Opinion

"बसपा का ब्राह्मणों के पास जाना मजबूरी"

आरम्भ में बहुजन समाज पार्टी के संस्थापक कांशीराम ने बामसेफ बनायी जिसकी शुरुआत महाराष्ट्र से हुई. यह संगठन इसके बाद पंजाब, हरियाणा और उत्तरप्रदेश में फैला. तब जितनी दलित जातियां जुड़ीं लगभग पिछड़े भी उतने ही साथ आए वहीं अल्पसंख्यक वर्ग का भी अच्छा ख़ासा साथ मिला. 14 अप्रैल 1984 को बहुजन समाज पार्टी का गठन हुआ. पहली लोकसभा की सीट बिजनौर से निकली जहां पर मुसलमानों ने बढ़- चढ़कर के साथ दिया और उसके बाद कुर्मी बाहुल्य क्षेत्र रीवा, मध्यप्रदेश से बुद्ध सेन पटेल जीत कर आए.

कांशीराम जब वीपी सिंह के खिलाफ इलाहबाद से चुनाव में उतरे तो मुख्य सारथी कुर्मी समाज के थे. इस तरह से कहा जा सकता है कि शुरू में जैसा नाम वैसा काम दिखने लगा. एक नारा उन दिनों बहुत गूंज रहा था 15 प्रतिशत का राज बहुजन अर्थात 85 प्रतिशत पर है. पार्टी का विस्तार यूपी और पंजाब में इसी अवधारणा के अनुरूप बढ़ा और उसी के प्रभाव से 1993 में समाजवादी पार्टी से यूपी में समझौता हो सका. 1994 में पहली बार जब बहन मायावती मुख्यमंत्री बनीं तो बहुजनवाद में संकीर्णता प्रवेश करने लगी, लोग राजनीतिक रूप से कम और सामाजिक रूप से ज्यादा जुड़े थे इसलिए उपेक्षित होते हुए भी साथ में लगे रहे. समाज ने यह भी महसूस किया कि अपना मारेगा तो छांव में. जो भी हो मरना जीना यहीं है.

जैसे-जैसे सत्ता का नशा चढ़ता गया, बहुजनवाद जाति में तब्दील होता चला गया. जाति के आधार पर बड़े-बड़े सम्मेलन होने लगे और जो जातियां सत्ता के लाभ से वंचित थीं वो बहुत तेजी से जुड़ती चली गईं. उदाहरण के लिए राजभर, कुशवाहा, मौर्या, कुर्मी, पासी, नोनिया, पाल, कोली. सैनी, चौहान आदि. आंदोलन में इन जातियों में जागृति पैदा होने के साथ नेतृत्व भी उभरा, जिसकी जितनी संख्या भारी उसकी उतनी भागीदारी की बात ने भी खुद अपील किया, सबको मान- सम्मान और साझीदारी का वादा किया. अब तक नेतृत्व मायावती के हाथ में आ गया था और इन्हें इस बात का अहसास हो गया कि लोग जायेंगे कहां या लोगों को जिस तरह से चाहे उस तरह से हांका जा सकता है. मंच पर मायावती और कांशीराम की कुर्सी लगने लगी. सांसद- विधायक भी जमीन पर बैठाने लगे. बहुत दिनों तक लोग भावनाओं के मकड़जाल में नहीं रह सकते. उनमे छटपटाहट का होना लाजिमी था. इसको समझने के लिए यह कहा जा सकता कि जैसे दावत का निमंत्रण दे दिया लेकिन थाली में कुछ डाला नहीं.

दलित-पिछड़ों कि जो तमाम उपजातियां जुड़ी थीं अब वो तलाश में लग गईं कि उनको मान-सम्मान या भागीदारी कहां मिल सकती है. जाहिर है कि सबने अपनी जाति के आधार पर संगठन खड़ा किया और इस तरह से दर्जनों पार्टियां बन गईं और जहां भी सौदेबाजी का मौका मिला वहां तालमेल बैठाना शुरू कर दिया. इस तरह से बहुजन आंदोलन जाति तक सीमित हो गया.

2017 में भाजपा ने इस अंतर्विरोध को अच्छे ढंग से समझा और गैर-यादव, गैर– जाटव जातियों को टिकट बांटे और बड़ी कामयाबी हासिल की. जब जातीय आधार पर सम्मेलन हुए थे तो उस तरह की चेतना का निर्माण होना स्वाभाविक था. चेतना के अनुसार अगर उनको समाहित नहीं किया गया तो असंतुष्ट होना भी स्वाभाविक था. और जो उनको संतुष्ट कर सकता था, उनसे जुड़ गए. इसका मतलब यह नहीं कि उनकी जाति के कल्याण का उत्थान हुआ बल्कि कुछ विशेष व्यक्ति जो ब्लॉक प्रमुख, विधायक, मंत्री बन पाए. मनोवैज्ञानिक रूप से जाति को भी संतोष मिला कि हमारी जाति का व्यक्ति भी संसद-विधानसभा में पहुच गया.

बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी का जनाधार 2017 के चुनाव में धीरे से खिसक गया. राज्य में भारतीय जनता पार्टी कि सरकार बनी तो उन जातियों कि मंत्री, विधायक अन्य सम्मानित लोगों को पद मिला जिससे उनकी जातियां खुश हो गईं. इतनी चेतना वाली ये जातियां नहीं है कि विश्लेषण कर सकें कि जाति का भला हो रहा है या दो- चार व्यक्ति का. भारतीय समाज में जाति कि पहचान बहुत ही चट्टानी है तो उन्हें लगता है कि जो सपा –बसपा नहीं दे सकी उससे ज्यादा भाजपा ने दिया है. जब जाति भावना से चीजें देखी जाने लगती हैं तब शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार, भागीदारी जैसे सवाल पीछे छूटते चले जाते हैं. भाजपा ने इनको खुश भी कर दिया और धीरे से जो भी उपलब्धि या लाभ पहुंच रहा था वो निजीकरण से समाप्त कर दिया. गत चार सालों में 40842 डॉक्टरों के प्रवेश के पिछड़ों की सीटों को ख़त्म कर दिया तो क्या इन्हें अहसास भी हुआ. यूपी में हर अहम पद पर 15 प्रतिशत वालों का कब्जा ज्यादा हुआ है. लेकिन इन पिछड़ों और दलितों को इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा. यूं कहा जाय कि भाजपा ने कुछ व्यक्ति विशेष को सम्मानित जगह पर बिठा कर उनके पूरे समाज को ही संतुष्ट कर दिया.

अयोध्या से बहुजन समाज पार्टी ने ब्राह्मण जोड़ो अभियान शुरू किया है. 2005 में भी ब्राह्मण सम्मेलन किया था और 2007 में बसपा अपने बल पर सरकार को बना पाई. कहा जाने लगा कि ब्राह्मणों के समर्थन से ही बसपा का सरकार बनना संभव हुआ. उस समय नारा दिया गया कि ब्राह्मण शंख बजाएगा, हाथी बढ़ता जायेगा. सच्चाई यह है कि 2005 के ब्राह्मण सम्मेलन में पीछे और मध्य की जो भीड़ थी बहुजन समाज की थी ना कि ब्राह्मण समाज की. बसपा अगर विचारधारा के अनुसार चली होती तो आज वोट की तलाश में ब्राह्मणों के पास पहुंचने की जरूरत नहीं पड़ती. दलितों की सभी जातियों को संगठन से लेकर सत्ता में संख्या के अनुरूप भागीदारी दी होती तो आज जो ब्राह्मणों के पीछे भागकर जनाधार की पूर्ति की कवायद हो रही है, उसको नहीं करना पड़ता.

इसी तरह से अन्य सभी जातियों को भी सत्ता, संगठन में भागीदारी दी होती तो वोट की कमी को पूरा करने के लिए ब्राह्मणों के पास जाने की जरूरत न भी पड़ती. तीसरा विकल्प यह भी था कि मुस्लिम समाज को सत्ता एवं संगठन में आबादी के अनुपात में संयोजन हुआ होता तो ब्राह्मण वोट लेने के लिए इस तरह से भागना न पड़ता. सूझबूझ और ईमानदार एवं शिक्षित नेतृत्व होता तो ऐसा ही करता लेकिन अब बहुत देर हो चुकी है तो ब्राह्मण के पास जाना मजबूरी हो गई. चुनाव अभी आने वाला है तो देखना दिलचस्प होगा कि ब्राह्मण मिलता है या नहीं.

(लेखक कांग्रेस पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता है)

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