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जासूसी विवाद: कौन हैं संजय श्याम जिनका नंबर पेगासस के लीक डेटा में था मौजूद
‘‘18 जुलाई को औरंगाबाद से लौटकर मैं पटना पहुंचा तो मुझे पता चला कि जिन लोगों के फोन में जासूसी हो रही थी, उसमें मेरा नाम भी है. मुझे अंदेशा हुआ तो मैंने कई दूसरे लोगों से पूछा. बात करने के बाद जब यह तय हो गया है कि बिहार से जिस संजय श्याम का नाम आया है वो मैं ही हूं. मुझे ऐसा लगा कि जो कुछ मैंने अब तक काम किया है उसका मुझे इनाम मिल रहा है.’’ यह कहना है 50 वर्षीय संजय श्याम का.
पेगासस मामले में द वायर वेबसाइट ने भारत के जिन 40 पत्रकारों की सूची जारी की इसमें से एक बिहार के रहने वाले संजय श्याम भी हैं. श्याम पत्रकार के साथ- साथ सामाजिक कार्यकर्ता भी हैं. इन्होंने अपने करियर का ज़्यादा वक़्त बिहार के मगध क्षेत्र में रिपोर्टिंग करते हुए गुजारा है.
भारत से द वायर ने अलग-अलग देशों के 16 मीडिया संस्थानों के साथ मिलकर पेगसस प्रोजेक्ट के नाम से रिपोर्ट प्रकाशित कर रहा है. इसी सिलसिले को 18 जुलाई को वायर ने पहली रिपोर्ट प्रकाशित की जिसमें बताया गया कि भारत के करीब 40 पत्रकारों का नंबर एनएसओ के लीक डेटाबेस में मौजूद था. इन पत्रकारों की फोन की जासूसी संम्भवतः साल 2017 से 2019 के बीच की गई. इसके बाद वायर लगातार इस सिलसिले में रिपोर्ट प्रकाशित कर रहा है. जिसमें बताया जा रहा है कि किन नेताओं, जजों और बिजनेसमैन का नंबर जासूसी के लिए इस्तेमाल किया गया.
न्यूज़लॉन्ड्री से बता करते हुए श्याम कहते हैं, ‘‘मेरे दोनों फोन नंबर पर जासूसी की गई. मुझे इसका एहसास तो था कि पुलिस मुझपर नजर रख रही है पर इस तरह जासूसी की गई यह थोड़ी हैरानी की बात है. क्यों जासूसी की इसका जवाब तो वे ही दे सकते हैं, लेकिन मैं कोई अलोकतांत्रिक काम तो करता नहीं ऐसे में कोई डर नहीं है.’’
एनएसओ की माने तो वो पेगासस सॉफ्टवेयर सिर्फ सरकारों और सरकारी एजेंसियों को बेचता है. हालांकि भारत सरकार ने अभी तक स्पष्ट नहीं किया कि वे या सरकार की दूसरी कोई एजेंसी एनएसओ के इस सॉफ्टवेयर की ग्राहक है या नहीं.
इस रिपोर्ट को भारत सरकार देश के खिलाफ साजिश बता रही है. सरकार के अलग-अलग मंत्री इसे भारत के विकास में बांधा डालने का आरोप लगा रहे हैं. वहीं दूसरी तरफ फ़्रांस ने ऐसे ही मामलों में जांच शुरू कर दी है.
संजय श्याम: पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्ता
बिहार के औरगांबाद जिले के रफीगंज के रहने वाले संजय श्याम बीते दस सालों से पटना में रहकर पत्रकारिता कर रहे हैं. फोन पर जब हमारी उनसे बात हो रही थी तो पीछे नारों की गूंज सुनाई दे रही थी. अपने साथियों के साथ श्याम ‘निजता के अधिकार’ के लिए पटना में प्रदर्शन कर रहे थे.
वह आगे कहते हैं, ‘‘मूलरूप से मैं पत्रकार हूं और साथ में सामाजिक कार्यकर्ता के रूप में भी काम करता हूं. बिहार में साल 2000 के करीब मज़दूरों और मजलूमों की आवाज़ उठाने के नागरिक अधिकार मंच का गठन हुआ. जिससे मैं शुरू से ही जुड़ गया और आज इसका सहसंयोजक हूं. जनता से जुड़े मुद्दों को लेकर मैं अपने संगठन के जरिए समय-समय पर आंदोलन करता रहता हूं.’’
मगध ओपन यूनिवर्सिटी से साल 2010 में पत्रकारिता में मास्टर की पढ़ाई करने के बाद श्याम ने जनज्वार नाम की एक पत्रिका में लिखना शुरू किया. इसके अलावा समय-समय पर फ़िलहाल और समानांतर पत्रिका में इनकी रिपोर्ट प्रकाशित हुई. ये तीनों पत्रिकाएं वामपंथी विचारधारा वाली हैं. श्याम कहते हैं, ‘‘मैं शुरू से जनपक्षधर काम करता था. ऐसे में पत्रकारिता शुरू करने के बाद भी इसी को आगे बढ़ाया.’’
श्याम ने पत्रकारिता के लिए बिहार के मगध क्षेत्र को चुना. वे कहते हैं, ‘‘मगध क्षेत्र के गया, औरंगाबाद और नवादा जिला मुख्य रूप से मेरा कार्यक्षेत्र रहा. यहां न ही अब तक विकास पहुंच पाया और न ही यहां से खबरें सामने आती हैं. ऐसा नहीं है कि लोग खबरें नहीं भेजते थे, लेकिन मीडिया में उसे जगह नहीं मिलती थी. यह इलाका माओवादी प्रभावित क्षेत्र माना जाता है. लेकिन यहां इतनी भयंकर गरीबी है की आज भी देखिए इन इलाकों से लड़कियां, महिलाएं और बड़े-बुजुर्ग लकड़ी की गठरी लेकर बाजार आते हैं और उसे बेचकर जो पैसे आते हैं, उन्हीं से चावल दाल वगैराह खरीदकर ले जाते हैं. अगर वो लकड़ी बेचने न आए तो उनके घर में चूल्हा नहीं जल पाएगा.’’
‘‘चूंकि मैं खुद इन्हीं इलाकों से आता हूं तो मैं लोगों का दुख जानता था. इसलिए अपने कार्यक्षेत्र के रूप में इसे ही चुना.’’ सजंय कहते हैं.
‘लोगों को न्याय दिलाने के लिए कलम भी चलाया और सड़क पर भी उतरा’
जिस रोज यह सूचना आई कि पेगासस की सूची में इनका नाम भी है. उससे एक दिन पहले ही औरंगाबाद के एसपी ने संजय को अपने ऑफिस में बुलाकर घंटों पूछताछ की थी.
संजय कई घटनाओं का जिक्र न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए करते हैं. वे बताते हैं, ‘‘औरंगबाद के डुमरिया में एक रेफरल अस्पताल है. रेफरल अस्पताल का काम मरीजों का इलाज करना है, लेकिन वहां सीआरपीएफ वालों का कैंप था. वहां इलाज नहीं होता था. जिन इलाकों में ठीक से इलाज की व्यवस्था नहीं है. उन इलाकों में एक अस्पताल को कैंप में बदल दिया जाए. यह बेहद हैरान करने वाली बात है. मैंने इस पर रिपोर्ट की. सिर्फ रिपोर्ट ही नहीं की उस समय बिहार विधानसभा के अध्यक्ष उदयनारायण चौधरी के सामने इस मामले को उठाया भी. इसका असर भी हुआ और वहां इलाज शुरू हुआ.’’
संजय औरंगाबाद जिले की एक और घटना का जिक्र करते हैं, ‘‘जिले में देव थाने के चीलमी गांव है. साल 2015 के आसपास की बात है. यहां सीआरपीएसफ वाले अपने अभियान पर थे. गांव की रहने वाली राजकुमारी देवी, जंगल में बकरी चराने और लकड़ी बीनने गई थीं. वहां उसका बलात्कार हुआ. इसका आरोप सीआरपीएफ के लोगों पर लगा. गांव वालों ने जब इस घटना का विरोध किया तो उनके साथ जोर जबरदस्ती हुई. मैं इस खबर को करने के लिए वहां गया. राजकुमारी देवी का इंटरव्यू करवाया. ज्ञापन लेकर गांव वालों के साथ जिले के सीनियर अधिकारियों से मिला. संघषों के बाद इस मामले में एक सिपाही, जिसका नाम अभी मैं भूल रहा हूं, को सजा हुई. उसे जेल भेजा गया. अगर मैं इस खबर को नहीं करता तो अन्य खबरों की तरह यह भी दब जाती. इस तरह की कई घटनाओं में काम किया.’’
संजय पर औरंगाबाद के मदनपुर थाने में एक एफआईआर भी दर्ज है. यह एफआईआर क्यों दर्ज की गई. इस सवाल के जवाब में संजय कहते हैं, ‘‘मदनपुर क्षेत्र के अलग-अलग गांवों, जैसे असुराइन, कोठवा, शाजहांपुर में सीआरपीएफ का अभियान चलता था. यहां रहने वाले भुईयां जाति के लोग हैं. मेरे पास खबर आई कि यहां लोगों को पकड़कर मार दिया जा रहा है. मरने वालों में अवधेश भुईयां और दूसरे लोगों का नाम था. मैंने वहां पहुंचकर रिपोर्ट की.’’
संजय आगे कहते हैं, ‘‘एक दिन की बात है कि गांव की कुछ लड़कियां लौट रही थीं तो सीआरपीएफ के लोगों ने उनपर फब्तियां कसीं और पकड़ने की भी कोशिश की. गांव वाले इस घटना के विरोध में सड़क पर उतर गए. प्रदर्शन कर रहे लोगों को पकड़कर स्कूल में बंद कर दिया गया. तो बाकी गांव वालों ने स्कूल को घेर लिया. मामला बड़ा बन गया. अंत में समझौते के तहत लोगों को छोड़ा गया. ये कहा गया कि इस मामले पर जांच करेंगे. लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं. फिर गांव के लोग मदनपुर थाने चले गए. दरअसल वे ब्लॉक में ज्ञापन देना चाहते थे. लेकिन कोई भी जब ज्ञापन लेने नहीं आया तो उन्होंने ब्लॉक को घेर लिया और जीटी रोड जाम किया. यहां भारी मात्रा में पुलिस पहुंची और फायरिंग की. जिसमें एक महिला की मौत हो गई. कई लोग घायल हुए. मैंने इस पर रिपोर्ट की. जिसका परिणाम यह हुआ कि बाद में सरकार ने अपनी गलती मानी और पीड़िता के परिजनों को मुआवजा दिया गया.’’
‘‘इस घटना के एक साल के बाद कुछ लोगों ने श्रद्धांजलि सभा का आयोजन किया था. पुलिस उन्हें गिरफ्तार करके एफआईआर दर्ज कर दी. इसमें मेरा भी नाम था. जबकि मैं उस रोज वहां मौजदू ही नहीं था.’’ संजय कहते हैं.
जासूसी में नाम आने से डर लग रहा?
आपका फोन नंबर जासूसी के लिए दिया गया था. आपको इसका कारण क्या लगता है? इस सवाल के जवाब में संजय कहते हैं, ‘‘इसका सही-सही जवाब तो सरकार ही दे सकती है, लेकिन मुझे लगता है कि मेरी खबरें और मैं जिन मुद्दों के लिए खड़ा होता हूं उससे सरकार को डर लगता है. आप देखिए कोरोना महामारी पर दैनिक भास्कर ने अच्छी पत्रकारिता की तो उनके यहां छापा पड़ गया. ऐसे ही मैंने भी जो जनपक्ष से जुड़े हुए मुद्दों पर रिपोर्टिंग की है तो आप कह सकते हैं कि इन्हीं वजहों से मेरी फोन टैपिंग हुई होगी.’’
आपको डर लग रहा है? इस पर श्याम कहते हैं, ‘‘इसमें डरने का क्या सवाल है. पत्रकारिता का धर्म हर हालत में मानवता के पक्ष में खड़ा होना और सच को उजागर करना है. अगर मैंने इस धर्म का पालन किया है और इस वजह से मेरी फोन टैपिंग हुई है. इसके अलावा दमन के अन्य रूप मेरे ऊपर इस्तेमाल हो सकते है. ऐसे में मेरे डरने का सवाल ही नहीं उठता है.’’
बीते 17 जुलाई को ही संजय श्याम से औरंगाबाद के एसपी ने उनके नक्सलियों से संबंध के अलावा कई दूसरे सवाल पूछे थे. इसपर संजय न्यूज़लॉन्ड्री से बात करते हुए कहते हैं, ‘‘मेरे तो दोनों फोन नंबर टैपिंग के लिए इस्तेमाल किए गए थे. अब तो सरकार के पास जानकारी होगी कि मेरा किससे क्या संबंध है. सरकार को यह बात बतानी चाहिए. जहां तक माओवादियों से संपर्क का सवाल है. यह बेबुनियाद है. मैं लोकतांत्रिक मूल्यों में भरोसा करने वाला इंसान हूं.’’
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