्स आइटम ठेला गया था- ''धुआं उठ रहा है तो आग भी लगी होगी''. इसके बाद तो खैर जब सरकार का पक्ष साफ़ हुआ तो उसके प्रवक्ता के रूप में मालिक संजय गुप्ता ने लीड लेख ही लिख डाला- ''जासूसी मामले की सच्चाई'' और कह दिया कि विपक्ष के पास इसका कोई सुबूत नहीं है कि सरकार ने जासूसी करवायी. बात खत्म! अकेले जागरण ही प्रवक्ता नहीं बना हुआ है, हिंदुस्तान में 23 जुलाई को छपा लीड लेख कहता है कि ऑक्सीजन से हुई (या नहीं हुई) मौतों पर हो रही बहस की दिशा बदली जानी चाहिए. जाहिर है, सरकार ने कह दिया था कि ऑक्सीजन की कमी से कोई नहीं मरा, तो बहस छिड़ गयी थी और बहस की दिशा बदलने की बेचैनी अखबार में शाया हो गयी बिलकुल इसी शीर्षक के साथ. देश भर में हिंदी अखबार पढ़ने वालों के बीच नैरेटिव इसी तरह सेट होता है. आप जागरण पढ़ें, जनसत्ता पढ़ें या हिंदुस्तान, केवल दुकान अलग-अलग है लेकिन माल एक.
दानिश सिद्दीकी पर आइए- केवल दो अखबारों ने 17 जुलाई को संपादकीय लिखा था: जनसत्ता और हिंदुस्तान ने. बाकी जगह यह महज खबर थी. दिलचस्प यह है कि दानिश के बहाने तालिबान केंद्रित लेखों की अचानक अखबारों में बाढ़ आ गयी और राष्ट्रीय सुरक्षा पर धड़ाधड़ संपादकीय छपने लगे. अफगानिस्तान, चीन, पाकिस्तान और तालिबान इस समय हिंदी के विचार संपादकों की पहली पसंद हैं. लगातार इन विषयों पर लेख छप रहे हैं. इतने हैं कि गिनवाना मुश्किल है यहां, लेकिन एक लेख खास ध्यान खींचता है- हिंदुस्तान में 16 जुलाई को प्रकाशित लेख जिसे अजित डोभाल वाले विवेकानंद फाउंडेशन के निदेशक ने लिखा था. वैसे, आजकल हिंदी के अखबार मंत्रियों और नेताओं को छापकर बहुत प्रसन्न रहते हैं. इसमें कोई अपवाद नहीं है. जनसत्ता में रमेश पोखरियाल निशंक का लीड लेख 30 जुलाई को छपा था. जागरण ने 23 जुलाई को अनुराग ठाकुर को लीड छापा था. अमर उजाला ने 24 जुलाई को स्वदेशी जागरण मंच वाले अश्विनी महाजन का लीड लेख छापा था.
एक और दिलचस्प ट्रेंड देखने को मिला. आजकल नौकरशाहों और बड़े ओहदेदार अधिकारियों के नाम से प्रचारात्मक लेख लिखे जा रहे हैं और थोक के भाव छोटे अखबारों को फ्री में बांटे जा रहे हैं. मसलन, गांधीनगर में रेलवे स्टेशन का सुंदरीकरण हुआ. उसकी सराहना करते हुए भक्ति में शराबोर एक लेख छपा कुछ छोटे अखबारों में एक ही दिन. सब एडिट पेज पर प्रमुख तरीके से. लिखने वाले हैं भारतीय रेलवे स्टेशन डेवलपमेंट कॉरपोरेशन के एमडी और सीईओ एसके लोहिया. यह लेख 16 जुलाई को स्वदेश, आजाद सिपाही सहित ढेर सारे अखबारों में छपा है. बिलकुल इसी तरह सिक्योरिटी कंपनी चलाने वाले भाजपा सांसद आरके सिन्हा के नाम से एक लेख कई जगह छपा है उसी दिन, जिसमें वे बिहार में खेलों की स्थिति पर चिंता जता रहे हैं.
बीते पखवाड़े देश के सबसे बड़े अखबार दैनिक भास्कर पर छापा पड़ा, उस छापे की राख से अखबार स्वतंत्र वीर बनकर निकला लेकिन इस खबर के पीछे की समूची वैचारिकी को तमाम हिंदी के अखबार गड़प कर गए. कम से कम बिरादरी का साथ निभाने के नाम पर अभिव्यक्ति की आजादी के हक में एक लेख तो बनता था, लेकिन किसी ने नहीं छापा. संपादकीय तो दूर की बात रही. यहां फिर मैदान खाली छूटा तो जागरण ने बलबीर पुंज का लेख 29 जुलाई को छाप दिया जिसमें हाइलाइट किये हुए शब्दों पर ध्यान दीजिएगा, तो एजेंडा समझ में आ जाएगा. किसानों पर भी अब कहीं लेख नहीं छप रहे हैं, लेकिन अकेले जागरण है जो बदनाम करने से अब भी बाज़ नहीं आ रहा है. उसके संपादकीय पन्ने पर एक कॉलम में कहीं-कहीं के ब्यूरो प्रमुखों की टिप्पणी छपती रहती है. उसी में हरियाणा और पंजाब के ब्यूरो चीफ लगातार किसान-विरोधी एजेंडा ताने हुए हैं.
आवाज़ आ रही है क्या?
वास्तव में, मूल हिंदी में वैचारिक लेखों को ज्यादा जगह देने के कारण दैनिक जागरण से ऐसा कोई भी मुद्दा नहीं है जो छूट गया हो. हर एक प्रासंगिक और बहसतलब मुद्दे को उसने राष्ट्रवादी मुहावरे में सरकारी पक्ष के साथ बड़े विस्तार से सजाकर प्रस्तुत किया. हिंदी के सारे अखबार मिलकर भी इतना नहीं कर पाए. चूंकि यह अध्ययन 15 दिनों का ही है तो माना जा सकता है कि मोटे तौर पर ट्रेंड यही रहता होगा क्योंकि संपादकीय पन्ना एक स्थायी किस्म की संरचना है जिसमें ज्यादा फेरबदल नहीं किया जाता है. एक अहम बात यह समझ में आती है कि अचानक आए पेगासस जैसे विशिष्ट मुद्दों को छोड़ दें, तो कोरोना की वैक्सीन से लेकर अंतरराष्ट्रीय राजनीति-रणनीति, जनसंख्या, सरकारी योजनाएं, ओलिंपिक, संसद, किसान आदि पर सभी अखबारों का सुर एक सा है. इस लिहाज से कह सकते हैं कि संपादकीय विचार के लिहाज से दैनिक जागरण के इर्द-गिर्द बाकी तमाम हिंदी अखबार उपग्रहों की तरह घूमते नजर आते हैं.
यही वजह है कि उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री अखिलेश यादव को जब पेगासस और दैनिक भास्कर के छापे पर कुछ ट्वीट करने की जरूरत महसूस होती है तो उन्हें हिंदी अखबार की कोई कतरन इस विषय पर नहीं मिलती. फिर वे बुंदेलखंड वाली जिज्जी का वीडियो ट्वीट कर देते हैं और इस तरह राजनीतिक कर्तव्य निभा लेते हैं. सोचिए, ये हाल हो गया है अखबारों का. उधर दूसरी ओर यूपी के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के पास ट्वीट करने के लिए अखबारों की बाढ़ लगी हुई है जो उन्हें अगले साल चुनाव जितवाने की भविष्यवाणी और सर्वे छाप रहे हैं.
दिल्ली में जब इकनॉमिक टाइम्स हिंदी में लॉन्च हुआ था, तो उसमें संपादकीय पन्ना छपता था. उसी दिन के अंग्रेजी लेखों का अनुवाद कर के लगाना होता था. दो महीने की कवायद में संपादक को ज्ञान हो गया कि सारी मेहनत व्यर्थ है, ये सब कोई नहीं पढ़ता. इसलिए संपादकीय पन्ना ''स्टार्ट-अप'' पन्ने में बदल दिया गया. हिंदी में वैचारिक लेखों की व्यर्थता का बोध सबसे पहले दैनिक भास्कर को श्रवण गर्ग के संपादकत्व के आखिरी वर्षों में हुआ जब भोपाल मुख्यालय ने विज्ञापन के चक्कर में संपादकीय पन्ने को ही गिराना चालू कर दिया. यह अभूतपूर्व था, लेकिन ट्रेंडसेटर बनने की ताकत रखता था. आज थोड़ा लाज-लिहाज में भले अखबार संपादकीय पन्ने को बरकरार रखे हुए हैं, लेकिन वास्तव में उसके होने और न होने के बीच बहुत फर्क नहीं है. कर्पूरचंद्र कुलिश की परंपरा वाली पत्रकारिता में अगर आपको संपादकीय पन्ने पर लीड लेख के रूप में गुलाब कोठारी के धार्मिक प्रवचन पढ़ने पड़ें, तो पन्ने का नाम उस दिन बदल के धर्म-कर्म क्यों नहीं कर दिया जाता?
प्रेमचंद आज जीवित होते तो न अपनी पत्रिका चालू कर पाते न ही उन्हें कोई संपादकीय पन्ने पर छापता. फिर वे तमाम कामनाओं से मुक्त होकर क्यों लिखते और किसके लिए? हिंदी अखबारों के लिए आउटडेटेड हो चुके हिंदी के तमाम लेखकों, पत्रकारों और बौद्धिकों की तरह क्या वे भी फेसबुक पोस्ट लिख रहे होते? क्या वे भी घर में बैठ कर फेसबुक लाइव करते और दस बार पूछते- मेरी आवाज़ आ रही है क्या?
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